शोध आलेख : समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के युवा हस्ताक्षर / अविनाश भारती

समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के युवा हस्ताक्षर

- अविनाश भारती



शोध-सार : समकालीन हिन्दी ग़ज़ल-लेखन परम्परा अपने पूर्ववर्ती ग़ज़ल-लेखन परिपाटी से काफ़ी भिन्न है। आज की ग़ज़लों में यथार्थ बोधक तत्वों की प्रचुरता है। आम जनमानस और उनकी समस्याओं को केन्द्र में रखना समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की विशेषता है। 70 के दशक में इंक़लाब की जो मशाल दुष्यंत कुमार ने जलाई थी, आज वही मशाल हिन्दी ग़ज़लकारों के हाथों में है। अब हिन्दी ग़ज़ल तनिक भी अकाव्योचित और असाहित्यिक नहीं रही। अर्थात् अब ग़ज़ल भी अन्य साहित्यिक विधाओं की भाँति सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक विद्रुपताओं को रेखांकित करती हैं। कहीं न कहीं परिवर्तन की आस लिए समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार अपनी ज़िम्मेदारियों का भरसक निर्वहन करते हुए नज़र आते हैं। इनकी प्रतिबद्धता अनुकरणीय है। फलस्वरूप इनकी ग़ज़लधर्मिता से प्रभावित होकर युवा ग़ज़लगो भी अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए दिखाई पड़ते हैं। विदित हो कि हर युवा में ऊर्जा के अकूत भण्डार हैं। बस उन्हें पहचानने और प्रयोग करने की ज़रूरत है। आज के युवा ग़ज़लकार ग़ज़ल की पुरानी और परम्परागत काल्पनिक प्रेम-केंद्रित रूढ़ परिभाषा की जगह यथार्थ-परक नई परिभाषा को स्थापित करने के लिए सृजनरत हैं। इस इंटरनेट और मोबाइल युग में जहाँ ज़्यादातर युवाओं में भटकाव है, वहीं युवा ग़ज़लकारों की प्रतिबद्धता और समर्पण-भाव स्तुत्य है।


बीज-शब्द : समकालीन, ग़ज़ल, परम्परा, दुष्यंत कुमार, युवा ग़ज़लकार, आलोचक, ग़ज़ल-लेखन परम्परा, जनसरोकार, विद्रुपता, हिन्दी ग़ज़ल 


मूल आलेख : समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की लोकप्रियता और उपयोगिता का आलम ऐसा है कि हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में नित नये ग़ज़लकारों का उदय हो रहा है जो वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के लिए भी काफ़ी सुखद है। अब हिन्दी साहित्य की दुनिया में ग़ज़ल कतई असाहित्यिक और अकाव्योचित नहीं रही, अर्थात् आधुनिक युग की ग़ज़लें साहित्य की अन्य विधाओं की तरह अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़ूब निर्वहन कर रही हैं।  ग़ज़ल की यह विकास यात्रा अमीर ख़ुसरो से होते हुए आज के हज़ारों समर्थ एवं संजीदा ग़ज़लकारों से होकर गुज़र रही है। कई दशक पहले दुष्यंत ने जिस ग़ज़ल परिपाटी की नींव रखी थी, उसका निर्वहन आज ग़ज़ल-लेखन की पहली शर्त बन चुकी है। हिन्दी ग़ज़ल को साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित करने में समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों की भी महती भूमिका रही है जिसे कभी भी, किसी भी शर्त पर नकारा नहीं जा सकेगा।


निःसंदेह ग़ज़लों में कथ्य के स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है। अब निरंतर हिन्दी ग़ज़लों में प्रतिरोध का स्वर बढ़ने लगा है, ग़ज़लों में जनसरोकार की बातें होने लगी हैं। वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफ़ी हद तक ग़ज़ल-यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है। इनके ठीक पीछे नवोदित ग़ज़ल-पीढ़ी भी समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की मशाल उठाए खड़ी है। ऐसे में युवा ग़ज़लकारों के दृष्टिकोण को जानना और समझना और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। इस इंटरनेट और मोबाइल की लोलुपता के दौर में ग़ज़ल-लेखन के प्रति युवाओं का आकर्षण और बढ़ती भागीदारी हिन्दी ग़ज़ल के एक नए दौर का संकेतक है। 


यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर किसे युवा कहा जाए और किसे प्रौढ़?


अगर उम्र के लिहाज़ से बात की जाए तो वैसे रचनाकार अपने नाम के आगे युवा विशेषण लगने से तुरंत नाराज़ हो जाते हैं जिन्होंने कम समय और कम आयु में खुद को स्थापित किया है। विदित हो कि यहाँ युवा का मतलब सिर्फ़ कम उम्र से है न कि नौसिखिया होने से। 


मैं विषय को सीमित और सुव्यवस्थित करने के लिए चालीस वर्ष तक के ग़ज़लकारों को युवा की श्रेणी में रख रहा हूँ ताकि उनकी ग़ज़लधर्मिता का मूल्यांकन उनकी आयु और वर्ग के रचनाकारों के साथ ही किया जा सके। अमूमन देखा जाता है कि ज़्यादातर समकालीन हिन्दी ग़ज़ल-आलोचक युवाओं की ग़ज़लों में जबरन दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी के कथ्य और शिल्प को तलाशने में लग जाते हैं। कुछ हद तक उन्हें सफलता भी मिल जाती है। लेकिन यह भी सच है कि इन्हीं कारणों से अभ्यासी युवाओं का लेखन से मोहभंग भी शुरू हो जाता है। मेरा मानना है कि युवाओं की लेखनी को ठीक वैसे ही तराशना चाहिए जैसे कोई कुम्हार चाक की मिट्टी को आकार देता है। 


बहरहाल, मौजूदा समय में हिन्दी ग़ज़ल-लेखन में सक्रिय और प्रतिबद्ध युवा ग़ज़लकारों की बात करे तो कई प्रभावशाली नाम हमारे मानस पटल पर छाने लगते हैं, उन्हीं नामों में अभिषेक कुमार सिंह भी प्रमुख हैं। दिनों-दिन इनकी सृजनशीलता बढ़ती ही जा रही है जो इनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।


इनकी ग़ज़लों को देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ दुष्यंत कुमार की परंपरा का निर्वहन किया है। बात चाहे सामाजिक, राजनीतिक, या धार्मिक विषमता की हो, इन्होंने बड़ी ही सूक्ष्मता से विसंगतियों को महसूस किया है और उन्हें रेखांकित करने का भरसक प्रयास किया है। उदाहरण स्वरूप कुछ अश'आर देखे जा सकते हैं-


पीड़ा का स्वर घुट-घुट कर मर जाता है,
कितना निर्मम शहरों का सन्नाटा है।

टूट ही जाती है अरमानों की कुर्सी,
निर्धनता का दीमक जब लग जाता है।1

हर विरोधी स्वर पे बरसेंगी निरंकुश लाठियाँ,
सत्ता की आलोचना को रौंद डाला जाएगा।2

प्रयोगधर्मी ग़ज़लकार के. पी. अनमोल बड़े ही आसान शब्दों में गंभीर बातों को कहने का हुनर जानते हैं। अपनी ग़ज़लों की वज़ह से अपने समय के श्रेष्ठ ग़ज़लगो के दिलों पर राज करने वाले के. पी. अनमोल अपने बाद की पीढ़ी के भी चहेते हैं। इनकी ग़ज़लों की भाषा बेहद सरल और बोधगम्य है जो इन्हें आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाता है। इन्होंने अपने शे'रों में प्रतीक और बिम्बों के साथ-साथ हिन्दी के प्रचलित मुहावरों को भी यथोचित स्थान दिया है। अश'आर देखें-


वो बुरे कर्मों का अपने शाप देखे जा रहा है,
रोज़ बेटों की लड़ाई बाप देखे जा रहा है।3

बोनसाई ख़्वाब देखे जा रहे हैं,
पेड़-सी ताबीर सोचे जा रहे हैं।4

हिन्दी नवगीत की सशक्त हस्ताक्षर गरिमा सक्सेना सक्रिय रूप से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। छंद की विभिन्न विधाओं में लिखने वाली गरिमा सक्सेना का योगदान नवगीत, ग़ज़ल और दोहा विधा में महत्वपूर्ण रहा है। हिन्दी ग़ज़ल के प्रख्यात आलोचक अनिरुद्ध सिन्हा के अनुसार गरिमा सक्सेना की ग़ज़लों में विचारधारा की जड़ता नहीं है। विचार औपचारिक होते हुए भी इनका आत्म-संघर्ष पका हुआ है जो हालात और विचारधारा से परे है। वे न तो किसी विचारधारा की अनुभूतियों के बारे में सोचती हैं और न ही किसी सहारे की प्रतीक्षा करती हैं। ये अपनी ग़ज़ल-लेखन यात्रा पूरी तन्मयता से पूरी करती हैं।


शून्य पड़ती मानवता, लोगों के स्वार्थीपन स्वभाव तथा सरकार के वास्तविक चरित्र को उद्घाटित करता हुआ उनके ये शे'र बेहद उल्लेखनीय जान पड़ते हैं। अश'आर हैं-


दुनिया में भगवान न होता,
फिर भयभीत इंसान न होता।5

मिला जब गरीबों को कुछ भी नहीं,
तो कैसे कहूँ अच्छी सरकार है।6

राहुल शिवाय ने ग़ज़ल प्रेमियों और सुधी पाठकों के समक्ष बेहतर साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन्होंने कम उम्र में ही अच्छी ग़ज़लगोई करने का मिशाल पेश किया है। जहाँ इनकी उम्र के ज़्यादातर ग़ज़लकार प्रेमिका की जुल्फों पर क़सीदे पढ़ रहे हैं, वहीं इनकी ग़ज़लें आम-अवाम की बेचैनी, बेबसी और लाचारी की मुखर अभिव्यक्ति बन चुकी हैं।


ग़ज़ल के अलावे दोहा, कविता, गीत और कुण्डलिया जैसी छंदबद्ध विधाओं में भी राहुल शिवाय अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। 


राहुल शिवाय ने अपनी ग़ज़लों में हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध एवं कालजयी पात्रों को कई प्रसंगों में उधृत किया है जो बिल्कुल नये अर्थ का बोध कराते हैं। चंद अश'आर ध्यातव्य हैं-


बॉर्ड पर लिक्खा इलाहाबाद ग़ायब था,

पर अभी भी थी वहाँ वह तोड़ती पत्थर।7


आजकल जो उड़ रहे हैं रोज़ चार्टर प्लेन से,

वे चुनावी रैलियों में फिर दलित हो जाएँगे।8


भूख से बदहाल बच्चों की दशा को देखकर,

थाल में जूठी पड़ी कुछ रोटियाँ रोने लगीं।9


जनवादी ग़ज़लकार नज़्म सुभाष की ग़ज़लों की बनावट और बुनावट एक ही सिक्के के दो पहलू समान सुदृढ़ है। राजनीतिक सन्दर्भ में इनकी चेतना अन्य ग़ज़लकारों से भिन्न जान पड़ती है। इन्हें बख़ूबी पता है कि सत्ता का वास्तविक चरित्र क्या है या उसके काम करने का तरीका क्या है?


इनकी ग़ज़लों के केंद्र में जनसरोकार और विसंगतियों के अलावे माँ की ममता, पिता की मेहनत और त्याग, गाँव की हरियाली, बरगद की छाँव, नदी की निर्मलता, प्रकृति और वातावरण के प्रति चिंता, अस्मितामूलक विमर्श, किसानों की दुर्दशा, शून्य पड़ती मानवीय संवेदना आदि प्रमुख हैं। अब तक इनका एक ग़ज़ल संग्रह 'अदहन' (2022) प्रकाशित है। उसी संग्रह से सरकारी तंत्र को आईना दिखाता हुआ नज़्म सुभाष के चुनिंदा अश'आर देखे जा सकते हैं।


मैं किताबों का उठाता बोझ सर पर किसलिए,

चाहिए थी एक डिग्री बन गयी जाली यहाँ।10


आप ज़िन्दा हैं या मुर्दा मायने रखता नहीं,

आपका अस्तित्व केवल काग़ज़ी आधार है।11


बहुत कम उम्र में ही सत्यम भारती और कुन्दन आनंद ने अदब की दुनिया में अपनी अमिट पहचान बनाई है। दोनों युवा ग़ज़लकार हमारे अंदर प्रेम-सद्भाव को जागृत करने की बात करते हैं ताकि हमारा संपूर्ण जीवन मानवहित में व्यतीत हो सके। जनसरोकार से लैस इनकी ग़ज़लों में वर्तमान की हक़ीक़त को हू-ब-हू बयां करने का अदम्य सामर्थ्य है। मानवीय गुणों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में ऐसे युवा रचनाकारों को पढ़ना बेहद अनिवार्य हो जाता है क्योंकि युवाओं की विचारधारा आने वाले समय की सार्थकता और निरर्थकता को तय करती हैं। इसलिए भी युवा रचनाकारों के ऊपर वर्तमान और भविष्य की बेहतरी का पूरा-पूरा दारोमदार है।


इस बाबत सत्यम भारती और कुन्दन आनंद की रचनाशीलता को बयां करता हुआ उनके अश'आर देखे जा सकते हैं-


हम तो अपनों के मारे हैं,

उनसे ही हर दिन हारे हैं।


वे ही छोड़ गये वृद्धाश्रम,

जो इन आँखों के तारे हैं।12

-सत्यम भारती


तुम जिसको चालाकी कहते फिरते हो,

वो चालाकी कम, ज़्यादा गद्दारी है।13

-कुन्दन आनंद


डॉ. रामनाथ शोधार्थी अपने समय को लिखने वाले फनकार हैं। विगत कुछ वर्ष पहले जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के चपेट में थी, तब एक ओर जहाँ असंख्य लोगों की मौत हुई वहीं दूसरी ओर मानव-सभ्यता, विज्ञान तथा हमारी चिकित्सा पद्धति की उन्नति और विकास पर प्रश्नचिन्ह भी खड़े हुए। अपने आप को खुदा समझने वाले आत्ममुग्ध लोगों को आईना दिखाता हुआ डॉ. रामनाथ शोधार्थी के अश'आर ध्यातव्य हैं-


कहाँ पर हैं फ़लक वाले फ़रिश्ते,

ज़मीं वाले फ़रिश्ते मर रहे हैं।


सभी को एक दिन मरना है लेकिन,

सभी मरने से पहले मर रहे हैं।14


ग़ज़लकार नीरज कुमार ‘निराला’ की ग़ज़लें आम जनता की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं। इनकी ग़ज़लों में संवेदना के साथ-साथ जनाक्रोश भी है और सच बयानी की उत्कंठा भी। विरोध प्रदर्शन करता हुआ उनके अश'आर देखें जो आम-आदमी के आक्रोश का प्रतिनिधित्व करता हुआ नज़र आता है -


ऐ सियासत! कभी तेरे आगे,

आदमी झुनझुना नहीं होगा।


इश्क़ पर ग़ौर भी करेंगे हम,

भूख जब मस्अला नहीं होगा।15


विनोद निर्भय मानवता के पक्षधर हैं। इनके साहित्य में मानवता और मानववाद को मजबूती देने वाले तत्वों की प्रचुरता है। कहीं-न-कहीं इन्हें पता है कि मानवता को बनाए रखने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है। अमूमन हम यही चाहते हैं कि सभी हमारे साथ मानवीयता के साथ पेश आएं। लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि हमें भी दूसरों के साथ आत्मीयता के साथ पेश आना चाहिए। अर्थात् हम दूसरों से शुरुआत की उम्मीद तो करते हैं लेकिन कभी ख़ुद से अच्छाई की शुरुआत नहीं करते। 


मानवतावाद के विस्तार एवं विकास के लिए आपसी द्वेष को भुलाकर ख़ुद को ज़माने की सेवा हेतु तैयार रखना होगा। साथ ही जाति-धर्म से ऊपर मानव और मानवता को रखना होगा, तभी मानवीय गुण और विश्व-बंधुत्व के भाव स्थापित हो सकेंगे।


इस सन्दर्भ में विनोद निर्भय के अश'आर अवलोकनार्थ हैं-


दिलों को जोड़कर नफ़रत मिटाने की ज़रुरत है,
नया हो या पुराना ग़म, भुलाने की ज़रुरत है।

धरम के नाम पे यूँ आशियाँ हर दिन जलाओ मत,
हमें मिलकर नयी बस्ती बसाने की ज़रुरत है।16

संजीदा ग़ज़लकार दिवाकर पाण्डेय 'चित्रगुप्त' की ग़ज़लें विविध कथ्यों का कोलाज हैं। चित्रगुप्त सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों को बख़ूबी रेखांकित करते हैं। साथ ही अशांत निजी जीवन और पारिवारिक क्लेश के कारणों को भी समझते हैं। लगभग हर घर-परिवार में अक्सर सास-बहू के रिश्ते में अनबन देखी जाती है। ये रिश्ता ऐसा होता है कि जरा सी भी गलतफहमी हो जाए तो यह रिश्ता पूरी तरह से बिगड़ भी सकता है। इस बाबत ग़ज़लकार का सिर्फ़ एक शे'र उनके उत्कृष्ट ग़ज़ल-लेखन, चिंतन और दृष्टिकोण को परिभाषित करता हुआ जान पड़ता है। शे'र है-


इस पहलू में अपनी माँ है, उस पहलू बच्चों की माँ,

दोनों में जो मेल करा ले, सबसे काबिल वो ही है।17


आज ग़ज़लकार अपने चारों ओर के परिवेश में जो भी देख रहा है, उसी को अपने शे'र का विषय बना रहा है। आज की ग़ज़लों के केन्द्र में यदि ऊँची हवेलियाँ हैं, तो टूटी-फूटी झोपड़ियों को भी वह अनदेखा नहीं कर रही है। 

मौजूदा दौर में हँसमुख आर्यावर्ती और सत्यशील राम त्रिपाठी सबसे संभावनशील युवा ग़ज़लकार हैं। इनकी ग़ज़लें इनकी आयु के ठीक विपरीत समस्याओं और विद्रुपताओं से मुठभेड़ करती हुई नज़र आती हैं। बहुत हद तक इनकी ग़ज़लें पाठकों को अपनी प्रौढ़ता का भान कराती हैं। यथार्थ-लेखन के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा को भी सुदृढ़ करने वाले विषय इनकी ग़ज़लों के वास्तविक सौंदर्य हैं।


उदाहरण स्वरूप चंद अश'आर प्रस्तुत हैं-


एक गवाही झूठी देकर पाला है अपराध,
जीवन भर का पछतावा है आँखों देखा दृश्य।18
-हँसमुख आर्यावर्ती

हौसले की साइकिल चलने लगी,
और पीछा कार का करने लगी।19
-सत्यशील राम त्रिपाठी

मिटाने की कोशिश करो चाहे जितनी,
हरा ही रहेगा मेरी ज़िद का कोंपल।20
-अविनाश भारती

सत्येंद्र गोविन्द और विकास सोलंकी मंचों की आबोताब और क्षणिक आकर्षण से दूर हिन्दी ग़ज़ल की बेहतरी को लेकर पूर्णतः समर्पित और प्रतिबद्ध नज़र आते हैं। इनकी सक्रियता इनकी ग़ज़लों में दृष्टिगत है। ख़ास करके विकास सोलंकी की ग़ज़लों में ऐतिहासिक पात्रों और प्रसंगों का नये सन्दर्भों में प्रयुक्त होना तथा मिथकों और कहावतों का यथोचित प्रयोग ग़ज़ल-अनुरागियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं है। वहीं सत्येंद्र ‘गोविन्द’ गाँव से ताल्लुक रखने वाले रचनाकार हैं, फलस्वरूप गाँव की सुन्दरता और रमणीयता के साथ-साथ गाँव की विद्रुपता भी इनकी ग़ज़लों में मुख्य विषय के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उदारहणार्थ कुछ शे'र देखे जा सकते हैं-


सिक्के फेंको न्याय ख़रीदो मन माफ़िक,

पंचों का ऐसा दरबार बताओ तो।21

-सत्येंद्र गोविन्द


प्रश्न मेरे सामने तो आज भी इक यक्ष है,

सोचता हूँ क्यों युधिष्ठिर द्रोण का प्रतिपक्ष है?


भोग रोटी-साग का जिसने लगाया भाव से,

प्रेम की अवधारणा में कौन अब समकक्ष है?22

-विकास सोलंकी


समय का चक्रव्यूह भी अजीब है। अमन चाँदपुरी और शुभम श्रीवास्तव 'ओम्' जैसे भविष्णु रचनाकार भी इस चपेट से नहीं बच सके। ईश्वर ने उन्हें कम आयु में ही हमसे छीन लिया। लेकिन अपने जीवन-काल में दोनों रचनाकारों ने हिन्दी ग़ज़ल को नई ऊँचाई देने की पुरज़ोर और अथक कोशिश की। हिन्दी ग़ज़ल के विकास और विस्तार में उनके योगदान और समर्पण को हमेशा याद रखा जाएगा।


विदित हो कि यह फ़ेहरिस्त यहीं ख़त्म नहीं होती और भी कई महत्वपूर्ण नाम हैं जो कम उम्र में भी समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में अपनी विशेष पहचान के लिए सृजनरत और प्रतिबद्ध हैं। उन नामों में अजय नमन, अमित वागर्थ, उत्कर्ष अग्निहोत्री, कुणाल दानिश, चित्रांश खरे, चित्रा भारद्वाज 'सुमन', जयनित कुमार मेहता, पंकज़ोम 'प्रेम', पीयूष शर्मा, प्रवीण कुमार दर्ज़ी, रघुनन्दन शर्मा 'दानिश', राम शिरोमणि पाठक, राहुल कुम्भकार, अनिल मानव, सारथी बैद्यनाथ, विशाल ओझा 'एहसास', शिवम कुमार 'आशाद', सर्वेश त्रिपाठी, चाँदनी समर, मनीष मोहक, डॉ. स्वराक्षी स्वरा, डॉ. रूपम झा, डॉ. मनजीत सिंह किनवार, विजय कुमार आदि प्रमुख हैं।


निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि आज युवा पीढ़ी पूरे दमख़म के साथ ग़ज़ल के शिल्प को साधते हुए अपनी ग़ज़लों का लोहा मनवा रही है। उपरोक्त नामों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो निरंतर बेहतर लिख रहे हैं, लेकिन यहाँ सबको एकसाथ समेटना सम्भव नहीं है। उक्त ग़ज़लकारों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि ये युवा स्वर नाउम्मीदी में भी उम्मीद तलाश लेते हैं। इन रचनाकारों की ग़ज़लें पाठकों और आलोचकों को भी उम्मीद दिलाती हैं कि हिन्दी ग़ज़ल साहित्य का संसार संभावनाओं से भरा हुआ है। हम आश्वस्त हैं कि आने वाले वक़्त में इन्हीं ग़ज़लकारों से और बेहतर रचनाएँ आएँगी, जिसका बेसब्री से हिन्दी ग़ज़ल को प्रतीक्षा है।


सन्दर्भ :
  1. अभिषेक कुमार सिंह, वीथियों के बीच, लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, वर्ष-2022, पृष्ठ-28
  2. वही, पृष्ठ-31
  3. के. पी. अनमोल, जैसे बहुत क़रीब, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2023, पृष्ठ-18
  4. वही, पृष्ठ-69
  5. अनिरुद्ध सिन्हा, हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरेश्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-69
  6. सं. डॉ. भावना, गीत गागर, युवा महिला ग़ज़ल विशेषांक, जनवरी-मार्च 2022, पृष्ठ-14
  7. राहुल शिवाय, रास्ता बनकर रहा, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-109
  8. वही, पृष्ठ-106
  9. वही, पृष्ठ-71
  10.  नज़्म सुभाष, अदहन, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली, वर्ष-2022, पृष्ठ-7
  11.  वही, पृष्ठ-9
  12.  सत्यम भारती, सुनो सदानीरा, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2023, पृष्ठ-32
  13.  कुन्दन आनंद, कुछ ऐसा है रूप तुम्हारा, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2022, पृष्ठ-71
  14.  अविनाश भारती, अदम्य, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2022, पृष्ठ-42
  15.  वही, पृष्ठ-34
  16. 16. 
  17. https://hindi.pratilipi.com/story/dilo-ko-jodkar-nafrat-mitane-ki-jarurat-hai-by- vinod-nirbhay-kma0kkpmcybx
  18.  चित्रगुप्त, पुराने ख़त बताते हैं, लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-83
  19.  अनिरुद्ध सिन्हा, हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-200
  20.  अविनाश भारती, हिन्दी ग़ज़ल के साक्षी, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-401
  21.  अनिरुद्ध सिन्हा, हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-35
  22.  अविनाश भारती, हिन्दी ग़ज़ल के साक्षी, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2024, पृष्ठ-381
  23.  वही, पृष्ठ-366
अविनाश भारती 
शोधार्थी, हिन्दी विभाग ,ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा, बिहार।

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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