शोध आलेख : हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों में लोक संस्कृति की झलक / पवना शर्मा

हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों में लोक संस्कृति की झलक

पवना शर्मा

         

शोध सार : भारत भूमि में लोक और लोक में गीत अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। गीतों के  प्रचलन के आरम्भ के प्रमाण हमें प्राचीन काल से ही हमारे ग्रन्थों वेदों में हमें प्राप्त होते हैं। लोकगीत हमारी संस्कृति को अपने में समाहित किये हुए हैं। किसी भी क्षेत्र के लोकगीतों से हम वहां के समाज, वातावरण, संस्कृति से परिचित हो सकते हैं। लोकगीत ही एक ऐसी विधा है जो मनोरंजन को भी साथ लेकर लोक को बचाए रखती है। हिमाचल प्रदेश में लोकगीतों का काफी प्रचलन है और विभिन्न प्रकार के लोकगीत गाये जाते हैं, जो हिमाचल की संस्कृति का प्रत्यक्ष दर्शन करवाने में सक्षम है। विश्व भर के बदलते परिदृश्य ने सबसे ज्यादा आघात हमारी संस्कृति को पहुंचाया है। हमारी संस्कृति की रक्षा करना, उसे भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है। हिमाचल प्रदेश का लोक-जीवन, रीति-रिवाज, त्योहार, धार्मिक मान्यताएं व लोगो का रहन-सहन, खान-पान, पहनावा अन्य लोगों को खूब आकर्षित करता है। मात्र बारह जिलों का यह प्रदेश जिसमे प्रत्येक जिले के अलग-अलग त्योहार, रस्में, रीति-रिवाज़ व मान्यताएं हैं। हिमाचल प्रदेश में प्रत्येक सुअवसर को नाच गाकर मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों में यहां की संस्कृति झलकती है। यहां के प्रत्येक रीति-रिवाज को प्रदर्शित करने वाले अलग-अलग लोकगीत गाये जाते हैं ये लोकगीत यहां की समस्त संस्कृति को बचाए व बनाये हुए हैं। 

बीज शब्द : संस्कृति, लोकगीत, रीति-रिवाज, लोक साहित्य, वास्तविक, प्राचीन, परम्परा, सामाजिक।

मूल आलेख : सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व भर में अपना विशेष स्थान रखता है। हमारी संस्कृति हमारे व्यवहार में झलकती है। रामधारी सिंह दिनकर जी भी कहते हैं कि संस्कृति जीवन जीने का एक तरीका है। यह तरीका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में दिया जाता है। इसे सुरक्षित रखना प्रत्येक पीढ़ी की जिम्मेवारी है। लोक गीत प्रायः लोक में गाये जाने वाले गीत हैं, जिनमें स्वाभाविकता और प्राकृतिकता जैसी विशेषताएं होती हैं। संस्कृति के विभिन्न पक्ष लोकगीतों में स्पष्ट रूप से झलकते हैं। इसलिए प्राचीन संस्कृति के संरक्षण और विकास के लिए लोकगीतों सम्बन्धी अध्ययन की आवश्यकता है। हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों की परम्परा कितनी प्राचीन है यह वहां के प्राचीन लोकगीतों से ही आभास हो जाता है। ये लोकगीत पारम्परिक सांस्कृतिक ढांचे को बनाये रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

विद्या सिन्हा अपनी पुस्तक ‘भारतीय लोक साहित्य परम्परा और परिदृश्य’ में लिखती हैं कि “लोकगीत की प्रथम अभिव्यक्ति के प्रमाण ऋग्वेद में मिलते हैं। संस्कृत साहित्य में जिन गाथाओं का उल्ल्लेख स्थान-स्थान पर मिलता है वे ही लोकगीतों के पूर्व रूप हैं।”1 वे इसी पुस्तक में लिखती हैं कि वाल्मीकि कृत रामायण में भगवान राम के जन्म के समय तथा श्रीमद भागवत् में श्रीराम के जन्म के समय अयोध्यावासियों के द्वारा और कृष्ण के जन्म के समय गोकुल वासियों के द्वारा लोकगीत गाये गए थे जिसमे तत्कालीन संस्कृति का पता चलता है। संस्कृति से हमारे इतिहास सम्बन्धी तत्वों का भी ज्ञान होता है। बद्री नारायण जी ने अपनी पुस्तक ‘लोक संस्कृति और इतिहास’ में में लिखा है कि “यूं भी लोक संस्कृति एक ऐतिहासिक संघटना है और लोक संस्कृति का विज्ञान एक एतिहासिक अनुशासन है।”2 हिमाचल प्रदेश में लोकसाहित्य की लगभग सभी विधाएं प्रचलित है।

 लोककथा, लोकगाथा, पहेलियां, कहावतें, लोकगीत, लोकनाट्य सभी विधाएं लोकप्रिय व लोक को समाहित किए हुए हैं। लोकगीतों का इन सभी विधाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। लोक गीत विभिन्न प्रकार के होते हैं, विद्वानों ने इन्हें विभाजित करने का प्रयत्न किया है किन्तु लगभग सभी वर्णन एक दूसरे से मिलते जुलते हैं। संस्कारों से सम्बंधित लोकगीत, धर्म से सम्बंधित लोकगीत, प्रेमी प्रेमिका गीत, स्थानों से सम्बंधित गीत, गालियों से सम्बंधित गीत, पहनावे से सम्बंधित गीत आदि कई प्रकार के गीत गाये जाते हैं जो हिमाचल की संस्कृति व लोक को दर्शाते हैं। हिमाचल प्रदेश में गाए जाने वाले लोक गीत वहां की बोली, मिठास व संस्कृति को अपने आप में संजोए हुए हैं। प्रत्येक त्योहार पर या अन्य किसी भी मौके पर अलग अलग प्रकार के लोकगीत गाए जाते हैं।

“लोकगीतों में मानव सभ्यता एवं सस्कृति के चित्र अत्यंत सहज किन्तु सूक्ष्म रूप में अंकित होते हैं। सामान्य जनता के लोकविश्वासों, धार्मिक भावनाओं रीति रिवाजों एवं परम्पराओं का संगम स्थल लोकगीतों को ही माना जा सकता है इसके साथ ही मौखिक परम्परा संगीतात्मकता, सामूहिक भावभूमि, मुक्तता आदि ऐसे तत्व है जो लोकगीतों के स्वरूप निर्धारण में निर्णायक भूमिका का निर्वाह करते हैं।”3 

जिस प्रकार हमारे धार्मिक ग्रंथों में जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कारों का वर्णन है तथा हिमाचल में प्रत्येक संस्कार से संबंधित अलग अलग गीत गए जाने की परंपरा है। हिमाचल के लोग देवताओं में बहुत आस्था रखते हैं व सभी देवताओं के लिए अलग धार्मिक गीत गाते हैं। जिस भी प्रकार का अवसर हिमाचलियों के सामने होता है उससे संबंधित गीत ये गाते है। इन गीतों में समस्त हिमाचल की झलक दिखाई देती है

“बाहरा से पुछदा राजदा, गीगा रा ये  बाबा,
जांचों मेरी क्या मगदी?
अंदा ते ओंदा  आवबा,
जांचों मेरी दही मंगदी। जाचो मेरी सुहंड मंगदी।”4

यह गीत हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में उस वक्त गया जाता है जब कोई बच्चा पैदा होता है। इसका अर्थ है कि बाहर से बच्चे का पिता यह पूछ रहा है कि बच्चे की मां को क्या चाहिए तो अंदर से कोई बता रहा है कि बच्चे की मां को सुंड (सूखे मेवों का मिश्रण जो की बच्चा होने के बाद बच्चे की मां को खिलाया जाता है) चाहिए। इस बात से अनुमान लगाया जाता है कि बच्चे ने जन्म ले लिया है।

इसी प्रकार से- 

“हो मेरे द्न्द्देइये जो नचाने रा चौ
गीगे नानू नानी आवेगी
गीगे क्या क्या ल्यावेगी
सिरा जो टोपू ल्यावेगी
गला जो झग्गु ल्यावेगी
हत्था जो कंगणु ल्यावेगी
पैरां जो चान्जर ल्यावेगी
चांजर छणमण छणकेगी
गीगा दूड बुड नाच्चेगा।”5

यह लोकगीत औरतों के द्वारा नवजात शिशु के ग्यारह दिन के हो जाने पर गया जाता है। उस समय हिमाचल में यह रिवाज है कि बच्चे के नाना-नानी या मामा-मामी बच्चे के लिए बहुत सी चीजें उपहार स्वरूप लाते हैं। जैसे सर के लिए टोपू अर्थात टोपी, गला जो झग्गु अर्थात कमीज, हत्था जो कंगणु अर्थात हाथ के लिए चांदी के कंगन और पैरां जो चान्जर अर्थात पैरों के लिए पायल लेकर आते हैं। इसी प्रकार से जब किसी लड़के या लड़की की शादी होती है तो शादी के कपडे जूते सभी चीज़े लेकर नानी का पूरा गाँव उनके (अपनी बेटी के) घर जाता है जिसे नानकचारा कहते हैं। जिस गांव में शादी होती है दोनों गांव एक दूसरे का पूरे धूम धाम से लोकगीतों से एक दूसरे का स्वागत करते हैं व प्रतियोगिता का माहौल स्त्रियों में देखने को मिलता है।   

मायके वाले :- 

“कोठे चढ़ी चढ़ी त्याण देखदी मेरे प्योके ते कोई आया
देख नी त्याणी आईके तेरे प्योके ते कोई आया।”5

अर्थात् जिसके बेटे या बेटी की शादी है वह अपने घर की छत पर चढ़कर देख रही है कि मेरे मायके से या पीहर से कोई आ रहा है।

ससुराल वाले (जहां नानकचारा गया है) :-

“जे मै जाणदी की मेरे पाईयां औणा मैं अंगणा लपायी ओ रखदी
जे मैं जाणदी की मेरियां पाबियां औणा मैं कुंगुआ मंगाई ओ रखदी।”6 

इसका अर्थ है कि जिसके घर में शादी है वह बोल रही है की यदि उसे मालूम होता कि उसके भाई आ रहे हैं तो वह अपने आँगन को लिपवा(मिटटी के कच्चे आंगन का समय समय पर गोबर व मिटटी से लेपन किया जाता है) कर रखती अर्थात सुन्दर बना देती और यदि मुझे पता होता कि मेरी भाभियां भी आ रही हैं तो मैं उनके लिए कुमकुम मंगवा कर रखती।

इन दोनों तरफ के गीतों से हमें हिमाचल प्रदेश के रीति-रिवाजों का आभास होता है कि किस प्रकार से शादी का उत्सव किसी एक परिवार का नहीं होता बल्कि इसमें कई गांव शामिल हो जाते हैं। किस प्रकार से हिमाचल के लोग अपने घर आने वाले महमानों का स्वागत कुमकुम लगाकर हार पहनाकर बिलकुल उसी तरह करते हैं जैसे देवता को पूजा जाता है और हमारी अतिथि देवो भवः की रीत को हू-ब-हू बनाये हुए हैं। इसी प्रकार से हिमाचल प्रदेश के सभी लोकगीत भले ही वह किसी भी जिला में गाये जाते हों अपने लोक को पूरी तरह से दर्शाते हैं :-यह गीत हल्दी लगाते समय जिला बिलासपुर में गाया जाता है 

“दो बणजारू मैं बटणे जो पेजे सै बणजारू नी आए
थोड़ा थोड़ा बटणा मेरी सखियां जो देणा
होर मलो अंग मेरे।”7

शादियों में हल्दी की रस्म बहुत ही धूम धाम से मनायी जाती है जिसमें ये गीत गाया जाता है। जो हमारी रस्मों रिवाजों को दर्शाता है। यूं तो लड़के व लड़की की शादी में अलग अलग गीत गाये जाते है परन्तु कुछ गीत दोनों की शादियों में एक जैसे गाये जाते हैं। यह गीत भी लड़का व लड़की दोनों की शादियों में गाया जाता है। लड़के की शादी में घोड़ी गीत गाये जाते हैं तथा लड़की की शादी में सुहाग गाये जाते हैं। इन गीतों में घर वालों का प्रेम स्नेह व आशीर्वाद दुल्हे या दुल्हन के लिए होता है और इनमें से कुछ गीत संवादों के रूप में भी होते है जैसे :-

“सहरपुरे रे सैरा नो मम्मी दाज बकैन्दा आया बे ना
पिता जी चल्ले दाज खरीदन माते चगडा पाया बे ना
चगडा ना तू पाया नो मम्मी आज तेरे धर्मा दी बेला बे ना”8

इसी तरह

“लड़की-देयां नो मम्मी आटे री चुटकी जोगी मंगदा आया बे ना
मां-आटे री चुटकी जोगी जोगी नी मंगदा मंगदा कन्या रा दान बे ना”9

जब दुल्हन के घर में बारात आती है तो महिलाओं द्वारा यह गीत गाया जाता है। इसका अर्थ है कि बेटी कह रही है कि मां थोड़ा सा आटा देना घर में कोई जोगी अर्थात सन्यासी कुछ मांगने आया है तो इस पर मां कहती है कि उसे आटा नहीं चाहिए वह एक कन्या अर्थात तुम्हे मांग रहा है। गुजरी गीत जिला बिलासपुर में गाया जाता है जिसमे सास बहू का संवाद हमें देखने को मिलता है :-

“सास – पहर सवेला रिये तू गई रिये बहुए
दिन चढ़ने जो आया, ओ बहुए अड़ये।
सब सब गुजरियां दहीं बेची आयियां ओ दहीं बेची आयियां,
तै कियां देर लगाई नी अड़ये
बहु-घर घर लोक आए दहीं ओ जमांदे, जो दहीं वो जमांदे
इस खट्टे दहियें लैदा नी कोई, मेरिये ससुड़ीये।”10

इस प्रकार सास बहू का बहुत ही सुंदर संवाद हमे हिमाचली  सास बहू के सुंदर रिश्ते को दर्शाता है। इसमें सास बहू को कह रही हैं कि सुबह होने को आई है मतलब सूरज निकलने वाला है वह दहीं बेच कर नहीं आई है और बाकि सभी गुजरियां यानि बहुएं घर वापस आ गई हैं। तो बहु उतर दे रही है कि अब सभी लोग घर घर में दहीं जमा रहे हैं और इस खट्टे दहीं को कोई नहीं खरीद रहा है। इसमें हिमाचल की प्राचीन संस्कृति को दर्शाया गया है हमारे बुजुर्ग घर के सारे काम सुबह सूरज निकलने से पहले पूरे कर लेते हैं। हिमाचल प्रदेश में देवस्थानों को दर्शाने वाले लोकगीत प्रचलित हैं जो उनसे सम्बंधित परिचय करवाते हैं। जो इस बात का परिचय करवाते है कि हिमाचल के लोग  देवी देवताओं में विश्वास रखते हैं। हिमाचल प्रदेश में कोई भी शुभ कार्य करने से पहले गणेश भगवान को याद किया जाता है तत्पश्चात् ही कोई भी कार्य किया जाने की परम्परा है। यहां के सभी जिलों का पहनावा, खान-पान, रीति-रिवाज एक दूसरे से भिन्न है। मोटे तौर पर देखा जाता है की ऊपरी हिमाचल के लोगों के रीति-रिवाज, त्योहार, पहनावा, भौगोलिक परिस्थितियों की तुलना में निचले हिमाचल से भिन्न है।

“लक पतला लहंगा भारी ओ मेरे गद्दिया चढ़ी और चम्बे जो जाणा ओ तेरी सों।”11

इसमें चम्बा क्षेत्र के पहनावे की बात है जो लहंगे चोली की तरह होता है जिसे ल्वांचडी के नाम से जाना जाता है।

“सिल गोरी सिलाई लेणी घघरी
घघरिया पहनी के मां मारकंडे जाणा
मारकंडे रा मा पी लेणा पाणी।”12

बिलासपुर के इस लोकगीत में घघरी सिलाने के लिए गोरी अर्थात लड़की कह रही है और घाघरी को पहन कर वह मार्कंडेय (एतिहासिक तीर्थस्थल) जाने की बात कर रही है जहां का पानी बहुत ही पवित्र माना जाता है।

“मलमल दा चलेया रिवाज चुन्नी लेणी मलमल दी
मै त गलाया मिंजो सूट सयायी दे
चमके सूट बाजार चुन्नी लेणी मलमल दी।”13

यह लोकगीत गिद्दे में नाचते वक्त गाया जाता है इसका अर्थ है कि मलमल के कपडे का रिवाज चल रहा है और लड़की को वही दुपट्टा चाहिए। सूट उसे ऐसा चाहिए जो कि पूरे बाजार में चमके और उसके साथ दुपट्टा मलमल का होना चाहिए। इस लोकगीत से हमे पता चलता है कि बिलासपुर क्षेत्र में सलवार सूट पहनने और दुपट्टा ओढ़ने का रिवाज है। हिमाचल प्रदेश में समय समय पर या विशेष त्योहारों परमेलों का आयोजन किया जाता है। यह मेले प्राय देवी देवताओं से सम्बंधित होते हैं इनमें विभिन्न प्रकार के खान-पान की दुकानें लगती हैं। इन मेलों को व्यापार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इसमें पशुओं के मेले बहुत प्रसिद्ध हैं जिनमे लोग अपने पशुओं को बेचने के लिए आते हैं व कुछ लोग अच्छे अच्छे पशु खरीद कर ले जाते हैं। मेले में जाने का सभी लोगों में अलग ही उत्साह देखने को मिलता है :-

“मेले जाणा कालका दे मिंजो बी लई चल नाल
ओ लड्डूआं रे पाव पुच्छीले जलेबियां रे परिरे थाल।”14

इस लोकगीत का अर्थ है कि कालका में मेला लगा हुआ है उसमे मुझे भी अपने साथ ले चलो। वहां पर लड्डू के भाव पूछो और जलेबियों के भी थाल भरे हुए हैं।

निष्कर्ष : लोकगीत भले ही किसी भी क्षेत्र के क्यों न हो वो उस क्षेत्र के समस्त लोक को दर्शाते हैं। हमारी लोक संस्कृति को दर्शाने का सबसे अच्छा माध्यम लोकगीत ही हैं। जहां एक ओर लोकगीत हमारा मनोरंजन करते हैं वहीँ दूसरी ओर हमें अपनी संस्कृति से भी जोड़े रखते हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथो के सोलह संस्कारों की बात हो या फिर हमारी मान्यताओं व आवश्यकताओं की सभी हमारे लोकगीत प्रदर्शित करते हैं। इस शोध पत्र में हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में गाये जाने वाले लोकगीतों में संस्कृति को दिखाया है। लोकगीत संस्कारों, मेलों, त्योहारों, प्रेम सभी को अपने में स्थान देकर भावी पीढ़ी के लिए उन्हें सुरक्षित रखते हैं। लोकगीतों के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि किसी भी त्योहार या रीति रिवाज को किस प्रकार से मनाया जाता है। उसके पीछे स्थानीय लोगों की क्या मान्यता या विश्वास है। इस शोध पत्र में संकलित गीत स्थानीय रीति रिवाज, रस्में, पहनावा, मान्यताएं, धार्मिक स्थलों, पर्यटन स्थलों को अपने आप में संजोये हुए हैं। वर्तमान समय में हमारी संस्कृति व प्रकृति के साथ अत्याधिक छेड़छाड़ की जा रही है जिससे अस्वाभाविक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। हमारे प्राचीन लोकगीतों में भी वर्तमान कलाकार अपनी कला के द्वारा परिवर्तन कर रहे है जिससे लोकगीतों की वास्तविक मिठास में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। हमें आवश्यकता है कि हम अपनी इस प्राचीन धरोहर को उसके वास्तविक रूप में सम्भाले रखें।

संदर्भ :
1 विद्या सिन्हा : भारतीय लोक साहित्य परम्परा और परिदृश्य, प्रकाशन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, द्वितीय संस्करण 2016, पृष्ठ 12
2, बद्री नारायण : लोक संस्कृति और इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, नई दिल्ली, पटना, तृतीय संस्करण 2019, पृष्ठ 18 
3 डॉ श्रीराम शर्मा : लोक साहित्य का सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन (बिलासपुर जनपद के संदर्भ में), निर्मल पब्लिकेशन्स, दिल्ली प्रथम संस्करण, 2000, पृष्ठ 54 
4 वही, पृष्ठ 64 
5 सुदर्शन वशिष्ट : हिमाचल के लोकगीत (हिमालय गाथा), अमर सत्य प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2021, पृष्ठ 303 
6 मौखिक वाचन का लिखित रूप (मीरां देवी, गांव बौणी, जिला- बिलासपुर)
7 वही
8 वही 
9 वही 
10 वही 
11 डॉ. श्रीराम शर्मा : लोक साहित्य स्वरूप और मूल्यांकन, निर्मल पब्लिकेशन्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2000, पृष्ठ 154
12 मौखिक वाचन का लिखित रूप (गायत्री देवी, गांव गतवाड़, जिला- बिलासपुर)
13 वही
14 वही

पवना शर्मा
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय
pawanasharma98@gmail.com

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

Post a Comment

और नया पुराने