- आदित्य राज
शोध सार : आम आदमी के हिस्से संघर्ष ही है, जिसे स्वदेश दीपक एवं डारियो फ़ो ने अपने नाटकों में भी दर्ज किया है। स्वदेश दीपक भारतीय नाटककार हैं तो डारियो फ़ो नोबेल पुरस्कार से सम्मानित इटालियन नाटककार हैं लेकिन उनके नाटकों के कथानक की समरूपता आश्चर्यजनक है। भारत एवं यूरोप के अधिकांश देश लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाए हुए हैं परंतु इस व्यवस्था में भी जन असंतोष तंत्रात्मक अत्याचार के कारण निरंतर प्रकाश में आता है। स्वदेश दीपक का नाटक-‘कोर्ट मार्शल’ जाति व्यवस्था एवं न्यायतंत्र पर प्रश्न खड़ा करता है तो ‘जलता हुआ रथ’ भिखारियों के बीच गढ़ा जाता है और धीरे-धीरे लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण पदों की तहकीकात करता है। डारियो फ़ो के नाटकों-‘एक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन अनार्किस्ट’ एवं ‘कांड पे! वांट पे!’ का हिंदी रूपांतरण अमिताभ श्रीवास्तव ने क्रमशः ‘एक और दुर्घटना’ तथा ‘चुकाएंगे नहीं’ नाम से किया, उन्होंने परिवेशात्मक परिवर्तन कर इसे भारतीय रंग दिया है, जिसके कारण इन नाटकों में भारतीय राजनीति एवं बाजार का शोषणात्मक चरित्र स्पष्ट रूप से उभरता है।
बीज शब्द : लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, शोषण, अत्याचार, अखबार, न्याय, कानून, पुलिस, अफसरशाही, राजनीति, विमर्श, पूँजीवाद, बाजार, व्यापार, मीडिया इत्यादि।
मूल आलेख : जब नागरिक आपस में किसी भी कारण से उलझ जाते हैं तो कुछ परिस्थितियों में पुलिस का आगमन होता है और फिर न्यायालय से होते हुए मामला सुलझाया जाता है, लेकिन यह बात पूर्ण रूप से सत्य और सीधी नहीं है। किसी भी मामले की सत्यता की जाँच करने के लिए पुलिस इंटेरोगेशन एवं इन्वेस्टिगेशन का सहारा लेती है तथा न्यायालय पुलिस के द्वारा अथवा किसी अन्य माध्यम से जुटाए गए साक्ष्यों पर बहस कर निष्कर्ष पर पहुँचता है। ‘कोर्ट मार्शल’ नाटक में भारतीय सेना में एक अधिकारी की हत्या तथा दूसरे के बुरी तरह से घायल होने पर लंबी बहस है जिनके बीच से भारतीय समाज में मौजूद कई सारे प्रश्न उभरकर सामने आते हैं। जिसमें मुख्यत: दलितों और स्त्रियों के साथ हुए अत्याचार का वर्णन है।
‘कोर्ट मार्शल’ का प्रथम मंचन 1 जनवरी 1991 को रंजीत कपूर के निर्देशन में नई दिल्ली के श्रीराम सेंटर में हुआ। रंजीत कपूर वही निर्देशक हैं जिनके बारे में कहा जाता है- ‘हीज ए डायरेक्टर ऑफ़ गोल्डन टच’। जयदेव तनेजा कहते हैं – “लगभग डेढ़ दशक लंबे अपने सक्रिय चर्चित एवं प्रतिष्ठित रंग जीवन में हमेशा रूपांतर और अनुवाद करने वाले निर्देशक का रंजीत कपूर ने पहली बार मौलिक नाटक किया। ख्याति प्राप्त कथाकार स्वदेश दीपक इसी से रातों-रात नाटककार के रूप में चर्चित हो गए और साहित्य कला परिषद् भी एक नए मौलिक हिंदी नाटक का श्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण के लिए प्रशंसित हुई।”¹
इस नाटक से गुजरते हुए लगता है, यह वास्तविक घटना पर आधारित है क्योंकि इसमें सेना के कोर्ट मार्शल में होने वाले सभी तत्वों को ध्यान में रखा गया है। इस विषय में नाटककार स्वयं कहते हैं – “अंबाला में रहते समय सेना विभाग के मित्रों से खेल खेलते समय कोर्ट में क्या-क्या होता है वह जो लोगों को ज्ञात नहीं होता है, परंतु मेरे कुछ मित्रों ने बताया कि एक जवान ने दो अधिकारियों का खून कर दिया है तो इस विषय पर विचार किया कि एक शिक्षित अनुशासन प्रिय सैनिक को ऐसा क्यों करना पड़ा होगा? इस प्रश्न ने मेरा पीछा किया और गहरे विचार मंथन के बाद इस कथा ने जन्म लिया और कोर्ट मार्शल का जन्म हुआ।”² इस नाटक का आधार इंडियन आर्मी एक्ट 69 एवं इंडियन पीनल कोड की दफा 302 है जिसके तहत जवान (सवार) रामचंदर का जनरल कोर्ट मार्शल किया जा रहा है।
जैसा की नाटक में वर्णित है कि सवार रामचंद्र ने पूरे होशो हवास में कैप्टन मोहन वर्मा की हत्या की और उसके हमले से ही कैप्टन बी. डी. कपूर पूरी तरह से घायल हो जाते हैं। अतः इस अपराध के लिए समु्दिष्ट दंड इंडियन पीनल कोड के दफा 302 के तहत तय होता है जो ह्त्या के मामलों से सम्बन्धित है, जिसमें अपराधियों के लिए सजा निर्दिष्ट की गई है। अदालत आरोपी के इरादे और मकसद के आधार पर सजा तय करती है।
इस नाटक में कोर्ट मार्शल के दौरान सरकारी वकील मेजर अजय पुरी एवं बचाव वकील कप्तान बिकाश राय के बीच हुई बहस भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था के निकृष्टतम चरित्र को सामने रखता है। जिसके खिलाफ यह कोर्ट मार्शल हो रहा है वह है सवार रामचंदर। जिसके पास अपने बचाव के लिए अधिक तर्क नहीं है और वह तर्क करना भी नहीं चाहता, लेकिन कोर्ट मार्शल इसलिए हो रहा है कि हत्या की वजह ज्ञात हो सके रामचंदर के पास केवल एक ही जवाब है कि मैं प्रश्नों का उत्तर नहीं दूंगा और मैंने यह हत्या की। लेकिन नाटककार उसे एक हत्यारे के रूप में स्थापित नहीं करना चाह रहा। नाटक की भूमिका में यह बात स्पष्ट भी होती है। प्रथम प्रदर्शन में रामचंद्र की भूमिका निभाने वाले अनिल चौधरी से स्वदेश दीपक कहते हैं- “तुम्हारे हत्यारे होने का गुनाह बख्शेगा तुम्हारा रोना। रोकर बदल दो उस हत्या को सामाजिक वध में।”3
सन् 2022 में जश्न-ए-अदब के साहित्य उत्सव में अस्मिता थिएटर समूह द्वारा अरविंद गौड़ के निर्देशन में इस नाटक का मंचन हुआ और इसी दृश्य पर दर्शकों ने सबसे अधिक तालियां बजाई। ध्यान रहे दशकों में सिर्फ दलित वर्ग के लोग नहीं थे कुछ तो उच्च वर्ग के भी होंगे। लेकिन आखिर क्यों एक हत्यारे के पक्ष में इतनी तालियां बजी? इस दृश्य को नाटक में भी देख सकते हैं-
“बिकाश राय: क्या गाली दी थी उस रात?
रामचंदर: गंदी गाली दी थी सर!
बिकाश राय: (चीखकर) क्या गाली दी थी? बोलो रामचंदर, बोलो। तुमने सच बोलने की शपथ ली है।
रामचंदर: (चीखते हुए) चिट्टे चूहड़े! हराम की सट्ट! तेरी माँ ज़रूर किसी कपूर या वर्मा के साथ सोई होगी! (उसकी चीख अब किसी घायल जानवर के आर्तनाद में बदल जाती है। वह धीरे-धीरे नीचे झुकता है, बैठता है और उसका सिर लगभग फर्श के साथ जा लगता है। वह रोए जा रहा है। ऊँची आवाज़ में। कुछ क्षणों के लिए जैसे सबके चेहरे पथरा जाते हैं।)"4
संवादों से इतर लेखक के द्वारा अभिनेताओं के लिए दिए गए निर्देश काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इतने कम संवाद होने के बावजूद अपनी चीख को रामचंदर घायल जानवर के अंतर्नाद में बदल देता है। जिससे वाकई उसके द्वारा की गई हत्या सामाजिक वध में बदल जाता है। जयदेव तनेजा लिखते हैं- “केंद्रीय चरित्र कातिल रामचंद्र की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं कठिन थी। अपने वर्ग पर सदियों से होने वाले अन्याय और आत्मसम्मान पर किए जाने वाले अनगिनत कातिलाना हमले की असह्य पीड़ा और अदम्य आक्रोश के उबलते ज्वालामुखी को भीतर से दबाकर एकदम चुप बने रहने की अभिव्यक्ति बेहद मुश्किल काम था। परंतु सारे नाटक के दौरान लगभग उपेक्षित और खामोश बने रहने वाले रामचंदर के रूप में अनिल चौधरी का गवाही के दौरान का रुदन दृश्य पूरे प्रदर्शन पर हावी हो गया। उसके इस रुदन ने सचमुच इस हत्या को एक सामाजिक वध में बदल दिया। वह रामचंद्र का नहीं, अपमानित और प्रताड़ित मानवता का रुदन था। उसने दर्शकों को भीतर तक हिला दिया। स्वयं नाटककार स्वदेश दीपक के शब्दों में इस क्रुएल नाटक थिएटर ऑफ क्रूएलिटी की क्रूरता को करुण रस में बदलने का जादू शायद रंजीत कपूर ही कर सकता था।”5
नाटक में सिर्फ दलित समाज का ही दर्द नहीं है बल्कि भारतीय लोकतंत्र के कई पहलुओं पर भी दृष्टिपात हुआ है। ‘द लायन विद ग्रेनेड्ज’ अर्थात कर्नल सूरत सिंह जिनके वंश वालों ने दया और क्षमा शब्द पोंछ कर मिटा दिया। अतः वह ना कभी क्षमा करता है ना दया। वह इस कोर्ट मार्शल का प्रीजाइडिंग ऑफिसर है। वे कहते हैं- “जब हम किसी की जान लेते हैं तो हमारे प्राणों का एक हिस्सा भी मर जाता है मरने वाले के साथ।”6 यदि ऐसा है फिर तो दलितों पर सदियों से अत्याचार हो रहा है जिसमें अनंत हत्याएं की गई लेकिन हत्यारों का बाल बांका तक ना हुआ। कोर्ट मार्शल के द्वारा इस सच को बाहर लाने की कोशिश की जा रही है क्योंकि सच केवल उतना नहीं होता है जितना दिखाई दे वह तो हथेली पर उग आया अंगारा होता है धड़कता अंगारा।
भारतीय समाज व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था का ऐसा जिरहबख्तर पहन रखा है जिस पर लगातार हमले होते रहे। बीसवीं सदी में सबसे बड़ा हमला डॉ. अंबेडकर ने किया और बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित किया। वर्ण व्यवस्था के स्वरूप में बदलाव दिखाई पड़ा। “इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए जाति व्यवस्था का टूटना जरूरी है तभी समाज में समरसता उत्पन्न हो सकती है।”7 वर्तमान समाज प्रत्येक स्तर पर बराबरी की मांग कर रहा है। इसी कारण से इसे विमर्शों का काल कहा जा रहा है। जिसमें दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श जैसे कई मुद्दे शामिल हैं। इसमें कोर्ट मार्शल जैसे नाटकों का भी अहम योगदान है।
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग बीते कुछ सालों से प्रतिवर्ष गिरती जा रही है। सन् 2022 में 181 देशों में 151 जबकि 2023 में यह 11 पायदान फिसल कर 161 पर पहुंच गया। भारतीय मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है लेकिन यह सरकारी दबाव एवं प्रलोभनों का शिकार हो गई है। मुख्य धारा की अधिकतर मीडिया किसी न किसी कॉर्पोरेट घराने से संबंध है जो कभी भी सरकार के खिलाफ नहीं जा सकते मीडिया जन सरोकार के मुद्दे गायब करते रही है। इस नाटक में सूरज सिंह एवं बिकाश राय की शुरुआती बहस से समझ सकते हैं—
“सूरत सिंह: डोंट थ्रेटन मी। सबको पता है कतल रामचंदर ने किया है। अख़बारों में भी यह ख़बर छप चुकी है। रामचंदर ने अपने जुर्म का इकबाल कर लिया। मैं जानता हूँ, तुम जानते हो, कोर्ट में बैठे सब लोग जानते हैं, सारी दुनिया जानती है कि मर्डर किसने किया। यह ट्रायल रामचंदर का है कि नहीं? चाहे उसे जवान कहा जाए, चाहे सवार रामचंदर।
बिकास राय: सर! आपने मुकदमे की सुनवाई से पहले ही निर्णय ले लिया कि खूनी कौन है। फिर यह कोर्टमार्शल क्यों? इस ढकोसले, इस फ़ार्स की क्या ज़रूरत! आप चाहें तो मैं यह केस लड़ने से लिखकर इनकार कर दूँ क्योंकि कोर्ट तो पहले ही फैसला ले चुकी है। वैसे यह ज़रूरी नहीं, बिल्कुल ज़रूरी नहीं, कि अख़बार में छपी सारी खबरें सच हों। छपे हुए शब्दों को झूठ बोलने की आदत होती है।”8
सन् 1981 में इस नाटक के प्रथम मंचन का प्रकाश संचालन अमिताभ श्रीवास्तव कर रहे थे। उन्होंने 1999 में डारियो फ़ो के इटालियन नाटक ‘एक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन एनार्किस्ट’ का रूपांतरण ‘एक और दुर्घटना’ नाम से किया, जिसमें सुपरिंटेंडेंट और सनकी के बीच वार्तालाप हो रहा है—
“सुपरिटेंडेंट: अखबारी कुत्ते सूंघते फिर रहे हैं कि हम बस एक गलती करें और हम पर झपट पड़े।”9
20-25 सालों में अखबारों ने कैसे अपना ‘डॉगी नोज’ कटवा लिया। प्राय: खबरें अब सूत्रों के हवाले से आती है लेकिन सामान्य जनता के मुद्दों को दिखाने के लिए सूत्रों की आवश्यकता तो पड़ती ही नहीं क्योंकि भूखे नंगे लोग चार दीवारों के भीतर नहीं रहते, सड़कों पर होते हैं, खेतों में होते हैं लेकिन मीडिया की आंखों ने उनकी स्थिति को देख पाना या उनके दु:ख दर्द को समझना छोड़ दिया। अखबारों का काम तो केवल आंखों से दिखाई देने वाला सच ही दिखाना नहीं है बल्कि उसके तह तक जाने की जरूरत है। आजकल ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि मीडिया ही कोर्ट का काम करने लगी है जिसे ‘मीडिया ट्रायल’ कहते हैं लेकिन उन मुद्दों का नहीं जो जनता के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि जिससे टीआरपी ऊपर जाए। मीडिया यह बात भूल गई है कि “समय और सत्य हमेशा विपरीत दिशा में चलते हैं। सत्य क्या है इसका निर्णय हमेशा भविष्य करता है, ट्रुथ इज ऑलवेज द चाइल्ड ऑफ फ्यूचर।”10 प्रेस एवं अखबार अब स्वतंत्र नहीं है। पूँजीपतियों का माउथ पीस न्यूज़ चैनल हो गया है। जिनके नहीं होते हैं वह स्वयं का ही चैनल अथवा प्रेस खोल लेते हैं। इससे सरकार भी दबाव में रहती है और इन पूँजीपतियों को टेंडर और टैक्स छूट और नियमों में कटौती इत्यादि के माध्यम से सुविधा प्रदान की जाती है।
“सनकी : मुझे राजनीतिक गपशप में मजा आता है। हाँ तो प्रेस के मालिक कौन हैं? बड़े-बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट, पालिटीशियन्स। जिनका फ़ायदा इसी में है कि स्थितियाँ जैसी हैं, वैसी ही बनी रहें। लोगों का ध्यान असली मुद्दों पर न जाए बल्कि इसी तरह की अस्सी प्रतिशत जनता सतही ख़बरें उन्हें बहलाए रखें। देश की अस्सी प्रतिशत जनता अनपढ़ ही बनी रहे, उन्हें इसी तरह के स्कैंडल्स पेश किए जाएँ।”11
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो एनसीआरबी ने हाल में ही 2022 के लिए भारत में अपराध शीर्षक से अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की है जो देश भर में अपराधों के रुझानों का एक व्यापक अवलोकन प्रदान करती है। वर्ष 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 445256 मामले दर्ज किए गए जो 2021 से 4% अधिक है। सोचनीय है कि इसमें उनके पति या रिश्तेदारों द्वारा की गई हिंसा सबसे अधिक है एवं महिलाओं का अपहरण और महिलाओं की गरिमा को ठोस पहुंचने के इरादे से उन पर हमला शामिल है। बिकाश राय ककी दलीलों से जाना जा सकता है कि एक सेना का अधिकारी किस प्रकार अपनी पत्नी पर अत्याचार कर रहा है——
“बिकाश राय: अब मैं सी.ओ. साहब से कोई सवाल नहीं पूछूँगा। कैप्टन कपूर की पत्नी उनके पास क्या शिकायत लेकर गई, मैं बताता हूँ। कैप्टन कपूर उस रात मेस से लौटा तो नशे में धुत था। ही वाज़ डैड ड्रंक। जब वह अपनी पत्नी के पास गया तो वह बिस्तर से उठ खड़ी हो गई। उसने कपूर से कहा – ‘मुझे मत छुओ। यू आर ड्रंक। यू आर स्टिंकिंग। डोंट टच मी!’ लेकिन कैप्टन कपूर तो नशे के घोड़े पर सवार था। पत्नी का गाउन फाड़ डाला और उसे कहा – ‘आई हैव लाइसेंस टु स्लीप विद यू। चुपचाप आ जाओ बिस्तर पर।...”12 स्वदेश दीपक अपने दूसरे नाटक ‘जलता हुआ रथ’ में ऐसे पुरुषों के संदर्भ में लिखते हैं——
“बाबा : सुन। भीख देते वक्त अगर मर्द तेरा हाथ पकड़ें तो, तो जवाब में उनका हाथ दबा देना। डर कर अंदर भाग जाएँगे।
मुन्ना : (हैरान) डर जाएँगे। अंदर भाग जाएँगे। क्यों ?
बाबा : जिन मरदों को हमेशा औरत की भूख लगी रहे वे अंदर से खोखले होते हैं ऐसे मरदों से क्या डरना !”13
कोर्ट मार्शल सामान्यत: दलित अध्ययन के तौर पर पढ़ा जाता रहा है। दलितों में सबसे अधिक दलित कौन है- स्त्रियां। किसी भी समाज या वर्ग की स्त्रियां अक्सर सताई जाती है। जिन्हें सताया गया वह यदि चुपचाप सहते गए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनका विद्रोह सबको आश्चर्यचकित करता रहा। अभय कुमार दुबे लिखते हैं- “अकेले पड़ जाने की अनुभूति ने सदियों से हो रहे अन्याय के प्रति उनकी वाणी को कर्कश बना दिया है उनकी मुद्रा युद्ध की हो गई है और अभिव्यक्ति आक्रामक।”14
जब छोटे-छोटे विद्रोह लगातार दबाए जाएंगे तो एक भयंकर एवं प्राण घातक विस्फोट होगा। कहने को तो हमारा समाज कानून व्यवस्था पर टिका है लेकिन समाज में एक व्यक्ति के विरोध और विद्रोह के लिए कोई खास स्थान नहीं है। यदि है भी, तो यह रास्ता मीलों लंबा है जो कई वर्षों के सफर के बाद भी खत्म नहीं होता। विरोध कोई नाटक नहीं है जिसके अंतिम अंक तक पहुंचने का इंतजार किया जाए लेकिन “शक्तिशाली लोगों के विरोध को राजनीतिक विरोध कहा जाता है, जो उन्हें एक ही छलाँग में बिठा देता है सत्ता के बिल्कुल पास रखी कुर्सी पर। और कमज़ोर लोगों का विरोध। इसे विरोध नहीं, विद्रोह का नाम दिया जाता है, जो उन्हें एक ही छलाँग में पहुँचा देता है फाँसी के तख्ते तक।”15
यह सच है कि कानून और संविधान ने सबको बराबर का दर्जा दिया और बराबर का अधिकार भी दिया है लेकिन बड़े आदमियों ने छोटे आदमी को और ऊंचे आदमियों ने नीचे आदमी को अधिकार नहीं दिया। आजादी के पहले भी यही स्थिति थी और आज भी कमोबेश वही हाल है। नाटककार को यह उम्मीद नहीं है कि न्यायालय से रामचंदर को न्याय मिले अतः ‘पोएटिक जस्टिस’ का सहारा लेकर नाटक का अंत करते हैं।
व्यवस्थात्मक असंतोष इनके ‘जलता हुआ रथ’ नाटक में ‘बाबा’ के माध्यम से कई बार दिखाया गया है। जो काम लोकतंत्र में सरकारों के जिम्मे है, उसे कुछ एनजीओ या व्यक्तिगत रूप से किशन सिंह जैसे लोग संभाल रखे हैं, जिन्हें सरकार से कोई सहायता प्राप्त नहीं होती, लेकिन वे लोग सेवार्थ लगे रहते हैं।
“सिपाही : (जाते हुए) बाबा। अपने शहर में शेरांवाले चौक पर किशन सिंह का ढाबा है। रात आठ बजे के बाद रोटी बेचता नहीं। मुफ्त बाँटता है। वहाँ से खा लिया कर। मैं भी रात को वहीं खाता हूँ।
बाबा : वाह भई वाह। पैसेवाले भिखारी दिन को खाते हैं और दरवेश रात को मुफ्त। मिलेंगे किशन सिंह से। इस कलियुग में रात को गुरू महाराज का लंगर चलाने वाला किशन सिंह। चलें। शहर का हाल-चाल देखें।”16
आजादी के बाद गोरे साहब तो चले गए लेकिन ब्राउन साहब आ गए। उन्होंने अपने अत्याचार की जादुई छड़ी यही छोड़ दी। लोग नौकरी पेशा वाले हो गए। उनकी नियुक्ति आम जनता की सेवा करने के लिए हुई, परंतु वे लुटेरा बन गए। कोई भ्रष्टाचार कर लूट रहा है तो कोई फीस के रूप में मोटी रकम वसूल रहा है। डॉक्टर को लोगों को बचाने की जिम्मेदारी दी गई लेकिन वह मृतकों से भी फीस वसूलने की कोशिश करते हैं।
“किशन सिंह: (युवक से) डॉक्टर साहब। आपका मरीज चंगा हो गया। (बाबे से) बाबाजी। आप डॉक्टर इकबाल है और यह बीबी डॉक्टर अमृता। मेडिकल कॉलेज में पढ़ते हैं।
बाबा: (दोनों को हाथ जोड़े) वाह भई वाह। गरीबों और पागल फकीरों के डॉक्टर। थोड़े से और बनाओ अपने जैसे। जिनकी नजर मरीज की जेब पर नहीं मरज पर हो।”17 डॉक्टरी के बाजार में ऐसा हो पाना बहुत मुश्किल लग रहा है, क्योंकि डॉक्टरी की पढ़ाई बहुत महँगी है और फिर लोगों की लालच चरम पर है।
धर्म एवं सत्ता की साँठगाँठ हत्याओं को बलि के रूप में तब्दील कर देता है। भीड़ को उन्मादी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। वर्तमान में यह स्थिति है कि सत्ता धर्म के आगे नतमस्तक है। स्वदेश दीपक इसे बहुत पहले ही अपने नाटकों में दर्ज करते हैं।
“काजमी : तीन नए नाटक हैं। पहला राजनीति के हाथों हथियार बन गया धर्म, दूसरा वोटों का दलाल धर्म। तीसरा नेताओं का नया हथियार धर्म।
बाबा: बड़ा खतरनाक हो गया है धर्म।
काजमी : जब गलत लोग किसी अच्छी चीज का इस्तेमाल करें तो वह भी गलत हो जाती है यह शासक वर्ग का चरित्र है। साँप चाहे फूलों की बेल से लिपट जाए, रहेगा तो साँप ही। कभी नहीं बदलती उसकी फितरत और नतीजा। लोगों को गलतफहमी हो जाती है कि नेताओं के धर्मदूत आकाश से उतरेंगे, उनके दुखों को पोटली में बाँधेंगे और लौट जाएँगे वापस अपने स्वर्ग। धर्म, राजनीति, संस्कृति और साहित्य रंडी बन गए है इन पालीटीशेन्ज के हाथों में। इनका इस्तेमाल तिजारत बन गया है। तिजारत। अपने घर में खून-खराबा, भुखमरी, बेरोजगारी और हाहाकार। विदेशों में हो रहे हैं भारत-उत्सव। फैस्टीवल ऑफ इंडिया। लोग इतने सुखी है कि बस दिन-रात नाचते हैं, गाते हैं और मस्त रहते हैं। बना दी है यह धरती शस्य-श्यामला हमारे राजनीति के अवतारों ने।”18 धर्म का ऐसा नशा फैलाया गया है, कि लोग पच्चीस-तीस साल के पाखंडी नवयुवकों को अवतारी पुरुष मानकर पूज रहे हैं। धार्मिक भीड़ सैकड़ों की जान मिनटों में ले रही लेकिन भोले-भाले भक्त इसे ही मोक्ष समझ रहे हैं।
डारियो फ़ो ने ‘चुकाएंगे नहीं’ नाटक में लोकतंत्र में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रवेश को दर्शाया है। पूँजीपति एक तरफ फैक्ट्री एवं दफ्तरों में सस्ते मजदूरों की तलाश करते हैं एवं दूसरी तरफ मॉल संस्कृति के माध्यम से वस्तुओं को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में प्रचारित कर मोटी रकम वसूलते हैं। सरकार पूँजीवादी व्यवस्था का उपयोग चंदा वसूलने के लिए करती है। जिसका पर्दाफाश सुप्रीम कोर्ट ने ‘इलेक्ट्रोल बॉन्ड’ को अवैध घोषित कर किया। सरकारों एवं पूँजीपतियों की मिली भगत मनुष्यों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार करते हैं। अब तो कंपनियों की मोनोपॉली ने खतरनाक रूप धारण कर लिया है, भारत का टेलीकॉम सेक्टर इसका सबसे ताजा उदाहरण है।
“गोविन्द : ठीक है, मैं आपकी बात मान लेता हूँ कि हम पुलिस वालों को गधा समझते हैं, नहीं-नहीं आपकी बात अलग है। पर हम सभी एक ही क्लास को बिलौन्ग करते हैं, जिसे कम्यूनिस्ट लोग सर्वहारा कहते हैं।
हवलदार : सर्वहारा। सब बकवास है। हम सब की एक ही क्लास है, वो है पालतू कुत्ते की क्लास। हम अपने मालिकों के पालतू कुत्ते हैं, हर तरह से उनकी हिफाजत करना हमारा काम है। चमचे हैं हम उनके।
गोविन्द : मैं समझ नहीं पा रहा, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो ये नौकरी क्यों चुनी?
हवलदार : चुनी? चुनी? ये सब खाना क्या तुमने चुना था? ये डॉग बिस्किटस, ये मुर्गियों का दाना?
गोविन्दः विल्कुल नहीं, पर और कोई च्वॉईस भी नहीं थी। कुछ भी नहीं था।”19 नेताओं को चुनते हुए कई विकल्प होता है लेकिन सबका चरित्र लगभग एक-सा ही रहता है, इस विकल्पहीनता की स्थिति में जनता के पास उन्हें पाँच साल तक झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता।
आम आदमी पर सरकार हर तरफ से निगरानी रखना चाहती है लेकिन पूँजीपतियों को छूट दे दी जाती है। सरकार की मंशा जनता की अभिव्यक्ति की आजादी खत्म करने की रहती है। कभी-कभी यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है, कि सरकार का पूँजीपतियों पर नियंत्रण है या पूँजीपतियों का सरकार पर। इस हालत में आम जनता तो लोकतंत्र में सिर्फ चुनाव के दिन एक ऊंगली भर का प्रयोग करने के लिए है।
“इंस्पैक्टर : बहुत बातें हो गईं। अब काम शुरू किया जाए। (सोफे की तरफ बढ़ता है)।
लक्ष्मी : काम तो हम सभी करते हैं। हमारे मामले में बस इतना है कि हमें दिन भर कोल्हू के बैल की तरह खटना होता है, और आप? आपको सिर्फ ये भर देखना होता है कि हम कायदे से रह रहे हैं कि नहीं, हर चीज़ की सही कीमत अदा कर रहे हैं कि नहीं। आप कभी ये तो चैक नहीं करते कि मालिक लोग अपने वादे पूरे कर रहे हैं या नहीं, हमें हमारी पूरी तन्ख्वाह दे रहे हैं या नहीं, हमसे ज़रूरत से ज़्यादा काम तो नहीं करवाया जा रहा है। हमें हमारे हक मिल रहे हैं या नहीं, पूरी छुट्टियाँ मिल रही हैं या नहीं, हमें बेकार में ही तो नौकरी से नहीं निकाला जा रहा है सड़कों पर भूखा मरने के लिए।”20
जैसे भारतीय समाज में प्रत्येक जाति के नीचे एक जाति है, वैसे ही प्रत्येक अफसर के नीचे एक अफसर; प्रत्येक समूह के पास एक ऐसा समूह है जिसे वह शोषण कर सकते हैं। अफसरों की ग्रेडिंग है जो जितने ऊंचे ग्रेड के हैं, वे उतने बड़े भ्रष्टाचारी हैं।
“सनकी : दैट्स आल राइट। जब मौजूदा गवर्नमेंट ही इस तरह से डिजाइन की गयी हो कि वो केवल एक तबके द्वारा दूसरे तबके के एक्सप्लॉइटेशन पर ही जिन्दा रह सकती है, तब उसके लिए करप्शन बिकम्स ए रूल।”21
सरकार, अफसर और पूँजीपति लोकतंत्र को उस गाय की तरह निचोड़ते हैं, जिसके पास सिर्फ उनकी हड्डियां बची रह जाती है। लोकतंत्र में लोग बिल्कुल गायब है उन्हें सिर्फ जिंदा रहने भर के लिए चारा दिया जाता है। संविधान में अधिकारों का पुलिंदा तो है लेकिन सत्ताधीशों को उसके जीने मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कुछ दिनों का हो हल्ला फिर वही रवैया लूटो और बहकाओ।
“सनकी : ओह हाँ, क्योंकि लोग सच्चाई जानना चाहते हैं। आप उन्हें एक स्कैंडल थमा देते हैं। लोग खाना, कपड़ा और नौकरी चाहते हैं, सरकार उन्हें ये दे नहीं पाती, और इससे पहले कि वो इस सरकार को बदल कर दूसरी बेहतर सरकार की तलाश कर पायें, आप उन्हें फ़ाइव इयर प्लान और नये-नये स्लोगन्स दे देते हैं।"22
देवेंद्र राज अंकुर मानते हैं- “जिस नाटक में यह दृश्य तत्व जितने ज्यादा मुखर होंगे वह उतना ही अच्छा नाटक माना जाएगा।”23 ‘कोर्ट मार्शल’ समेत अन्य तीन नाटकों में मेटा टेक्स्ट का भरपूर प्रयोग किया गया है जिसके कारण इन नाटकों का दृश्य तत्व काफी मुखर हो गये हैं।
निष्कर्ष : स्वदेश दीपक एवं डारियो फ़ो जनवादी नाटककार हैं। जनवादी नाटककारों का लक्ष्य देश में व्याप्त संप्रदायवाद का विखंडन और जातिगत भेद का उन्मूलन है। नाटककारों ने संकीर्णता की सभी सीमाओं को तोड़कर संपूर्ण पिछड़े समाज को साथ लेकर चला। गरीबी एवं महँगाई से जूझते समाज को धर्म तंत्र, राजनीति एवं पूँजीपतियों की धूर्तता से बचाना इनका कर्त्तव्य है। जनवादी नाटककार केवल सामाजिक याथार्थ नहीं लिखते बल्कि शोषण एवं दमनकारी शक्तियों से लड़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं। कुछ अद्भुत पात्रों का सृजन कर उनके हाथ में क्रांति की मशाल थमा देते हैं; ‘कोर्ट मार्शल’ का रामचंदर, ‘जलता हुआ रथ’ में बाबा, ‘एक और दुर्घटना’ के सनकी एवं ‘चुकाएंगे नहीं’ की लक्ष्मी ऐसे ही क्रांतिकारी चरित्र है।
- जयदेव तनेजा, आधुनिक भारतीय रंग-परिदृश्य, तक्षशिला प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2015, पृष्ठ 173
- द ट्रिब्यून में प्रकाशित स्वदेश दीपक के साक्षात्कार से, 22 अक्टूबर 1997
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 5
- वही, पृष्ठ 90
- जयदेव तनेजा, आधुनिक भारतीय रंग-परिदृश्य, तक्षशिला प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2015, पृष्ठ 174
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 15
- ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2022, पृष्ठ 59-60
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 19-20
- डारियो फो, एक और दुर्घटना (अनुवाद अमिताभ श्रीवास्तव), वाणी प्रकाशन, संस्करण 2018, पृष्ठ 29
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 28
- डरियो फ़ो, एक और दुर्घटना, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2018, पृष्ठ 81
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 64
- स्वदेश दीपक, जलता हुआ रथ, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2020, पृष्ठ 28
- ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधा कृष्ण प्रकाशन, चौथा संस्करण 2022, पृष्ठ 61
- स्वदेश दीपक, कोर्ट मार्शल, जुग्गरनॉट प्रकाशन, किंडल संस्करण, 2017, पृष्ठ 91
- स्वदेश दीपक, जलता हुआ रथ, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2020, पृष्ठ 40
- वही, पृष्ठ 39-40
- वही, पृष्ठ 42
- डारियो फो, चुकाएंगे नहीं (अनुवाद अमिताभ श्रीवास्तव), वाणी प्रकाशन, संस्करण 2020, पृष्ठ 26
- डारियो फो, चुकाएंगे नहीं (अनुवाद अमिताभ श्रीवास्तव), वाणी प्रकाशन, संस्करण 2020, पृष्ठ 33
- डारियो फो, एक और दुर्घटना (अनुवाद अमिताभ श्रीवास्तव), वाणी प्रकाशन, संस्करण 2018, पृष्ठ 77
- वही, पृष्ठ 76
- देवेंद्र राज अंकुर, रंगमंच का सौंदर्य शास्त्र, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ 133
Waah
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बधाई आदित्य, अच्छा लेख है। - अमित कुमार 'हिन्द'
जवाब देंहटाएंBahut achha lekh hao aadi
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