चीकू के बीज : शतरंज की मोहरें / रोशनी

शतरंज की मोहरें
- रोशनी

हमारे समाज में महिलाओं को सफर करने की ज्यादा छूट नहीं है। महिलाएं अपने ससुराल और पीहर तक या उनसे जुड़े हुए रिश्तेदारों तक ही यात्रा करने के लिए आजाद हैं। लड़कियों की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है। लड़कियां घर से स्कूल और स्कूल से घर तक की यात्राएं करती हैं। कई तरह की नजरें हम पर लगी रहती हैं। सीसीटीवी कैमरे तो बेचारे अब आए हैं। हमारे ऊपर तो घर, मोहल्ले, रिश्तेदारों के कैमरे सदियों से लगे हुए हैं। इन कैमरों से दूर निकल पाने का अवसर कम ही मिल पाता है। ऐसा ही एक मौका मुझे भी शतरंज की टूर्नामेंट में भाग लेने की दरमियान मिला। सुनेरा नामक गांव में हमें जिला स्तरीय शतरंज प्रतियोगिता में खेलने के लिए जाना था। इसी प्रतियोगिता में हमारे स्कूल के कुल 6 विद्यार्थी भाग लेने के लिए गए। 4 लड़कियां और 2 लड़कें। रश्मि, सोनिया, कोमल और मेरे अलावा सूर्य वीर और तिलक कुमार। हमारे स्कूल से लड़कियों की टीम पहली बार खेलने के लिए निकली थी। हम सभी सुबह 7:00 बजे बस में चढ़ गए। भीड़ थी, इसीलिए खड़ा रहना पड़ा। कंडक्टर बार-बार बोल रहा था पीछे चलो, पीछे। थोड़ी देर बाद कंडक्टर आया और हमसे किराया मांगा तो हमने 30-30 रुपए आगे बढ़ा दिए। उसने हमारी यूनिफॉर्म देखकर अजीब सा मुंह बनाया और चलता बना। बस में सन्नाटा था। हम बस का ज्यादा सफर नहीं किए हुए थे इसीलिए हमने सोचा कि शायद बस में चुप रहना होता है, इसीलिए हम भी चुपचाप बैठ गए। जब थोड़ी देर बाद सभी बोलने लगे तब मुझे भी एहसास हुआ कि यहां बोल भी जाता है। मैं खड़ी-खड़ी एक लड़की को देख रही थी जो सीट पर बैठी हुई लगातार अपने फोन पर नजर जमाएं हुई थी। थोड़ी देर बाद वह लड़की उठी तो लपक कर सीट पर बैठ गई और अपने साथियों के लिए भी बैठने की व्यवस्था कर दी। रायगढ़ के चौराहे पर हम उतरे, वहां पर हमारे कबीर सर पहले ही खड़े थे जो हमारी टीम को लेकर जा रहे थे। सर एक व्याख्याता हैं जो अक्सर हम विद्यार्थियों के लिए खेलने के मौके तलाशते रहते हैं। आगे के सफर के लिए सर ने हमारे लिए ऑटो रिक्शा कर रखा था और खुद बाइक पर हमारे पीछे-पीछे आए। ऑटो अब रायगढ़ की गलियों में घूम रहा था। लंबे घुमावदार रास्तें और अजीब-अजीब तरह की दुकानें। इन सबको पार करते हुए हम एक हाईवे रोड पर आए। पांच-सात किलोमीटर चलने के बाद फिर एक छोटा पतला रोड आया जिस पर हमें आगे का सफर तय करना था। इस रोड की हालत देखकर हमें लगा जैसे सालों की मार से इसमें बड़े-बड़े घाव पड़ गए हैं और घावों की पीड़ा से करहा रहा हो। कभी लगता कि हम रिक्शा के ऊपर बैठे हैं, कुछ देर में रिक्शा हमारे ऊपर बैठ जाएगा और कभी ऐसा भी लगता कि रिक्शा हमारा तिरस्कार कर उछाल कर बाहर फेंक देगा। टूटी-फूटी सड़क का यह 10 किलोमीटर का सफर बहुत लंबा लगा।

आखिरकार हम खोजते-खोजते सुनेरा गांव पहुंच ही गए। अब ज्यादा चौंकाने वाली स्थिति यह थी कि छोटे से स्कूल में टूर्नामेंट कैसे होंगे और हमारे रहने की व्यवस्था कैसे बैठ पाएगी? देखकर हम बहुत परेशान हुए। वहां का माहौल देखकर हमें बहुत अटपटा लगा। किसी को भी यहां का माहौल पसंद नहीं आ रहा था इसीलिए हम चुपचाप एक तरफ जाकर खड़े हो गए। कबीर सर ने हमें चुपचाप देखकर कहा कि जो भाई जान पहचान करो, लोगों से मिलो। चलो ऐसे अकेले खड़े क्यों हो? जब हम बुत की तरह खड़े ही रहे तो सर ने हमें एक टेंट के नीचे चलने का इशारा किया। वहां बैठी कुछ लड़कियों से हमारी दोस्ती करवानी चाही। सर ने उनसे पूछा, “आप लोग कहां की हो बेटा। लड़कियों ने जवाब दिया, “मेणा अटा कीस हां ओ सर।”

“वा तो माकी छ्योरयाँ न भी हंड राक ज्यो।”

उन लड़कियों के साथ हम बातचीत कर ही रहे थे कि एक दमदार आवाज में हमारा ध्यान उसे और खींचा,

"कटे बल्ळयो अतरी देर थू। मने कई निंगे तु कई कर रह्यो हो अतरी देर। सेटिंगा बणातो फर्यो हो हे कटी थू। काल भी तु मोटरसाइकिल ले न ग्यौ हो जो हगळा तेल न नटा फछ आयो थू। " इस भयानक दहाड़ को सुनकर पहले तो हम डर गए पर जब सारा माजरा समझ में आया तो हम खूब जोर-जोर से हंसे। असल में यहां के पीटीआई साहब वॉलंटर लड़के को डांट रहे थे। कुछ देर बाद उद्घाटन समारोह शुरू हुआ जिसमें वही रूढ़िवादी प्रोग्राम चल रहे थे जो हमेशा बोर करते हैं। बोरियत दूर करने के लिए जब हमने पास में बैठी लड़कियों से बातचीत करना चाहा तो उन लड़कियों ने बहुत ही रुखे ढंग से हमारे साथ बर्ताव किया।

हमारे खेल शुरू होने के लिए 2:00 का समय निर्धारित किया गया था, पर मैच शुरू होते-होते 4 बज गए थे। टूर्नामेंट में स्कूल केंपस अव्यवस्थाओं से भरा हुआ था। किस खिलाड़ी को कहां बैठता है, उसकी टेबल कहां है, टीचर कहां है, ऐसी कई कमियां अंतिम समय तक दिख रही थी। मुझे भी मेरी सीट नहीं मिल रही थी, पर हमारे सर के बताने पर मैं एक जगह पर जाकर बैठी तो देखा कि वहां पर एक लड़का बैठा है। वहां के मेच रेफरी ने आकर के कहा कि यहां सिर्फ लड़कियां खेल रही है, लड़के दूसरी तरफ खेल रहे हैं। तो मेरे सामने बैठे हुए शख्स ने कहा कि सर में लड़की ही हूं और मेरा नाम परी है। उसके पहनावे को देखकर मुझे बड़ा ताजुब हुआ कि यह लड़की बिल्कुल लड़के जैसी लगती है। उसी के तरह बाल और उसी की तरह के कपड़े पहने हुए हैं। अगर हमारे गांव में ऐसी कोई लड़की दिख जाती है तो उसकी इंसल्ट करने में कोई पीछे नहीं रहता।

पहले दिन मैं, रश्मि और कोमल जीत गए जबकि हमारी साथी सोनिया हार गई थी। मैंने पापा को अपनी जीत की बात बताई तो पापा ने कुछ नहीं कहा, पर मुझे इतना जरूर मालूम है कि हार जाती तो उनकी तरफ से मुझे डांट जरूर पड़ती। सोनिया के पिताजी मेरे ताऊजी ही लगते हैं। उनका भी फोन आया तब मैंने झूठ बोल दिया कि वह अभी खेल रही है। क्योंकि मैं जानती थी कि ताऊजी सोनिया को डाटेंगे। कितना बुरा लगता है जब कोई खूब मेहनत करता है और उसके बाद भी हार जाता है और उसके बदले में परिवार वाले हिम्मत बंधाने की जगह डांटते है तब।

हमारे रहने की व्यवस्था गांव में ही कर दी गई। सर लड़कों के साथ अलग घर में रुके जबकि हमें एक खडूस मैडम के साथ दूसरे घर में रहने के लिए भेज दिया। यह जाटों का घर बहुत बड़ा था और खूबसूरत भी। अंदर जाने पर पता चला कि जिन लड़कियों ने हमारे साथ बदतमीजी की थीं, वे लड़कियां भी हमारे साथ ही है। अब आगे के चार दिन इन्हीं खडूस के साथ हमें रहना था। खाना खाते वक्त भी उन्हीं के साथ रहना था। सुबह गुलाब जामुन मिले तो हम बहुत खुश हुए, पर शाम के समय तो ठंडी पुड़िया ही नसीब हुई। क्या करें जो कुछ भी मिला, खा लेने में ही भलाई समझी। हमारे साथ की लड़कियां एक्स्ट्रा होशियार बनने की कोशिश कर रही थी। वे हमें देख-देख कर शुद्ध हिंदी में बातें कर रही थी जबकि हम तो ठेठ राजस्थानी में बातें करने में मस्त थी। उन लड़कियों की एक बात ने मेरा ध्यान उनकी ओर खींचा। उनमें से एक लड़की अपने साथी लड़कियों को बुलाते हुए कहती है, " हम तो इस तरफ एक पाल्डे बैठ जाते हैं।" अरे! यह किस तरह की हिंदी है? हम बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी को रोक पाए, पर यह ज्यादा देर तक नहीं चला। उनकी एक साथी को जब छींक आई तो उन्हें में से एक लड़की उसे डांटे हुए कहती है, " ऐसे क्या लल्डी की तरह छिकती है? " अब तो हंसी रोकना असंभव था। हम सभी खाना भूल कर जोर-जोर से हंसने लगे।

हम जब भी उसे घर में जाते तब हमें लगता है कि हम किसी पिंजरे में जा रहे हैं। क्योंकि वहां पर कई तरह की पाबंदियां थी। उस दिन जब हम शाम को पानी पीने के लिए बाहर बरामदे में रखे घड़े से पानी पीने लगे तो एक औरत ने पूछा, "किस समाज के हो? " हमने कहा, "हम कुमावत हैं।" पर हमारी साथी कोमल बोल पड़ी, “नहीं, मैं बलाई हूं।“ कोमल के जवाब पर उसे औरत ने उत्तर दिया कि इस लड़की को तुम बोतल में पानी भर कर पिला देना, मटके के हाथ मत लगाने देना इसको। मटके से हमने पानी पिया और कोमल को भी पिला दिया लेकिन यह सब करते हुए मन बहुत भारी हो गया था। खुले तौर पर हो रहे इस भेदभाव को हमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। क्या करते ऐसा तो हम हमारे गांव में भी रोज ही करते हैं। यह ऊंच नीच की गंदगी हमें हमारे समाज से मिली और मजबूरन हम भी इसे निभाते हुए चले जा रहे हैं।

अगले दिन जल्दी उठकर जब हम सर के पास गए तो देखा कि सर तो अभी तक सो रहे थे। उन्हें जगा कर थोड़ी देर बाद वापस उनके कमरे पर गए तो हम उनके साथ गांव के भ्रमण के लिए निकल पड़े। यहां अधिकतर गांव बहुत बड़े-बड़े घरों से घिरा हुआ है। चारभुजा नाथ का मंदिर भी यहां था। मंदिर देखकर हमने अंदर जाने का मन किया लेकिन तभी हमारे सर जो एक मुस्लिम थे बोल पड़े आप लोग जाओ बेटा, आजकल मुझे मंदिर में जाने में डर लगता है। मैंने पूछा क्यों सर? उन्होंने बताया कि आज के 10-5 वर्षों पहले मंदिरों में जाया करता था, परंतु अब जाना मेरे लिए आसान नहीं है। धार्मिक कट्टरता इतनी बढ़ गई है की छोटी-छोटी बातों को लेकर मरने-मारने को लोग तैयार हैं।“ उस समय तो मुझे उनकी पीड़ा का एहसास नहीं हुआ लेकिन आज जब लिख रही हूं तो ऐसा भावों का सागर उमड़ रहा है कि आंखें भर आ जाती है।

गांव घूमते-घूमते हम लोग नदी के किनारे की ओर चल पड़ें। दूर से देखने पर पता चला कि नदी में पानी विशेष नहीं बह रहा है। पर जब पास में गए तो देख कर मैं बोल पड़ी, “अरा थारिका! या नदी तो आपनी नदी मुं डबल है।" सोनिया भी आश्चर्यचकित होकर कहने लगी, “अतरो पाणी!”

वहां कुछ सेल्फी लेकर वापस आते वक्त हम हमारे प्रिंसिपल साहब को याद करके खूब हंसे। हमारे प्रिंसिपल साहब रूढ़िवादी स्वभाव के हैं। कोई भी नया कार्य उनको अच्छा नहीं लगता है। हमें कहते हैं, “तुम्हारा मुख्य उद्देश्य पढ़ाई है, इसीलिए खेलने और घूमने पर ध्यान मत दो।” अगर कोई खिलाड़ी खेलने के लिए गया और हार गया तो अक्सर उसे डांटे हुए कहते हैं कि, “भोंदू! क्या मिला खेलकर? अगर इतने दिन पढ़ाई में लगता तो कुछ सीखता।“ बातों ही बातों में रश्मि बोली, “प्रिंसिपल सर के अनुसार तो अगर हम यहां न आते तो इन दो-तीन दिनों में हमारी नौकरी जरूर लग जाती है।” रश्मि के इस कारतूस पर हमने खूब ठहाके लगाएं।

दिन भर कार्यक्रम की प्रक्रिया चलती रही। आज खाने में दाना-पुरी थे। लेट-लतीफी का आलम आज भी जारी था। आज हम लोग लगातार दो-दो मैच जीतने में सफल रहे। हमारे सामने खेलने वाले खिलाड़ी राज्य और राष्ट्रीय स्तर के थे। हमें डर तो बहुत लग रहा था, पर इसी डर के भीतर कहीं न कहीं हमारा विश्वास भी साथ दे रहा था। रश्मि आज का अपना अंतिम मैच हार गई। मैच से बाहर आते ही रश्मि नाचते हुए बोली, “सर मैं तो हार गई।“ अपने हार की घोषणा करने के इस अंदाज ने हमें ठहाके लगाने पर मजबूर कर दिया। हंसते हुए कबीर सर ने कहा, “रश्मि हारने के बाद बोलना सीखी।“ हां! यह बात तो सच है। सभी में से सबसे कम बोलने वाली रश्मि ही थी।

अगला दिन हम सभी लड़कियों के लिए बहुत खराब रहा, क्योंकि तीसरे दिन के सारे मैच हम हार गए थे। केवल कोमल ही लगातार जीतती रही। अब इस हार को सेलिब्रेट करने के लिए सर ने घूमने का प्लान बनाया और शाम को हम लोग अनामपुर की तरफ पड़ने वाले पुलिये की तरफ घूमने निकल गए। वहां जाकर के हमने खूब मस्ती की। कभी नदी में पत्थर फेंक तो कभी पानी में छप-छप की। अगले दिन हमारे स्कूल के लड़के भी मैच नहीं जीत पाए। इस दिन समापन समारोह भी था इसीलिए जल्दी फ्री हो जाने के बावजूद हमें शाम तक रुकना ही पड़ा। दोपहर को खाने में मावे की चक्की और पूरी सब्जी के साथ नमकीन भी थी। मजे से खाना खाकर हम समापन समारोह में पहुंचे। वहां पर स्थानीय लड़कियों के साथ बैठ कर हमने खूब गप्पे लड़ाई और खूब हंसी के ठहाके लगाए। विजेता रहे लड़कों को जब इनाम दिए जा रहे थे तो एक बहुत मोटा लड़का उठा। संचालन कर्ता ने कहा कि जल्दी भाग कर आओ, पर उससे चला भी नहीं जा रहा था। उसकी इस हालत को देखकर एक स्थानीय ग्रामीण बोला, “कटु दौड़न्या आई? ओ मारा नकु पाँच चक्कियाँ मांगी ही। मु इको सरीर देख दस मेल दी। अब पेट मोटो हो ग्यो, इ बात चालण्या न आ रह्यो।“ पूरा पांडाल जोर-जोर से हंसने लगा। जैसे ही हुरड़ा टीम के विद्यार्थी का नाम पुकारा जाता तो शरारती लड़कों का झुंड जोर-जोर से बोलना शुरू कर देता है, “ हुड़ा, हुड़ा, हुड़ा “ यानी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले तोते को वे लोग उड़ा रहे हैं। यह भी कम मजेदार नहीं था।

हमारी स्कूल टीम के सभी अंक मिलकर के तृतीय स्थान पर रही। पहली बार ही हमारी टीम किसी भी प्रकार का खेल खेलने के लिए बाहर आई थी। हमारे लिए यह उपलब्धि किसी से कम नहीं थी। मन में अफसोस था कि कोमल का सिलेक्शन नहीं हो सका, क्योंकि उसके बराबर अंक लाने वाले दूसरे विद्यार्थियों का सिलेक्शन हो गया था, पर कुछ तकनीकी नियमों के चलते वह छठे स्थान पर ही अटक गई। यानी टॉप फाइव में जगह नहीं बन पाई। हम लोग अपना तृतीय स्थान वाला पुरस्कार लेने के लिए उठे, लेकिन सूचना मिली कि थर्ड रहने वाली टीम को इनाम नहीं दिया जाएगा। हम जल भुनकर रह गए। इसके अलावा गुस्सा और भी बढ़ता जा रहा था क्योंकि संचालन करने वाले अपनी नेतागिरी चमकाने के चक्कर में हम लोगों को बहुत लेट कर रहे थे।

आखिरकार समारोह खत्म हुआ और हमें हमारे सर्टिफिकेट वितरित कर दिए गए। एक तरफ अंधेरा बढ़ रहा था दूसरी तरफ हमारी धड़कनें बढ़ रही थी, क्योंकि समय पर पहुंचना बहुत जरूरी था। हमें आखिरी बस पकड़ने की लगी हुई थी। दूर दराज के गांव में रहने वाले हम लोग बिना बस के कैसे जाएंगे? यह चिंता अलग से सता रही थी। दौड़ते भागते हम लोग आखिरकार बस पकड़ने में सफल रहे। बस में बिठा कर कबीर सर ने हमसे विदा ली। पर अगले ही चौराहे पर वापस जहां बस रुकी, वहां सर हमारे लिए जलेबियों का पैकेट हमारे हाथ में थमा कर बोले कि जैसे ही बस से उतरों, पापा के फोन से मुझे कॉल जरूर करना।

इस तरह हम सभी समय पर घर पहुंच गए। मेरे भाई बहन दौड़ कर मेरे पास आए और मुझसे लिपट गए। यह पहली बार था जब अपने रिश्तेदारों के अलावा किसी अन्य जगह पर इतने दिन मैंने कहीं निकाले होंगे। घर पहुंच कर मम्मी को बहुत सारी बातें बताई। मम्मी को बताया कि घर पर मैं कितनी गहरी नींद में सोती हूं, यह तुम जानती हो। चाहे मुझे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह सुला दो, तब भी नहीं जागती हूं। पर पिछले चार दिन तक मैं ठीक तरह से नहीं सो पाई। आज की रात सारे घोड़े बेच कर चैन से सोऊंगी। इन सब के बीच मुझे मम्मी की वह बातें हैं बहुत याद आती हैं जब यह रोज फोन लगाकर मुझे कहा करती थी, “होशियार रहना, लड़की हो, बड़ी हो गई हो और पहली बार बाहर निकल रही हो।” मैं सोचती हूं कि क्या मैं लड़का होती तो भी मम्मी यही बात कहती?

रोशनी (बदला हुआ नाम)
कक्षा 11 की छात्रा

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

3 टिप्पणियाँ

  1. हेमंत कुमारअक्तूबर 25, 2024 9:20 pm

    बहुत अच्छा लिखा है रोशनी आपने।यात्रा, खेल, ठहरने की व्यवस्था, खानपान, चुहल, हँसी-ठिठोली। मगर इतनी कम उम्र में समाज को, उसकी सोच को परखने का जो स्वभाव है, जो समझ है वह बहुत कम लोगों को हासिल होती है। अच्छे लेखन के लिए बधाई।

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  2. वैरी नीस कोमल ऐसे ही सफलता हाशिल करते रहो

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