बदलते भाषायी परिवेश में स्त्री अस्मिता और उसके विविध आयाम
- शिवानी दुबे
शोध सार : भाषा और समाज का संबंध अभिन्न है। किसी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जिस समाज में हम रहते हैं उसका प्रत्यक्ष प्रभाव भाषा पर पड़ता है। समाज में प्रचलित तमाम धारणाएँ, मान्यताएँ व कुरीतियाँ भाषा में अपनी पैठ बना लेती हैं। भाषा के माध्यम से यह साहित्य में अपना स्थान बना चुकीं हैं। कई मान्यताएँ जो सिर्फ स्त्रियों से संबंधित हैं,भाषा में प्रचलित हैं। समाज में स्त्रियों के साथ भेद भाव सामान्य बात है। और यह भेद भाव इतना सामान्य हो चुका है कि हमारी भाषा भी इससे अछूती नहीं रही है। भाषा में स्त्रियों से संबंधित कई कहावतें अश्लीलता से भरी हुयी हैं। स्त्रियों के साथ समाज मे हिंसा, उत्पीड़न, अत्याचार व अन्याय होते हैं। लड़कियों के साथ यह भेदभाव जन्म से पूर्व ही शुरू हो जाता है। जो कि हमारी कई कहावतों, लोकोक्तियों व मान्यताओं में स्पष्टता देखने को मिलता है। समाज में स्त्रियों को सदैव दोयम दर्जे का माना गया है। वह ‘गौण’ व ‘अन्य’ स्थान पाती है।
बीज शब्द : भाषा, पितृसत्ता, अधिकार, समाज, परिवार, मानसिकता, समानता, असमानता, सामाजिकता, अभिव्यक्ति, रूढ़िवादी, परंपराएँ, कहावतें, मान्यताएँ, अत्याचार, कुरीतियाँ, अपशब्द, नकारात्मक, पुंसवादी, भेदभाव।
मूल आलेख : स्त्री और पुरुष के बीच व्याप्त असमानता की परिणति ऐसी हो गई है कि यह लोगों के मन में असहजता उत्पन्न नहीं कर पाती है। यह असमानता सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर तो व्याप्त है ही, इसके साथ-साथ भाषायी स्तर पर भी यह असमानता दिखायी पड़ती है। भाषा के माध्यम से यह असमानता साहित्य में भी परिलक्षित होती है। हिन्दी साहित्य मूलतः पुरुष-रचित साहित्य है। आदिकाल से लेकर रीतिकाल तक की साहित्य परंपरा में एकमात्र उल्लेखनीय स्त्री रचनाकार मीराबाई का नाम साहित्येतिहास में दर्ज है। संभव है कि अन्य प्रमुख स्त्री रचनाकार इतिहास में हुई हों लेकिन हमारे साहित्येतिहास में इसका प्रमाण नहीं मिलता है। रोहिणी अग्रवाल के अनुसार, “मनुष्य की सभ्यता का इतिहास पुरुष को केंद्र में रखकर पुरुष द्वारा अपने समुदाय के हितों की रक्षा के लिए लिखा गया है। इस समाज में स्त्री का स्थान ‘गौण’ अथवा ‘अन्य’ है।” 1 भाषा के स्तर पर भी हमें स्त्री की यही भूमिका दिखाई देती है। समाज में पुरुष वर्चस्व के कारण भाषा भी पुंसवादी हो गई है। साहित्य में भी वह ठीक इसी रूप में अभिव्यक्त होती है।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि जो जातियाँ इतिहास में सभ्य मानी गईं उनमें पितृसत्तात्मक विचारधारा गहरी पैठ बनाए हुए है। जबकि जिन्हें असभ्य/जंगली जातियाँ कहा गया उनमें यह व्यवस्था लचीली है अथवा न के बराबर है। स्त्री को दोयम दर्जे में डालने वाली विचारधारा (पितृसत्तात्मक) सभ्यताकृत/ सांस्कृतिक है। इसीलिए यह सभ्य जातियों की भाषाओं में अधिक है अपेक्षाकृत असभ्य जातियों के। यह भाषायी असमानता एक बच्चे के जन्म के बाद से ही अपना कार्य प्रारंभ कर देती है। लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण व शिक्षा के स्तर में जितना अंतर होता है उतना ही उनके बोलने की शैली में भी दिखायी देता है। प्राथमिक शिक्षा की हमारी पुस्तकों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। जिनमें स्त्री-पुरुष असमानता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे – राम पढ़ता है, सीता खाना बनाती है, राम बाजार जाता है, गीता गाना गाती है, राम खाना खाता है, मीरा नाच रही है। इन उदाहरणों के पीछे जो मानसिकता अपना काम कर रही है उसके अनुसार लड़के और लड़कियों के लिए कार्य सीमाएँ निर्धारित की जा चुकी हैं। यह प्रक्रिया हमारी नींव तैयार करने में मदद करती है जो भाषा के माध्यम से समाज में और समाज के माध्यम से भाषा में स्थानांतरित होती रहती है। नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउआर ने ठीक ही कहा है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।”2 और इस कार्य में परिवार व समाज एक साथ अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
प्राचीन भारतीय समाज स्त्री को बहुत सम्मान देता था। स्त्री की तुलना देवताओं से की जाती थी यथा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’। परंतु यह पूर्णतः सत्य नहीं है स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण प्रस्तुत है, उनके अनुसार, “स्त्री का मन चंचल होता है। उसे नियंत्रण में रखना असम्भव सा है।”3 “उसकी बुद्धि भी छोटी होती है।”4 मनु के अनुसार, “सदा पुरुष संग की इच्छा रखने वाली चंचल चित्त तथा स्वभाव से निष्ठुर होने के कारण कितने भी यत्न से क्यों न रखीं जायें, स्त्रियाँ पतियों के प्रति निष्ठावान नहीं रह सकतीं।”5 एक वार्तालाप में बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द को बताया कि, “स्त्रियों की ओर देखना भी नहीं चाहिए, यदि उन्हें देख लिया जाए तो उनसे बात नहीं करनी चाहिए और यदि वे स्वयं बात करें तो सतर्क रहना चाहिए।”6 भारतीय इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं। ऐसा माना जाता है की मध्य युग में स्त्रियों की सबसे अधिक अधोगति हुई। उसे नरक का द्वार, छाया ग्रहणी राक्षसी आदि कहा गया। कबीर ने भी कहा है –
‘नारी की झाँईं पड़े अन्धो होत भुजंग
कबीर तिनको कौन गति नित नारी के संग।’7
आधुनिक काल में हुए विभिन्न सामाजिक आंदोलनों की वजह से स्त्रियों की कुछ दशा सुधरी अवश्य है। परंतु हमारे समाज की नींव में अभी भी यह पुंसवादी विचारधारा अपनी जड़ें जमाए बैठी हुई है।
पुरुषों के साहित्य में स्त्रियों के कमनीय, कंचन, अबला या नाजुक रूप का ही वर्णन अधिक मिलता रहा है। समकालीन साहित्य में यह स्थिति थोड़ी बदलती हुई दिखाई देती है जब स्त्री के कमनीय रूप के अलावा उसके अन्य पक्षों का जिक्र दिखायी पड़ता है। चंद्रकांत देवताले की कविता ‘औरत’ में हम स्त्री को इस रूप में देख पाते हैं –
“वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है, शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँथ रही है?
गूँथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है”8
जहाँ हमें स्त्री की ऐसी भूमिका दिखाई देती है कि वह हजारों सालों से अनवरत श्रम में लगी हुई है। वहीं पुरुष द्वारा लिखित साहित्य में स्त्री की एक जड़, रूढ़ियुक्त तथा नकारात्मक छवि भी प्रस्तुत की जाती है। जो कि उसकी पुंसवादी विचारधारा से परिचालित होती है। इसमें कई वर्षों से चली आ रही कहावतें, लोकोक्तियाँ तथा मान्यताएँ शामिल हैं। ऐसी कहावतों में पुरुष को जहाँ स्वाधीन, स्वतंत्र, वीर, साहसी, शक्तिशाली, कर्मठ तथा ईमानदार दिखाया जाता है वहीं स्त्री को चालाक, धूर्त, अविश्वसनीय, झगड़ालू, निर्लज्ज आदि दिखाया जाता है। बेटे का महत्व बढ़ाती और बेटी का अवमूल्यन करतीं कहावतों की तो हिन्दी में भरमार है। उदाहरण के लिए – ‘बेटा आंख होता है और बेटी नाक’, ‘औरत घर की इज्जत होती है’। इसी तरह स्त्री को कमजोर प्रदर्शित करती यह कहावत ‘हाथों चूड़ियाँ पहन रखी हैं’, ‘लड़की पराया धन होती हैं’, ‘लड़कों से वंश चलता है’, ‘औरतें बात को पचा नहीं सकतीं’, ‘रोना औरतों का काम है’, ‘बेटी को पालना पोसना, दूसरे के आंगन में लगे पेड़ को पानी देने जैसा’। बहुसंख्या में ऐसी धारणाएँ समाज में चली आ रही हैं। ऐसी ही वर्षों से चली आती धारणा को प्रदर्शित करती ‘धूमिल’ की यह पंक्तियाँ हैं –
“हमने हर एक को आवाज दी है
हर एक का दरवाजा खटखटाया है
मगर जिसकी पूँछ
उठाई उसको मादा पाया है”9
वहीं दूसरी ओर हजारों सालों से पितृसत्तात्मक मनः स्थिति का भोग बनी स्त्रियाँ आज मुक्त होना चाहतीं हैं। वह उस जमीन की तलाश में है जिसमें पुरुष-प्रधान मनः स्थिति की बू नहीं आती हो। स्त्रीवादी साहित्य इसी का प्रमाण है। स्त्रियाँ अब स्वयं अपनी अस्मिता को उजागर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह अब अपनी पीड़ा, दर्द, टीस, आपबीती व कहानी को स्वयं अभिव्यक्त कर रही है और इस प्रक्रिया में भाषा उसकी अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बनी है। यह स्वाभाविक है कि लड़के-लड़कियों को प्रारंभ से ही बोलने, हँसने, उठने-बैठने, पढ़ने, चलने-फिरने, खाने-पीने आदि का एक खाँचा तैयार कर उसमें ढालने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। जिसके फलस्वरूप इन क्रियाओं की अभिव्यक्ति उनकी भाषा में और भाषा के माध्यम से साहित्य में भी दिखायी देती है। ऐसा माना जाता है की स्त्रियों की भाषा अधिक विनम्र लगती है, वे बातचीत में वर्चस्व नहीं जमाना चाहतीं, वे अश्लील और अपशब्दों का उपयोग करने से बचती हैं। उनकी वाणी में आदेशात्मक रवैया परिलक्षित नहीं होता आदि। परंतु समकालीन साहित्य में स्त्रियाँ अधिकारपूर्वक अपनी बात रखती हुई देखी जा सकती हैं। वे पितृसत्तात्मक सत्ता से टकराती हुईं उसकी आँखों में आँखें डालकर प्रश्न करती हैं। निर्मला पुतुल इस व्यवस्था से सवाल करती हैं –
“बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता।”10
वह समाज में चले आ रहे इन कटु सत्यों को अपनी रचनाओं में उघाड़ती चली जाती है। कुमार अंबुज अपनी एक कविता में स्त्री जीवन की वास्तविकता को मार्मिक तरीके से बयान करते हैं –
“अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके अंधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है।”11
आर्थिक रूप से पति पर निर्भर स्त्री के पास वापस लौटने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है क्योंकि समाज ने कभी उसे वह हक दिया ही नहीं। ये लेखिकाएँ अपने साहित्य के माध्यम से समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी परंपराओं, मान्यताओं व कुरीतियों को खुलकर बयान करती हैं। ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ आत्मकथा में एक कथन है – “बेटी धान का पौधा होता है, समय से दूसरी जगह रोप देना ही अच्छा है....... धान का पौधा।”12 इसी आत्मकथा में एक अन्य कथन है ‘गाय मरे अभागे की, बेटी मरे सुभागे की।’ स्त्री को वस्तु रूप में प्रदर्शित करते हुए यह सर्वमान्य सत्य हमारे समाज में मौजूद है कि ‘बेटी पराए घर का धन होती है।’ यह हमारे समाज में व्याप्त मानसिकता को दर्शाती है जो भाषा के द्वारा साहित्य तक अपनी पहुँच बना लेती है। यह सभी कहावतें व लोकोक्तियाँ हमारी भाषा में सहजता से चली आ रही हैं क्योंकि यह हमारे समाज की वास्तविक सच्चाई है। जिस समाज में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा दोयम दर्जे का माना गया, उसकी भाषा की यह स्वाभाविक परिणति है। प्रकृति के नियमानुसार पुरुष, स्त्री से जन्म लेता है। इसके बावजूद वह उस जन्मदात्री स्त्री पर अपना अधिकार जमाए रखता है। नित्य उसके लिए नए-नए नियम बनाता रहता है। साहिर की ये पंक्तियाँ स्त्री की दशा को सही बयां करती हैं-
“औरत ने जनम दिया मर्दों को,
मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला,
जब जी चाहा दुत्कार दिया।”13
आज समय के साथ यह शिकायत भी दर्ज करायी जाती है कि स्त्रियाँ पुल्लिंग शब्दों व क्रियाओं का अधिक प्रयोग कर रही हैं। जैसे कि हम अपने आस-पास परिवेश में छोटी बच्चियों को अपने भाई के समान पुल्लिंग क्रियाओं का प्रयोग करते देखते हैं। जिसे उनके माता-पिता भी अधिक प्रोत्साहित करते हैं। इसके पीछे जो साइकी काम करती है यह उसी का परिणाम है। समाज में बेटियों पर बेटों को अधिक तरजीह देने की मानसिकता ही है जो लड़की को जिस रूप में वह है उसकी अपेक्षा अन्य को प्राथमिकता देते हैं। मुख्यतः स्त्रीलिंग शब्दों की व्युत्पत्ति को पुल्लिंग से स्वीकारना भी एक बड़ा कारण है। इसीलिए कई महिला रचनाकार स्वयं को कवियत्री की जगह कवि कहना पसंद कर रही हैं। व्याकरण ने स्त्री को पुरुष का विलोम बना दिया है। एक से दूसरे की व्युत्पत्ति बतलाना संभव नहीं है, दोनों एक दूसरे से परस्पर स्वतंत्र हैं।
पुरुष द्वारा रचित साहित्य में स्त्रियाँ अधिकतर विषय-वासना का साधन ही रही हैं। वे कठपुतलियों की तरह हैं। या फिर ‘स्त्रियोचित मूल्यों की संवाहक’ हैं जो कि पुरुषों ने उनके लिए बनाए हैं। पुरुषों के वर्चस्व के कारण संप्रेषण की भाषा पुंसवादी हो गई है। साहित्य में भी यह इसी रूप में अभिव्यक्त होती है। सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा ‘झाँसी की रानी’ को ‘मर्दानी’ कहना इसका प्रमाण है कि यह गुण स्त्रियों के लिए आदर्श नहीं है। समकालीन समय में इस धारणा में परिवर्तन अवश्य आया है। स्त्रियों की स्थिति में सुधार वास्तविकता में आया हो या नहीं लेकिन उसके जीवन का यथार्थ चित्रण अवश्य होने लगा है। अब वह विषय वासना से उपर उठकर सामान्य मनुष्य की तरह विचरण करने के लिए उत्सुक है। उसके स्त्री होने की भयावहता, डर को प्रदर्शित करती राजेश जोशी की यह कविता –
“स्त्री को जन्म देकर उदास है एक स्त्री
लड़की को जन्म देकर कांप रही है एक स्त्री
लड़की को जन्म देकर जच्चा घर में सिसक रही है एक स्त्री
इतनी जटिल बना दी गई है उसकी दासता
कि स्त्री है सबसे क्रूर स्त्री के बारे में।”14
जब से स्त्रियों संबंधी आन्दोलन आरंभ हुए हैं। भाषा की शक्ति पर चर्चा होने लगी है कि किस प्रकार भाषा स्त्रियों का उत्थान, समर्थन या अवमूल्यन करती है। स्त्रियाँ आज अधिक आत्मविश्वासी तथा मुखर हुयी हैं। स्त्री द्वारा लिखित साहित्य और पुरुष द्वारा स्त्री के लिए लिखित साहित्य में मूलतः अंतर तो है। एक साहित्य स्वयं की पीड़ा, क्षोभ, खीज व आक्रोश को आधार बनाकर लिखा गया है। दूसरा वह साहित्य जो तटस्थ खड़े होकर घटनाओं का निरीक्षण कर लिखा गया है। महादेवी वर्मा ‘श्रृंखला की कड़ियों’ में लिखती हैं – “पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं। विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सके। (घर और बाहर)।”15
समय के दवाब में इतना परिवर्तन जरूर आया है कि अब साहित्य में स्त्री को उस रूप में नहीं दिखाया जाता जैसे पहले दिखाते थे। उसके प्रति अपशब्दों का उपयोग कम हुआ है लेकिन माता, पत्नी, पुत्री, पतिव्रता, सेविका, गृहिणी आदि पारंपरिक छवियों से उसे आज भी मुक्त नहीं कर पाए हैं। वे अब इस पर अपनी सहमति-असहमति व्यक्त नहीं करते, उन्होंने ‘मौन’ स्वीकारा है। आज स्त्रीवादी विमर्श पर लोग अपनी राय रखते हैं कि स्त्रियाँ पुरुषों को अपना धुर विरोधी मानती हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि पुरुषों ने स्त्रियों को कभी अपने समकक्ष माना ही नहीं। या तो उन्हें देवी बना दिया या दासी। एकमात्र अपनी ही तरह मनुष्य रूप में स्त्री की भागीदारी को पुरुष स्वीकार नहीं कर पाया जो उसकी विलोम नहीं अपितु पूरक है। डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक ने अपनी पुस्तक ‘जनसंख्या समस्या के स्त्री पाठ के रास्ते’ में स्त्री की वास्तविक छवि अपेक्षित की है। उन्होंने उसे पुरुष के समान एक इंसान मात्र माना है। वे एक श्लोक के माध्यम से कहते हैं –
“नास्ति पूज्या न निंद्या च
जननीं भूत्वा न सार्थिका
नरवन्नेव प्रजा नारी
अधिकर्मे – त्याग – भोगयोः।”16
(स्त्री न विशेष पूजा की पात्र, न निंदा की और न वह एक मात्र मां बनकर ही सार्थक होती है। यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हर कर्म, त्याग और भोग में बिल्कुल पुरुष की तरह अधिकारी है स्त्री। वह केवल इंसान है, जैसे की पुरुष है।)
आज के समय में स्त्री पहले से अधिक जागरूक हो गई है। वह अपने अधिकारों के प्रति अधिक सजग है। संविधान ने उसे एक सामान्य नागरिक की तरह जीवन जीने का अधिकार दिया है। वास्तविक धरातल पर कोई परिवर्तन तभी संभव है। जब स्त्री को भी समाज में एक सामान्य मनुष्य की तरह ही देखा और समझा जाएगा। न उससे ज्यादा और न उससे कम।
संदर्भ :
1. अग्रवाल,रोहिणी, साहित्य की स्त्री दृष्टि।
2. बोउआर,द सिमोन, स्त्री उपेक्षिता (अनु. प्रभा खेतान), हिंद पॉकेट बुक्स, (पृष्ठ सं.26)
3. स्त्रिय: आशास्यं: मन:, ऋग्वेद(8/33/17)
4. उतो अह कुतं रघुम् , ऋग्वेद (8/33/17)
5. मनुस्मृति(9/15)
6. महाजन,बी. डी., प्राचीन भारत का इतिहास, एस चांद,2009
7. कबीर,कबीर ग्रंथावली, तक्षशिला प्रकाशन,2019
8. देवताले,चंद्रकांत, जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा, (पृष्ठ सं.34)
9. धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन 2009(पृष्ठ सं.99)
10. पुतुल,निर्मला, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय प्रकाशन ,2005, (पृष्ठ सं.7)
11. अंबुज,कुमार, प्रतिनिधि कविताएँ, राजकलम प्रकाशन,2021, (पृष्ठ सं.117)
12. पुष्पा,मैत्रेयी, कस्तूरी कुंडल बसै, राजकमल प्रकाशन,2023
13. लुधियानवी,साहिर, सं. प्रकाश पंडित, राजपाल एंड संस,2018 (पृष्ठ सं.128)
14. जोशी,राजेश, एक स्त्री दूसरी स्त्री को पीट रही
15. वर्मा,महादेवी, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, (पृष्ठ सं.63)
16. पाठक कुमार,डॉ. रवीन्द्र, जनसंख्या समस्या के स्त्री पाठ के रास्ते, राधाकृष्ण प्रकाशन,2010(पृष्ठ सं.195)
शिवानी दुबे
शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
अति उत्तम, प्रशंसनीय योग्य 🌸
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें