साक्षात्कार : प्यार से दुनिया बदल जाती है ( दिनेश कुशवाह से प्रभाकरन हेब्बार इल्लत की बातचीत )

प्यार से दुनिया बदल जाती है
( दिनेश कुशवाह से प्रभाकरन हेब्बार इल्लत की बातचीत )


 (दिनेश कुशवाह जी हिंदी कविता जगत का बड़ा नाम है जो वर्तमान में हिंदी विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (मध्य प्रदेश) के वरिष्ठ आचार्य एवं विभागाध्यक्ष के तौर पर जाने जाते हैं तथा महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान केंद्र ओरछा के निदेशक हैं. विद्यार्थी राजनीति के दौर से ही साम्यवादी विचारधारा में रमे रहे हैं. 'वसुधा' के सम्पादन से जुड़े रहे हैं)

समकालीन कवि के रूप में आपने ‘इसी काया में मोक्ष’, ‘खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर’, ‘डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना’, ‘दाम्पत्य के लिए प्रार्थना’, ‘एकलव्य की तरफ़ से’, ‘साँप’ आदि अनेक कविताओं के माध्यम से समकालीन जीवन के विविध परिच्छेदों को अपनी कविता में स्थान दिया है। कवि-आलोचक के रूप में आपसे यह जानने की इच्छा है कि नवत्युत्तर हिंदी कविता की प्रमुख जो धाराएँ हैं, उनको आप किस रूप में देखते हैं?

उत्तर : हेब्बार जी, देखिए, हम वैश्वीकरण के ज़माने में हैं। इस काल में तकनीक और मानवीय पक्षों की बहुत सारी चीजें बदल गई हैं। उन्हें समझे या जाने बिना हम आगे बात नहीं कर पाएंगे। एक प्रवृत्ति या धारा स्त्री की कविता की है, जो घरों में काम करती हैं, बाहर काम करती हैं, जो हमारी माँएँ थीं, बहनें थीं, पत्नियाँ थीं, प्रेमिकाएँ थीं, वे बोलती नहीं थीं। अब वे बोलने लगी हैं और कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा आदि के माध्यम से बोलने लगी हैं। यह तो कविता का वह दौर है जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और राम के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की शुरुआत हुई तो सांप्रदायिक सौहार्द और वैमनस्य के भाव को लेकर भी कविताएं लिखी गईं। लेकिन ज्यादातर कविताओं में जीवन के रंग को, मानव के भीतर के सद्भाव को, अपनापन को, लगाव को आत्मसात करने की भरपूर कोशिशें इन कविताओं के प्रतिपाद्य विषय थीं। एक तीसरी प्रवृत्ति आई, जो आदिवासी चेतना से और दलित चेतना से आप्लावित कविता है। वे जो हमारे आदिवासी भाई-बहनें हैं, वनवासी हैं, गिरिवासी हैं, घोर कंदराओं में रहते हैं, जिनका जीवन बहुत कठिन है, जिनका जल, जंगल, ज़मीन से शताब्दियों से गहरा नाता रहा है। इनकी अपनी संस्कृति है। उनकी ज़मीनें छीन-छीन कर जो उनके नाम पर और अन्य विकास के नाम पर, बांधों और तमाम चीज़ों के नाम पर; विकास के नारे लगाए गए, वे बाहर हो गए, उन्हें हम जनजाति (ट्राईबल) कहते हैं, उनकी भी आवाज़ें उभरके हिंदी कविता में आईं और इन्हें हम ‘जनजातीय कविता’ की संज्ञा देते हैं। जैसे नब्बे के बाद की जो हिंदी कविता है, उसकी एक सबसे प्रबल प्रवृत्ति दलित कविता की है। जो डिप्प्रेस्ड क्लास की कविता है, जो वंचित वर्ग की कविता है। यहां तक आते-आते अनेक लोगों ने अपने जीवन को लिखना प्रारंभ किया हिंदी में। मराठी में और अन्य भाषाओं में तो दलित लेखन था, लेकिन हिंदी में इस तरह का नहीं था। वह बहुत तेज़ी से अस्सी के बाद उभरकर नब्बे तक आते-आते आंधी की तरह प्रकट हुआ है।

प्रह्लाद अग्रवाल ने एक बार कहा था कि “दिनेश कुशवाह संवेदनात्मक ज्ञान के आलोचकीय विवेक सम्पन्न कवि हैं। उनकी कविताएँ सहजबुद्धि के विवेक से उपजी रचनाएँ हैं; इसीलिए मुक्त छन्द में होने के बावजूद उनमें संगति, गत्यात्मकता, आन्तरिक लय, संवेदना एवं प्रेम के स्वर प्रमुख हैं।” ‘एक लड़ाई अनवरत’ शीर्षक कविता में आप अतीव संयम के साथ प्रेम के स्वर को मुखर कर रहे हैं। कविता कहती है कि “प्यार करके हमने/सिर्फ महसूस किया है/कि उसके मिलते ही/एक ही दिन में बदल जाती है दुनिया/कि उसके टूटते ही/एक ही दिन में बदल जाती है दुनिया।” चाहे वह स्त्री कविता हो, आदिवासी कविता हो या दलित कविता हो, व्यापक मायने में ‘प्यार’ की तलाशी की कविता है, जो लंबी अवधि से ‘प्यार’ से वंचित रहे हैं। असल में प्रेमविहीन समाज असभ्य समाज है। दलित कविता वास्तव में इस असभ्यता को वर्तमान समाज के सामने रखती है। इसपर आपकी टिप्पणी क्या रहेगी?

उत्तर : वाह! क्या बात कही है। प्रेमविहीन समाज असभ्य समाज है। हमें यह जान लेना चाहिए कि जो खाते-पीते हैं या अघाए हुए लोग हैं, जो समाज की मुख्यधारा के लोग हैं, वह मोबाइलों के दौर के आशिक जैसे हैं, उन्हें उन लोगों का दुःख, उन लोगों की पीडाएँ, उन लोगों की संवेदनाओं का पता नहीं हैं, जिन्हें हम दलित या वंचित कहते हैं। ये जो दलित कविताएँ हैं हिंदी की, एक आवाज़ उठा रही हैं कि आप-हम समझें कि हम भी इंसान हैं। उन्होंने बार-बार यह बताया कि हम आपके साथ हैं और अगर आप परमपिता परमेश्वर की संतान हैं तो हम भी उसी के अंश हैं। 

हेब्बार जी, इस बात को बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज से दो या चार हज़ार वर्ष पूर्व ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में जब मनुष्य की उत्पत्ति ब्रह्म से बताई गई और मुख से ब्राह्मण पैदा हुआ, वक्ष (भुजाओं) से क्षत्रिय पैदा हुआ, पेट से वैश्य पैदा हुआ और पैर से शूद्र पैदा हुआ। इसके तहत जातिगत श्रेणीबद्धता की स्थापना की गई। तब से लेकर आज तक भारतीय समाज में अगर दलितों की दृष्टि से देखें तो पूरा का पूरा इतिहास भयावहता, क्रूरता, अपमान, उत्पीडन का इतिहास रहा है। समाज में कुत्ते-बिल्ली सबके घर में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन मनुष्य नहीं प्रवेश कर सकता। वह मनुष्य, जो प्रकृति की अनुपम भेंट है, उससे जाति के नाम एक सौ फीट और चौसठ फीट दूरी बरतनी पड़ती है। लोग उससे शरीर छू जाने पर अपने को अपवित्र मानते थे। मुझे बार-बार आज नारायण गुरु की याद आ रही है, विवेकानंद की याद आ रही है। विवेकानंद की भाषा में यह देश ‘विशाल पागलखाना’ है।

आप एकदम सही कह रहे हैं। दलित कविता किस प्रकार अपने कथ्य और शिल्प पक्ष पर क्रांति कर रही है? 

उत्तर : हिंदी की दलित कविता के संदर्भ में कहूं तो उन्नीस सौ चौदह में हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ सरस्वती में प्रकाशित हुई थी, याद आती है। हीरा डोम कई मिथकीय उदाहरणों के बल पर कहते हैं कि ईश्वर ने प्रह्लाद को, गजराज को, द्रौपदी को बचाया। रावण को मृत्यु का घाट उतार दिया तथा ब्रज के लोगों की रक्षा की थी। लेकिन वही भगवान दलितों के दुःख दर्द को देखकर द्रवित क्यों नहीं हो उठता? लगता है कि ईश्‍वर भी मनुवादी व्यवस्था के रंग में रंगकर भ्रष्ट तो नहीं हुआ? ईश्वर दलितों को छूने से डरता है। हीरा डोम का कहना है कि दलित जनों से बलात् बेगारी करवाई जाती है। आठों पहर ठाकुर खेत में चाकरी करवाता है। बावजूद उन्हें भरपेट खाना तक नहीं मिल रहा है। पर ठाकुर तो हमेशा आराम की नींद में है, चैन के साथ, मस्ती के साथ समय काटता है। ऐसा क्यों है भगवान? हीरा डोम सामाजिक विषमता के साथ वर्ग आधारित समाज की पोल खोल देते हैं। पूरी कविता गहरे व मर्मस्पर्शी यक्ष प्रश्‍न छोड़ती है। जिसका उत्तर न मुख्यधारा के समाज के पास है, न अंग्रेजी सरकार के पास और न ही तथाकथित भगवान के पास है। यह कविता गहरे आक्रोश और वेदना की कविता है, जो तत्कालीन दलितों की मनोदशा व्यक्त करती है। जो डोम जाति है, वह अंत्यज है, वह कीचड़-बदबू में उसी तरह रहते हैं जैसे मेहतर जाति के लोग रहते हैं, सफाई-कर्मी रहते हैं। वह ईश्वर जो सब कुछ देख रहा है, अपनी संतानों की मंगल कामना कर रहा है, उसी की कुछ संतानें इस तरह की अमानवीय स्थितियों में, कीड़ों की तरह जीवन यापन कर रही हैं। तो ऐसी संतान अपने बाप को भला-बुरा कहेगी। अछूत की शिकायत की मूल भाषा भोजपुरी है। कविता बोल उठती है- “हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी, /हमनी के सेहेबे से मिनती सुनाइबि।/हमनी के दुख भगवनओं न देखताबे, /हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।/पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजाँ, /बेधरम होके रंगरेज बनि जाइबि/हाय राम! धरम न छोडत बनत बाजे,/बेधरम होके कैसे मुँहवा दिखाइबि।।/खम्भवा के फारि पहलाद के बँचवले जाँ,/ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।/धोतीं जुरजोधना कै भइआ छोरत रहै,/परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।/

मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,/कानी अँगुरी पै धैके पथरा उठवले।/कहँवा सुतल बाटे सुनत न वाटे अब,/डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।।/हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजाँ/दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।/ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं,/हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।/हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।/जेत उइओं बेगरिया में पकरल जाइबि।/ मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,ई कुल खबरि सरकार के सुनाइबि।।/

बभने के लेखे हम भिखिया न माँगेनिजाँ,/ठकुरे के लेखे नहिं लउरि चलाइबि।/सहुआ के लेखे नहि डाँड़ी हम मारबजाँ,/अहिरा के लेखे नहिं गइया चराइब।/भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबजाँ,/पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।/अपने पसिनवा कै पइसा कमाइबजाँ,/

घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।।” देखिए कि कविता कैसे पौराणिक मिथकों के बल पर हमारे समाज की पथरीली अवधारणाओं को तहस-नहस करती है और उसी के अगल-बगल कानपुर के एक मज़दूर काशी बाबा जो कि दलित थे, उनकी एक कहानी ‘छोटे और बड़े के सवाल’ छपी, जिसमें उन्होंने नायक को ‘शोषक चंद’ कहा। भाषा की ताकत भी देखिए।

इतिहास पर नज़र डालें तो मालूम होता है कि हिंदी में जो प्रगतिवादी कविता है, उस कविता ने दलित कविता की भूमिका तैयार कर दी थी। यह अस्सी से नब्बे तक का दशक था, तब पटना के बेलछी गांव में 27 मई 1977 को हुए नरसंहार ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि आज भी उस घटना को याद करते समय हमारी रूह कांप उठती है। जनक पासवान ने कहा है कि उनके घर के चार लोगों को जिंदा आग के हवाले कर दिया गया था। इस क्रूर हत्याकांड पर बाबा नागार्जुन ने एक बहुत लंबी कविता लिखी थी- 'हरिजन गाथा'। कवि का कहना है कि ये कातिल लोग तो मां के पेट में स्थित भ्रूण की भी हत्या करने वाले हैं। ये तो नरभक्षी की खाल ओढ़े हुए जानवर हैं। एक छोटे से दलित शिशु को देखकर उस समय बाबा नागार्जुन ने घोषणा की थी कि वह ‘अग्निपुत्र’ है। उन्होंने कहा कि दलित मांओं के सब बच्चे अभागे होंगे, बागी होंगे, वे अंतिम विप्लव के सहभागी होंगे। कविता की पंक्तियां मेरी जुबान पर हैं- “दिल ने कहा—दलित माँओं के/सब बच्चे अब बागी होंगे/अग्निपुत्र होंगे वे, अंतिम/विप्लव में सहभागी होंगे/दिल ने कहा—अरे यह बच्चा/सचमुच अवतारी वराह है/ इसकी भावी लीलाओं का/ सारी धरती चरागाह है/दिल ने कहा—अरे हम तो बस/पिटते आए, रोते आए!/बकरी के खुर जितना पानी/उसमें सौ-सौ गोते खाए!/दिल ने कहा—अरे यह बालक/निम्न वर्ग का नायक होगा/नई ऋचाओं का निर्माता/नए वेद का गायक होगा/होंगे इसके सौ सहयोद्धा/लाखलाख जन अनुचर होंगे/होगा कर्म-वचन का पक्का/फ़ोटो इसके घर-घर होंगे/दिल ने कहा—अरे इस शिशु को/दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी/इस कलुए की तदबीरों से/शोषण की बुनियाद हिलेगी/दिल ने कहा—अभी जो भी शिशु/इस बस्ती में पैदा होंगे/सब के सब सूरमा बनेंगे/सब के सब ही शैदा होंगे।” हेब्बार जी, भाषा का जादुई स्पर्श देख रहे हैं न। 

हमें अंतिम विप्लव पर ध्यान देने की ज़रूरत है। मार्क्स तो अपने क्रांति-बोध में आर्थिक पक्षों पर अधिक ज़ोर देते हैं, उसमें सामाजिक पक्ष को जोड़ने की ज़रूरत है। अगर किसी व्यक्ति का आर्थिक रूप से शोषण हो रहा है तो उसे उसके खिलाफ़ लड़ने का पूरा अधिकार है। इक्कीसवीं शताब्दी में भी दलित लोग अपने को अकेला क्यों महसूस कर रहे हैं? आखिर यह सवाल उठता है कि हज़ारों सालों में हमने कौन-सी संस्कृति बनाई है, वह कौन-सा हमारा ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है, जिसको लेकर हम सरासर डींग मारते रहते हैं। हम हज़ारों सालों से यह कह रहे हैं कि एक-दूसरे के प्रति प्रेम से भर जाओ, करुणा करो, अहिंसा के बल पर जीवन-यापन करो। लेकिन हम देख रहे हैं कि कहीं कोई छद्म है, कोई धोखा है, क्या हम किसी हिपोक्रेज़ी के शिकार नहीं हुए हैं? एक जहरीला बीज जो हमारी संस्कृति में कहीं बोया तो नहीं गया है? जिसके फलस्वरूप हम अन्य के प्रति कड़ुआ व्यवहार कर जाते हैं, वह भी ‘हरि के जन’ (हरिजन) के साथ। इस वक्त प्रभाकरन जी मेरे दिल में बाबा नागार्जुन की स्मृति में लिखी अपनी कविता जिसका शीर्षक है- ‘हरिजन देखि’ याद आ रही है। “खल गई विपदा तो कहा राम राम/टल गई विपदा तो कहा राम राम/कुछ हुआ गड़बड़ तो कहा राम राम/सपने में बड़-बड़ तो कहा राम राम।/बिसर गया काम तो बोले अरे राम/निकल गया काम तो बोल जै राम/मिले तो राम राम, चले तो राम राम/डकारे तो राम राम, सिधारे तो राम राम/बोली लगी तो राम राम, गोली लगी तो राम राम/जीवन-रेखा राम राम, सबमें देखा राम राम।/बूढ़े बच्चे, झूठे-सच्चे, प्रेम से बोलो राम राम/जय श्री राम! हो गया काम।/पर जब सुना किसी का नाम/आगे पीछे लगा है राम/जैसे राम सजीवन राम/या बाबू जगजीवन राम/राम नाम की माला फेंकी/मुँह से निकला छी! छी! राम।/हरिजन देखा आँखें फूटीं/करुणा, दया, भलाई छूटी।”

दलित कविता के मुख्य संबोध्य क्या-क्या हैं? 

उत्तर : तकरीबन पांच हज़ार सालों से जिन ऋचाओं को, जिन सभ्यताओं को हम गाते आ रहे हैं, दुहरा रहे हैं जिनकी वाहवाही कर रहे हैं, उन्होंने हमारे अंतस को प्रेम, करुणा, अहिंसा से नहीं भरा है। हमें नई ऋचाएँ लिखनी होंगी। खुशी की बात यह है कि आज दलित कविता नई ऋचाएँ लिख रही हैं। दलित कविता सिर्फ साहित्यिक विमर्श नहीं है, वह राजनीतिक विमर्श भी है, आर्थिक विमर्श भी है, सांस्कृतिक-सभ्यता विमर्श भी है। वह इस समाज में, इस सत्ता में बराबरी की और मानवीयता और स्वाभिमान के साथ जीने की सुंदर रिश्तेदारी की कविता है। वह अपने संपूर्ण कलेवर में अस्वीकार की कविता है। वह हर तरह के छल, प्रपंच, धूर्तता, झूठ, फ़रेब सबको अस्वीकार कर जाने की कविता है। वह ईश्वर, भाग्य, पुनर्जन्म को नकारने की कविता है। 

इस बौद्धिक-सांस्कृतिक नकार के बल पर जमीन-पूँजी का, यहाँ तक कि जन्मना जाति का जो अहंकार है, उसी ने शताब्दियों से दलित जनों को उत्पीडित किया, उनकी जो मिथकीय संकल्पनाएं हैं, उनका भी बखूब प्रयोग कर रही है दलित कविता। लेकिन उस तरह से दलित कविता में ज्यों का त्यों प्रयोग नहीं हुआ है, जैसे उन पौराणिक मिथकों में प्रयुक्त हुआ है। अब कोई भी दलित लेखक एकलव्य की तरह अंगूठा देने के लिए तैयार नहीं है, अब कोई भी स्त्री द्रौपदी की भूमिका में जाने के लिए तैयार नहीं है। वह उस धर्मराज युधिष्ठिर से कह रही है कि 'अरे तेरी माँ ने यह कहा कि अगर कोई फल लाए, तो बाँट के खा लो। मैं फल नहीं हूँ, मुझे बाँट के नहीं खाया जा सकता, मैं अपने को पाँच जगह बांटने का विरोध करती हूं। यहां देखिए कि भाषिक स्तर पर उन्हीं लोगों के मिथकों की नूतन व्याख्या हो रही है। जयप्रकाश कर्दम कहते हैं कि जब भी पुर्वी हवा चलती है, एक कसक उठती है मेरे भीतर कि कदनी-मदनी जाट ने मेरे पिता के कमर पर किस तरह से लाठी मारी थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि भगवान, चार दिन के लिए दुनिया में इन्सान बन देख, इस धरती पर आकर देख, अपने को कभी भी चावड़ी में दलित की भूमिका में ला करके देख, तब पता चलेगा कि दलित जीवन क्या है। इस प्रकार दलित कविता आज अपने जीवनानुभवों का नया भाष्य रच रही है। कर्ण को लेकर दिनकर ने जो लिखा है कि ‘दुनिया में जो भी दलित, प्रताडित जन हैं, वे प्रताड़ना के विरुद्ध अविराम समर के पथ पर हैं।’ मैं जानता हूं कि जिसे दलित साहित्य कहा जाता है, वह शताब्दियों के संघर्ष का साहित्य है। वह किसी जाति के विरोध का नहीं, वह ब्राह्मण जाति का विरोधी नहीं है, वह ब्राह्मणवाद के विरोधी है। दलित कविता उसके छल को समझा रही है। वह देखती है कि किस तरह से जनता के दिल-दिमाग की शताब्दियों से कंडीशनिंग हुई है। जब किसी को अनवरत बहुत दिनों तक गुलाम बनाकर रखा जाए तो उस गुलामी की मानसिकता में उसका सारा तन-मन ढल जाता है। इसलिए ही दलित कविता गुलामी की प्रतिरोधी विचारधारा को हमारे सामने रखती है। इसलिए ही दलित कविता में आक्रोश है, चिल्लाना है, चीख है, बेचैनी है, पीड़ा है वगैरह वगैरह। लोग सवाल उठाते हैं कि उनके पास भाषा नहीं है, उनके पास शिल्प नहीं है, कैसे लिखना चाहिए, नहीं जानते हैं। सवाल यह भी बनता है कि आप क्या सब कुछ जानते हैं? जब एक दलित जिसे चमार कहा जाता है, जब मरे हुए पशु के मुंह को रस्सी से बाँध देता है। क्यों बांध देता है, दूसरों को पता नहीं। जो जानते नहीं, सीधे उससे जाकर पूछिए। यह बात दलित साहित्य पर भी लागू है। जो चीजें आप जानते ही नहीं हैं, जो जानता है उसे खुलकर लिखने दीजिए। निश्चित रूप से सहानुभूति के लेखन से स्वानुभूति का लेखन जो भोगा हुआ यथार्थ है, वह अधिक बडा होगा, मार्मिक होगा। कल्पना कीजिए कि बेटियाँ और बहनें जो हमारी हैं, बिना किसी भाषा और शिल्प के सिर्फ कलम से लिखने लगती हैं अपने घर-बार के जीवन को लेकर, अपने जीजा, ताऊ, चाचा, काका, मामा, भाई, बंधु, दोस्त सबको लेकर एक गुप्त डायरी लिखती हैं तो सारे समाज की पोल खुल जाएगी। इस तरह से जो भोगा हुआ दलित का यथार्थ है उसकी कविता में आ रहा है और कविता से बढ़कर आत्मकथा में आ रहा है। जीवन का जैसा कारुणिक चित्र उन आत्म‌कथाओं में है, उसका शब्द-शब्द कविता है, चाहे वह ओमप्रकाश वाल्मीकि का 'जूठन हो, चाहे वह तुलसीराम की ‘मुर्दरिया' हो और चाहे 'अपने-अपने पिंजरे' हो। अस्वीकार भरपूर है तो इसके साथ स्वीकार भी है। दलित कविता की मांग है कि हमारे साथ सहानुभूति, ममता, करुणा, दया के साथ खड़े रहें। प्रेमचंद हमारे साथ हैं, 'सवा सेर गेहूँ', 'सद्गति, 'ठाकुर का कुआँ' आदि कहानियाँ लिखने वाले हमारे साथ नहीं तो किसके साथ हैं। हमारे वर्ग शत्रु नहीं हो सकते हैं। इसीलिए सहानुभूति के लिखे को भी हम स्वीकार करें।

आज की स्त्री लेखनी सीमाओं को तोड़ने का संघर्ष किस लेवल पर कर रही है? 

उत्तर : डॉ. लोहिया ने कहा था कि हमको सावित्री की ज़रूरत नहीं। अहिल्या की नहीं, पति परमेश्वर की भी नहीं। जन्म से लेकर और मृत्यु तक बंधनों में रहने वाली स्त्री। अहिल्या ब्रह्मा की मानस पुत्री है। अहिल्या सभी गुणों से परिपूर्ण थी और बहुत ही सुंदर और रूपवती थी। राजा इंद्र अहिल्या की सुंदरता के कायल थे। वे अहिल्या के साथ विवाह करना चाहते थे, शर्त रखी गई कि जो भी तीनों लोकों की परिक्रमा सबसे पहले करके आएगा, वह अहिल्या से शादी करेगा। इंद्रादि अन्य देवताओं ने तीनों लोकों की परिक्रमा करना शुरू किया। पर गौतम ने परिक्रमा के दौरान एक गर्भवती कामधेनु गाय की परिक्रमा की। इसलिए ब्रह्मा ने कहा कि कामधेनु गाय तीनों लोकों से श्रेष्ठ है। इसलिए ब्रह्मा ने अहिल्या का विवाह गौतम से करवाया। इससे इंद्र क्रोधित हुए। यह एक पौराणिक कथा है। उसे अनेक कवि-लेखकों ने अनेक तरह से लिखा है। कथा प्रचलित है कि एक बार गौतम कुटिया से बाहर गए थे तो इंद्र गौतम ऋषि का वेश धारण कर अहिल्या के समीप गए। उसी समय गौतम ऋषि वहां आए। उन्होंने बिना कुछ कहे-जाने गुस्से में होकर अहिल्या को शिला बन जाने का शाप दे दिया। बाद में राम और लक्ष्मण वनवास करते समय गौतम के आश्रम पहुंचे, तब श्रीरामचंद्र के चरण स्पर्श से वह शिला बनी अहिल्या, फिर से नारी बनी, नया जीवन मिला। आजकल भी किसी स्त्री को दोस्त बनाकर देखो, तब राम और अहल्या का मिथक खुलेगा। भर्तृहरी ने लिखा है “नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तम; मनोरथाः दुर्जनमानवानाम्।/त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम; देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।। 'राजा का चित्त, कंजूस का धन, दुर्जनों का मनोरथ, पुरुष का भाग्य और स्त्रियों का चरित्र देवता तक नहीं जान पाते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है?' कबीर भी कहते हैं- “नारी की झाई पड़त, अन्धा होत भुजंग/कोई साधू जन ऊबरा, सब जग मूआ लाग॥” बचपन से जिस पुरुष को सिखाया जा रहा है कि स्त्री नरक का द्वार है, ऐसे में वह माँ को आदर पूरी तरह से कैसे दे पाएगा? जमाना बदल गया है। कात्यायनी की कविता कहती है कि आज की लड़की अम्मा के कोसने पर भी, पापा के चीखने पर भी परंपरागत बंधन में रहकर जीने वाली नहीं है। वह हॉकी खेलती रहेगी, सपने में और जीवन के मैंदान में। कविता की पंक्तियां आप तो जानते हैं न? कविता है- “अम्मा कोसेगी-/ 'किस घड़ी में पैदा किया था/ऐसी कुलच्छनी बेटी को!'/बाबूजी चीखेंगे-/'सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !'/घर फिर एक अँधेरे में डूब जाएगा/सब सो जाएंगे/लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में/खटिया पर चित्त लेटी हुईं/अम्मा की लम्बी साँसें सुनतीं/इंतज़ार करती हुईं/कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएंगी/सो जाएंगी लड़कियाँ/सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे/स्टिक को साधे हुए हाथों में/पृथ्वी क छोर पर पहुँच जाएंगी/और 'गोल-गोल' चिल्लाती हुईं/एक दूसरे को चूमती हुईं/लिपटकर धरती पर गिर जाएंगी।”

आज कल की चर्चित कवयित्री है, शुभम श्री, कहती हैं- “साथ देगा मन/असंख्य कल्पनाएँ करूँगी/अपनी क्षमता को/आख़िरी बूँद तक निचोड़ कर/प्यार करूँगी तुमसे/कोई भी बंधन हो/भाषा है जब तक/पूरी आज़ादी है।” स्त्री किससे स्वतंत्रता चाहती है? असमानता से, हिंसा से, बंधुत्वहीनता से, गैर बराबरी से। मुखर रूप में आजकल स्त्री आत्मकथाओं में स्त्री की दबी आवाज़ निकल रही है। यदि स्त्री की दुनिया की आशा-आकांक्षाओं का पता लगाना चाहे तो प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’ पढ़िए, कृष्णा सोबती की ‘गुड़िया के भीतर गुड़िया’ पढ़िए, मैत्रयी पुष्पा की ‘क्स्तूरी कुंडलि बसै’ पढ़ लीजिए, ‘मेरी कहानी’ कमला दास की पढ़िए। जनसत्ता में आई मेरी कविता ‘अच्छे दिनों का डर’ जो कवि वीरेन डंगवाल के लिए समर्पित है, उसमें गैरबराबरी की दुनिया से स्त्री और दलित दोनों प्रताड़ित हैं। कविता की पंक्तियां सुनिए- “एक दिन ऐसे ही/नहीं रहेंगे बाल/नहीं रहेंगे दाँत भी/आँखो की ज्योति धुँधली हो जाएगी/एक दिन मिट्टी में मिल जाएगी यह देह।/पर देश नहीं रहेगा/शून्य हो जाएगा संविधान/लोकतंत्र को लकवा मार जाएगा/सबके लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी/सोचकर डर लगता है।/जब जीवन के अंतिम सत्य से/डर नहीं लगता/तब छप्पन इंच सीने की हुंकार से/डर क्यों लगता है/जब अच्छे दिन आने वाले हैं/तब डर क्यों लगता है।/मेरे भाई!/मैं सीता और शंबूक दोनों हूँ/मुझे रामराज्य से डर लगता है।” आज की स्त्री को तुसली की उस चौपाई से डर नहीं लगता है जिसमें कहा गया है कि “ढोल, गंवार, शूद्र ,पशु ,नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।” आज की स्त्री कहती है- “ढोल, गंवार, पति, घोड़ा-जितना मारो उतना थोड़ा।” (परिहास कर हँसते हैं)

निर्मला पुतुल का कहना है कि स्वतंत्रता का सच्चा मतलब अपने अंतस की उदात्तता की, अभिव्यक्ति की, सांस्कृतिक स्थिति से है, लेकिन स्त्री के ऊपर सभी दिशाओं से सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक नियंत्रण व्याप्त हैं। बोनसाई की भांति उसकी जिंदगी सिकुड़ी हुई रहती है, वह अलंकृत वस्तु मात्र रह जाती है। यह सही है कि औरत के रूप में, पत्नी के रूप में आज की स्त्री पूरा घर संभालती है। सास-ससुर, देवर-देवरानी, बाल-बच्चे, पति आदि की देखभाल करती है, खेती-बाड़ी संभालती है। बहुविध भूमिकाओं के भीतर फंसकर वह औरत पूरे घर में बिखर जाती है। ज़मीन पर, घर पर, उसका नाम तक नहीं। फिर भी निर्लिप्त होकर, गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच कई रूपों में, स्त्री जीवित रहती है। पर वह क्या है, वह यह है कि दूसरों के लिए गुलामी करती है, उसके होने और जन्म लेने का क्या मकसद है? इस प्रकार अनगिनत सवालों को हमारे सामने छोड़कर कविता अपना सफ़र आगे बढ़ाती है। कविता की पंक्तियां हैं- “धरती के इस छोर से उस छोर तक/मुट्ठी भर सवाल लिए मैं/दौड़ती, हाँफती, भागती/तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर/अपनी ज़मीन/अपना घर/अपने होने का अर्थ।” (निर्मला पुतुल)

पुतुल की दूसरी कविता है ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा’। प्रस्तुत कविता में मिट्टी, पेड़-पौधे, अपने परिवेश के प्रति एक आदिवासी लड़की का अपनापन मुखरित है। साथ ही अपने बाबा के प्रति उसका लगाव भी अभिव्यंजित है। उल्लेखनीय है, इन सबके रहते हुए भी इसमें सामाजिक स्थिति एवं व्यवस्था पर व्यंग्य है, पितृसत्ता की शक्तियों के खिलाफ़ उलाहना है। शहरी संस्कृति की कृत्रिमता पर अनबन है। कविता की पंक्तियां यों प्रारंभिक होती हैं- ‘बाबा/मुझे उतनी दूर मत ब्याहना बाबा/जहां मुझे मिलने की खातिर/घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हें।’ अपने से ज़्यादा यहां दूसरों की भावनाओं का गौर लड़की करती है क्योंकि वह पहचानती है, निज सुख का आधार दूसरों पर स्थित है। लड़की पहचानती है कि आजकल जिस तादाद (मात्रा) में प्रकृति विलुप्त होती जा रही है, ऐसे में जिंदगी खुशी से काटी नहीं जा सकती है। इसलिए जहां प्रकृति विपुलता में नहीं है, लड़की बाबा से प्रार्थना करती है, वहां जाकर मेरी सगाई मत करना। प्रकृति की गोद में पली लड़की प्रकृति से वियुक्त होना नहीं चाहती है, क्योंकि वह जानती है, प्रकृति के अभाव में शुद्ध हवा नहीं रहेगी, पानी नहीं रहेगा। शहर से दूर रहकर गांव की छाया में वह रहना चाहती है। धार्मिक कुरूपता पर व्यंग्य कसते हुए पुतुल कहती हैं- “मत ब्याह ना उस देश में/जहां आदमी से ज्यादा/ईश्वर बसते हो।’ पिता से उसकी बिनती है कि मेरा विवाह ऐसी जगह में कर देना, जहां खुला आंगन हो, मुर्गी की बांक पर सुबह होती हो। स्पष्ट है कि आदिवासी जीवन में मिट्टी की गंध है, सामाजिकता की सुरभि है, प्रकृति का श्रृंगार है। इसलिए आदिवासी कविता में प्रकृति के प्रति रागात्मक बोध झलकता है। स्पष्ट रूप से पूंजी की विनाश संस्कृति का विरोध ऐसी कविता करती है, क्योंकि पूंजीवाद अपने आप में प्रकृति विरोधी है। इसलिए महादेव टोपो कहते हैं- ‘जहाँ पूंजी का आतंक है, वहां मुर्गा बोलेगा नहीं दादा।’ आजकल औद्योगिक संस्कृति के विस्तार से आदिवासी जंगल से बेदखल होने के लिए मजबूर है। कोयला खादानों, इस्पात के खानों का विस्तार जंगल को गड्ढा मात्र बनाता है। ‘संथाल परगाना का दुःख’ (अशोक सिंह) यह है कि कंक्रीट जंगलों के पसरने से वन का विस्तार कम होता जा रहा है। जंगलों के प्रति, जो अघोषित उलगुलान है, उसमें वृक्ष काटे जा रहे हैं, माफियाओं की कुल्हाड़ी से। अनुज लुगुन कहते हैं- ‘आदिवासी सपनों में हवाई अड्डे नहीं, एक्सप्रेस हाइवे नहीं।’ वे लिखते हैं- ‘हमारे सपनों में रहा है/एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए/खेतों के सम्मान के लिए बनाए रखना।’ इसलिए पुतुल की कविता में वर्णित बकरी की बिक्री को रोकने का आग्रह में जल-जंगल-ज़मीन से जुड़ी संस्कृति के बचाव का आग्रह निहित है।

यह सच है कि, पुरुष की कविता में ‘असली स्त्री’ अप्रत्यक्ष है। प्रस्तुत कविता में एक मासूम लड़की के हृदय की नैसर्गिकता का मैं अनुभव करता हूँ। अपने वर चुनने के संबंध में बाबा की बेटी खुली बात करती है, संवाद के लिए, सन्नद्ध होती है। यही एक प्रकार से जीवन का जनतंत्र है। श्यामराव राठौर कहते हैं कि ‘स्त्री-पुरुष संबंध के संदर्भ में आदिवासी समाज बेहद उदार है। स्त्रियों को बराबर हक और सम्मान हासिल है आदिवासी समाज में।’ इसलिए वह बता सकती है- मुझे निकम्मा लड़का नहीं चाहिए, निरक्षर नहीं चाहिए। बराबरी एवं प्यार संबंध की दृढ़ता पर विश्वास करती हूई पुतुल की लड़की कहती है- ‘वसंत के दिनों में ला सके, जो रोज़/मेरे जुड़े की खातिर, पालाश के फूल/जिससे खाया नहीं जाए/मेरे भूखे रहने पर/उससे ब्याहना मुझे।’

जीवन में सब कहीं सम-भाव का विस्तार हो। यह संवेदनात्मक विस्तार मानवीय होता है। ‘सदी की शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत’ कविता में मैंने एक बात पर बल दिया है, यह मेरा भोगा हुआ यथार्थ है। ‘गृहस्थ, सन्यासी, परमहंस/मद्यप, चोर, लुटेरे/ राजा, ब्रह्मा, विष्णु, मुरारी/ सारे के सारे इसी स्त्री के पीछे पड़े थे।’, पर प्रेम किसी ने नहीं किया। वह भोग की वस्तु बनाई गई, और स्वयं भी वह बनती चली गई। स्त्री इस उलझन-फंदे से बाहर निकलकर नहीं आ पाई। आज की कविता मुझे लगता है कि स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, अधिकार, सम्मान, अपनापन चाहती है। बस इसी से जीवन सुंदर सुरभिल सस्य श्यामल हो जाएगा। बस मैं इतना कह सकता हूं कि ‘प्यार’ से ‘दुनिया’ ‘बदल’ जाएगी।

मनपसंद एक कविता हमारे लिए

उत्तर : अरे, क्यों नहीं (पल भर सोचने के बाद) ‘कथाकार प्रमिला के लिए’ नामक कविता आपके लिए। जिसका शीर्षक है- ‘हर औरत का एक मर्द है।’ 


“छलना कह लो, माया कह लो
नागिन, ठगिनि, दुधारी।
ढोल, गँवार, शूद्र पशु कह लो
कामिनी, कुटिल कुनारी॥

डायन या चुड़ैल कह पीटो
अबला दीन बेचारी।
ज़हर पिलाओ, गला-दबाओ
अथवा करो उघारी॥

सावित्री घर की मर्यादा
सतभतरी रसहल्या।
पति परमेश्वर की आज्ञा है
पत्थर बनो अहिल्या॥

यज्ञों में दुर्गति करवाओ
जुआ खेलकर हारो।
प्रेम करे तो फाँसी दे दो
पत्थर-पत्थर मारो॥

बलि दे दो, ज़िंदा दफ़नाओ
जले बहू की होली
पतिबरता तो मौन रहेगी
कुल्टा है जो बोली॥

सती बने या जौहर कर ले
डूब मरे सतनाशी।
विधवा हो तो ख़ैर मनाओ
भेजो मथुरा-काशी॥

जाहिल-ज़ालिम आक्रांता को
बेटी दे बहलाओ।
बेटे ख़ातिर राज बचा लो
ख़ुद भी मौज उड़ाओ॥

कुआँ, बावली, पोखर, नदियाँ
मर सीताएँ पाटीं
किस करुणाकर, करुणानिधि की
वत्सल छाती फाटी॥

अपनी दासी उनकी बेटी
अपनी बेटी उनकी।
महाठगिनि ने पूछा मुझसे
ये माया है किनकी॥

उन मर्दों में मैं शामिल
फिर भी कहूँ तिखार।
हर औरत का एक मर्द है
लुच्चा, जबर-लबार॥”

संदर्भ :
1.दिनेश कुशवाह, इतिहास में अभागे, राजकमल प्रकाशन, 2017, पृष्ठ 40.

प्रभाकरन हेब्बार इल्लत
विभागाध्यक्ष हिंदी साहित्य, कालिकट विश्वविद्यालय, केरल-673635
सम्पर्क : 9446661250, drhebbarillath@gmail.com

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

2 टिप्पणियाँ

  1. हेमंत कुमारअक्तूबर 29, 2024 3:01 pm

    विचारोत्जक साक्षात्कार!

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  2. बातचीत पढ़ी, बेहद ज्ञानवर्धक और धारा की तरह बहती हुई बातचीत थी. विषय और उनके मुताबिक़ उत्तर में क्रमबद्धता सरस अनुभव हुई. दिनेश जी ने बहुत से ज़रूरी सवाल पाठकों हेतु सोचने के लिए छोड़ दिए हैं.आशा है आगे भी दिनेश जी की कवितायेँ यहाँ पढ़ने हेतु मिलेंगी.-माणिक

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