शोध आलेख : बिग ब्रदर इज वाचिंग यू - हिडेन करिकुलम और बच्चे / चंद्रशेखर पाण्डेय एवं पतंजलि मिश्र

बिग ब्रदर इज वाचिंग यू - हिडेन करिकुलम और बच्चे
- चंद्रशेखर पाण्डेय एवं पतंजलि मिश्र
शोध सार : करिकुलम या पाठ्यचर्या स्कूल में बच्चों को मिले कुल अनुभवों का योग है। बच्चों को जो अनुभव होते हैं वो केवल औपचारिक करिकुलम के अनुसार ही नहीं होते बल्कि जिस तरह से बच्चों को पढ़ाया और ट्रीट (व्यवहार) किया जाता है वह बात ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। स्कूल के सोशल ट्रैफिक में एक यातायात पुलिस की तरह शिक्षक जिस तरह से उनको स्टार देता है और पर्ची काटता है वह उन्हें समाज और सत्ता का महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाता है। जिस तरह के दबाव सहपाठियों और मित्र मंडली द्वारा बच्चों पर बनाए जाते हैं वह उनके सीखने सिखाने पर कैसे प्रभाव डालता है; यह सब उस करिकुलम का हिस्सा है जो दिखता नहीं है, हिडेन (अदृश्य/छिपा) है। यह हिडेन करिकुलम उतना ही जटिल है जितना मनुष्य के व्यवहार और उसके पक्ष। छोटे बच्चों के मामले में यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह उनके विकास का समय होता है। इस अवस्था में हिडेन करिकुलम कैसे उनके व्यक्तित्व, सामाजिक अनुकूलन और भावनात्मक संतुलन को प्रभावित कर सकता है – यह एक विमर्श का विषय है। इस अध्ययन में महाराष्ट्र के एक निजी अंतरराष्ट्रीय विद्यालय के कक्षा पांच के विद्यार्थी से कई दिनों तक मित्रवत व्यवहार के आधार पर विद्यालय के छुपे हुए या प्रछन्न करिकुलम को उजागर करने की कोशिश की गई है|

बीज शब्द : हिडेन करिकुलम, सामाजिक अनुकूलन, पेट फेनोमेना, औपचारिक पाठ्यचर्या।

मूल आलेख : करिकुलम वह अनुभव है जो विद्यार्थी के व्यक्तित्व को सांचे में ढालता है। करिकुलम के मेनू से ही शासन-तंत्र समाज विद्यालयों में शिक्षा परोसता है। विद्यालयों में सारे शैक्षिक अनुभव करिकुलम के माध्यम से विद्यार्थी तक पहुंचते हैं। लोकतांत्रिक समाज की रचना का एक प्रमुख उद्देश्य सामाजिक न्याय और जागरूक नागरिक का निर्माण भी है। इस निर्माण में करिकुलम की अहम् भूमिका है। जब बच्चे विद्यालय में प्रवेश लेते हैं तो औपचारिक ऑफिसियल करिकुलम का जो परचा या प्रोस्पेक्टस प्रदान किया जाता है, वह वास्तव में जब क्रियान्वित होता है तो अलग आकार ग्रहण कर लेता है। ज़रूरी नहीं कि विद्यार्थी को वही अनुभव दिया जाय। विद्यालय में छोटे बच्चों का बालमन और व्यक्तित्व आकार लेता है। विद्यालय वह जगह है जहां बच्चे पहली बार लाइन में लगना सीखते हैं, अपनी बारी का इंतज़ार करना सीखते हैं, पहली बार वे घर से बाहर निकल कर भीड़ का हिस्सा बनते हैं। शिक्षक इस सोशल ट्रैफिक का दरबान होता है।

हिडेन करिकुलम वह पाठ्यचर्या होती है जो लिख के नहीं दी जाती लेकिन विद्यार्थी के किरदार और व्यवहार को गढ़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हिडेन करिकुलम का विचार जॉन डीवी (1859-1952) की लोकतंत्र एवं शिक्षा (1916) पुस्तक में कोलेटरल लर्निंग या साथ-साथ चलने वाले अनुभव और अधिगम के रूप में बताया गया था, जिसे बाद में फिलिप जैक्सन ने हिडेन करिकुलम का नाम दिया। इस विचार को पेडोगोजी ऑफ़ ओप्रेस्ड (1968) में पाउलो फ्रेयरे (1921-1997) भी अपने तरीके से सत्ता और विद्यालय के विमर्श में स्थान दिया है। एप्पल (1942) ने आइडियोलोजी एंड करिकुलम (1979) में इसके ऊपर गहन और विस्तृत विमर्श किया है। यह स्वतंत्रता मूलक शिक्षा का विचार है। लोकतंत्र को मजबूत करने में शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है। अमर्त्य सेन ने शिक्षा को क्षमता निर्माण और अवसर का समुचित लाभ लेने के लिए आवश्यक माना है और अपनी क्षमता आधारित एप्रोच में इस बात पर बल दिया है कि शिक्षा स्वतंत्रता के लिए ज़रूरी है और स्वतंत्रता सामाजिक न्याय के लिए परमावश्यक मूल्य है। हिडेन करिकुलम यह तय करता है कि बच्चे के मनोमस्तिष्क में न्याय की संकल्पना क्या होगी ? वह सत्ता के बलप्रयोग के सामने कैसी प्रतिक्रिया देगा? वह समाज में कैसे व्यवहार करेगा और अपने अवसरों को कितना सकारात्मक रूप से लेगा? उसकी भावनात्मक और मानसिक स्थिति को भी हिडेन करिकुलम तय करता है, कोई औपचारिक नीतिगत दस्तावेज यह बात नहीं तय कर सकता। इसलिए यह एक अंत्यंत महत्वपूर्ण विमर्श है।

हिडन करिकुलम अदृश्य और अवचेतन रूप से विद्यालय के वातावरण में विद्यार्थी के व्यक्तित्व, आदतों और मूल्यों को प्रभावित करता है। यह उसका सामाजिक और सांस्कृतिक अनुकूलन करता है और समाज में भावी भूमिकाओं में उसकी सक्रियता की सीमाएं तय करता है। हिडन करिकुलम संस्कृति की फैक्ट्री है। यह सांस्कृतिक पुनरोत्पादन करता है। यह समाज के भावी नागरिकों में उनकी अपनी पहचान, सामूहिक पहचान और सांस्कृतिक पहचान को न केवल कायम करता है बल्कि बदलाव के लिए उद्वेलित भी करता है। यह निर्भर करता है कि विद्यालय की पाठ्यचर्या किस प्रकार से उन्मुख की गई है। किस प्रकार से विद्यालय के संगठनात्मक माहौल के बीच सत्ता का प्रयोग किया जाता है| विद्यालय में विद्यार्थी की पहली बार सामाजिक सत्ता से मुठभेड़ होती है, जहां वह परिवार के बाहर पहली बार एक भीड़ का हिस्सा बनता है और अपनी बारी का इंतज़ार करना सीखता है। विद्यालय के सामाजिक वातावरण में वह शिक्षकों, विद्यार्थियों, कर्मचारियों और अन्य प्रकार के सेवा प्रदाताओं से परस्पर क्रिया और संवाद करता है और उसका यह व्यवहार विद्यालय में कई प्रकार से नियंत्रित और अनुकूलित किया जाता है। विद्यालय में ही विद्यार्थी अपने उचित व्यवहार के लिए प्रशंसा और हतोत्साहन या शिक्षा की भाषा में पुनर्बलन और दंड प्राप्त करता है। यह परिस्थिति उसके अन्दर कई प्रकार की आदतें, मूल्य और रुझान विकसित करती है। यह प्रक्रियाएं विद्यालय की पाठ्यचर्या में लिखित नहीं होतीं लेकिन छुपी होती हैं। वह अप्रत्यक्ष रूप से विद्यार्थी के अनुभवों को आकार देती हैं इसलिए इन्हें प्रच्छन्न या छिपी हुई पाठ्यचर्या कहते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे बचपन में चोर सिपाही या आइस-पाईस खेलते समय आपके साथी आपको धप्पा बोल देते थे। “आई गोट यू” मैंने तुम्हें पकड़ लिया !

विद्यालय में विद्यार्थी की मुठभेड़ शिक्षक से होती है। शिक्षक विद्यालयी संगठनात्मक वातावरण के अन्दर विद्यार्थियों के ऊपर असीमित सत्ता का लाभ लेता हुआ दिखाई देता है। शायद इसी वज़ह से कृष्ण कुमार ने अपनी पुस्तक गुलामी की शिक्षा एवं राष्ट्रवाद (2006) शिक्षकों को तानाशाह किन्तु दब्बू तानाशाह कहां है। ख़ासतौर से भारतीय परिप्रेक्ष्य में, शिक्षक को गुरु कहा गया है और गुरु को ईश्वर से ऊपर का दर्जा दिया गया है। “गुरु गोविन्द दोनों खड़े का को लागूं पांय” - यह सूक्ति अपने आप में शिक्षक की सत्ता की घोषणा का ब्रह्म वाक्य है। लेकिन प्रश्न ये है कि लोकतांत्रिक समाज में शिक्षक को एक तयशुदा भूमिका निभानी होती है जिसमें वह विद्यार्थी के व्यक्तित्व में कुछ तयशुदा अधिगम परिणामों को विकसित करने के लिए जिम्मेदार है। इस फ्रेमवर्क में शिक्षक एक मित्र सलाहकार और सहयोगी की भूमिका में आ जाता है। फिर भी विद्यालयों में अनुशासन और नियंत्रण के नाम पर शिक्षक ही विद्यालयी सत्ता का प्रयोग विद्यार्थी को नियंत्रित और अनुकूलित करने में करता है।

विद्यालयी सत्ता के शिक्षार्थी के ऊपर प्रयोग को लेकर यह कहा जा सकता है कि सत्ता का दुरुपयोग भी किया जा सकता है और सदुपयोग भी। विद्यार्थी विद्यालय में केवल ज्ञान और कौशल ही नहीं प्राप्त करता बल्कि वह एक प्रमाणपत्र भी प्राप्त करता है जो उसके जीवन की दशा और दिशा को तय करता है। इसलिए देखा जाय तो औपचारिक रूप से शिक्षक के हाथ में केवल शिक्षण ही नहीं अपितु मूल्यांकन भी होता है और अनौपचारिक रूप से शिक्षक विद्यार्थियों को प्रेरणा और आदर्श व्यवहार भी प्रस्तुत करता है। एक अच्छा और प्रभावी शिक्षक कहीं न कहीं विद्यार्थी के लिए रोल मॉडल का भी काम करता है। ऐसे में शिक्षक कैसे बात करते हैं, कैसे कक्षा कक्ष में शिक्षण के दौरान विद्यार्थी को प्रोत्साहित या हतोत्साहित करते हैं। कक्षा में ज्ञान के सृजन और वैधीकरण में किस प्रकार से विद्यार्थियों को अवसर देते हैं या हतोत्साहित करते हैं, इन सब बातों का विद्यार्थियों और भावी नागरिकों के चरित्र, व्यक्तित्व और निर्णय लेने तथा प्रतिभाग करने की क्षमताओं पर प्रभाव पड़ता है। अगर शिक्षकों या विद्यालय का माहौल तानाशाही का है तो विद्यार्थी कहीं न कहीं भीरु, और दासता के भाव का बनता है, उसकी संज्ञानात्मक क्षमताएं विकसित नहीं होतीं क्योंकि उसे बोलने और विमर्श करने का अवसर नहीं दिया जाता है। वह आज्ञाकारी तो होगा लेकिन बौद्धिक रूप से क्रिटिकल या विवेचनात्मक नहीं हो सकता। यह भीरुता उसे सत्ता को यथावत स्वीकार करने का चरित्र देती है। लेकिन लोकतंत्र और शिक्षा के सम्बन्ध को करीब से देखने पर पता चलता है कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो सहयोग, प्रतिभाग, संवाद को विकसित करती हो। तभी मानव समाज बौद्धिक रूप से जागरूक नागरिकों के सूचित सहभाग का लाभ ले पाएगा। तभी वह साझेदारी कर पाएगा और साझे निष्कर्षों तक पहुँच पाएगा और सबसे महत्वपूर्ण बात कि अपने कामों की जिम्मेदारी लेगा। ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या विद्यालयी शिक्षा जो कि भारत में निःशुल्क और अनिवार्य कर दी गई है और एक स्वागत योग्य कदम भी है, वाकई एक ऐसे नागरिक का निर्माण करती है जो क्रिटिकल हो, जागरुक हो और लोकतंत्र में भागीदारी के लिए तत्पर हो?

अध्ययन का सन्दर्भ :

इस अध्ययन में एक अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले कक्षा 5 के विद्यार्थी से कई दिनों की मित्रवत बातचीत के आधार पर उसके द्वारा वर्णन किये गए अनुभव के प्रमुख अंशों के आधार पर विद्यालय के हिडेन करिकुलम को समझने का प्रयास किया गया है। कौन-सा अंश प्रमुख है यह भी विद्यार्थी ने ही तय किया। इस अध्ययन में यह प्रतिवेदन स्वयं देवांश ने पढ़ा है और अपने सुझाव भी दिए हैं, जिनके अनुसार सुधारने की कोशिश भी की गई है। देवांश महाराष्ट्र के एक शहरी अंतर्राष्ट्रीय स्कूल में पढ़ता है। वह मूलतः हिंदी भाषी है लेकिन महाराष्ट्र में अभी एक साल से पढ़ रहा है। यह एक अंग्रेजी माध्यम विद्यालय है और इसमें मूलतः मराठी, हिंदी और अंग्रेजी बोलने वाले शिक्षकों द्वारा उसे पढ़ाया जाता है। औपचारिक रूप से इस विद्यालय की पाठ्यचर्या में भाषा अंग्रेजी है लेकिन वास्तव में शिक्षक एक खिचड़ी भाषा का प्रयोग ही करते हैं। इसकी एक वजह है। प्राइवेट स्कूल हमेशा अंग्रेजी को एक मार्केटिंग स्ट्रेटजी की तरह इस्तेमाल करते हैं।

विद्यालय के अनुभव और बाल-मन :

ऐसा क्या हिडेन है स्कूल में जो बच्चे के व्यक्तित्व और मन को आकार देता है? इस बात को जानने के लिए बच्चों के मन की बात को जानना पड़ेगा। मन की बात एकतरफा नहीं होती या स्क्रिप्टेड नहीं होती। इसलिए बच्चों के मन को जानने के लिए उनसे मित्रता करनी पड़ती है और उन्हें बोलने का अवसर देना पड़ता है। ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित बातचीत के आधार पर इस चर्चा में हिडेन करिकुलम को सामने लाने की कोशिश की गई है। विद्यालयी अनुभव सामाजिक अनुभवों का एक व्यवस्थित रूप हैं। इन अनुभवों को व्यवस्थित करने की कोशिश तो की जाती है लेकिन ये वास्तव में हमेशा आदर्श नहीं होते। शिक्षा के सन्दर्भ में आदर्श से मतलब है लोकतांत्रिक आदर्श। इन अनुभवों को निर्मित करने में शिक्षक के साथ साथ मित्र मंडली का भी योगदान होता है। प्रिंसिपल के नेतृत्व का प्रभाव भी विद्यार्थी पर पड़ता है। इन अनुभवों को समझने के लिए उपयुक्त यह था कि देवांश से रोज उसके विद्यालय में क्या हुआ, क्या मज़ा आया, क्या अच्छा नहीं लगा, इस बारे में लगातार हालचाल लेने और गहरी बातचीत करने की कोशिश की गई। इसे अकादमिक जगत में गहन साक्षात्कार भी कह सकते हैं। इन अनुभवों को विभिन्न मुद्दों के आधार पर व्यवस्थित करने और हिडेन करिकुलम की थ्योरी से जोड़ने की कोशिश की गई।

सामाजिक दुनिया में पहला कदम रखने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है वह है – विश्वास। विश्वास के आधार पर ही व्यक्ति या कोई बालक कोई निर्णय लेता है। अरस्तु ने ज्ञान को भी एक प्रकार का विश्वास ही माना है जो कि तर्क और साक्ष्य से प्रमाणित होता है। अब प्रश्न ये है कि बालक विद्यालय में जाकर कैसे विश्वास करना सीखता है ? इसका एक संभावित उत्तर यह है कि वह अपने मित्रों, अन्य सहपाठियों और शिक्षकों से हुई सामाजिक मुठभेड़ों में ही विश्वास करना सीखता है। घर पर तो उसे जैविक माता-पिता पर स्वाभाविक विश्वास करना ही पड़ता है लेकिन इस जैविक रिश्ते के परे वह समाज के अन्य लोगों पर किस आधार पर विश्वास करे या न करे इसके लिए अपने मन को ढालता है। क्या विद्यालय में अविश्वास का माहौल है यह जानना भी ज़रूरी है। विश्वास एक ऐसा मूल्य है जो विद्यार्थी के प्रत्येक सामाजिक मुठभेड़ में उसका साथ देता है।

देवांश के शब्दों में “ मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकता, वहां सब या तो चापलूस हैं या शिक्षक के जासूस हैं” शिक्षक के “जासूस” ऐसे शब्द से क्या लगता है ? विद्यालय एक ऐसी व्यवस्था है जो विद्यार्थी की जासूसी कराता है? विद्यालय का काम सीसीटीवी कैमरों से नहीं चल पाता है। कहीं न कहीं ये कैमरे विद्यार्थियों को सर्विलांस पर होने का अहसास भी कराते हैं। जोर्ज ओरवेल अपने उपन्यास 1984 में लिखते हैं “बिग ब्रदर इज वाचिंग यू” यह कहीं न कहीं सत्ता द्वारा नागरिकों के जीवन के हरेक पक्ष को नियंत्रित करने की तरफ संकेत करते हैं। विद्यार्थी भी कहीं न कहीं आधुनिक राज्य की इस सच्चाई को विद्यालयों में स्वीकार करने के लिए तैयार होते दिखाई देते हैं। शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों की जासूसी विद्यालय की सत्ता का एक हथियार है लेकिन विद्यार्थी के विश्वास के लिए इसके गंभीर मायने हैं। यह विद्यार्थी और शिक्षक के बीच संदेह की स्थिति उत्पन्न करती है। युवल नोवा हरारी ने मनुष्य के विकास में व्यापक सहयोग की क्षमता को ज़रूरी माना है। लेकिन संदेह की स्थिति सहयोग को कम करती है। एक दूसरे पर संदेह करने वाले लोग कभी खुल कर साथ नहीं दे सकते। लेकिन सहयोग लोकतंत्र की आवश्यकता ही नहीं है, सीखने-सिखाने में एक ज़रूरी चीज भी है। डीवी से लेकर फ्रेरे तक सभी ने सामाजिक सहयोग और क्रिटिकल थिंकिंग को एक महत्वपूर्ण मूल्य माना है। सीधा-सा मतलब यह है कि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच विश्वास का रिश्ता टूट रहा है। ओईसीडी (2017) के एक अध्ययन में इस बात पर जोर दिया गया है कि शिक्षकों और प्रशासन में विश्वास बेहतर तरीके से सीखने में मदद करता है और एक सकारात्मक विद्यालयी संस्कृति का निर्माण करता है। लेकिन इस विश्वास के गिरने के संकेत भी पश्चिमी मुल्कों में दिखाई देते हैं। अमेरिका में प्यु रिसर्च सेंटर (2019) द्वारा किये गए शोध में यह पाया गया है कि वहां विद्यालयों समेत कई प्रकार की संस्थाओं में लोगों का विश्वास कम हो रहा है। इडलमैन ट्रस्ट बैरोमीटर (2020) के वार्षिक सर्वेक्षण में भी ऐसा देखा गया कि युवाओं और कम उम्र के लोगों का शैक्षिक संस्थाओं के प्रति विश्वास का स्तर कम हो रहा है। अपनी किताब “बोलिंग अलोन: द कोलैप्स एंड रिवाइवल ऑफ अमेरिकन कम्युनिटी” में पुतनाम (2000) कहते हैं कि सामाजिक पूंजी का ह्रास हो रहा है और घटती सामाजिक प्रक्रियाओं के महत्त्व की तरफ ध्यान दिलाते हुए वो घटते वोटिंग दर, सार्वजनिक बैठकों की उपस्थिति, वैचारिक क्लब्स की सदस्यताओं और अपने पड़ोसियों के साथ मेलजोल कम होने के आंकड़ों के आधार पर बताना चाहते हैं कि यह घटता हुआ सामाजिक विश्वास कहीं न कहीं लोकतांत्रिक मूल्यों के घटते सामाजिक मूल्य की चिंता को दर्शाता है। सामाजिक विश्वास की कमी से राजनैतिक ध्रुवीकरण का खतरा बढ़ता है। दक्षिणी एशिया के कई देशों में इस राजनैतिक प्रवृत्ति को देखा जा सकता है।

हिडेन करिकुलम विद्यार्थियों को जीवन में विश्वास और सावधानी के बीच संतुलन साधना सिखाता है (जीरोक्स एवं पेन्ना, 1979). ऐसी अविश्वास की स्थिति में विद्यार्थी का यह कहना कि “ चुगलखोरों के होने से ऐसा माहौल बनता है जिसमें हमको बचने के लिए उनसे डरना पड़ता है और उनकी बातें सुननी पड़ती हैं” घर पर बैठे अभिभावक यह सोच रहे होते हैं कि बच्चे दुनिया के बवाल से दूर शान्ति से पढ़ाई करने गए हैं लेकिन बच्चे एक जटिल सामाजिक अनुभव से गुजर रहे होते हैं जो उनके लिए तनाव का कारण भी हो सकता है और उसका मानसिक भावनात्मक दंश भी बच्चे ही झेलते हैं। ‘चुगलखोर’ शब्द का प्रयोग कहीं न कहीं सत्ता की औपचारिक उपस्थिति के अलावा उसकी अनौपचारिक (implied authority) उपस्थिति का भी संकेत देता है (बोर्दियु, 1977)। दरअसल में सत्ता की उस अनौपचारिक उपस्थिति कुर्सी के करीब के लोगों का सत्ता का दुरुपयोग एक सामान्य समस्या है। यह समाज के इतिहास में हमेशा से मौज़ूद रही है लेकिन इसने अक्सर नकारात्मक भूमिका निभाई है। ऐसे माहौल में विद्यार्थी यह सीखते हैं कि यथास्थिति को चुनौती देने के क्या परिणाम हो सकते हैं, जिससे वो अपने व्यवहार और साथियों का चयन सावधानी पूर्वक करते हैं। मित्र-मंडली का दबाव बच्चों के व्यवहार और रवैये पर बहुत ज्यादा पड़ता है। इस दबाव में बच्चों को अपने अस्मिता की स्वीकृति के लिए मित्रमंडली के समूह के नियमों और मूल्यों का अलग से पालन करना पड़ता है जो विद्यालय की औपचारिक नियम प्रणाली और सत्ता से अलग हो सकते हैं और एक सब-कल्ट का निर्माण कर सकते हैं। विभिन्न शोधों से यह पता चलता है कि मित्र मंडली का दबाव या सहपाठियों का दबाव का प्रभाव विद्यार्थी के व्यवहार और रवैये पर पड़ता है (वेंत्जेल, 1991). विद्यालय में होने वाली अनौपचारिक बातचीत कहीं न कहीं बाल मन पर असर डालती है। ऐसे में बातों को गलत तरीके से लेना एक महत्वपूर्ण विषय है। बालक बालिकाओं के बीच होने वाली बातचीत को वे कैसे समझते हैं और उसका अर्थ निकालते हैं यह भी महत्वपूर्ण है। वार्तालाप का एक अंश इस प्रकार है-

कक्षा में अध्ययन के दौरान अपने आस पास के विद्यार्थियों से बार बार डिस्टर्ब किये जाने पर एक विद्यार्थी ने कहा – काश! मैं यहाँ नहीं बैठता कहीं और बैठा होता। इस पर एक विद्यार्थी ने शिक्षक से शिकायत कर दी। “मैम यह विद्यार्थी मेरे बारे में बुरा बोल रहा है”। ऐसी घटनाएं विद्यार्थियों को यह सीख देती हैं कि सामाजिक अंतर्क्रिया के दौरान सन्दर्भ का ध्यान रखना ज़रूरी है। आसपास के विद्यार्थी किसी भी बात का संज्ञान ले सकते हैं और उसको अन्यथा समझ सकते हैं। ऐसी स्थिति में विद्यालय में बालकों-बालिकाओं को सोच समझ कर और सन्दर्भ को ध्यान में रख कर बात करना भी सीखना पड़ता है जो समाजीकरण के लिए एक आवश्यक पहलू है। गम्पेज (1982) के अनुसार विद्यालय के जटिल माहौल में किसी भी बात का गलत अर्थ निकालने की गुंजाइश हमेशा ही रहती है। हिडेन करिकुलम बच्चों को स्पष्ट सम्प्रेषण और प्रतिक्रिया देने से पहले सोचने की आदत भी विकसित करता है। “मेरे मित्रों को यह समझना चाहिए कि कक्षा में कही गई हर बात कोई पर्सनल अटैक नहीं है” यह कथनांश बताता है कि किसी बातचीत को, सन्देश के छुपे हुए अर्थ को सही से समझना और सोच समझ कर जवाब देना सीखते हुए बच्चे विद्यालय में सामाजिकता का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ते हैं। बातों के अर्थ का अनर्थ होने की संभावना आज कल के विविधता पूर्ण शैक्षिक वातावरण में बहुत है जो कि भाषा, सांस्कृतिक अंतर और विभिन्न व्यक्तिगत धारणाओं के कारण होता है।

“अगर शिक्षक के प्रयास से कोई विद्यार्थी अच्छी दिशा में जा रहा है तो उसके आस- पास बैठने वाले लड़के जिनका मन पढ़ाई में नहीं लगता, वो कोशिश करते हैं कि उसे अपने स्तर पर ले आएं। इसके लिए वो उसे बार बार डिस्टर्ब भी करते हैं और कई तरह के सामूहिक दबाव का माहौल बनाते हैं। हमें अपने मित्रों का चयन सावधानी से करना चाहिए लेकिन चयन किसका किया जाय? क्योंकि हर विद्यार्थी का अपना अलग ग्रुप है और हर ग्रुप की अपनी समस्याएँ।”

इस चर्चा से यह समझ में आता है कि बाल-मन और विद्यार्थी के विकास पर विद्यालय के सामाजिक माहौल का कितना ज्यादा असर पड़ता है। यह असर इतना ज्यादा है कि शिक्षक के द्वारा किये जाने वाले सकारात्मक प्रयास भी कभी-कभी सफल नहीं हो पाते। शायद इसीलिए इस विद्यालय में शिक्षक विद्यार्थियों के बीच क्या चल रहा है यह जानने के लिए कुछ विद्यार्थियों को प्रश्रय देते हैं। ये विद्यार्थी फिर उस शिक्षक की निकटता का लाभ उठाते हैं और एक अलग तरह का दबाव अन्य विद्यार्थियों पर बनाते हैं। अक्सर शिक्षा की भाषा में इसे ‘पेट फेनोमेना’ कहते हैं। यह फेनोमेना कहीं न कहीं विद्यार्थियों को यह सिखाती है कि वास्तविक जीवन में पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा सत्ता के करीब होना ज्यादा ज़रूरी है। यह एक नकारात्मक घटना है जो कहीं न कहीं प्रतिभा को कई तरह से हतोत्साहित करती है। शिक्षक के पेट स्टूडेंट्स बिना पढ़े लिखे अच्छे ग्रेड्स पा लेते हैं और बदले में अन्य विद्यार्थियों को हड़काते और बुली करते हैं। वे दरअसल शिक्षक की सत्ता का अनौपचारिक प्रयोग करते हैं और कक्षा का माहौल इससे लोकतान्त्रिक और पारदर्शी नहीं रह पाता। शिक्षक के लिए भी वे टेस्टीमोनी की तरह होते हैं। शिक्षक भी किसी घटना के बारे में अपने पेट स्टूडेंट्स की ही बात सुनता है। इस तरह से पूरी प्रक्रिया न्यायपूर्ण नहीं रह पाती। एक शिक्षक के तौरपर कई ऐसी घटनाएँ का अनुभव हमें है। एक बार एक विद्यार्थी जो एमबीए जैसे कोर्स में दाखिल था, उसने ये कहा –

“सर, मैनेजमेंट की मोटी किताबों को पढ़ कर और टॉप कर के मैं क्या ही कर लूँगा, असल में सारा मामला खिला-पिला के हो जाता है मार्केटिंग और सेल्स की दुनिया में”। यह उद्धरण बताता है कि विद्यार्थियों में बचपन से ही ऐसी मानसिकता विकसित करने में विद्यालयों के सामाजिक माहौल की मुख्य भूमिका है। विद्यालय के माहौल में होने वाली ऐसी सामाजिक घटनाएँ छुपी हुई रहती हैं लेकिन उनका प्रभाव वास्तविक जीवन में बाल व्यक्तित्व पर बहुत ज्यादा दिखता है। लोकतंत्र में प्रतिभा, क्षमता, सहभागिता, निर्णय, विमर्श, समानता जैसे मूल्यों की अपरिहार्यता ही ऐसी घटनाओं की नकारात्मकता को सिद्ध करती है। यह देखने लायक बात है कि कितनी छोटी-छोटी बातें बाल-मन को प्रभावित करती हैं। इस छोटी सी उम्र में बच्चे जेंडर का प्रभाव सामाजिक व्यवहार पर स्पष्ट देखने लगते हैं। शिक्षक की सत्ता का प्रयोग कक्षा में विद्यार्थी किस प्रकार अनौपचारिक और गलत रूप से करते हैं और कैसे दूसरे विद्यार्थी इससे प्रभावित होते हैं इसके लिए एक और घटना का ज़िक्र करना आवश्यक है –

“मेरी कक्षा में एक लड़की जो शिक्षिका की पुत्री है और उसकी एक दोस्त, दोनों ही अक्सर डोमिनेट करती हैं और उनका प्रभाव इतना ज्यादा है कि हर बार उन्हें स्टार स्टूडेंट ऑफ़ द मन्थ घोषित किया जाता है। यहाँ तक कि जब क्लास टीचर ने एक दूसरी लड़की को स्टार स्टूडेंट बना दिया तब भी शिक्षिका की बेटी होने के कारण एसेम्बली में उसे ही स्टार स्टूडेंट घोषित किया गया”

मेरिटोक्रिसी पर इस तरह के आघात विद्यालय से ही शुरू हो जाते हैं और इस प्रकार के हतोत्साहन से विद्यार्थी या तो कुंठित होते हैं या फिर अलग तरह की ग्रुप आधारित राजनीति में लग जाते हैं। वे अपने-अलग समूह बनाकर उस के सन्दर्भ में अपनी अस्मिता का निर्माण और रक्षा करते हैं। इन समूहों की भी अपनी शर्तें और नियम होते हैं। एक मजेदार वाकया यह था कि बच्चे इन सर्विलांस कैमरा युक्त माहौल में शिक्षक के जासूसों और विशेष कृपा पात्र विद्यार्थियों के बीच ही ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में स्कूल प्रशासन की प्रतिक्रिया और रणनीति देखने लायक थी। विद्यालय में बच्चे अदलाबदली भी सीखते हैं और इस क्रम में वे अपने लंच बॉक्स, कलमें, पेन्सिल्स और पोकेमोन कार्ड्स जिनमें कार्टून बने होते हैं, उनकी अदलाबदली करते हैं। यह अदलाबदली उन्हें सामाजिक विनिमय का सिद्धांत भी सिखाती है। बच्चे ऐसा क्यों करते हैं इसके जवाब में उत्तर मिलता है| ऐसा करना उन्हें अच्छा लगता है, वो अदलाबदली कर के अपनी पसंद की चीजों का कलेक्शन बनाते हैं। जैसे पसंद के पोकेमोन किरदारों की तस्वीरों वाले कार्ड्स। अलग-अलग पॉवर के पोकेमोन कार्ड का अलग महत्व है। जिसके पास जितने ज्यादा पावर के कार्ड्स हैं वो उतना ज्यादा अपने समूह में पावरफुल है। विद्यार्थियों का यह गेम तब तक चला जब तक कक्षा में चेकिंग नहीं हुई। एक दिन चेकिंग हुई उस दिन आयोजक विद्यार्थी ने कार्ड्स दूसरे लोगों के बैग्स में डाल दिए और सब पकड़े गए। यहाँ तक कि उस विद्यार्थी ने एक नोट्स लिखा जिसमें दिखाया गया कि दूसरे विद्यार्थी ने उससे कार्ड्स मांगे और पैसे दिए। इस तरह की घटनाएँ करीब से देखने पर बताती हैं कि कैसे विद्यालय में बच्चे एक संगठित रूप से अपनी अलग सरकार चलाते हैं और अपनी अलग दुनिया बनाते हैं।

इस घटना के बाद प्रिंसिपल ने अभिभावकों को बुलाया। अभिभावकों से ये कहा गया कि ये बच्चे घर से पैसे लेते हैं और कार्ड्स खरीद कर यहाँ लाकर बेचते हैं। यहाँ तक कि बच्चे ऑर्डर प्री-बुक करते हैं और कुछ बच्चे लाकर कार्ड्स देते हैं। इस तरह से पूरा क्लास डिस्टर्ब होता है। इसके जवाब में देवांश कहता है “ प्रिंसिपल को सिर्फ स्कूल की इमेज की चिंता है, विद्यार्थियों की नहीं। इसमें केवल कार्ड्स एक्सचेंज होते थे, कोई खरीद बिक्री नहीं होती थी। लेकिन अभिभावकों पर ब्लेम डाल देने से स्कूल को क्लीन चिट मिल जाती है।”

बच्चों का यह रिफ्लेक्शन कहीं न कहीं विद्यालय की नकारात्मक छवि को दर्शाता है। मजेदार बात यह है कि बच्चे इस बात को देखते हैं कि छोटे बच्चों के साथ प्रिंसिपल और अन्य शिक्षक बहुत प्यार से बात करते हैं वहीँ बड़े बच्चों को ऐसे देखा जाता है जैसे वे आसन्न अपराधी हों। मौका मिलते ही क्राइम कर देंगे। छोटे बच्चे घर जाकर अपने अभिभावकों से बता सकते हैं कि टीचर या प्रिंसिपल ने डांट लगाई या अच्छे से नहीं बोले। ऐसे में छवि ख़राब होगी। थोड़े बड़े बच्चे ऐसा करेंगे तो मां-बाप भी सामान्यतया उन्हें ही गलत ठहराते हैं। इस प्रकार बच्चे दो तरफा दुविधा में पड़े रहते हैं। न तो स्कूल में वो किसी पर भरोसा कर पा रहे हैं, न घर पर अभिभावक उन पर भरोसा करते हैं। ऐसी दुविधा में पड़े बच्चे बिना भरोसे , विश्वास और प्रेम के कैसे सीख पाएंगे!

पावर और सम्मान का यह खेल बच्चे विद्यालय से खेलना शुरू करते हैं और अपनी अस्मिता के निर्माण में विद्यालय के लिखित औपचारिक कार्यक्रम से अलग अपने आयोजन करते हैं। इस प्रकार की युक्तियों से वे सामूहिक क्रियाओं द्वारा अपनी अस्मिता का निर्माण करते हैं। ये तरीके किसी भी औपचारिक पेडोगोजी से अलग हैं और ज्यादा प्रभाव डालते हैं। विद्यालयों और शिक्षा तंत्र को इसका ध्यान रखना चाहिए और हिडन करिकुलम को ठीक तरीके से मैनेज करना चाहिए।

विद्यालय में प्रशासन और शिक्षक की सत्ता के वटवृक्ष के नीचे विद्यार्थी समूहों में इस तरह की प्रतीकात्मक व्यवस्थाएं विद्यार्थियों की पृष्ठभूमि का विद्यालय में प्रभाव दर्शाती हैं। ऐसे विद्यार्थी जिनके अभिभावक उनको ज्यादा पैसा देते हैं और हिसाब नहीं रखते, वो ऐसी चीजें लेकर विद्यालय में चले जाते हैं। फिर यह एक फैशन बनता है एक ग्रुप कल्ट, जो विद्यालय के मुख्य सीखने सिखाने के एजेंडे को दरकिनार कर सकता है। हालांकि इस एक्सचेंज में एक सामाजिकता है, लेकिन विद्यालय ने इस घटना को ट्रेडिंग नाम दे कर अलग ही मोड़ दे दिया।

एक विद्यार्थी ज्यादा बातचीत कर रहा था। इस दौरान दो बालिकाएं जिनमें एक उसी विद्यालय की शिक्षिका की पुत्री है, और दूसरी उसकी ख़ास मित्र। इन दोनों ने एक बालक को कहा कि काश यह विद्यालय में नहीं होता तो हम ठीक से खाना खा पाते। पलट के उस लड़के ने जवाब दिया – क्यों तुम मेरी फीस देती हो क्या ? इस बात पर सब प्रिंसिपल केबिन में गए और दो विद्यार्थिओं को इतनी डांट पड़ी कि वो कई दिनों तक शांत रहे। ये घटनाएं कहीं न कहीं विद्यालय की उस असफलता को उजागर करती हैं जिनमें वो सामाजिक प्रक्रियाओं को देखने समझने और उनको सही दिशा देने में असफल रहता है। वास्तव में जब विद्यालय का लक्ष्य धन कमाना होगा तो वो एक थोपे गए जबरदस्ती के अनुशासन और दबाव के बने बनाए एकल फार्मूले पर ही काम करेगा क्योंकि इसके लिए विशेष प्रयास और संसाधनों की आवश्यकता नहीं है।

अंत में देवांश से यह पूछने पर कि अगर तुम्हें स्कूल में केवल एक चीज बदलने के लिए कही जाय, जिससे वो बेहतर हो जाए तो वो क्या होगी ?

उसका उत्तर है – “मैं प्रिंसिपल को बदलना चाहूँगा। उनके बदलने से चींजें ठीक हो सकती हैं, वो सिर्फ पैसा और स्कूल की इमेज की चिंता करती हैं।”

यह पावर फुल कथन विद्यार्थी और बाल मन की विद्यालय प्रशासन और सत्ता के गैर-लोकतांत्रिक और पूंजी उन्मुख चरित्र के प्रति प्रदर्शित आक्रोश है। बाल मन इंसाफ और न्याय का प्रेमी होता है, उसे स्वाभाविक प्रेम की आवश्यकता होती है। बालकों को, विद्यार्थियों को, ऐसा माहौल चाहिए जिसमें वे एक दूसरे पर विश्वास कर सकें, शिक्षक प्रतिभा और क्षमता के अनुसार मूल्यांकन और प्रशंसा के तरीके अपनाएं। विद्यालयी संस्कृति और वातावरण में किसी भी प्रकार की अनौपचारिक सत्ता और बुलिंग जैसी समस्याएँ न हों। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और अवसरों की समानता को सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिससे बच्चों में आत्मसम्मान विकसित हो और वो एक बेहतर समाज के प्रबुद्ध नागरिक के तौर पर विकसित हो सकें।

नोट: 1. इस अध्ययन में हिडेन करिकुलम की जटिलताओं का वर्णन कुछ वास्तविक घटनाओं के माध्यम से एक बच्चे के साथ मित्रतापूर्ण माहौल में कई सीरिज में किये गए गहन साक्षात्कार के आधार पर किया गया है। कोमल बाल मन पर विद्यालय के हिडेन करिकुलम और सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल के पड़ने वाले असर का एक संक्षिप्त विवरण दिया गया है।

2. इस लेख के शीर्षक की प्रेरणा जॉर्ज ओरवेल के उपन्यास 1984 से ली गयी है| वाक्यांश ''बिग ब्रदर आपको देख रहा है'', जो इस उपन्यास में कई बार दिखाई देता है वह सरकारी निगरानी के लिए एक आम आशुलिपि बन गया है।

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चंद्रशेखर पाण्डेय 
असिस्टेंट  प्रोफ़ेसर, शिक्षा विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, भारत  
yogeshchandra.p@gmail.com, 7985532623

पतंजलि मिश्र
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, शिक्षा-शास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय , प्रयागराज, उत्तरप्रदेश, भारत  
patanjalimishra@allduniv.ac.in, 8005381938

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

4 टिप्पणियाँ

  1. सारगर्भित आलेख. समकालीन महत्त्वपूर्ण वैचारिकी. विद्यालय अध्यापक होने के कारण इसके एक-एक शब्दों को महसूस किया. शुक्रिया

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