शोध आलेख : संत पलटू दास के काव्य में निहित समाजिक चिंतन / वंदना श्रीवास्तव

संत पलटू दास के काव्य में निहित समाजिक चिंतन
वंदना श्रीवास्तव


शोध सार : पलटू दास भीखा साहब की शिष्य परम्परा में उच्च कोटि के संत और कवि हैं। उन्होंने अपने अध्यात्म, कर्म, और समाज के भीतर विद्यमान शाश्वत मूल्यों की पहचान कर उनकी स्थापना को ही अपना सर्वप्रमुख कर्तव्य माना। अपनी बानियों में वे बाह्याडंबरों से मुक्त, सच्चे धर्म, जनकल्याण की नीति व जीव के चरित्र निर्माण के साथ ही एकता व प्रेम का संदेश देते हैं। मानव मात्र में समानता उनका सिद्धान्त है। भिन्न भिन्न जतियों में बंटे भारतीय समाज में जाति के नाम पर होने वाले भेद भाव, अत्याचार पलटू साहब को स्वीकार नहीं। वास्तव में तो उन्हें जाति की अवधारणा ही स्वीकार नहीं है। वे लोक में नैतिकता, लोक व्यवहार व चेतना का प्रसार करना चाहते हैं। निःसन्देह पलटू दास का सम्पूर्ण काव्य लोकमंगल का काव्य है। उनकी स्वानुभूति में ही विश्वानुभूति है। समानता, सह अस्तित्व, समरसता और बंधुत्व का प्रसार इनका उद्देश्य है। प्रस्तुत शोध पत्र भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR)द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त लघु शोध परियोजना ‘उत्तर प्रदेश के संतकवि और उनके के काव्य का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन’ का एक भाग है। उक्त परियोजना हेतु मैं ICSSR का आभार व्यक्त करती हूँ।

बीज शब्द : अध्यात्म, शाश्वत मूल्य, चेतना, बाह्याचार, मुक्ति, ब्रह्म, माया, व्यंग्य, लोकमंगल, स्वानुभूति, सहअस्तित्व, समरसता।

मूल आलेख : “जगत हँसे तो हंसन दे, पलटू हँसै न राम। लोक लाज कुल छाड़िकै, करिलो अपना काम।”1  कहने वाले पलटू दास भीखा साहब की शिष्य परम्परा में उच्च कोटि के संत और कवि हैं। वे उत्तर मध्य काल के अंतिम प्रमुख संत माने जाते हैं। पलटू दास सांसारिक  लोकोपवाद से परे एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे जो बंधी बंधाई लीक पर नहीं चलना चाहते थे। वे स्पष्टवादी थे और अपने भीतर कुछ छिपा कर नहीं रखते थे। अपने जीवन और साहित्य में  पलटू साहब हर बात साफ व खरी करते हैं। पलटू साहब पर कबीरदास का गहरा प्रभाव है। “इनके कहने का ढंग कबीर से खूब मिलता है। यह वैसे ही निडर और फक्कड़ आलोचक थे जैसे कबीर साहब।”2  इनकी साफ़गोई के कारण ही ओशो पलटू साहब को ‘दूसरा कबीर’ कहकर संबोधित करते हैं। पलटू दास ने अपने जीवन और साहित्य के माध्यम से अध्यात्म, कर्म, और समाज के भीतर विद्यमान शाश्वत मूल्यों की पहचान कर उनकी स्थापना को ही अपना सर्वप्रमुख कर्तव्य  माना।  निर्भीक व स्वच्छंद स्वभाव के कारण उनकी रचनाओं का स्वर भी स्पष्टवादी है। पलटू दास भेदभाव और अहंकार की निरर्थकता सिद्ध कर एकता व प्रेम का संदेश देते हैं। अपनी बानियों में वे बाह्याडंबरों से मुक्त, सच्चे धर्म, जनकल्याण की नीति व जीव के चरित्र निर्माण के साथ ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग भी बताते हैं–

“मान बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना,
गारी दोऊ देई नाम छिपाकर।
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जानै,
पहिले हाथ उठाय सीस पर चुपके रहना।
पलटू सोई सुहागनी हीरा झलकै माथ।
मन विहीन कर लीजिये जब पिऊ लागै हाथ।”3

समाज से परे रहकर अपनी एकांतिक साधना में लीन रहना निर्गुण संत संप्रदाय के संतों का स्वभाव नहीं है। वे समाज के मध्य में ही रहकर समाज के हित की बात करते हैं। धर्म जाति, समुदाय में बंटा समाज विभिन्न बाह्यचारों को ही वास्तविक धर्म मानकर इसी संसार में भटक रहा है। संत समुदाय समाज कि ऐसी स्थिति देखकर दुखी है। इसीलिये कभी वे जन सामान्य को समझाते हैं, तो कभी उनका विरोध करते हैं। तीर्थ, माला जाप, अजान, नमाज़, मंदिर, मस्जिद आदि का विरोध संत काव्य का महत्वपूर्ण विषय रहा है। पलटू साहिब भी ऐसे ही संत हैं। वे कहते हैं ब्रह्म तो घट-घट में विद्यमान है। उसे कहीं बाहर खोजना निरर्थक है। अतः तीर्थों मे भटकने, हज व उमरा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मात्र बाह्याचार है। कितना भी तीर्थ भ्रमण कर लो, पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगा लो  किन्तु ब्रह्म की प्राप्ति संभव नहीं होगी। वे प्रश्न करते हैं –

“सब तीरथ में खोजिया, गहरी डुबकी मार,
पलटू जल के बीच में किन पाया करतार।”4

संतो का यह स्पष्ट मत है कि तीर्थ भ्रमण व तीर्थ स्नान से पुण्य नहीं मिलता। यदि ऐसा होता तो तीर्थों मे रहने वालों का साक्षात्कार ईश्वर से जरूर हो जाता। उनका मानना है कि तीर्थ भ्रमण का लाभ तो कुछ दूसरा ही है। पलटू की मान्यता है कि यदि तीर्थ जाना ही है तो उसका लाभ वहाँ होने वाला संत समागम एवं उनके सान्निध्य से प्राप्त होने वाला ज्ञान है। वे कहते हैं -

“पलटू तीरथ को गए बड़ी होत अपराध।
तीरथ में फल एक है, दरस देत है साध॥”5

उनके लिए तीर्थों में मिलने वाला संतों का सान्निध्य ही अनंत मुक्ति की राह है। संत समागम एक मात्र रास्ता है जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि साधक को मुक्ति की तलाश है तो उसे संतों के बीच ही जाना होगा, वहीं उसे शांति और मुक्ति दोनों प्राप्त होगी। इस अर्थ में तीर्थ भ्रमण सार्थक है क्योंकि वहाँ पर एक साथ अनेक संतों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। इसीलिये पलटू कहते हैं –

“पलटू तीरथ को चला, बीचि मिलिगे सन्त।
एक मुक्ति के खोजते मिलि गई मुक्ति अनंत।”6

पलटू ने ब्रह्म को जान लिया है। इसीलिये उन्हे ब्रह्म प्राप्ति या ब्रह्म के वर्णन के लिये किसी आडंबर की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्म तो अनुभूति है। वही वास्तव में ज्ञानी है जो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को अनुभव कर लेता है। इसीलिये वे कहते हैं कि जो भी ईश्वर को जान लेता है उसके लिए आडंबर की आवश्यकता नहीं होती। उनके लिये तो –

“पलटू पंडित सोई है, कलम हाथ नहिं लेय।
बिनु कागज बिनु अच्छरे, बिनु मसि से लिख देय॥”7

स्वस्थ समाज की धुरी समानता है जो समाज को आगे बढ़ाती है। किन्तु भारतीय समाज में धार्मिक विद्वेष ने ऐसा घर बना लिया है कि समाज का दम घुट रहा है। इस्लाम के भारत में आगमन के साथ ही हिन्दू और मुस्लिम के बीच विद्वेष ने जन्म ले लिया था। दोनों ही धर्म अपने अपने धर्म के बाह्याचारों से इस प्रकार बंधे हैं कि वे इससे परे अपनी मुक्ति देख ही नहीं पाते। इन बाह्याचारों की भीड़ में धर्म का वास्तविक स्वरूप ओझल हो गया है। स्वयं को श्रेष्ठ मानने की भावना दोनों समुदायों में कलह को जन्म देती है। पलटू साहब इससे भली भांति परिचित हैं। मानव मात्र में समानता उनका सिद्धान्त है और इसीलिये धर्म और समुदाय के नाम होने वाले भेदभाव पर पलटू दास ने तीखा वार किया है। वे हिन्दू मुसलमान दोनों के कर्मकांडियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं –

“पूरब ठाकुरद्वारा पच्छिम मक्का बना,
हिन्दू औ तुरक दुइ ओर धाया।
पूरब मूरति बनी पच्छिम में कबुर है,
हिन्दू औ तुरक सिर पटकि आया। ......”8

पलटू दास धर्म के नाम पर होने वाले हिन्दू मुस्लिम संघर्ष की निंदा करते हैं। दोनों ही धर्म स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरे को हीन। यही भावना विद्वेष का कारण है। पलटू साहब का यह भी प्रश्न है कि ब्राह्मण व शेख दोनों ही स्वयं तो आडंबर रच श्रेष्ठता का दावा करते हैं किन्तु उनकी स्त्रियों में तो समानता ही दिखाई देती है। इसीलिये वे ब्राह्मण व शेख दोनों से ही प्रश्न करते हैं –

“ब्राह्म तो भये जनेऊ को पहिरि के
बाम्हनी के गले कुछ नहीं देखा।
सेख की सुन्नति मुसलमानी भाई,
सेखानी को नाहिं तुम कहो सेखा।”9

पलटू साहब हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के बाह्याचारों का खण्डन करते हैं। आडंबरों में घिरा जनमानस धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल इन आडंबरों को ही सच्चा धर्म मानकर इनमें ही भटकता रहता है। पलटू साहब संसार का यह चलन देखकर दुखी हैं। वे एक ऐसे समाज का निर्माण चाहते हैं जहां इन आडंबरों से मुक्त हो वास्तविक धर्म का पालन होता हो। इसके लिये कभी वे समझाते हैं, कभी चेतावनी देते हैं तो कभी व्यंग्य और उपहास का सहारा लेते हैं। वे मुस्लिमों के बांग, नमाज, तसबीह, मांस सेवन आदि आचार व्यवहार का उपहास करते हुए कहते हैं –

“सुनो मियाँ मोलने भाई, दिल की तसबीह लेहु फिराई।
खाक में खाक हवा में हवा, मिलि आब में आब समाना।
आतस में आतस मिलि जैहें, साहेब न पहिचाना।
x    x x x
दोज़ख की बस दोज़ख जाना, झूठ निमाज गुजारा। .......”10

हिंदुओं को भी जागृत करते हुए वे उनके द्वारा की जाने वाली मूर्ति पूजा, जाप, छापा तिलक आदि का खण्डन करते हैं। पलटू साहब दुखी हैं कि लोग परम तत्व की वास्तविकता, उसकी सत्ता को न जानकर अनेक देवताओं के समक्ष नतमस्तक हैं। इसीलिये वे मूर्ति पूजा या ईश्वर के विविध रूपों का स्पष्ट विरोध करते हैं और घोषणा करते हैं कि वे मात्र अपने अन्तःकरण में विद्यमान परम तत्व के समक्ष ही शीश झुकायेंगे और किसी देवता के समक्ष नहीं –

“....ब्रह्मा बिस्नु महेस न पूजिहौं, न पूजिहौं, न मूरत चित लैहों।
जो प्यारा मेरे घट माँ बसत है, वाही को माथ नवाइहौं॥”11

भारतीय समाज जातिगत भेदभाव से घिरा, छुआछूत की चक्की में पिसता कराह रहा था। समाज का बहुसंख्य वर्ग जाति के आधार पर मौलिक अधिकारों से भी रहित था। जातिगत अहंकार में डूबा वर्ग यह मानने के लिये तैयार नहीं था कि समाज की ऐसी दशा मानवीय मूल्यों के विरुद्ध है। ऐसे में इस जातिगत श्रेष्ठता तथा भेदभाव का विरोध कर एक ऐसे समाज की स्थापना इन संतों का उद्देश्य था जहाँ सभी समानता के आधार पर प्रेम व सहभाव के साथ निवास करते हों। भिन्न भिन्न जतियों में बंटे भारतीय समाज में जाति के नाम पर होने वाले भेद भाव, अत्याचार पलटू साहब को भी स्वीकार नहीं। वास्तविकता तो यह है कि उनकी उन्हें तो जाति की अवधारणा ही स्वीकार नहीं है। उनके लिए भक्ति ही मनुष्य की मूल जाति है –

चारि बरन को मेटि कै, भक्ति चलाया मूल।
गुरु गोविन्द के बाग में, पलटू फूला फूल।12

उन्हें आश्चर्य होता है कि जो मनुष्य मनुष्य से प्रेम नहीं कर सकता, प्रकृति से, सृष्टि के अन्य प्राणियों से प्रेम नहीं कर सकता वह ईश्वर से प्रेम कैसे कर सकेगा? धर्म व जाति के नाम पर होने वाला यह भेद भाव एक दिन मानवता को जला देगा। वे चेतावनी देते हैं कि यदि इस अग्नि का शमन न किया गया तो सम्पूर्ण मानवता भस्म हो जाएगी –

“पलटू अपने भेद से कारन पैदा होय।
जारि के वन ह्वेगे भसम, आगि न लावै कोय॥”13

इसी प्रकार मन में कपट रखकर केवल दिखावे के लिए ईश्वर की भक्ति करना निरर्थक है। हृदय से नहीं केवल मुख से माला जाप को वे व्यर्थ मानते हैं। ईश्वर का नाम सच्चे हृदय से लेना चाहिये। यदि हृदय में सच्चाई नहीं है तो केवल जिह्वा से राम नाम लेने का कोई लाभ नहीं। इसीलिये कबीर दास के समान ही वे भी कहते हैं कि दिखावे के लिये माला जपने के स्थान पर मन को शुद्ध कर हृदय में ईश्वर को स्थान देना श्रेयस्कर है –

“केतिक जुग गये बीति माला के फेरते।
छाला परि गये जीभ राम के टेरते॥
माला दीजै डारि मनै को फेरना।
अरे हाँ पलटू मुँह के कहै न मिलै दिलै बिच हेरना॥”14

किसी भी प्रकार का पाखण्ड पलटू दास के लिए असह्य है। केवल दिखावे के लिए कुछ भी करना व्यर्थ है। केवल साधू का वेश धरण करने से कोई साधु नहीं हो सकता। गुरुओं की सेवा व परोपकार न कर, आचरण के स्थान पर मात्र अपने वेश से फकीर बन अपनी बड़ाई आप करने वालो से पलटू कहते हैं कि ऐसे लोग समाज में कभी सम्मान अथवा संसार से मुक्ति नहीं  प्राप्त कर सकते –

“हवा हिरिस पलटू लगी नाहक भये फकीर।
नाहक भये फकीर पीर की सेवा नहीं।
अपने मुँह से बड़े कहावें सबसे जाहीं॥ ……”15

यह संसार अज्ञानी है जो सत्य को छोडकर आडंबर और अयोग्य को ही सत्य मानता है। वास्तविक गुरु का अभाव इस संसार को ज्ञान नहीं प्राप्त करने देता। गाँव गाँव में, विभिन्न जातियों में भिन्न भिन्न प्रकार की मान्यतायें प्रचलित हैं यथा दरगाहों पर जाना, उनकी पूजा करना, उन पर पान फूल चादर चढ़ाना, जमीन पर मिट्टी का चबूतरा बनाकर वहाँ पर पीली साड़ी पहन कर बकरे का चढ़ावा चढ़ाना आदि।  इन सभी मान्यताओं का खंडन करते हुए वे जन सामान्य को अपने परिवारों के बड़े बुजुर्गों का सम्मान करने उन्हे ईश्वर तुल्य मान कर उनकी सेवा करने को कहते हैं –

“घर में जिंदा छोड़ी के मुरदा पूजन जायं।
मुरदा पूजन जायं भीति को सिरदा नावै।
पान फूल औ खांड जाइ कै तुरत चढ़ावै।
ताल कि माटी आनि ऊँच के बांधिनि चौरी।
लीपि पोति कै धरिनि पूरी औ बरा कचौरी।
पीयर लूगा पहिरि जाय के बैठिनी बूढ़ा।
भरमि भरमि अभुवाइ मांगत हैं खसी कै मूँड़ा।
पलटू सब घर बांटि के लै लै बैठे खांय।
घर में जिंदा छोड़ि के मुरदा पूजन जांय॥”16

अन्य निर्गुण मार्गी संतों की भाँति ब्रह्म को देवालयों के भीतर सीमित कर देने का पलटू भी प्रबल विरोध करते हैं। ब्रह्म केवल मंदिर या मस्जिद के भीतर नहीं है। ब्रह्म का वास तो सृष्टि के कण कण में है। सृष्टि का प्रत्येक प्राणी ब्रह्म का ही अंश है इसीलिये उनका कहना है कि मूर्ति पूजा के स्थान पर इस शरीर को ही देवालय बनाकर मन रूपी शालिग्राम की पूजा करनी चाहिये –

“जल पखान के पूजते सरा न एकौ काम।
पलटू तन करू देवहरा, मन करू सालिगराम।
मन करू सालिगरम, पूजते हाथ विराने।”17

और यदि किसी अन्य की पूजा करनी ही है तो वे हिंदुओं द्वारा मंदिरों में और मुस्लिमों द्वारा मस्जिदों मे की जाने वाली पूजा के स्थान पर साक्षात उपपस्थित संतों की पूजा को श्रेयस्कर समझते हैं –

“हिन्दू पूजे देवहरा, मुसलमान महजीद।
पलटू पूजो देवता, जो दीद परदीद॥”18

प्रत्येक प्राणी में उसी ईश्वर का वास है। इस तथ्य को जानते हुए भी ईश्वर के ही नाम पर जीव हिंसा को धर्मसम्मत बताते हुए बलि, हलाल, ज़िबह, मांसाहार को प्रश्रय देने वालों पर पलटू साहब गहरा क्षोभ व्यक्त करते हैं। वे प्रश्न करते हैं कि सभी जीवों में ब्रह्म का वास है तो गाय कैसे पूज्य, सूअर कैसे हराम और बकरी कैसे बध्य हो सकते हैं। इस दोहरे आचरण के लिए वे उन्हें धिक्कारते हुए कहते हैं –

“पंडित काजी पंडित काजी तुम से साहेब ना राजी।
अरे भाई एक अचरज हम देखिया दोनों ठगरी दोनों ठगरी।
जो सूअर सो गाय है सोई बकरी सोई बकरी।
अरे भाई लोहू माँस सब एक है किसको खाते किसको खाते।
सब में एकै जान है बूझो बातें बूझो बातें।
अरे भाई किन्हने किहा हलाल को किन्हने झटका किन्हने झटका।
जान गया मुर्दा हुआ दोनों भटका दोनों भटका। ..........”19

पलटू साहब देख रहे थे कि समाज में विभिन्न पंथ व संप्रदाय पाखण्ड, अनाचार छल कपट के केंद्र बने हुए थे। भिन्न भिन्न वेशभूषा धारण कर तथाकथित साधु, सन्यासी, मौलवी, पीर फकीर, हाजी, शेख अनेक प्रकार के भय, प्रलोभन व चमत्कारों द्वारा जनता का शोषण कर रहे थे। पलटू दास इन पाखंडियों, पथभ्रष्ट छद्मवेशधारी साधु संतों पर प्रहार करते हैं। राह से भटके हुए या छद्म संतों के विषय में सचेत करते हुए पलटू अपनी कुण्डलिया में कहते हैं –

“संतन के बीच में टेढ़ रहैं। मठ बांधि संसार रिझावत हैं॥
दस बीस शिष्य परमोधि लिया। सबसे वह गोड़ धरावत है॥
सन्तन की बानी काटि के जी। जोरि जोरि के आपु बनावत हैं॥
पलटू कोसि चारि चारि के बीच में जी। सोई चक्रवर्ती कहलावत हैं।”20

पलटू साहब स्पष्ट कहते हैं कि जब ये छद्म सन्त स्वयं माया मोह से ग्रस्त हैं तो यह दूसरों को मुक्ति कैसे दिलवा सकते हैं –

“मुक्ति के हेतु इन्हे जग मानै, अपनी मुक्ति के मरम न जानै।”21

पलटू दास लोक में व्याप्त कुरीतियों को विरुद्ध चेतावनी देते हैं और इन सड़ी गली मान्यताओं, रूढ़ियों और परम्पराओं को उघाड़ कर सामने रख देते हैं। वे स्पष्ट खरे शब्दों में चेतावनी देते हैं कि यह अज्ञानता, भेदभाव और दुर्बुद्धि, लोक और परलोक दोनों का नाश कर देगी –

जहां कुमति कै वास है, सुख सपनेहु नाहीं।
फोरि देत घर मोर तोर करि, देखै आपु तमासा है।
कलह काल दिन रात लगावै, करै जगत उपहासा है।
निरधन करै खाये बिनु मारै, आछत अन्न उपवासा है।
पलटू दास कुमति कै भोड़ी, लोक परलोक दोऊ नासा है।”22

माया का बंधन ही है जो जीव को संसार की वास्तविकता का ज्ञान नहिं होने देता। बड़े बड़े ज्ञान का दावा करने वाले पीर फकीर साधु सन्त इसी माया के अधीन हो संसार में भटक रहे हैं। इन संतों का मानना है कि माया का प्रमुख रूप इस संसार में स्त्री के रूप में विद्यमान है। अतः सभी सन्त नारी निंदा करते हैं एवं नारी से दूर रहने की बात करते हैं। पलटू दास के नारी संबंधी विचार भी इसी प्रकार के हैं। वे भी नारी के मायावी रूप को त्याज्य मानते हैं किन्तु उसका पतिव्रता रूप उनके लिये सम्माननीय है। वे नारी को परिवार में ही रहते हुए सबकी सेवा करते देखना चाहते हैं –

“पतिबरता को लच्छन सब से रहे अधीन।
सब से रहे अधीन टहल वह सब की करती। .........”23

माया से मुक्ति की राह कठिन है। संतों की संगति माया से बचा सकती है। इसीलिये माया से मुक्त होकर संतों कि संगति करने का उपदेश देते हुए पलटू साहब अपनी कुण्डलिया में कहते है –

“कौन तू सकस है चेत करू आपको, कहाँ तू आइकै मन लाया।
केतिक बेर तू गया ठगाय है, आपना भेद तू नाहीं पाया।
भटक यह मिटेगी काम तब होयगा, केतिक बेर तू भटकि आया।
दास पलटू कहै होय संस्कार जब , बिना सत्संग ना छुटै माया।”24

इसीलिए वे सत्संग का ही वरदान मांगते हैं –

“ बिना सतसंग न कथा हरीनाम की, बिना हरीनाम ना मोह भागै।
x x x x
प्रेम बिनु राम ना राम बिनु संत ना, पलटू सतसंग वरदान मांगै।”25

निर्गुण काव्याधरा के संत यह भली भाँति जानते हैं कि जनता को यदि अपनी बात समझानी है तो जनता के बीच ही रहना और उसके सामान्य जीवन के दृश्यों का ही प्रयोग करना होगा। दूसरी तरफ ये संत वनों व कन्दराओं में रहने वाले सन्यासी नहीं हैं। ये समाज के बीच ही रहते हैं। इसलिए समाज व परिवार से पूर्णतः परिचित हैं। समाज के विभिन्न व्यवसायों की कार्यविधि के माध्यम से वे आफ्ना संदेश आम जन तक पहुंचाते हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं –

धोबी द्वारा कपड़ा साफ करना  –
“चादर लेहु धुवाइ है, मन मैल भया है।
सतगुरु पूरा धोबी पाया, सतसंगति सौंदाई है।
तिरगुन दाग परे चादर में, मलि मलि दाग छुड़ाई है।
आंच दिहिन बैराग कि भाठी, सरवन मनन घमाई है।
निरखि परखि कै चादर धोइनि, साबुन ज्ञान लगाई है।
पलटू दास ओढ़ि चलु चादर, बहुरि न भवजल आई है॥”26

बनिया द्वारा समान तोलना, गद्दी पर बैठना, मीठा बोलना, ताला चाभी आदि के वर्णन द्वारा सतनाम का संदेश  –

“बनिया पूरा सोई है जो तौले सतनाम।
जो तौले सतनाम छिमा का टाट बिछावै।
प्रेम तराजू करै बाट बिस्वास बनावै।
बिबेक की करै दुकान ज्ञान का लेना देना।
गादी है संतोष नाम का मारै टेना।
लादे उलदे भजन बचन फिर मीठे बोलै।
कुंजी लावै सुरत सबद का ताला खोलै।
पलटू जिसकी बनि परी उसीसे मेरा काम।
बनिया पूरा सोई है जो तौले सतनाम।”27

सिपाही द्वारा बहदुरी से युद्ध करना –

“संत सिपाही बाँके अवधू, फिर पाछे नहिं ताके।
दिन दिन परै कदम आगे को, करें मुलुक में साके।
हाँक देत हैं रन के ऊपर, रहें प्रेम रस छके।
कच्चा छीर नहीं वै पीवै, पक्का छर पीवें माँ के।
आलम डेरा देखि कै उनको, छोडै सबद धड़ाके।
.................
काम क्रोध की गर्दन मारें, दिल में बहुत फराखे।
पलटू दास फरक आलम से, वे असनाव हैं का के॥”28

स्पष्ट है कि वे बड़ी ही साफ़गोई से समाज को फटकारते हुए इस धर्म, जाति बंधन से मुक्त हो, सहज जीवन जीते हुए ईश्वर से प्रेम व अपने पारिवारिक तथा सामाजिक कर्तव्यों  के पालन को मुक्ति का मार्ग बताते हैं। अपने नीति कथनों में वे जन सामान्य को बेहतर जीवन व समाज के निर्माण के संदेश देते हैं। वे कहते हैं –

“जाकी जैसी भावना तासे तस ब्यौहार।
तासे तस ब्यौहार परसपर दूनौ तारी।
जो जेहि लाइक होय सोई तस ज्ञान बिचारी॥”29

समाज हर अच्छे काम करने वालों के लिये बाधा उपस्थित करता है। लोकोपवाद कभी सत्पुरुषों का पीछा नहीं छोडता। किन्तु पलटू इससे प्रभावित न होकर अपना कार्य करते रहने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं –

“तो कंह कोई कछु कहै कीजै अपनो काम।
कीजै अपनो काम जगत को भूकन दीजै।”30

अपने नीति वचनों के माध्यम से पलटू दास लोक में नैतिकता, लोक व्यवहार व चेतना का प्रसार करना चाहते हैं।
निष्कर्ष : निःसन्देह पलटू दास का सम्पूर्ण काव्य लोकमंगल का काव्य है। उनकी स्वानुभूति में ही विश्वानुभूति है। समानता, सह अस्तित्व, समरसता और बंधुत्व का प्रसार इनका उद्देश्य है। पलटू दास एक ऐसे प्रगतिशील सन्त हैं जिन्होने उन सभी तत्वों का विरोध किया जो अबौद्धिक थे। सत्य के अन्वेषक पलटूजी  ने अपनी बानियों में शाश्वत मूल्यों की पहचान की है और जन साधारण को उन मूल्यों से परिचित करवाने का प्रयास किया। प्रस्तुत शोध पत्र भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR)द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त लघु शोध परियोजना‘उत्तर प्रदेश के संतकवि एवं उनके के काव्य का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन’ का एक भाग है। उक्त परियोजना हेतु मैं आई सी एस एस आर का आभार व्यक्त करती हूँ।

संदर्भ :
1. डॉ0 इंद्रदेव सिंह, भुड़कुड़ा की सन्त-परंपरा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष 1988, पृ0 127
2. संत सुधा सार, वियोगी हरि, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 1953, पृ0 218
3. डॉ0 इंद्रदेव सिंह, भुड़कुड़ा की सन्त-परंपरा, संस्करण, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष 1988, पृ0 213
4. वियोगी हरि, सन्त सुधा सार, पृ0 269, एवं साखी 132 पलटू साहिब की बानी खंड 3 बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1955, पृ0 94
5. सन्त बानी संग्रह, भाग 1, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण पृ0 218
6. वियोगी हरि, खंड- भावै सौ-सौ गोते लाय, सन्त वाणी, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, संस्करण 1944, पृ0 144
7. पलटू दास, पलटू साहब की बानी, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, पृ0 79 ,
8. पलटू दास, रेख़ता  86, पलटू साहिब की बानी खंड 2, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, पृ0 33 संस्करण 1954
9. वियोगी हरि, सन्त सुधा सार खंड 2, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, संस्करण 1944, पृ0 243,
10. शब्द 438, पलटू दास की शब्दावली, प्रकाशक- पलटू दास का अखाड़ा, प्रकाशन वर्ष 1977 पृ0 155
11. पलटू साहब की बानी, खंड 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1955, पृ02,3
12. पलटू दास, साखी मिश्रित उपदेश 11, पलटू दास की बानी, खंड 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1955 पृ0 487
13. पलटू दास, साखी 142, पलटू साहब की बानी खंड 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1955 बेलवेडियर प्रेस पृ0 95
14. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0 205
15. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0 207,208
16. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0220
17. पलटू दास, पलटू साहब की बानी, खंड 1, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1980, पृ083, एवं वियोगी हरि, खण्ड-भावै सौ सौ गोते लाय, सन्त वाणी, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, संस्करण 1944, पृ0 144
18. पलटू दास, पलटू साहब की बानी, खंड 1, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1980, पृ0101
19. पलटू दास, शब्द 683 पलटू दास की शब्दावली, प्रकाशक- पलटू दास का अखाड़ा, प्रकाशन वर्ष 1977 पृ0 244
20. डॉ0 इन्द्र देव सिंह, भुड़कुड़ा की सन्त-परंपरा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष 1988, पृ0 280
21. पलटू दास, पलटू साहब की बानी, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, पृ0 61
22. शब्द 98, पलटू साहब की बानी भाग 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1954, पृ0 47
23. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0 213
24. डॉ0 इन्द्र देव सिंह, भुड़कुड़ा की सन्त-परंपरा, संस्करण 1988, पृ0227
25. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, रेख़ता, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0 203
26. पलटू दास, शब्द 04, पलटू साहब की बानी, खंड 3, संस्करण 1955, पृ0 2
27. संत बानी संग्रह, भाग 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण पृ0 206
28. पलटू दास, शब्द 18, पलटू साहब की बानी, खंड 3, बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण 1955,  पृ0 4
29. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0214
30. सं0 श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी संत काव्य संग्रह, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1952, पृ0214

वंदना श्रीवास्तव
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्री जे एन पी जी कॉलेज, लखनऊ

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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