शोध आलेख : भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में किशोरों का योगदान / अंकुश गुप्ता, डॉ विनोद कुमार जायसवाल एवं डॉ कीर्ति गौड़

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में किशोरों का योगदान
अंकुश गुप्ता, डॉ विनोद कुमार जायसवाल एवं डॉ कीर्ति गौड़

शोध सार : भारतवर्ष ने अपने ज्ञान, दर्शन व धन की विपुलता से सम्पूर्ण विश्व को सदैव अपनी ओरआकर्षित किया है तथा इसी आकर्षण के कारण विश्व के विभिन्न भागों से समय-समय पर विभिन्न यात्रियों का भारत आगमन निरन्तर होता रहा है और यहां वाले आने वाले सभी आगन्तुकों को भारत ने सदैव कुछ ना कुछ दिया है। इस क्रम में बहुत सारे आक्रान्ताओं ने भी भारत भूमि को आक्रान्त किया तथा भारत ने सदैव इनका कठोरता से प्रतिकार किया है। व्यापार की अभिलाषा से भारत आए अंग्रेजों ने जब भारत का राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व सामाजिक शोषण प्रारम्भ किया तो भारतीयों ने अंग्रेजों से भी संघर्ष किया और इस संघर्ष में भारत के प्रत्येक भाग से प्रत्येक वर्ग के लोगों ने सहभागिता किया परन्तु इतिहास की पुस्तकों में कुछ विशेष क्रान्तिकारियों का ही उल्लेख होता आया है। इस शोध पत्र में हमने कुछ महत्वपूर्ण किशोर क्रान्तिकारियों के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान को रेखांकित करने का प्रयास किया है जिससे उन्हें इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में समुचित स्थान प्राप्त हो सके।

बीज शब्द : स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता संग्राम, किशोर, पराधीन, स्वाधीनता, सेनानी, इतिहास, क्रान्तिकारी, सैनिक, आंदोलन, तिरंगा, 1857।

मूल आलेख : देवभूमि भारतवर्ष मनुष्य ही नहीं अपितु देवताओं को भी निवास के लिए सदैव आकर्षित करती रही है, जहाँ अनेक देवताओं ने अवतार स्वरूप जन्म लेकर अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना की। इसी क्रम में प्राकृतिक रूप से परिपूर्ण, आर्थिक रूप से समृद्ध भारत की अध्यात्म, दर्शन व ज्ञान राशि की विपुलता ने विदेशियों को भी समय-समय पर आकर्षित किया तो उनमें से कुछ म्लेच्छों व आक्रान्ताओं ने यहां आकर स्थायी रूप से शासन कर यहां के कुछ भाग के लोगों को पराधीन किया जैसे हखामनी, यूनानी, शक, पह्लव, अरब, तुर्क, अफगान, मुगल व अंग्रेज। अंग्रेजों ने एक क्षेत्र को केंद्र मानकर शासन करते हुए यहाँ के लोगों का धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से शोषण कर विपन्न बनाकर पराधीन या आत्महीन बनाने का प्रयास किया किन्तु भारतीयों ने प्रत्येक काल में प्रतिकार कर स्वतन्त्रता का बिगुल बजाया। उन्हीं अंग्रेजों से स्वाधीनता प्राप्त करने में भारत के हर वर्ग, हर उम्र और हर क्षेत्र की साझी भागीदारी रही है परन्तु कुछ गिने-चुने व गढ़े गए नायकों से इतिहास की पुस्तकों को इतना अतिरंजित कर दिया गया कि अनेकान्य सेनानियों के लिए स्थान ही उपलब्ध ना हो पाया। स्वतन्त्रता संघर्ष में कृषकों, गृहस्थों, महिलाओं, मजदूरों, जनजातियों, विश्वविद्यालयों व कालेजों के छात्रों, वैज्ञानिकों व विशेषकर बाल नायकों व किशोरों को महत्त्व नहीं प्रदान किया जा पाया है। हमने अभी इतिहास में खुदीराम बोस, राजगुरु, सुखदेव व भगत सिंह सरीखे कुछ ही युवा व किशोर सेनानियों को स्थान दिया है। ऐसे ही किशोर सेनानियों की एक बड़ी लंबी शृंखला है जिसे इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में शामिल किया जाना चाहिए।

जगपति, उमाकांत व साथी (पटना, 17 वर्ष) -

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बिहार की राजधानी पटना के लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है जो 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वहाँ के छात्र क्रान्तिकारियों का गढ़ बन गया था| “बिहार नेशनल कॉलेज” के छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़ कर क्रान्तिकारियों की सहायता करना शुरू कर दिया था| 11 अगस्त को इन क्रान्तिकारियों ने “पटना मेडिकल कॉलेज भवन” व “पटना सिटी कचहरी” पर तिरंगा फहरा कर अपने देश प्रेम की भावना को अभिव्यक्ति किया[1] जिसको रोकने के लिए अंग्रेज प्रशासन की तरफ से पूरे शहर में गोरखा सैनिकों की तैनाती कर दी।| क्रान्तिकारी “पटना सचिवालय” पर भी तिरंगा फहराना चाहते थे परन्तु गोरखा सिपाहियों ने जुलूस को सचिवालय की तरफ बढ़ने से रोकने की पूरी कोशिश की।| जो भी सचिवालय की तरफ बढ़ता उसे गिरफ्तार कर लिया जाता परन्तु दिन के लगभग 12:00 बजे क्रान्तिकारियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ गई कि उन्हें रोकना असंभव हो गया| लगभग 2 घंटे के संघर्ष के उपरांत सचिवालय के पूर्वी फाटक पर युवा क्रान्तिकारी तिरंगा फहराने में सफल हो गए| युवकों की एक टोली ने सचिवालय परिसर में भी घुसने में सफलता प्राप्त कर ली| इस टोली की अगुवाई “उमाकांत सिंह” हाथों में तिरंगा लेकर कर रहे थे|[2] मजिस्ट्रेट डब्ल्यू. जी. आर्चर विधानसभा फाटक के सामने गोरखा टुकड़ी के साथ तैनात था|[3] उसने क्रान्तिकारियों को आगे इस उद्देश्य से बढ़ने दिया कि जब क्रान्तिकारी पूरी तरह से पुलिस के घेरे में आ जाएंगे तब गोली चलाई जाएगी| उमाकांत को सबसे पहले गोली लगी और उनके गिरते ही किशोर उम्र के “जगपति” ने तिरंगा थाम लिया और टोली का नेतृत्व संभाल लिया तथा वंदे मातरम के उद्घोष के साथ आगे बढ़ने लगे|[4] आगे बढ़ते हुए एक के बाद एक कई नौजवान व किशोर गोली खाकर गिरते गए जिनमें 7 किशोरों की मृत्यु हो गई| इन क्रान्तिकारियों में जगपति सबसे कम उम्र केवल 17 वर्ष के थे|[5] इन क्रान्तिकारियों की याद में पटना के सचिवालय मार्ग का नाम “1942 क्रांति मार्ग” रखा गया|

वासुदेव चापेकर (महाराष्ट्र, 18 वर्ष) -

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में चापेकर बंधुओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है| चापेकर तीन भाई थे- दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर| दिसंबर 1896 में महाराष्ट्र में प्लेग फैल गया था जिसके परिणामस्वरूप पूणे में प्लेग की रोकथाम व व्यवस्था के लिए अंग्रेज अधिकारी रैंड को नियुक्त किया गया| रैंड बहुत ही क्रूर था और वह मरीजों के साथ अपराधी जैसा व्यवहार करता था तथा उन पर जुल्म करता था| 3 महीने की क्रूरता से तंग आकर चापेकर बंधुओं ने रैंड को खत्म करने की योजना बनाई[6] जिसमें छोटे भाई वासुदेव ने बड़े भाई को रैंड की सारी सूचनाएँ देने का जिम्मा लिया| 22 जून 1897 को महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती की पार्टी से लौटते समय रात 11:30 बजे बग्गी के पीछे से चढ़कर दामोदर ने रैंड की पीठ पर गोली दाग दी|[7] अन्य दोनों भाई भी सहयोग के लिए पास ही थे| इन तीनों भाइयों को पकड़ने के लिए ₹20000 का इनाम घोषित कर दिया गया, जिसके लालच में दामोदर के दो साथी गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ पुलिस के मुखबिर बन गए| जिसके कारण दामोदर और बाद में बालकृष्ण भी पकड़ लिए गए|[8] अंग्रेजों ने वासुदेव को भी मुखबिर बनने का प्रलोभन दिया जिसे वासुदेव ने मुखबिरों से बदला लेने के लिए स्वीकार कर लिया| 8 फरवरी 1898 को वासुदेव ने अपने मित्र रानाडे के साथ क्रमशः गणेश शंकर और रामचंद्र को गोली मार दी|[9] घटना की जांच कर रहे पुलिस सुपरिटेंडेंट पर भी वासुदेव ने गोली चलाई परन्तु वह बच गया| वासुदेव भी पकड़े गए| अदालत ने दामोदर को 18 अप्रैल, वासुदेव को 8 मई, रानाडे को 10 मई और बालकृष्ण को 12 मई 1898 को फांसी दे दिया|[10]

हेमू कालाणी (सिंध, 19 वर्ष) -

हेमू कालाणी का जन्म 23 मार्च 1923 को सिंध प्रांत के सखर जिले में हुआ था| जब भी कोई बड़ा क्रान्तिकारी सिंध प्रांत आता तो हेमू देशभक्ति की भावना से रोमांचित हो उठता| 23 मार्च 1931 को सरदार भगत सिंह को फांसी दिए जाने की खबर ने हेमू को राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान देने की ओर अग्रसर किया| विद्यार्थी रहते हुए हेमू स्वतन्त्रता प्राप्ति में कार्यरत कई संगठनों के सदस्य बन गए जिसमें सिंध के युवाओं में अनुशासन की भावना पैदा कर देश की आजादी के लिए प्रेरित करने के लिए डॉक्टर मंगाराम द्वारा स्थापित सिंध की “स्वराज सेना” में उन्होंने प्रमुख रूप से भाग लिया|[11] वह युवा साथियों के साथ गलियों-मोहल्लों में प्रभात फेरियाँ करते, आजादी के गीत गाते और अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रतिबंधित साहित्य वितरित करते| 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हेमू ने सक्रिय भागीदारी की| 23 अक्टूबर 1942 की रात्रि को हेमू ने सखर रेलवे लाइन की फिश प्लेटें निकालीं ताकि राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार करने के लिए कराची से गोरों की फौज ले जाने वाली ट्रेन वहीं दुर्घटनाग्रस्त हो जाए[12] परन्तु वह घटनास्थल पर ही पकड़ लिए गए| सैनिक न्यायालय ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी जिसे बाद में उच्च सैनिक कोर्ट ने फांसी की सजा में बदल दिया| 21 जनवरी 1943 को लगभग 19 वर्ष के हेमू को सखर के केंद्रीय कारागार में फांसी दे दी गई|[13]

कुमारी मैना (कानपुर, 14 वर्ष) -

कुमारी मैना नाना साहब की दत्तक पुत्री थी| 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों ने नाना साहब को कानपुर की गद्दी पर आसीन कर दिया था और उसी दौरान नाना साहब के सामने कई बंदी अंग्रेज स्त्रियाँ व बच्चे पकड़ कर लाए गए| दंड देने की बजाय नाना साहब अपनी किशोर 14 वर्षीया बेटी मैना को उन्हें सुरक्षित स्थान पर छोड़ने की जिम्मेदारी सौंपकर स्वयं बिठूर की ओर कूच कर गए|[14] मैना अपने अंग रक्षकों के साथ उन स्त्रियों व बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़ने के लिए निकल पड़ी परन्तु अफसोस नाना साहब के बिठूर जाते ही पुनः कानपुर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया| अंग्रेजों की एक टुकड़ी द्वारा मैना भी पकड़ ली गई| अंग्रेजों को जब पता लगा कि मैना नाना साहब की पुत्री हैं तो उनसे क्रान्तिकारियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करने लगे| अत्यधिक यातना देने पर भी जब मैना ने कुछ नहीं बताया तो उन्हें एक पेड़ से बांधकर चारों तरफ चिता की तरह लकड़िया लगा दी गई| फिर भी मैना ने कुछ नहीं बताया तो चिता में आग लगा दी गई परन्तु मैना न चीखी न चिल्लाई| वह जल गई परन्तु अंग्रेजों को कुछ नहीं बताया|[15]

कनकलता (असम, 16 वर्ष) -

कनकलता का जन्म 26 मई 1926 को असम के बरंगावाड़ी गांव में हुआ था| अल्पकाल में ही माता पिता का साया उनके सर से उठ गया| किशोरावस्था में ही वह स्वाधीनता के लिए चल रहे आन्दोलन की गतिविधियों का बड़े ध्यान से अध्ययन करती व नेताओं के आह्वान को श्रद्धा से सुनती थी| जब 20 सितंबर 1942 को स्थानीय कांग्रेस ने सुबह 10:00 बजे गोपुर (असम) थाने पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का संकल्प किया[16] तो कनकलता ने उसमें अपनी भागीदारी दिखाई| थाने के पूर्व और पश्चिम की ओर से दो दल ध्वज लेकर चले जिसमें पश्चिमी टोली की नायिका थी 16 वर्षीया कनकलता|[17] कनकलता के नेतृत्व में तरुण-तरुणियों की एक टोली थाने की तरफ बढ़ रही थी| थाने के बाहर सैकड़ों सिपाही बंदूकों के साथ तैयार खड़े थे परन्तु कनकलता भयभीत नहीं हुई| पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दी और एक गोली कनकलता को भी आ लगी और वह शहीद हो गई[18] परन्तु कुछ साहसी युवकों ने आगे बढ़कर थाने के ऊपर राष्ट्रीय ध्वज फहरा ही दिया|

दिनेश चंद्र गुप्ता (बांग्लादेश, 19 वर्ष) -

दिनेश का जन्म 6 दिसंबर 1911 को जोशलोंग (बांग्लादेश) में हुआ था| 1926 में ढाका कालेज के विद्यार्थी जीवन में ही वे सुभाषचंद्र बोस के संपर्क में आए और “बंगाल स्वयंसेवक” के सदस्य बन गए|[19] इस संस्था के क्रान्तिकारियों ने भारतीय कैदियों के प्रति निर्दयता पूर्ण व्यवहार करने वाले जेल महानिरीक्षक एन. एस. सिंपसन की हत्या की योजना बनाई| 8 दिसंबर 1930 को कोलकाता के डलहौजी हाउस में दिनेश ने अपने दो साथियों- बिनोय बोस व बादल गुप्ता के साथ सिंपसन की हत्या कर दी|[20] घटनास्थल पर ही इनका संघर्ष ब्रिटिश रक्षकों से हो गया और उन्होंने बहादुरी से मुकाबला किया| अंत में अंग्रेजों के हाथों मरने से अच्छा आत्महत्या करने की सोची परन्तु असफल रहे और घायल हो गए| इन्हें पकड़कर बर्बरतापूर्ण यातनाएँ दी गईं| 7 जुलाई 1931 को अलीपुर जेल में इन्हें 19 वर्ष की आयु में ही फांसी दे दी गई|[21]

बाजी राउत (उड़ीसा, 13 वर्ष) -

बाजी राउत का जन्म 5 अक्टूबर 1926 को उड़ीसा के ढेंकनाल में हुआ था| इनका परिवार पेशे से नाविक था जो ब्राह्मणी नदी के नीलकंठ घाट पर नाव चलाता था| उड़ीसा में क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए “प्रजामंडल” नामक दल का गठन हुआ था, इस दल में “वानर सेना” नामक एक टोली भी थी जिसमें नन्हें बालकों को अंग्रेजों के प्रतिकार की शिक्षा दी जाती थी|[22] 10 अक्टूबर 1938 को अंग्रेज सिपाहियों द्वारा गाँव के कुछ लोगों को पकड़कर भुवनेश्वर लाया गया जिनकी रिहाई के लिए कुछ क्रान्तिकारियों ने थाने के बाहर प्रदर्शन किया| क्रान्तिकारियों को ढूँढने व पकड़ने के लिए कुछ अंग्रेज सैनिक नीलकंठ घाट पहुंचे| सैनिकों ने बाजी राउत से नदी पार कराने के लिए कहा परन्तु राउत ने उन्हें मना ही नहीं किया बल्कि जोर-जोर से चिल्लाकर क्रान्तिकारियों को आगाह करना शुरू कर दिया| एक अंग्रेज ने बंदूक की बट से राउत के सिर पर वार किया परन्तु राउत नहीं रुका| तब एक अंग्रेज ने राउत के सिर में गोली मार दी जिससे मात्र 13 वर्ष की आयु में ही बाजी राउत की मृत्यु हो गई|[23]

ध्रुव कुंडू (बिहार, 13 वर्ष) -

ध्रुव कुंडू का जन्म 1929 में कटिहार, बिहार के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर किशोरीलाल कुंडू के घर हुआ था| देशभक्त पिता का यह बेटा बचपन से ही अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता था| 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उनकी उम्र केवल 13 वर्ष थी फिर भी इन्होंने अंग्रेजों के प्रतिकार के लिए अपनी एक टोली बनाई|[24] 11 अगस्त 1942 को ध्रुव के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने “रजिस्ट्री कार्यालय” के दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया| 13 अगस्त 1942 को कटिहार नगर के सब रजिस्ट्रार का कार्यालय भी उन्होंने ध्वस्त करा दिया|[25] उन्होंने मुंसिफ कोर्ट सहित कई सरकारी दफ्तरों से अंग्रेजी हुकूमत के झंडे उखाड़ दिए और वहाँ भारतीय तिरंगा फहरा दिया| जब ध्रुव के नेतृत्व में क्रान्तिकारी दल मुंसिफ कोर्ट पर तिरंगा फहरा कर आगे बढ़ रहा था तो अंग्रेजों ने प्रतिकार के लिए क्रान्तिकारियों पर गोलियाँ चला दी|[26] ध्रुव कुंडू घायल हो गए और उन्हें पूर्णिया सदर अस्पताल ले जाया गया लेकिन मात्र 13 वर्ष की उम्र में ही ध्रुव कुंडू ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए|

अनंत लक्ष्मण कान्हरे व साथी (नासिक, 18 वर्ष) -

अनंत कान्हरे का जन्म नासिक में 1891 ईस्वी में हुआ था| अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही वह गुप्तचर क्रान्तिकारी संगठन के सदस्य बन गए| महाराष्ट्र में दामोदर सावरकर, बाबूराव सावरकर, कृष्णाजी गोपाल करवे और विनायक नारायण देशपांडे ने ब्रिटिश विरोधी एक क्रान्तिकारी दल बनाया था जिसके सदस्य अनंत भी थे| अंग्रेज अधिकारी जैक्सन ने इस क्रान्तिकारी दल के संस्थापक सदस्य बाबूराव सावरकर के पकड़े जाने व मुकदमा चलाए जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी इसलिए सभी क्रान्तिकारियों ने जैक्सन की हत्या करने की योजना बनाई|[27] जैक्सन को मारने की जिम्मेदारी अनंत, विनायक और करवे ने ली| अनंत को पता चला कि 21 दिसंबर को नासिक शहर के “बिजयानंद थिएटर” में “शारदा” नाटक देखने के लिए कलेक्टर जैक्सन आने वाला है|[28] लगभग 9:00 बजे जैक्सन अपनी पत्नी के साथ थिएटर पहुँचा और अगली पंक्ति में मुख्य अतिथि की तरह बैठा| उसी पंक्ति में अनंत कान्हरे व उनके साथी पहले से ही तैयार बैठे थे| उसी दौरान अनंत ने जेब से पिस्तौल निकालकर जैक्सन पर गोलियाँ दाग दीं परन्तु उनका निशाना चूक गया| इस पर विनायक और करवे ने जैक्सन पर गोलियाँ चला दी[29] जिससे जैक्सन की मौत हो गई| तीनों को पकड़ लिया गया और राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया| 10 अप्रैल 1910 को लगभग 18 वर्ष की आयु में अनंत कान्हरे को उनके साथियों के साथ फांसी पर लटका दिया गया|[30]

निष्कर्ष : इस प्रकार देश को स्वतन्त्रता दिलाने में असंख्य क्रांतिवीरों ने अपना सर्वस्व दे दिया जिसका उन्हें ना कोई पुरस्कार मिला, ना उनके नाम पर कोई नगर बसाए गए, न भवन बनाए गए फिर भी वे हुए थे और रहेंगे, हमारे आपके मन में रहेंगे, इतिहास में रहेंगे और हम सब को सदा प्रेरित करते रहेंगे| बड़े बड़े नायक इन बाल नायकों रूपी छोटे छोटे हीरों की चमक को कभी भी छिपा नहीं सकते| अतएव इनके योगदान को इतिहास के पन्नों में दर्ज करके पाठ्यपुस्तकों में शामिल करके पढ़ाया जाए जिससे इनका योगदान व बलिदान जन-जन तक पहुँच सके।

सन्दर्भ :
[1] आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 170
[2] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 3 अप्रैल 2022, सप्तरंग, पृ. 2
[3]  आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 171
[4] वही, पृ. 171
[5] वही, पृ. 171
[6] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 30 जनवरी 2022, सप्तरंग, पृ. 2
[7] मन्मथनाथ गुप्त, भारत के क्रान्तिकारी, हिंद पॉकेट बुक्स, गुड़गांव (हरियाणा), 2012, पृ. 35
[8] आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 30
[9] मन्मथनाथ गुप्त, भारत के क्रान्तिकारी, हिंद पॉकेट बुक्स, गुड़गांव (हरियाणा), 2012, पृ. 38
[10] आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 31
[11] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 46
[12]केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 16 जनवरी 2022, झंकार, पृ. 3
[13] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 46
[14]आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 24
[15] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 9 जनवरी 2022, सप्तरंग, पृ. 2
[16] आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 161
[17] वही, पृ. 161
[18] वही, पृ. 161
[19] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 40
[20] वही, पृ. 40
[21] वही, पृ. 41
[22] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 17 अक्तूबर 2021, सप्तरंग, पृ. 2
[23] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 49
[24] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 28 नवम्बर, 2021, सप्तरंग, पृ. 2
[25] https://www.shashiblog.in/dhruv-kundu-sacrificed-for-the-country/
[26] https://amritmahotsav.nic.in/unsung-heroes-detail.htm?266
[27] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 27
[28] आशारानी व्होरा, क्रान्तिकारी किशोर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 35
[29] केन्द्रीय ग्रंथालय बीएचयू, दैनिक जागरण, रविवार, 6 फरवरी, 2022, सप्तरंग, पृ. 2
[30] डॉ श्यामसिंह तँवर मृदुलता, भूले-बिसरे क्रान्तिकारी, प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, 2021, पृ. 27

अंकुश गुप्ता
शोध छात्र, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी – 221005
ankushguptaphd@bhu.ac.in 7524943026 & 8957285001

विनोद कुमार जायसवाल
सहायक आचार्य, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

कीर्ति गौड़
पूर्व शोध छात्रा, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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