शोध सार : संत काव्य की आलोचना में कई महत्वपूर्ण पड़ाव आए हैं। आरंभ में कुछ संतों ने अपने से पूर्ववर्ती संतों के विषय में कुछ-कुछ लिखा यथा अनंतदास द्वारा रचित ‘कबीर परिचई’। इसके बाद साहित्येतिहासकारों ने अपने-अपने इतिहास ग्रंथों में संत कवियों का विवेचन-विश्लेषण किया। संत काव्य की आलोचना के क्षेत्र में कुछ शोधकर्ताओं ने महत्वपूर्ण एवं अनुकरणीय कार्य किया है। इन शोधार्थियों की एक विशेषता यह भी रही कि इन्होंने अपने शोध को किसी एक कवि पर केंद्रित न करके संपूर्ण काव्यधारा पर केंद्रित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि इन्होंने संत कविता को एक प्रवृत्ति के व्याख्यायित किया। इस क्रम में उन्होंने कालक्रम का अतिक्रमण भी किया, यथा महात्मा गांधी को भी संत कवि के रूप में व्याख्यायित करना। ऐसे शोधकर्ताओं में सबसे पहला नाम डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का है। उन्होंने अपने शोध में इस बात का उल्लेख किया कि संत काव्य का प्रभाव न केवल मध्यकाल तक रहा, बल्कि तदयुगीन समाज अर्थात् बीसवीं शताब्दी में भी दिखाई पड़ता है। बड़थ्वाल जी ने भक्तिकाल के उदय के संबंध में जिन तत्वों को प्रमुखता से अपने शोध-प्रबंध में उल्लेखित किया है उन्हीं तत्वों को आगे चलकर इतिहासकारों ने भी उल्लेखित किया है। कहना न होगा कि यह तथ्य उनकी ऐतिहासिक समझ और तटस्थ बुद्धि को प्रमाणित करता है। ऐसे में बड़थ्वाल जी के चिंतन पर नवीन चिंतन दृष्टि के आलोक में विचार-विमर्श करना अत्यंत महत्वपूर्ण होगा।
बीज शब्द : संत, संतकाव्य, भक्तिकाल, पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, परशुराम चतुर्वेदी, भगीरथ मिश्र, सतीशचंद्र, रहस्यवाद और मध्यकाल आदि।
मूल आलेख : ‘संत’ शब्द से प्रायः उन व्यक्तियों को विभूषित किया जाता है जो सज्जन, साधु, पवित्रात्मा या परोपकारी माने जाते हैं। ‘संत’ शब्द किसी व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र/व्यक्तित्व को सूचित करता है। ‘संत’ शब्द के प्रयोग की एक लंबी परंपरा रही है। लोक में आज भी ‘संत’ उस व्यक्ति का सूचक है जो स्वाभाविक रूप से सहज एवं शांत होता है। वह किसी के लिए अहितकर नहीं हो सकता है। ‘संत’ शब्द को समय-समय पर परिभाषित एवं व्याख्यायित किया गया है। संत कवियों ने भी ‘संत’ को परिभाषित किया है। संत कवि दूलनदास ने संत को कुदरती सुबास (प्राकृतिक सुगंध) बताया है, “दूलन साधु सब एक हैं, बाग फूल सम तूल। कोइ कुदरती सुबास है, और फूल के फूल ॥”[1] आशय यह है कि इस जगत में नाना प्रकार के लोग हैं लेकिन सभी व्यक्ति संत नहीं हो सकते हैं। कोई बिरला व्यक्ति होता है जो अपने आचरण में इस प्रवृत्ति को शामिल कर लेता है। वही संत होता है। बहरहाल संत को परिभाषित करने का कार्य तब से लेकर आज तक अबाध गति से होता चला आ रहा है। उल्लेखनीय है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिसे ‘ज्ञानाश्रयी शाखा’ के नाम से अभिहित किया उसे ही कभी ‘निर्गुण संप्रदाय’ तो कभी ‘संत काव्यधारा’ के नाम से जाना गया है। नामकरण को लेकर मतभेद भले हो लेकिन उन संत कवियों के द्वारा किए गए कार्यों का विवेचन सभी साहित्येतिहासकारों ने अनिवार्य रूप से किया है। जिन चिंतकों ने साहित्य का इतिहास नहीं लिखा है, स्वतंत्र रूप से आलोचना के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई है उन लोगों ने भी संत कवियों पर लिखा है। संत कवियों पर स्वतंत्र रूप से शोध करने वाले लोगों में जिन भारतीयों को विशेष ख्याति प्राप्त हुई उनमें से पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का नाम प्रमुख है।
‘संतकाव्य’ पर शोध करने वाले लोगों में पहला नाम पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का है। इनके शोध-प्रबंध का शीर्षक था – ‘The Nirgun School of Hindi Poetry’। पुस्तक रूप में यह शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में अवध पाब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुआ था। उनके परिवार से ताल्लुक रखने वाले सच्चिदानंद कबटियाल ने इस बाबत जानकारी दी है। उन्होंने लिखा है कि, “इसका प्रकाशन स्वर्गीय श्री दौलतराम जुयाल के संप्रयत्नों से अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ द्वारा 1950 में किया गया था।”[2] यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होने के कारण हिंदी भाषा-भाषियों की पहुँच से दूर थी। इस दूरी को पाटने का प्रयास स्वयं बड़थ्वाल जी ने किया। उन्होंने विवेच्य ग्रंथ के कुछ-कुछ हिस्से का अनुवाद करना आरंभ किया। उनके द्वारा किया गया अनुवाद नागरी प्रचारिणी पत्रिका में लगातार प्रकाशित होता रहा। लेकिन डॉ. बड़थ्वाल के असामयिक निधन के कारण यह महत्वपूर्ण कार्य बाधित हो गया। उनकी मृत्यु के बाद इस कार्य की ज़िम्मेदारी संत काव्य के सर्वाधिक प्रामाणिक आलोचक पं. परशुराम चतुर्वेदी ने स्वयं ली। आलोचक भगीरथ मिश्र ने इस संदर्भ में लिखा है कि, “डॉ. बड़थ्वाल ने अपनी मूल अंग्रेजी पुस्तक के प्रथम, द्वितीय और षष्ट अध्यायों का अनुवाद स्वयं ही कर लिया था और जो नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के पंद्रहवें भाग में निकल भी चुके थे। ये अध्याय प्रस्तुत पुस्तक के क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्यायों के रूप में आए हैं। अतः शेष रह जाने वाले अध्याय चतुर्थ और पंचम् थे जिनका अनुवाद श्री परशुराम चतुर्वेदी जी ने किया है जो इस पुस्तक के चतुर्थ, पंचम् और षष्टम् अध्यायों के रूप में संयोजित हुए हैं।”[3] बड़थ्वाल जी ने अनुवाद के क्रम में अपने शोध-प्रबंध की सामग्री में कहीं-कहीं नवीन तथ्यों, खोजों के आलोक में सुधार भी किया था। इस प्रकार उनके द्वारा किया गया अनुवाद केवल अनुवाद-कर्म नहीं था बल्कि उनके प्रबंध का परिमार्जित रूप भी था।
बड़थ्वाल जी ने अपनी आलोचना के माध्यम से न केवल संतकाव्य वरन् भक्ति आंदोलन को मूल्यांकित करने की भी दृष्टि प्रदान की। उल्लेखनीय है कि भक्ति आंदोलन के विकास के संबंध में अनेकानेक आचार्यों और इतिहासकारों ने अपना-अपना मत व्यक्त किया है। हिंदी साहित्य के इतिहास में भी दो प्रमुख आचार्यों -रामचंद्र शुक्ल एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी- के मत की चर्चा सर्वाधिक होती है। इसी क्रम में बड़थ्वाल जी ने भी हिंदी प्रदेश में भक्ति आंदोलन के उदय के कारणों पर विचार किया हैं। उन्होंने लिखा है कि, “उत्तर भारत के हिंदुओं को मुस्लिम विजय के कारण समस्त विरक्तिमय धर्मों से उस मूल सिद्धांत का अपने ही जीवन में अनुभव हो रहा था, जिसके अनुसार संसार केवल दुख का सागर मात्र है। उस समय वे ऐसी परिस्थितियों में थे जिसमें संसार की अनित्यता का, उसके सुख और वैभव की विनश्वरता का स्वाभाविक रूप से ही अनुभव हो जाता था। अतएव अत्याचार के नीचे पिसकर विपत्ति में पड़े हुए हिंदुओं ने सांसारिक सुख और विभव से अपनी दृष्टि मोड़ ली, और उस एकमात्र आनंद को प्राप्त करने के लिए जिससे उन्हें वंचित रख सकना किसी के भी सामर्थ्य में नहीं था, वे वैष्णव आचार्यों द्वारा प्रचारित इस भक्ति की धारा में उत्सुकता के साथ डुबकी लगाने लगे।”[4] बड़थ्वाल जी ने सांकेतिक भाषा में ही तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का ब्यौरा प्रस्तुत कर दिया है। वे हिंदू जनता को पराजित तो बताते ही हैं साथ ही उनके लिए इस संसार को केवल दुख का आगार मात्र भी बताते हैं। यदि ये केवल हिंदू जनता के मनोभाव हैं तो स्पष्ट है कि विजेता का अनुभव इससे अलग होगा। कहना न होगा कि भक्ति काल के उदय में अनेक कारक तत्वों के साथ एक यह भी कारण मौजूद रहा है। प्रसंगात् इतिहासकार सतीशचंद्र ने तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का जैसा विवरण प्रस्तुत किया है, वह बड़थ्वाल जी की स्थापना से मेल खाता है। उनका मत है कि, “इस्लाम के आगमन से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा और प्रभाव को करारा आघात पहुँचा। मूर्तियों को गैर-हिंदू तुर्कों द्वारा तोड़ा और पैरों से कुचला गया; और ब्राह्मणों और मंदिरों के दूसरे सेवकों को मार दिया गया या उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया गया।”[5] स्पष्ट है कि हिंदू धर्म के अनुयायियों के सामने ही तमाम तरह के अत्याचार हो रहे थे, उनके आराध्य के साथ अनेक तरह का दुर्व्यवहार किया जा रहा था। वे इस अत्याचार का प्रतिकार भी नहीं कर सकते थे। वे अपनी खुली आँखों से इस तथ्य को देख रहे थे कि आज तक जिसे वे शक्ति के पुंज के रूप में पूजते चले आ रहे हैं वे स्वयं अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। इन्हीं परिस्थितियों से दो-चार हो रही जनता का मूर्ति और कर्मकांड से विश्वास उठता चला जा रहा था। इस सीधा प्रभाव यह हुआ कि जनता ने अपने मन को दूसरी तरफ रमाया। इन सभी स्थितियों (राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक) की सार्थक अभिव्यक्ति संत कविता में हुई है।
संत कविता के विकास में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। राजनीतिक हलचल ने ही सामाजिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव किया लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि सामाजिक बदलाव की सुगबुगाहट बहुत पहले से महसूस की जा रही थी। पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने इस बात को अत्यंत गहराई से समझा है। उन्होंने निर्गुण संप्रदाय के विकास में विजेता जाति अर्थात् मुसलमानों की धर्मांधता और शूद्रों पर अत्याचार का विरोध को प्रमुख कारण के रूप में शामिल किया है। उनका मत है कि, “मध्यकालीन भारत को एक ऐसे आंदोलन की आवश्यकता थी, जिसका उद्देश्य होता उस समय अज्ञान और अन्य परंपरा का निराकरण करना जिसने एक ओर तो मुसलमानी धर्मांधता को जन्म दिया दूसरी ओर शूद्रों के ऊपर सामाजिक अत्याचार को। यही दो बातें सांप्रदायिक ऐक्य और सामाजिक न्याय-भावना में बाधक थीं।”[6] मध्यकालीन भारत का यह आंदोलन कविता के क्षेत्र में निर्गुण काव्यधारा का उत्कर्ष बिंदु रहा जिसे प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने ‘लोकवादी एकेश्वरवाद’ के नाम से अभिहित किया है।
निर्गुण काव्यधारा के अंतर्गत आने वाले संत कवियों को ही डॉ. बड़थ्वाल ने मूल्यांकन का आधार बनाया है। संत कविता में व्यक्त होने वाले विचार को वे प्रासंगिक मानते हैं लेकिन कवित्व की दृष्टि से उन्हें महत्वहीन मानते है। उनका मत है कि, “निर्गुण काव्य में वह सावधानी नहीं दिखती है जो किसी भी लिखित रचना के लिए आवश्यक है, असावधानी से की जाने वाली बातचीत का निर्बाध प्रवाह रहता है और उसी प्रकार सभी त्रुटियाँ भी रहा करती हैं। ऐसी कविता सचमुच बातचीत के रूप में होती भी थी। ... इसमें संदेह नहीं कि उनमें भरे हुए भाव गंभीर मनन का परिणाम हुआ करते थे किंतु उनके माध्यम के संबंध में हम ऐसा नहीं कह सकते। उनमें व्यक्त कला ‘कलाहीन’ होती थी।”[7] डॉ. बड़थ्वाल ने संत कविता के संदर्भ में जिन प्रसंगों के चर्चा की है, उस पर साहित्येतिहासकार पहले से ही लिखते चले आ रहे थे। मिश्रबंधुओं ने संत कविता के शिल्प पक्ष पर अपना जो विचार प्रस्तुत किया है वह डॉ. बड़थ्वाल के विचार से मेल खाता है। संत काव्य में शिल्प पक्ष पर कम ध्यान दिया गया तो इसके निहित कारण हैं। संत कवियों ने अपनी बानियों में जिस तथ्य को उकेरना चाहा है उसमें उन्हें भरपूर सफलता मिली है। उनका लक्ष्य केवल कविता-कर्म में रत रहना नहीं था। ध्यातव्य है कि आधुनिक युग का प्रगतिशील विचारक और कवि मुक्तिबोध ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘सौंदर्य-प्रतीति और सामाजिक दृष्टि’ में सौंदर्य को जिस ढंग से विवेचित किया है उस माध्यम से इस बात को ठीक ढंग से समझा जा सकता है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध निबंध में सौन्दर्य को व्याख्यायित करते हुए लिखा है कि, “हम साहित्यकार, जो पीड़ित मध्यमवर्गीय श्रेणी से आए हैं, अपना विकल्प सामाजिक प्रगति और मानव मुक्ति ही चुनते हैं और इस पक्ष में हमें कलाकार के मानव-व्यक्तित्व का हनन, सौंदर्य की उपेक्षा, तथा व्यक्तित्व की अवहेलना नहीं दिखाई देती क्योंकि उसी राह पर हमें सौंदर्य का साक्षात्कार होता है।”[8] कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि मुक्तिबोध ने काव्य की सृजन-प्रक्रिया में सौंदर्य तत्व को जो स्थान दिया है वही स्थान कबीर आदि संतों के यहाँ भी दिखाई पड़ता है। इस दृष्टि से उन कवियों की कलात्मकता शिल्पपक्ष में न तलाश कर, भाव पक्ष में तलाशना अधिक रोचक एवं प्रासंगिक होगा।
निर्गुणधारा के संत कवियों को डॉ. बड़थ्वाल ने रहस्यवादी संत माना है। रहस्यवाद की विशेषता यह है कि साधक संपूर्ण जगत में ईश्वर का वास देखता है, भौतिक वस्तु में भी वह अपने आराध्य की कल्पना करता है। उसका संबंध इस जगत से न होकर पारलौकिक जगत अथवा आध्यात्मिक जगत से होता है। डॉ. रामरतन भटनागर ने अपनी पुस्तक ‘रहस्यवाद’ में इसे परिभाषित किया है। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि, “रहस्यवाद की भावना संघगत नहीं, व्यक्तिगत है। साधक एक विराट, अखंड, निर्लेप परंतु प्रेममयी सत्ता की कल्पना करता है और स्वयं को उसका अंश मानता है। इस अंशानुभूति को वह केवल बुद्धि (ज्ञान) से ही नहीं पकड़ पाता, वह उसके हृदय की सारी शक्ति के साथ ग्रहण कर पाता है। इसी से वह उस अखंड सत्ता के प्रति प्रेम, मिलन और वियोग के गीत गाता है।”[9] तब यह देखना जरूरी है कि क्या संत कवियों का काव्य केवल रहस्यवादी है? डॉ. बड़थ्वाल संत कवियों को रहस्यवादी तो मानते हैं लेकिन इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि उनके द्वारा रचा गया प्रतीक (सिंबल) एवं रूपक (मेटाफर) किसी आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक सत्ता का न होकर यथार्थ जगत अर्थात् सामान्य जीवन से जुड़ा हुआ है। उनका मत है कि, “सच्चे रहस्यद्रष्टा के लिए तो प्रत्येक वस्तु अपने लिए स्थित न होकर किसी परे की वस्तु के प्रतीक के रूप में ही विद्यमान है। इन रहस्यद्रष्टा संतों के सभी रूपक व उपमाएं दैनिक जीवन से संबंध रखती हैं। अपने प्रतीकात्मक मूर्त भावों के लिए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। मथना, हल चलाना, मधु चुआना, बुनना, व्यापार करना, यात्रा करना, ऋतुओं के चक्रादि सभी दैनिक जीवन के व्यापार उनके काम आ जाते हैं।”[10] संत कविता ने नया प्रतीक अवश्य गढ़ा है लेकिन उनका संबंध दैनिक जीवन से ही है। वे जिन उपमाओं अथवा रूपकों का प्रयोग करते हैं उससे उनकी सामाजिक चिंताएँ व्यक्त होती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन वस्तुओं का संबंध, जिसकी उपमा दी जाती है, समाज का अत्यंत निचला तबका अर्थात् निम्नवर्ग/श्रमशील वर्ग से है। उनकी गहरी चिंता सामाजिक विभेद को मिटाने तथा वर्गीय खाई को पाटने की थी। प्रसंगात् बड़थ्वाल जी ने लिखा है, “निर्गुणी लोग सामाजिक एकता एवं वर्ग तथा जातिगत समानता के पक्षपाती थे, वे शूद्रों को ब्राह्मण व अन्य वर्णों के पूर्णत: समान मानते थे।”[11] स्पष्ट है कि संत कवियों की चिंता के केंद्र में श्रमशील समाज है। वे किसी भी स्थिति में सामाजिक विभेद को पाटने का पुरजोर प्रयास करते हैं।
संपूर्ण संत काव्यधारा में उलटबाँसियों का प्रयोग दिखाई पड़ता है। इसे संध्या भाषा के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उलटबाँसियों की परंपरा का गहन विश्लेषण किया है। उनका मत है कि, “योगियों, सहजयानियों और तंत्रिकों के ग्रंथों से ऐसी उलटबाँसियों का संग्रह किया जाए तो एक विराट पोथा तैयार हो सकता है।”[12] तात्पर्य यह है कि संत कवियों द्वारा वर्णित उलटबाँसियों की एक लंबी परंपरा रही है। योगियों, नाथपंथियों के यहाँ से होते हुए संत कवियों तक इसका प्रवाह दिखाई पड़ता है। समय-समय पर आलोचकों ने इन उलटबाँसियों को सुलझाने का प्रयास किया है। डॉ. बड़थ्वाल ने भी उलटबाँसियों को समझने-समझाने का प्रयास किया है। उनका मत है कि उलटबाँसियों में मौजूद सांकेतिकता कविता की महत्वपूर्ण भूमि है, लेकिन उसमें मौजूद रहस्य काव्य-सौंदर्य का ह्रास करता है, “इसमें संदेह नहीं है कि सांकेतिक उलटवाँसियों में उच्च श्रेणी का काव्य रहा करता है, किंतु गुह्य उलटवाँसियाँ स्वभावतः काव्यागत सौंदर्य से हीन हुआ करती हैं। काव्य की विशेषता इसी बात में है कि उसके द्वारा जीवन के गूढ़तम रहस्यों का व्यक्तीकरण हो, उनका गोपन उसका उद्देश्य नहीं हैं।”[13] बड़थ्वाल जी ने उलटबाँसियों में उच्च श्रेणी का काव्य देखा है लेकिन उसके गोपन पक्ष को सौंदर्य की दृष्टि से कमतर बताया है। उलटबाँसियों का एक सामाजिक एवं ऐतिहासिक संदर्भ है। इस संदर्भ से काट कर देखने पर उनका ठीक-ठीक अर्थ समझना कठिन होगा। लेकिन बड़थ्वाल जी ने सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भ को प्राथमिकता नहीं दी है। इसी कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, “वास्तव में कबीर की उलटवाँसियाँ उनके सिद्धान्तों को यथार्थतः समझने में बाधक सिद्ध हुई हैं।”[14]
डॉ. बड़थ्वाल ने एक ही पंक्ति में कबीरदास और अन्य संत कवियों की उलटबाँसी को उनके सिद्धांतों को समझने में बाधक घोषित कर दिया है। आज जब उनकी उलटबाँसियों को सामाजिक और आर्थिक संदर्भ में देखने के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण कार्य हो चुके हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ. बड़थ्वाल की उलटबाँसियों संबंधी स्थापना कुछ पुरानी पड़ गई है। संत कविता के प्रतिष्ठित अध्येता डॉ. कृष्ण कुमार सिंह ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने कबीर के एक पद ‘अब न बसूँ इहि गाऊँ गुसाई’ के माध्यम से तत्कालीन समाज-व्यवस्था और प्रशासनिक अमलातंत्र से त्रस्त जनता की दारुण अवस्था का विवेचन किया है। इस पद की आध्यात्मिक व्याख्या सर्वज्ञात है लेकिन पहली बार इस पद की समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत करने का कार्य डॉ. सिंह ने किया। उनका मत है कि, “भले ही इस पद में किसान, खेत, काइथ, दीवान... आदि का आध्यात्मिक संदर्भ में प्रतीकवत् प्रयोग क्यों न हुआ हो, मध्यकालीन भारतीय समाज की साधारण जनता के जीवन से संबद्ध कई महत्वपूर्ण तथ्य इसमें अभिव्यक्त हुए हैं। स्पष्ट है कि यह पद गहरे समाजशास्त्रीय विश्लेषण की माँग करता है।”[15] आगे चलकर डॉ. सिंह ने इस पद की रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। डॉ. बड़थ्वाल ने जिन उलटबाँसियों को गूढ़ एवं वैचारिकी को समझने में बाधक बताया, उसी में से एक उलटबाँसी के सहारे डॉ. सिंह ने संत कवियों के गहरे सामाजिक सरोकार को नवीन अर्थ-संदर्भों में व्याख्यायित किया है। इससे ज्ञात होता है कि उलटबाँसियाँ संतों की वैचारिकी को समझने में बाधक नहीं हैं, बाधक हमारी अज्ञानता है। उन्हें डिकोड करने के लिए ऐतिहासिक सामाजिक संदर्भों की गहरी छानबीन की आवश्यकता है।
डॉ. बड़थ्वाल के कार्यों में उनके शोध-प्रबंध की चर्चा सर्वाधिक होती है। इस चर्चा का एक विशेष संदर्भ यह है कि हिंदी संत कविता पर लिखा गया पहला शोध-प्रबंध यही है। लेकिन इस क्रम में उनके निबंधों की चर्चा प्रायः नहीं हो पाती है। उन्हें हिंदी के कुछ महान साहित्यकारों की तरह ही बहुत कम आयु (मात्र 42 वर्ष 7 माह) मिली थी। जिन साहित्यकारों को कम आयु प्राप्त हुई उनका साहित्य कालजयी हो गया, जितने कम समय में उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया उतना कार्य उनसे दुगुनी उम्र पाने वाले भी न कर सके। ऐसे साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद का नाम प्रमुख है। डॉ. बड़थ्वाल इन्हीं साहित्यकारों की परंपरा में से एक थे। उनके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुए डॉ. संपूर्णानंद ने उनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि, “डॉ. बड़थ्वाल की मृत्यु से हिंदी संसार की बड़ी क्षति हुई है। उन्होंने हमारे वांग्मय के एक विशेष क्षेत्र को, जिसका संबंध आध्यात्मिक रचनाओं से है, अपने अध्ययन का विषय बनाया था। इस दिशा में उन्होंने जो काम किया था, उसका आदर विद्वत्समाज में सर्वत्र हुआ। यदि आयु ने धोखा न दिया होता तो वह गंभीर रचनाओं का और सर्जन करते।”[16] बहरहाल उन्होंने संत कविता पर केंद्रित निबंध भी लिखा है। उन निबंधों में एक निबंध अत्यंत रोचक एवं प्रासंगिक जान पड़ता है। इस निबंध का शीर्षक है – ‘कबीर और गांधी’। स्मरणीय है कि जिस समय में डॉ. बड़थ्वाल जी लेखन में संलग्न थे उस समय में भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का प्रभाव अत्यंत व्यापक स्तर पर फैला हुआ था। एक कारण यह भी रहा है कि वे अपने युग के नायक को कबीर के रूप में देखते हैं। इस निबंध में उन्होंने विभिन्न संदर्भों में गांधी की तुलना कबीर से की है। उनका मत है कि, “भारत अग्रजन्माओं का देश है, जो अपने चरित्र से संसार को शिक्षा देते रहे हैं। भारत का यह अग्रजन्मत्व पाँच शताब्दी पहले कबीर के रूप में प्रकट हुआ था और आज गांधी के रूप में प्रकट हुआ है। परमात्मा की जो विभूति, मानवता का जो महत्व पंद्रहवीं शताब्दी में कबीर कहलाया, वही आज गांधी है। केवल अवधारणा का भेद है, तथ्य का नहीं।”[17] डॉ. बड़थ्वाल ने भारतीय चिंतन परंपरा के आलोक में गांधी और कबीर की महत्ता को विवेचित किया है। उनका मंतव्य है कि जिस तरह से मध्यकाल में संत कबीर ने अपने ज्ञान और चिंतन से संपूर्ण जनता को प्रभावित किया था ठीक उसी तरह महात्मा गांधी ने संपूर्ण जगत पर अपना प्रभाव छोड़ा है। आराधना अथवा नाम स्मरण के स्तर पर भी दोनों महानुभावों में साम्यता दिखाई पड़ती है। उन्होंने लिखा है कि, “कबीर की ही भाँति गांधी भी राम नाम की महिमा खूब गाया करते हैं। परन्तु कबीर की ही भाँति उनका भी राम से अभिप्राय दशरथि राम से न होकर परब्रह्म सत्य राम से है जो अज, अनादि और अनाम है।”[18] इतना ही नहीं वह गांधी के हरिजन आंदोलन का प्रस्थान बिंदु कबीर को ही मानते हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि गांधी के जीवन में ही उन्होंने अपनी यह व्याख्या प्रस्तुत की थी। डॉ. बड़थ्वाल का यह महत्वपूर्ण कार्य न केवल उस समय के लिए प्रासंगिक था बल्कि आज भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। अब तो अनेक साहित्य समीक्षक गाँधी पर भक्ति आंदोलन और भक्तिकालीन कवियों के प्रभाव की चर्चा करते नजर आ रहे हैं। साहित्य समीक्षकों का यह कार्य डॉ. बड़थ्वाल के कार्यों का क्रमिक विकास है। सम्पूर्ण दृष्टि से देखने पर यह ज्ञात होता है कि यदि डॉ. बड़थ्वाल यदि असमय काल के गाल में न समाते तो संत साहित्य के विवेचन-विश्लेषण की दुनिया कुछ अलग होती। उसे समझने और उसके प्रभाव के मूल्यांकन का नया तरीका हमारे पास मौजूद होता।
सन्दर्भ :
[1] संतबानी संग्रह, भाग-1. (2014). इलाहाबाद : बेलवीडियर प्रिंटिंग वर्क्स. पृ.सं. - 130
[2] बड़थ्वाल, पीतांबरदत्त. (1995). हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा (परशुराम चतुर्वेदी व भगीरथ मिश्र. अनु.). नई दिल्ली : तक्षशिला
प्रकाशन. पृ.सं. - 05
[5] सतीशचंद्र. (2013). मध्यकालीन भारत में इतिहास-लेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप. नई दिल्ली : ग्रंथ शिल्पी. पृ.सं. - 90
[6] बड़थ्वाल, पीतांबरदत्त. (1995). हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा (परशुराम चतुर्वेदी व भगीरथ मिश्र. अनु.). नई दिल्ली : तक्षशिला
प्रकाशन. पृ.सं. - 59
[10] बड़थ्वाल, पीतांबरदत्त. (1995). हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा (परशुराम चतुर्वेदी व भगीरथ मिश्र. अनु). नई दिल्ली: तक्षशिला प्रकाशन. पृ.सं. - 273
[13] बड़थ्वाल, पीतांबरदत्त. (1995). हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा (परशुराम चतुर्वेदी व भगीरथ मिश्र. अनु). नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.सं. - 228
[17] चातक, गोविंद. (1995). डॉ.पीताम्बरदत्त
बड़थ्वाल के श्रेष्ठ निबंध. नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.सं. - 29
आलोक कुमार पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक, साहित्य संकाय,
हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर, पश्चिम त्रिपुरा – 799022, त्रिपुरा
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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