शोध आलेख : मुक्तिबोध की पूर्ववर्ती कविताएँ / यशपाल जंघेल

मुक्तिबोध की पूर्ववर्ती कविताएँ
- यशपाल जंघेल

शोध सार : आधुनिक हिंदी कविता में गजानन माधव मुक्तिबोध का अविर्भाव एक बहुत बड़ी घटना है। यह ऐसी घटना है, जिसकी छाप को काल का क्रूर प्रवाह भी नष्ट नहीं कर सकता। ऐसे साहित्य को ही कालजयी साहित्य कहा जाता है। आधुनिक हिंदी कविता में निराला के बाद मुक्तिबोध ही ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने कविता के बने-बनाए साँचे को बार-बार तोड़ा है। अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस, भूल गलती, चंबल की घाटी, लकड़ी का रावण, दिमागी गुहांधकार का ओरांग उटांग उनकी ये कविताएँ हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। इन कविताओं की चर्चा एवं आलोचना हिंदी साहित्य जगत में खूब हुई, लेकिन उनकी आरंभिक कविताओं की चर्चा अपेक्षाकृत कम हुई है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी पूर्ववर्ती कविताएँ कम महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि शिल्प के स्तर पर ये कविताएँ पाठकों को कमतर लगेंगी, लेकिन मुक्तिबोध की सर्जन-प्रक्रिया के पैटर्न को जानने व समझने के लिहाज से इन कविताओं का पुनरवलोकन निहायत जरूरी हो जाता है। उनके परवर्ती काव्य के प्लाट के रूप में उनकी आरंभिक कविताओं का अध्ययन दिलचस्प हो सकता है।


बीज शब्द : छायावाद, भावबोध, मार्क्सवाद, प्रगतिवाद, विचार, जनवादी, जनसंघर्ष, जिजीविषा, फैंटेसी, सौंदर्यशास्त्र, शिल्प, भाषा।

मूल आलेख : मुक्तिबोध भाषा के ऐसे कारीगर हैं, जिन्होंने शब्दों को बारूद की तरह इस्तेमाल किया है और समाज की नग्न सच्चाई को अपनी अनूठी कला के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। वे छायावादी संस्कारों से प्रभावित होकर भी छायावाद से अपना एक अलग रास्ता अख्तियार करते हैं। वे घोषित मार्क्सवादी होने के बाद भी मार्क्सवाद की सीमाओं का बार-बार अतिक्रमण करते नज़र आते हैं। वे प्रयोगवादी होकर भी प्रयोगवादी साँचे में फिट नहीं बैठते। वे नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर कहे जाते हैं, लेकिन नई कविता की रूढ़ मान्यताओं के चौखटे से बाहर आने का जोखिम भी लगातार उठाते रहे हैं। अपने समय के प्रचलित साहित्यिक मतवादों से ऊपर उठकर मुक्तिबोध अपना एक अलग ठाठ विकसित करते हैं, इसीलिए सुप्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा है– “मुक्तिबोध का ठाठ किसी से मिलता है तो सिर्फ कबीर से।’’1फैंटेसी के रहस्यलोक में विचरने के बावजूद वे यथार्थ की जमीन को नहीं छोड़ते। उनकी कविताएँ जितनी डरावनी व रहस्यमयी लगती हैं, उतनी ही वास्तविक जनजीवन के करीब भी रहती हैं।

मुक्तिबोध की संपूर्ण कविताओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। सन् 1935 से लेकर सन् 1956 के कालखंड में लिखी कविताएँ, जिन्हें पूर्ववर्ती काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। सन् 1957 अर्थात उनके राजनांदगांव आगमन से लेकर सन् 1964 की अवधि में लिखी कविताओं को परवर्ती काव्य के अंतर्गत रखा जा सकता है। मुक्तिबोध के मित्र एवं प्रसिद्ध कवि तथा आलोचक नेमीचंद्र जैन के संपादन में मुक्तिबोध रचनावली 6 खंडों में प्रकाशित हुई है। इसके खंड 1 में उनकी आरंभिक कविताओं को संकलित किया गया है। आरंभिक कविताओं को पुनः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला सन् 1935 से 1939 तक, दूसरा 1940 से 1948 तक और तीसरा 1949 से 1956 तक की अवधि में लिखी गई कविताएँ। मेरे विचार में मुक्तिबोध की संपूर्ण कविताओं को दो भागों में विभाजित तो कर सकते हैं, लेकिन विभाजन-रेखा भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्ष को रखा जाए, तो ज्यादा युक्तिसंगत होगा, क्योंकि आज़ादी के पहले और बाद की परिस्थितियों में काफी भिन्नता रही है। मुक्तिबोध की कविताओं में भी इसे महसूस की जा सकती है।

मुक्तिबोध की प्रारंभिक कविताओं की भाषा छायावादी कविताओं से मेल खाती है। उनके पूर्ववर्ती काव्य-लेखन को हम छायावादी संस्कार से प्रेरित कह सकते हैं, पर आक्रांत नहीं। वे छायावाद से केवल शिल्प और भाषा के स्तर पर ही प्रभावित रहे हैं, वो भी अंशतः, जबकि भावबोध के स्तर पर उनकी कविताएँ छायावादी जड़ता से सर्वथा मुक्त रही हैं। छायावादी युग में प्रचलित शब्दावली का भरपूर प्रयोग उनकी कविता में हुआ। निशि, आलिंगन, द्रुम, म्लान, उर, बाला, कपोल, विपिन, रजनी, निविड़, नीरवता, मधुसार, कालिमा, तारिका, संसृति, सुरभि, आलोड़न, माधुरी, तिमिर, कोकिल, प्याला, वीथी, मादकता, अभिसार आदि अनेक शब्द छायावाद के स्मृति-चिह्न की भाँति उनकी कविताओं में स्थान पाते हैं। प्रत्येक साहित्यकार अपनी परंपरा से ऊर्जा ग्रहण करता है। परंपरा से प्राप्त ऊर्जा को अपने विवेक से, अपनी आलोचनात्मक क्षमता से एक मुकम्मल जीवन दृष्टि प्रदान करना प्रत्येक महान साहित्यकार का गुण होता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य आलोचक टी एस इलियट ने अपने ग्रंथ ‘ट्रेडीशन एंड इंडिविजुअल टैलेंट(1920)’ में इसे विस्तार से दिखाया है। इलियट की दृष्टि में परंपरा, संस्कृति का वह अभिन्न अंग है, जिसे कवि अतीत के दाय के रूप में ग्रहण कर अपने वर्तमान का निर्माण करता है। तुलसीदास के सामने राम-काव्य की दीर्घ श्रृंखला विद्यमान थी। उन्होंने उस परंपरा से बहुत कुछ लिया। फिर भी तुलसी के काव्योत्कर्ष में कोई आँच नहीं आई। मुक्तिबोध ने भी वही किया है। छायावाद की रेखा जहाँ से धुंधली पड़ने लगती है, वहीं से मुक्तिबोध ने अपनी लेखनी उठाई है। ऐसे में छायावादी युग के ध्वंसावशेष उनके काव्य में दिख पड़ना स्वाभाविक है। ‘कोकिल’ शीर्षक कविता देखिए, जो ‘कर्मवीर’ पत्रिका में मार्च 1936 को प्रकाशित हुई थी-

“प्रिय-नाम कोकिल बोल री!
आज स्मृति के बंधनों में तू हृदय निज खोल री।
आज शूलों में बिंधा यह सुमन व्याकुल हास वाला
प्यास आँखों में भरी, तू यहाँ न पानी ढोल री।।’’2

प्रेम के विरह में व्याकुल वेदना छायावादी कविता का प्रमुख स्वर रहा है। महादेवी वर्मा के गीतों में तो एकमात्र यही स्वर रहा है। मुक्तिबोध की प्रारंभिक कविताओं की टेक भी यही विरह-वेदना रही है। पीले पत्तों के जग में, मरण-रमणी, मिलन लोक, स्वप्न का प्यार, समाधि, जीवन यात्रा आदि कविताओं में मुक्तिबोध ने महादेवी वर्मा की तरह विरह के गीत गाए हैं। उनके ‘पथ के दीपक’ गीत की तुलना महादेवी वर्मा के सुप्रसिद्ध गीत ‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ से करना दिलचस्प होगा-

“मेरे पथ के दीपक पावन
मेरा अंतर आलोकित कर
यदि तू जलता बाहर उन्मन
अधिक प्रखर जल मेरे अंदर”3

विरह वेदना की अनुभूति शुरुआती दौर की उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। भले यह वेदना लौकिक हो या अलौकिक। छायावाद की विरह-वेदना अधिकतर अलौकिक रही है, लेकिन मुक्तिबोध का प्रणय-निवेदन लौकिक न होकर छायावाद के समानांतर चलने वाली काव्यधारा वैयक्तिक कविता के करीब लगता है। इस वैयक्तिक कविता को हालावाद, प्रेम और मस्ती का काव्य, नव्य स्वच्छंदतावाद, उन्मुक्त प्रेम काव्य आदि संज्ञाओं से भी अभिहित किया जाता रहा है, जिसके पुरोधा हरिवंश राय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, भगवतीचरण वर्मा आदि कवि रहे हैं। इन कवियों ने जग के भय से पलायन की बात की है और एक भव्य कल्पनालोक का निर्माण किया है। पलायन की यह प्रवृत्ति छायावादी कविता की भी रही है। जगत के रोग-शोक से दुःखी होकर एक दूसरी दुनिया में जाने की मधुर कल्पना के रोमांच से लगभग सभी छायावादी कवि रोमांचित रहे हैं। ले चल भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे जयशंकर प्रसाद की इस प्रसिद्ध पंक्ति की भाँति ‘मरण-रमणि’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध लिखते हैं -

“मरण बन सखि, मम कणों से प्यार का आश्लेष कर री!
मधुर-अधर के इस स्पर्श में उस पार का संदेश भर री।”4

मुक्तिबोध ने कवि प्रसाद को बहुत पढ़ा था। हो सकता है पलायन की यह प्रवृत्ति प्रसाद के माध्यम से उन तक पहुँची हो। मुक्तिबोध ने कामायानी पर एक आलोचनात्मक ग्रंथ भी लिखा है- ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’। कामायनी के अंतिम सर्गों में मनु और श्रद्धा कर्म क्षेत्र से पलायन कर हिमशिखरों में आनंद की प्राप्ति हेतु जाते हैं। इन छायावादी प्रवृत्तियों से मुक्तिबोध उत्तरोत्तर मुक्त होते जाते हैं। उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावाद से समानता के साथ-साथ अलगाव स्पष्ट झलकता है। समय के साथ यह अलगाव या भिन्नता बढ़ती जाती है। माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘कर्मवीर’ पत्र में दिसंबर सन् 1935 में प्रकाशित उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है -

“मैंने कब श्रृंगार किया? कब दर्पण में अपना मुख देखा?
जीवन की जाग्रत असफलता में ही तो अपना सुख देखा।’’5

पूरी पंक्ति में ‘जाग्रत असफलता’ पद अलग से चमक रहा है। मुक्तिबोध का जीवन उनके काव्य से भिन्न नहीं रहा है। जीवन के कटु अनुभव, बेचैनी, ऐंठन, आत्म संघर्ष उनकी विलक्षण कला के साथ घुलकर कविता का एक सांद्र विलयन तैयार करते हैं। निराला की भाँति मुक्तिबोध का जीवन-संघर्ष उनके काव्य में बार-बार अभिव्यक्त होता है। उनके यहाँ जीवन और साहित्य में अंतर न के बराबर है। उनकी कविताओं में प्रकृति का स्थान सर्वोपरि रहा है। आरंभ से अंत तक उनके काव्य-संसार में प्रकृति उपस्थित रही है। प्रकृति-वर्णन की दृष्टि से उनका काव्य छायावादी काव्य से इस मायने में भिन्न है कि उनके यहाँ आई प्रकृति निर्जन नहीं है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके काव्य में चित्रित प्रकृति का संबंध मानव-जीवन से रहा है। ‘क्षितिज झुके’, ‘यह जंगल’ आदि कविताओं में प्रकृति के मोहक रूपों का चित्रण हुआ है, लेकिन उनकी अधिकांश कविताओं में प्रकृति के भयावह बिंब उपस्थित होते हैं।

मुक्तिबोध वैचारिक दृष्टि से सबसे अधिक मार्क्सवाद के निकट रहे हैं। उनके काव्य-लेखन के आरंभ में छायावाद के पुरोधा सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रगतिवाद की ओर मुड़ रहे थे। एक ओर जहाँ पंत युगांतर व युगवाणी लिखकर प्रगतिवाद की जमीन तैयार कर रहे थे, तो दूसरी ओर निराला वह तोड़ती पत्थर आदि कविता लिखकर प्रगतिवाद का रास्ता समतल बना रहे थे। पंत और निराला में एक बुनियादी अंतर यह है कि जहाँ पंत का प्रगतिवाद सैद्धांतिक अधिक है, वहीं निराला का प्रगतिवाद व्यावहारिक है। मुक्तिबोध ने निराला का रास्ता चुना। भाव और विचार की दृष्टि से वे भले ही निराला से प्रेरित रहे हों, लेकिन भाषा और शिल्प के स्तर पर वे निराला से भिन्न हैं। शोषित, उपेक्षित, दमित, दलित आमजन की पीड़ा की अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की कविताओं में हुई है। आमजन को कैसे सुखी बनाएँ? यही उनकी कविता की केंद्रीय चिंता है। वे इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे कि वैश्विक घटनाक्रम के अदृश्य सूत्र आम आदमी के सुख-दुख से जुड़े रहते हैं? वैश्विकता और लोकजीवन के अंतर्संबंध से वे भलीभाँति परिचित थे। मुक्तिबोध की कविता आम आदमी के खिलाफ हो रहे अत्याचार, अनैतिकता, बर्बरता और शोषण के खिलाफ अवश्यंभावी जनसंघर्ष का एक नया आख्यान रचती है। मुक्तिबोध का साहित्य गुदगुदाने और आनंद प्रदान करने वाला साहित्य नहीं है, अपितु वह बेचैन करने वाला साहित्य है। सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय उनके विषय में लिखते हैं –“मुक्तिबोध का साहित्य मनोरंजक नहीं है, आत्मतोष की चीज नहीं है, केवल आनंदानुभूति का साधन भी नहीं है, बल्कि वह संवेदनशील व्यक्ति की चेतना को बेचैन करने वाला और जनवादी संघर्षों को गति और शक्ति देने वाला साहित्य है।’’6

जिस तरह निराला ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘कुकुरमुत्ता’ में दिखाया है कि किस तरह गुलाब कुकुरमुत्ता के हिस्से का खाद-पानी हड़प कर पल्लवित, पुष्पित होता है। उसी तरह हंस पत्र में सितंबर 1945 को प्रकाशित कविता ‘बबूल’ में मुक्तिबोध ने बबूल को आम आदमी का प्रतीक बनाकर उसके जीवन संघर्ष को दिखलाया है-

“वह बबूल भी
दुबला धूल भरा, अप्रिय सा, सहज उपेक्षित
श्याम, वक्र अस्तित्व लिये वह रंक तिरस्कृत,
अपमानों को मौन झेलता चिर-अपमानित,
पथ के एक ओर चुपचाप खड़ा है।’’7

बबूल को आमजन का प्रतीक बनाकर हिंदी साहित्य में लिखी गई यह एक अनूठी कविता है। प्रकृति के रूखे, बेडौल और प्रायः असुंदर कहे जाने वाले उपादानों के बिंब मुक्तिबोध के यहाँ बहुतायात में उपलब्ध होते हैं। बबूल के माध्यम से मुक्तिबोध एक नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं। इस बबूल कविता में खेतों में काम करते होरी और धनिया भी दिख पड़ते हैं। जहाँ प्रेमचंद के होरी गोदान के अंत में मृत्यु-शैया में पड़े रहते हैं और धनिया पछाड़ खाकर गिर पड़ती है। वहीं मुक्तिबोध को उम्मीद है कि होरी और धनिया जैसे आमजन की सफेद हड्डियों से ही एक भयंकर वज्र बनेगा, जिससे शोषण के चक्र का अंत होगा-

“आह त्याग की उत्कट प्रतिमा होरी महतो भोली धनिया
जाग रहे हैं
काम कर रहे हैं अब भी अपने खेतों में
उनकी श्वेत अस्थियों से इस युग का वज्र बनेगा भयंकर।’’8

मुक्तिबोध मानवता के पक्षधर कवि हैं। उनकी कविता मानव के अंदर छुपी पाशविकता के खिलाफ हमेशा से खड़ी रही। उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर उनकी अंतिम कविता ‘अंधेरे में’ तक अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ जन-विद्रोह की ताप महसूस की जा सकती है। उनके काव्य में अस्मिताबोध, प्रतिरोध और संघर्ष के तत्व केवल मार्क्सवाद के अध्ययन से नहीं आया है, अपितु अनुभव जगत से यह चेतना उनमें आई है। उनका अध्ययन-क्षेत्र विस्तृत था। भारतीय और पाश्चात्य चिंतन से वे भी भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने अपने ज्ञान के बीज को स्व-अनुभव के धरातल पर विकसित, पल्लवित और पुष्पित करके एक नई जीवन दृष्टि का वृक्ष तैयार किया है। आज अमीर और अमीर होते जा रहे हैं तथा ग़रीब और ग़रीब। इन सबके बीच समाज के बुद्धिजीवी जो मध्यवर्ग से आते हैं, वे सरकारी आंकड़ों को देखकर खुश होते रहते हैं। देश की वास्तविक स्थिति का अंदाजा विश्व के अरबपतियों की सूची को देखकर नहीं लगाया जा सकता। सत्ता और व्यापारी वर्ग के गठजोड़ ने विकास के नाम पर प्रकृति, आदिवासी, दलित और समाज के पिछड़े तबकों के साथ कैसा क्रूर मजाक किया है, इसका पता सिर्फ उन इलाकों में जाने से ही चल सकता है।

मुक्तिबोध की कविताएँ राजनीतिक चेतना से आप्लावित हैं। उन्होंने अपनी कविता और आलोचना में प्रत्येक साहित्यकार में राजनीति की समझ का होना जरूरी कहा है। लोक-संस्कृति और पर्यावरण के विनाश के पीछे की राजनीतिक साज़िश की ओर उन्होंने बार-बार इशारा किया है। चर्चित कवि और आलोचक चंद्रकांत देवताले ने अपनी आलोचनात्मक कृति ‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन-विवेक’ में उनके बारे में लिखा है- “मुक्तिबोध की राजनीतिक-चेतना पीड़ा भरी विवेक-दृष्टि से रूपांतरित होकर मनुष्य की सामूहिक मुक्ति का उच्चार करती है।’’9 सचमुच मुक्तिबोध की मनुष्य की मुक्ति की अवधारणा वैयक्तिक के स्तर पर न होकर सामूहिक स्तर पर आधारित है। उनकी राजनीतिक-चेतना नागार्जुन, धूमिल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कुंवर नारायण आदि कवियों से भिन्न है। उनकी कविताएँ राजनीतिक घटनाक्रमों का स्थूल ब्यौरा न होकर आम आदमी जिसे मतदाता कहा जाता है, के खिलाफ शोषक वर्ग की कारगुजारियों का थ्री-डी स्केच है। हालाँकि उनकी कविताएँ लाउड नहीं हैं, लेकिन कुछ आरंभिक कविताएँ लाउड कही जा सकती हैं-

“राजनीति-साहित्य क्षेत्र भी
महा शूकरों का है एक तमाशा
यद्यपि बोली जाती मुँह से
भारतीय संस्कृति की भाषा”10

मुक्तिबोध को तार-सप्तक में शामिल होने के कारण प्रयोगवादी काव्यधारा का कवि मान लिया जाता है, जबकि यह पूरा सच नहीं, अधूरा सच है। वह हमेशा प्रयोगवादी और नई कविता-धारा की परिधि में ही रहे हैं। उनकी अधिकतर कविताएँ प्रयोगवादी मान्यताओं को चुनौती देती दिखलाई पड़ती हैं। वैयक्तिकता के प्रति अतिरिक्त आग्रह, जड़बुद्धिवाद, अति रूपवाद, प्रयोगवाद की इन प्रवृत्तियों का विरोध उनकी कविताओं में हुआ है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्रयोगवाद का पर्यवसान नयी कविता में हो गया। नयी कविता के अंदर भी दो धाराएँ एक साथ विद्यमान थीं। एक धारा बुद्धिवाद, अतिशय वैयक्तिकता और अतिरिक्त कलात्मक सजगता को लेकर साथ चली, जिसके प्रवर्तक अज्ञेय हुए और दूसरी धारा साम्यवाद, जनवादी और प्रगतिशील आस्था को लेकर चली, जिसके प्रवर्तक मुक्तिबोध हुए। आगे चलकर त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, धूमिल आदि कवि इस उत्तर प्रगतिवादी धारा के प्रवक्ता हुए। साहित्य में ऊपर से ओढ़े हुए बुद्धि-तत्व की आलोचना सभी महान साहित्यकारों ने की है। महाकवि सूरदास ने गोपियों के माध्यम से उद्धव की बुद्धिवाद की खिल्ली यह कहकर उड़ाई है-

“आए जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टाँड़े।’’11

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपने कालजयी उपन्यास गोदान में मेहता के मुख से कहलवाया है- “वह ज्ञान जो मानवता पीस डालें ज्ञान नहीं कोल्हू है।’’12 हजारीप्रसाद द्विवेदी को यह पंक्ति बहुत पसंद थी। वे इसे बार-बार दोहराते थे। इसीलिए उन्होंने अपने निबंध अशोक के फूल में ‘पंडिताई को बोझ कहा है।’13 इधर कवि मुक्तिबोध ने लिखा है-

“पान्थ है प्यासा थकासा धूप में,
पीठ पर ही ज्ञान की गठरी पड़ी।
झुक रही है पीठ बढ़ता बोझ है,
यह रही बेगार की यात्रा कड़ी।’’14

व्यक्ति के व्यवहार में सहृदयता और संवेदनशीलता के स्थान पर बनावटीपन, कृतिमता और जटिल बुद्धिवाद वाकई में आलोचना का पात्र है। मुक्तिबोध ऐसे व्यक्ति की जीवन-यात्रा को बेगार की यात्रा कहते हैं। ऊपर से देखने पर मुक्तिबोध गुस्से के कवि नजर आते हैं, लेकिन जब हम गहराई में जाकर छानबीन करते हैं, तो उनके इस गुस्से के तल में अथाह करुणा का सागर उमड़ता दिखाई देता है। आम आदमी के प्रति उनके अपनत्व-भाव के कारण ही उनका गुस्सा शोषक वर्ग के लिए पनपता है। उनकी कविताओं में आए संघर्ष के विविध दृश्य निराशा, हताशा को प्रोत्साहित नहीं करते, अपितु उम्मीद की ज्योति प्रज्वलित करते हैं। आस्था और विश्वास के स्वर उनकी कविता की मूल संवेदना है। घोर निराशा के क्षणों में भी वे उम्मीद का दरवाजा बंद नहीं करते। उन्हें हमेशा यह विश्वास रहा है कि समय कितना भी खराब हो, वह बीत ही जाएगा। मानव की संघर्षशील क्षमता में उनका अगाध विश्वास रहा है। दुनिया के नष्ट होने की तमाम आशंकाओं के बावज़ूद उसके बचे रहने के पर्याप्त कारण भी मौजूद हैं। ज़माने में बुरे लोग हैं, तो अच्छे लोग भी हैं। औरों की तरह कवि मुक्तिबोध ज़माने को बुरा नहीं, अपितु विलक्षण कहते हैं -

“ज़माना बुरा नहीं केवल विलक्षण है
मनुष्य के सौजन्य-कारण ही
चाँद है, सूर्य है, लोग हैं व हम-तुम हैं।’’15

मनुष्य की जिजीविषा के प्रति उनकी यह आस्था अंत तक कम नहीं हुई। अपनी अंतिम कविता, जो ‘अंधेरे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, उसमें भी वे दुर्गम पहाड़ों को पार करके अरुण कमल लाने की बात करते हैं, लेकिन इससे पहले सन् 1955 में लिखी अपनी कविता ‘कमल तोड़ लाउँगा’ में वे कहते हैं-

“मैं कमल तोड़कर लाउँगा
है दूर पहाड़ों पार
सरोवर में,
जादू का एक कमल
मैं उसे तोड़कर लाऊंगा।’’16

उनकी आरंभिक कविताएँ, उनकी परवर्ती कविताओं के प्लाट का काम करती हैं। अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस जैसे सुप्रसिद्ध कविताओं की कुछ पंक्तियों की चमक हमें उनकी बहुत सी पूर्ववर्ती कविताओं में दिखलाई पड़ती है। उनके काव्य की विकास-प्रक्रिया के अध्ययन की दृष्टि से उनकी पूर्ववर्ती कविताओं का अध्ययन निहायत जरूरी है। दरअसल उनका आरंभिक काव्य उनके कालजयी परवर्ती काव्य की पूर्व-पीठिका है। ‘क्रांति’ शीर्षक उनकी कविता को ‘अंधेरे में’ वर्णित जन-विद्रोह के दृश्य के साथ मिलाकर पढ़ने में काव्य के अर्थ का एक नया आयाम खुलता है-

“वर्षा अनुकूल मेघ के नीचे
उत्साहित बालक के मन सी
नाच-नाच उठती निर्झरियाँ
रक्तिम अंतरज्वालाओं की।’’17

निष्कर्ष : केवल भावबोध के स्तर पर ही नहीं, अपितु भाषा के स्तर पर भी उनकी पूर्ववर्ती काव्य-पंक्तियाँ उनके परवर्ती कविताओं के निकट बैठती हैं। उनकी परवर्ती कविताएँ जो ‘चाँदका मुँह टेढ़ा’ काव्य-संग्रह में सन् 1964 में प्रकाश में आईं, उनकी आलोचना, समीक्षा जिस संजीदा ढंग से हुई है, उसी ढंग से उनके पूर्ववर्ती कविताएँ, जिसमें से कुछ कविताएँ‘ भूरी भूरी खाक धूल’ (1980) नामक काव्य संग्रह के माध्यम से और कुछ कविताएँ मुक्तिबोध रचनावली के माध्यम से आईं, की आलोचना, समीक्षा की जानी चाहिए। उनकी बहुत सारी गुमशुदा कविताएँ मुक्तिबोध के सुपुत्र रमेश मुक्तिबोध और नेमीचंद्र जैन के अथक प्रयास से हमारे सामने आई हैं। हिंदी साहित्य जगत में उनके पूर्ववर्ती काव्य के अध्ययन से कवि की सृजन-प्रक्रिया को समझने में बहुत मदद मिलेगी और मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के संबंध में भी नये-नये तथ्यों का उद्घाटन होगा।

संदर्भ :
1.रामस्वरूप, चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन :नई दिल्ली,संस्करण 2000, पृष्ठ 201.
2. मुक्तिबोध, मुक्तिबोध रचनावलीभाग1(सं.- नेमिचंद्र जैन),राजकमल प्रकाशन :नई दिल्ली, संस्करण 1986, पृष्ठ 57.
3. वही, पृष्ठ 97.
4. वही, पृष्ठ 58.
5. वही, पृष्ठ 50.
6. मैनेजर, पांडेय, शब्द और कर्म,वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ 218.
7. मुक्तिबोध, मुक्तिबोध रचनावलीभाग 1(सं.- नेमिचंद्रनेमीचंद जैन), राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली,संस्करण 1986, पृष्ठ 175.
8. वही, पृष्ठ 177.
9.,चंद्रकांत, देवताले, मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक, वाणी प्रकाशन :नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ 103.
10. मुक्तिबोध, मुक्तिबोध रचनावलीभाग 1(सं.- नेमिचंद्र जैन), राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली,संस्करण 1986, पृष्ठ 222.
11. सूरदास, भ्रमरगीत सार(सं.- रामचंद्र शुक्ल),लोकभारती प्रकाशन :इलाहबाद, संस्करण 2012, पृष्ठ 70
12. प्रेमचंद, गोदान,अनुभव पब्लिशिंग हाउस :इलाहाबाद, संस्करण 2014, पृष्ठ 157.
13. हजारीप्रसाद द्विवेदी, अशोक के फूल, लोकभारती प्रकाशन: इलाहाबाद, संस्करण 2013, पृष्ठ 16.
14. मुक्तिबोध, मुक्तिबोध रचनावलीभाग 1(सं.- नेमिचंद्र जैन), राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली, संस्करण 1986, पृष्ठ 112.
15. वही, पृष्ठ 392.
16. वही, पृष्ठ 381.
17. वही, पृष्ठ 160.

यशपाल जंघेल
शोधार्थी, हिंदी विभाग, शासकीय दानवीर तुलाराम स्नातकोत्तर महाविद्यालय उतई, जिला दुर्ग (छ. ग.)

शोध निर्देशक –
डॉ. रीता गुप्ता
सहायक प्राध्यापक, हिंदी शासकीय दानवीर तुलाराम स्नातकोत्तर महाविद्यालय उतई, जिला दुर्ग (छ. ग.)


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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