शोध आलेख : इलाहाबाद की नौटंकी परंपरा : एक ऐतिहासिक अध्ययन / रत्नेश कुमार एवं रेफाक अहमद

इलाहाबाद की नौटंकी परंपरा : एक ऐतिहासिक अध्ययन
- रत्नेश कुमार एवं रेफाक अहमद

शोध सार : नौटंकी उत्तर भारत की लोकप्रिय लोकनाट्य विधा है, लोक संस्कृति से जुड़े अध्येता जब भी इस विधा पर बात करते है तो वह हाथरस, कानपुर, लखनऊ की नौटंकी परम्परा तक सीमित रह जाते है। नौटंकी के विद्वान् रामनारायण अग्रवाल हो या नौटंकी कला की अध्येयता कैथरीन हैनसेन इत्यादि लोगो ने जो भी कारण रहा हो इन सभी लोगों से भीइलाहाबाद की नौटंकी परम्पराजो इतनी समृद्धशाली रही है अछूता रह जाता है। यहाँ तक कि इलाहाबाद के नौटंकी कला से जुड़े विद्वानों का दावा है कि नौटंकी का उद्भव और विकास इलाहाबाद से ही हुआ है। इस शोध आलेख में हमने इलाहाबाद की नौटंकी परंपरा का एक ऐतिहासिक विश्लेषण करने की कोशिश की है।

बीज शब्द : नौटंकी, लोक संस्कृति, इलाहाबाद, नौटंकी परंपरा, लोकनाट्य, मंडली।

मूल आलेख : सर्वप्रथम हम यदि नौटंकी के उद्भव और विकास की बात करें तो नौटंकी हमारे यहाँ का ऐसा गीत नाट्य है जिसमें मुख्य रूप सेचौबोला-गायकीका प्राधान्य है। जैसा कि आप जानते हैं, उत्तर-मध्य युग में उत्तरी भारत मेंख्याल गायनपरम्परा खूब फली-फूली और इसी ख्याल-परम्परा ने स्वांग या संगीत के रूप में जब-जब अपने को चौबोला गायकी से जोड़ा तो वह भगत, स्वांग या नौटंकी के नाम से विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुई।हास्यार्णव’, ‘माधव-विनोद याप्रबोध चन्द्रोदयजैसे लोकनाट्य हमारे यहाँ मध्यकाल के बाद होते रहे थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर हमारे ख्यालबाजों ने चौबोला गायकी के स्वांग मंच को जन्म दिया।1

            अनुश्रुति है कि संगीत परम्परा का आरम्भ पंजाब से हुआ और इसकी पुष्टि भी हमें श्री आर.सी. टेम्पिल के ग्रंथदी लीजेंड्स ऑफ दी पंजाब2 से हो जाती है। इस विद्वान् अंग्रेज़ लेखक ने जगाधरी के बंसीलाल स्वंगिये से सुनकर अपने इस ग्रंथ में तीन स्वांग संकलित किये हैं, जिनका रचनाकाल लगभग 1800 ईस्वी के आसपास है। यह स्वांग है- गुरु गुग्गा, गाथा राजा गोपीचंद और राजा नल। इन स्वांगों में दोहा, चौबोला, सोरठा, लावनी तथा रागिनी के रूप में छोटे-छोटे गीतों का प्रयोग किया गया है, जिनकी भाषाखिचड़ी भाषाहै जो इसके प्रारंभिक अविकसित रूप का परिचय देती है।

            पंजाब से वह परम्परा उत्तरप्रदेश पहुँची और यहीं इसका विकास हुआ। इसके विकास के प्रारम्भ में दो प्रमुख गढ़ थे, एक अमरोहा, जहाँ यह परम्परा स्वांग के नाम से विकसित हुई, और दूसरा क्षेत्र था मथुरा, जहाँ के तुर्राकलगी के अखाड़ों ने इसेभगतके रूप में विकसित किया। क्योंकि मथुरा­­­-वृन्दावन भक्ति के प्रचार के प्रमुख केन्द्र थे, अतः वहाँ प्रारंभ में भक्त चरित्र ही चौबोला शैली में रचकर गाए गए, इसलिए वहाँ यह मंचभगतके नाम से प्रसिद्ध हुआ। अमरोहा की शैली शृंगार-रस प्रधान थी, जिसमें संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों को खूब उभारा जाता था। अमरोहा शैली के कथानक स्वांग-सपेड़ा की कथा तो इतनी लोकप्रिय हुई कि उसे लेकर अनेक नगरों में पृथकपृथक स्वांग लिखे और खेले गए। उधर मथुरा-वृन्दावन शैली की भगत पर ब्रज की रास गायकी का विशेष प्रभाव पड़ा, जिसके फलस्वरूप भगत में विभिन्न राग-रागिनियों का समावेश हुआ।3 साथ ही ख्याल गायकों ने लावनी की विविध रंगतों जैसे खड़ी, लंगड़ी, शकिस्त, बहरेतबील आदि के साथ विभिन्न लोक धुनें भी इसमें जोड़ दी, जिससे इसका संगीत पक्ष बहुत विकसित हो गया। बाद मेंइन्दर सभा4 के रूप में लखनऊ में जिस मंच का विकास हुआ, उसकी सब धुनों का समावेश भी कालान्तर में इसी मंच के साथ हो गया। भगत की यह परम्परा ही हाथरस गई और वहाँ इसे स्वांग के पुराने नाम से ही करके इसे व्यापक रूप से जनता के साथ जोड़ दिया गया। हाथरस में लगातार कई दिन तक स्वांग होते थे, तब पूरा बाज़ार नवीन दुलहन जैसा सज जाता था और पूरा वातावरण एक लोकोत्सव का रूप धारण कर लेता था। यहाँ स्वांग का इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि हाथरस के आसपास के क्षेत्रों में भी इन स्वांगो के प्रदर्शन की माँग बढ़ गई, जिसके कारण किले दरवाजे के स्वांग अखाड़े के संचालकों ने, जिनमें चिरंजीलाल छीपी और उनके शिष्य नत्थाराम गौंड़ प्रमुख थे, अपने अखाड़े के कलाकारों को व्यावसायिक आधार पर संगठित करके इस कला के प्रदर्शन के लिए एक मंडली गठित कर ली। इसके बाद बासम जी के शिष्य राय मुरलीधर ने भी ऐसी ही एक दूसरी व्यावसायिक मंडली बना ली।5

            नत्था-चिरंजी की यह स्वांग मण्डली बड़ी लोकप्रिय हुई। प्रत्येक श्रावण मास में एक मास के लिए वह मण्डली कानपुर जाती थी और वहाँ प्रतिवर्ष एक नया स्वांग रचकर खेलती थी। इस औद्योगिक नगर में जो मज़दूरों का प्रमुख केंद्र था, इस मण्डली के कारण बड़ी हलचल रहती थी। उस युग में सिनेमा होने के कारण यह मण्डलियाँ जनजीवन में मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गई। मंच पर नत्था-चिरंजी के पात्र जिस वेशभूषा में आते थे, उसे पहनने के लिए जनता में बड़ा उत्साह था। यह देखकर कानपुर के श्रीकृष्ण पहलवान ने एक दर्जीखाना खोल दिया जिसमे स्वांग के पात्रों जैसे वस्त्र सिलकर बेचे जाते थे। इन वस्त्रों की उस समय बड़ी माँग थी।

            नत्था-चिरंजी की मंडली की प्रसिद्धि ख्याति ने तथा उनके द्वारा कानपुर में गाए जाने वाले फटकों ने कानपुर वालोँ को भी स्वांग करने को प्रेरित किया। कानपुर के इस स्वांग के आयोजकों में भी वहाँ के ख्याल गायक अखाड़े ही प्रमुख थे। बंदी खलीफा, मुल्लाराय मैकू उस्ताद ने कानपुर में भी पहला स्वांग सन् 1910 के आस-पास खेला। इसकी विशाल पैमाने पर तैयारी हुई, दूर-दूर के कलाकार जुटाए गए। इस खेल में लछमन नाम का एक गायक बम्बई से बुलाया गया था, जिसकी विशेषता यह थी कि वह एक ही चीज़ को 17 धुनों में गाता था। मैकू उस्ताद ने इस खेल के समय के बीच में नक्कारा रखकर उसके चारों ओर 12 झीले रखीं। प्रदर्शन के समय वे 12 झीलों पर अपनी चौबे घुमाकर अंत में नक्कारे पर टंकार लगाते थे। यह एक नवीन प्रयोग अथवा नवीन टंकार थी, जिसके कारण इस नव टंकारवाले खेल को कानपुर में नौटंकी नाम मिला। बाद में श्रीकृष्ण पहलवान ने अपनी दर्जीखाने की आय से आकर्षित होकर कानपुर में भी एक नौटंकी की व्यावसायिक मण्डली बना ली।

             इस प्रकार भगत की अव्यावसायिक परम्परा से हाथरसी स्वांग तथा कानपुरी नौटंकी की यह व्यावसायिक परम्परा उदित हुई और शीघ्र ही नौटंकी की पचासों व्यावसायिक मंडलियाँ बन गई। ब्रजक्षेत्र की मंडलियों में नत्था-चिरंजी, राय मुरलीधर, दीपचंददीपातथा करनलाल की मंडली अतीत में बड़ी प्रसिद्ध रही तथा कानपुर में श्रीकृष्ण पहलवान केश्रीकृष्ण संगीत मंडल, उस्ताद त्रिमोहन लाल तथा श्री नम्बरदार की मंडली की विशेष ख्याति रही। इन मंडलियों ने पूरे देश में नौटंकी का प्रचार करके इस मंच की जनता के मनोरंजन आकर्षण का मुख्य माध्यम बनाया।6

इलाहाबाद की नौटंकी परंपरा का प्रमाणित इतिहास सन 1913 में वन केशरी मटियारा के महावीर मिश्र की मण्डली से प्राप्त होता है। उस समय कटरा के रामफल एवं सजीदागंज के जगदेव लाला की गायकी ने अत्यधिक ख्याति प्राप्त की थी। इन्हीं प्रतिभाओं से प्रभावित होकर फाफामऊ के श्री रामराज त्रिपाठी ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और नौटंकी मण्डली में कार्य करने लगे थे। पंडित जी को हिंदी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान था। सन 1915 में उन्होंने स्वयंश्रीराम संगीत मंडलीकी स्थापना कर ली। उनके सहयोगी कलाकारों में सर्वश्री महावीर प्रसाद मिश्र, मास्टर मुहम्मद अली, बसंत दादा, राम लोटन सरोज, मास्टर शफी, प्यारे लाल, राजाराम पाण्डेय, राम सिंह, मुहम्मद मूसा, जय जय राम, सत्ती शरण के साथ श्रीमती कोकिला बाई (हबीबुन) के नाम अपने समय में खूब प्रख्यात हुए। जब इनकी मण्डली बम्बई गई तो श्री पृथ्वीराज कपूर और श्री बलराज साहनी ने पूरी मण्डली को रहने के लिए ज़ोर डाला, किन्तु ये रुके नहीं। हाँइतना था कि जब-जब पृथ्वीराज जी अपना थिएटर लेकर इलाहाबाद आते थे, पंडित रामराज जी और उनके समस्त कलाकारों को अपने साथ ले लेते थे।7

            यह मण्डली एक बार जब अमरावती गई तो वहाँ के दस वर्षीय शेख मूसा की गायकी ने पूरी मण्डली को बहुत ही प्रभावित किया। शेख मूसा के आग्रह पर रामराज त्रिपाठी जी उन्हें अपने साथ इलाहाबाद लेते आए। शेख मूसा श्री राम मण्डली में महिला-पात्र की भूमिका करते थे। फाफामाऊ लौटकर उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर अपना नाम रामसिंह रख लिया और हिन्दू लड़की से इनकी शादी भी कराई गई। आज़ादी की लड़ाई में इस मण्डली ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में खूब योगदान दिया। श्री रामसिंह जी नेहरू की सभाओ में सर्वप्रथम पंडित माधव जी का गीतमेरी जान रहेगाया करते थे। श्रीमती गुलाबबाई के नौटंकी-मंच पर आने से पूर्व बाराबंकी-डीह गड़ेरिया में हबीबुन बाई की एक नौटंकी हुआ करती थी। हबीबुन बाई को गायकी और नृत्य में महारत हासिल थी।8  बाराबंकी में उन्होंने बहुत से शिष्य बनाए जिनमें से बाबू लाल भारती का नाम नौटंकी के क्षेत्र में आज भी सम्मान से लिया जाता है। एकबार जब हबीबुन बाई अपनी मण्डली लेकर इलाहाबाद बारा थाना के अंतर्गत घूरपुर आईं, पंडित रामराज जी से शर्त के अनुसार पराजित होकर श्री राम मण्डली में आजीवन के लिए समर्पित हो गयी थी। पंडित रामराज मण्डली द्वारा स्वाधीनतासंग्राम में जनचेतना जगाने के लिए इन्होंने जब पंडित नेहरू के समक्षआज़ादी का निशान मोर तिरंगा झंडा नागीत गाया नेहरू जी ने हबीबुन बाई कोकोकिला बाईका ख़िताब दिया और तभी से हबीबुन कोकिला बाई के नाम से जानी जाने लगी। इस मण्डली के सहनायक कलाकार श्री राजाराम पाण्डेय गीतों की रचना करने में बड़े ही माहिर थे। स्वाधीनतासंग्राम में उन्होंने उस समय की लोकगीतकार श्रीमती विजय लक्ष्मी देवी के रचे बहुत से गीतों को गा-गाकर अलख जगाई थी- जैसेमेरे चरखे का टूटे तार, चरखा चालू रहे’,  इस मण्डली के प्रमुख कलाकारों में श्री राजाराम भी थे जो गायन में प्रसिद्ध थे, ये आज़ादी के लड़ाई में मुंशी मसुरियादीन के रचे बिरहा और कजरीगीत गाया करते थे।9

            श्रीराम संगीत मंडली के ग्रामीण कलाकारों ने जहाँ भगतपरम्परा के साथ ही स्वांग में स्थानीय लोकगीतों एवं ध्रुपद आदि रागरागनियों का प्रयोग किया, वही उनकी बोली में अवधी और भोजपुरी का मिश्रण प्राप्त होता है। शौकिया कलाकारों की यह मण्डली जहाँ ग्रामीण जिलों में अपनी लोकप्रियता बनाए हुए थी, वहीं सन 1930 के आस-पास शाहगंज मुहल्ले के श्री छक्कन उस्ताद ने बन्ने उस्ताद, छेदी  और भुल्लन उस्ताद के सहयोग से कानपुरी शैली पर आधारितप्रेम संगीत नौटंकी कंपनीस्थापित करके शहरों में नौटंकी कला का प्रचारप्रसार किया। इस मण्डली के कलाकारों में सर्वश्री सहामत उल्लासैया’, मोतीलाल, अजीमुल्ला अब्बास, रामदास प्रजापति, भगवानदास प्रजापति, गुलाम जिलानी, करीम उस्ताद, बालेश्वर बाबा, नूरजहाँ बेगम का नाम चर्चित रहा।10

            छक्कन उस्ताद की नौटंकी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे स्वयं अपनी लिखी नौटंकियाँ प्रस्तुत किया करते थे। उनकी लिखी नौटंकियों मेंग़रीब ईद’, ‘प्रेम का तीर’, ‘सच्ची क़ुर्बानी’, ‘बेटे की क़ुर्बानी’, ने खूब प्रशंसा पाई थी। इनकी मण्डली में राजेंद्र प्रसाद जी जब महिला भूमिका में मंच पर उतरते थे तो उनका जादुई नृत्य देखकर लोग दाँतों-तले उँगली दबा लेते थे। इस मण्डली के कलाकारों में गुलाम जिलानी का दावा था कि बैंजो में सरोज बैंजो, डक बैंजो, पिकाक बैंजो, लैंड लायन बैंजो, सुरतरंग, इलेक्ट्रिक बैंजों का आविष्कार उन्होंने किया है। जिलानी जी नेसंगीत भण्डारपुस्तक तीन भागों में लिखी थी, जो प्रकाशित हुई है। इसी मण्डली के करीम उस्ताद ने श्री विनोद रस्तोगी द्वारा प्रस्तुत अब तक की प्रायः सभी नौटंकियों में नक्कारा बजाया है। सन् 1975 में उस्ताद छक्कन की मृत्यु के पश्चात् यह मण्डली तितर-बितर हो गई।11

            सन् 1930-40 के मध्य इलाहाबाद के पश्चिमी क्षेत्र मुंडेरा, बेगम सराय एवं सुलेम सराय में क्रमशः स्व. श्री राम प्रसादभैया जी’, स्व. दसई लाल एवं प्यारे लाल कुशवाहा नेप्रेम-मण्डलएवंमित्र आनन्द थियेटरद्वारा नौटंकी-कला को प्रचारित किया। प्रेम-मण्डल के कलाकारों में ननकू मास्टर, महादेव, छेदीलाल, मुंशी राम खेलावन, सालिगराम कुशवाहा एवं किशोरी लाल को काफी ख्याति मिली तो मित्र आनन्द थियेटर द्वारा शहजादी, बिट्टन, मुस्तफा, मुन्ना मास्टर आदि कलाकार चर्चित हुए।

            पं. रामराज त्रिपाठी की मण्डली जब टूटी तब इलाहाबाद के ग्रामीण जिलों में कई मण्डलियाँ बनी-बिगड़ीं। इनमें उल्लेखनीय हैं सहसों में रामफल और रामसिंह की नौटंकी मण्डली में सुलेमान, फन्नत मास्टर, राम खेलावन एवं मुन्नीबाई ने अपना स्थान बनाया तो मन्नीलाल की नौटंकी मण्डली के द्वारा राजाराम बिंद, सहतु, खिन्नीलाल भारतीय, राजबहादुर और श्रीनाथ आदि ने प्रसिद्धि पाई। श्री मन्नीलाल की मण्डली ने राजारामगायनके सम्मिलित हो जाने के कारण खूब यश कमाया था। इस मण्डली की ख्याति के पीछे खिन्नी लाल भारतीय लिखित नौटंकियों की प्रस्तुतियाँ भी रही।12

            ‘मित्र आनन्द थियेटरऔरप्रेम-संगीत-मण्डलके टूटते ही सुलेम सराय के सतीश सिंह नेसंगीत सदरार ड्रामिकल कम्पनीखोली, इसने भी अपने समय में खूब यश कमाया था। इसके कलाकारों में रामलखन, मुन्ना मास्टर, जीत मास्टर और मु. हुसैन प्रमुख थे।

            वर्तमान में इलाहाबाद के ग्रामीणांचलों में तीन नौटंकी मण्डलियाँ बहुचर्चित हैं। श्री रामसिंह के शागिर्द फूलपुर के श्री रामकुमार ने एक नौटंकी मण्डली खोलीदेहाती फिल्म-संगीत कम्पनीनाम से, रामकुमार जी को क्षेत्र के लोग अमिताभ बच्चन के नाम से बुलाते थे। लेकिन हाल के समय में उनका निधन हो जाने से ये कंपनी भी बंद हो गई। घूरपुर करछना के श्री राजाराम पटेल कीसहृदय नौटंकी मण्डलीमें मुंशीलाल, संतलाल, मिठाईलाल, पी.डी. टण्डन, राम कैलाश, बसन्तलाल, खिन्नीलाल भारतीय, रामसिंह, लल्लू मास्टर आदि लगभग सत्रह कलाकार है। नैनी के श्री चिरौंजीलाल भारतीयआज़ाद थियेट्रिकल कम्पनीमें सर्वश्री दूबलाल, अमरचंद, प्रेम नरायन, गंगा प्रसाद, राधेश्याम, बब्बू, कल्लू, रामू, शंकरदास प्रजापति और भगवान दास भारतीय जैसे कलाकार हैं।13

            इलाहाबाद के नौटंकी-रचनाकारों में सर्वश्री युक्तिभद्र दीक्षित, विनोद रस्तोगी, राजेन्द्र तिवारी, राजाराम गायन, हैदर अली, खिन्नी लाल भारतीय, रामलोचन विश्वकर्मा, रामू जख्मी, चिरौंजीलाल और राजाराम पाण्डेय की रचनाओं को पर्याप्त सराहना मिली है। आकाशवाणी, इलाहाबाद में सर्वप्रथम पं. रामराज त्रिपाठी की मण्डली द्वारासत्य हरिश्चन्द्रतथाराजा मोरध्वजनौटंकी प्रसारित हुई। तत्पश्चात् श्री युक्तिभद्र दीक्षित ने आकाशवाणी के कलाकारों द्वारा भी कुछ नौटंकियाँ प्रस्तुत कराई, जिनमें सेझगडू महराजने काफ़ी ख्याति पाई। श्री विनोद रस्तोगी के प्रयास से राजेन्द्र तिवारी द्वारा लिखी और श्री दीक्षित द्वारा निर्देशितलाख टके की बातभी काफी सफल रही। श्री रस्तोगी की नौटंकीतोता मैनाऔरभगीरथ के बेटेने अपने समय में खूब सराहना प्राप्त की थी।14

निष्कर्ष : इलाहाबाद की नौटंकी परम्परा के ऐतिहासिक अवलोकन के बाद, यहाँ की एक समृद्ध परम्परा मुझे दिखाई देती है। नौटंकी का इतिहास लिखते समय हमें यह ध्यान देना चाहिए कि नौटंकी के नाम पर जो स्थापित केंद्र है जैसे- कानपुर, हाथरस की नौटंकी परम्परा तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए उसके इतर भी देखने की ज़रूरत है, जिससे नौटंकी का समावेशी इतिहास लिखा जा सके, जो लोक सांस्कृतिक इतिहास के लिए समीचीन हो।

संदर्भ :

1.    रामनारायण अग्रवाल : सांगीत: एक लोक नाट्य परम्परा, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, 1976, पृ. 23.
2.    कृष्णदेव उपाध्याय : लोक संस्कृति की रूप रेखा, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2021, पृ. 37.
3.    रामनारायण अग्रवाल : संगीत: एक लोक नाट्य परम्परा, राजपाल एंड संस, 1976, पृ. 28.
4.    वही, पृ. 74.
5.    रौशन तकी : लखनऊ की भांड परंपरा, विश्व प्रकाशन, लखनऊ, 1993,  पृ. 20.
6.    रामनारायण अग्रवाल : संगीत: एक लोक नाट्य परम्परा, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, 1976, पृ. 188.
7.    राजकुमार श्रीवास्तव : लोकनाट्य नौटंकी कुछ प्रश्न, (सं. रविन्द्र नाथ बहोरे एवं विजय पंडित), उत्तर प्रदेश संगीत नाट्य अकादमी, 2001, पृ. 82.
8.    वही, पृ. 82.
9.    वही, पृ. 83.
10. वही, पृ. 84.
11. वही, पृ. 83.
12. वही, पृ. 85.
13. वही, पृ. 84.
14. वही, पृ. 86.

डॉरेफाक अहमद
असिप्रोफ़ेसरमध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग..पी.जीकालेजइलाहाबाद विश्वविद्यालय
रत्नेश कुमार
शोध छात्र, मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग, ..पी.जी. कालेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
ratnesh9421@gmail.com, 8090114156

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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