मेरे जेहन के एक छोर में राई- लोन की तरह गँवई यादों के कुछ सूखे फूल बँधे हैं। मुझे जब-जब शहर की नज़र लगती है, मैं अपने जेहन में झाँकता हूँ। झाँकता हूँ उसका ओर-छोर। कुछ पुरानी गाँठें खुलती हैं तो यादों के तुड़े-मुड़े फूल अपनी नाजुक-नरम पंखुडियों समेत अँगुलियों के पौरों को नम करने का निमंत्रण देते हैं। जैसे पुरानी किताब के भूरे भुरभुरे पन्नों के बीच से बरामद आँगन के इकलौते गुलाब का पहलौटा फूल पानी भरे गिलास में आहिस्ता छोड़ देने पर पुरानी स्मृति की मानिंद फिर से जाग उठने के जतन में भीग कर जी उठता है। वैसे ही रह-रहकर जी उठता है एक शख्स अपने फूल चुने जाने के बावजूद!
एक जमाने से जिस्म की सारी जिम्मेदारी आँखों ने संभाल रखी है। सुख-दुख, हँसी-खुशी, इनकार-स्वीकार, मान-मनोवल,आशा-निराशा,नाराज़गी और राज़गी सब की कहन आँखों के जिम्मे रही है। जिम्मेदारी निभाने के लिए ताकत की भी जरूरत होती है। ताकत का बेजा इस्तेमाल भी होता है। उन दिनों आँखों की नकारात्मक शक्तियों पर समूचा गाँव आँख मूँदकर भरोसा करता था। जिन आँखों में बेचारगी और अभाव स्थायीभाव बनकर बसे होते अक्सर उन नज़रों की नकारात्मक शक्ति पर गाँव का अटूट भरोसा होता। वे आँखें जो कुछ सुंदर, पुष्ट, मनहर, सुस्वादु और सुरम्य देख लेतीं उसी का सत्यानाश हो जाता। किसी की घर-गुवाड़ी का उदा (भाग्य) जागता। बीसों कच्चे घरों के बीच हवेली उठ खड़ी होती। मगर ईंट- पत्थर की मजबूत मोटी दीवार किसी की एक नज़र से दरक जाती। पुष्ट पुट्ठों और भरे-भरे डील (काया) की गाय-भैंस निजराईज जातीं। नव ब्याहता बीनणियाँ घूघट की ओट में भी सुरक्षित न बचतीं। उनके मेंहदी राचे हाथ, चूड़ियों भरी कलाइयाँ, नए बेस में ओपती अपूर्व काया निजराकर कुँम्हला जाती। बदन टूटने लगता। रूँवाळी (रोमावली) फट जाती। कुँवारी कन्याएँ शादी-ब्याह में नाच लें तो नज़र के मारे अगले दिन उठने तक की हिम्मत न रहती! दूधमुँहें बच्चे सबसे ज्यादा नज़र का शिकार होते। नज़र लगने की जद में सब चीजें थीं। खड़े हुए हरे दरख्त सूख जाते। खाने-पीने की चीजें नज़र का आसान शिकार थीं। लगनेवाली नज़र का असर भी अलग-अलग था। कई बार नज़र की वेलिडिटी लाइफ टाइम होती थी। कुछ लोग उम्र भर नज़र लगी चीज दुबारा न खा पाते। वेलिडिटी के अलावा नज़र लगने की रेंज भी होती थी। गाँव में जिन लोगों की नज़र दूध, दही, खीर जैसी चीजों पर तुरंत लग जाती। उन्हीं लोगों के छठे-चौमासे शहर आने पर दुकानों पर सजी मिठाइयों व रेहड़ियों पर सजे फलों पर नज़र नहीं लगती। जो नज़र गाँव में जरा सी सुदर्शन दिखती दुल्हन को पर्दे की ओट में भी शिकार बना लेती वही नज़र सिनेमा के पर्दे की स्वप्न सुंदरी को छू भी न पाती। क्या कहा जाए -' स्थानं प्रधानं न बलं प्रधानं…।
नज़र थी तो नज़र उतारने के उपचार भी थे। आँख से फैली बीमारी के वायरस की वैक्सीन मुँह की प्रयोगशाला में बनती थी। विशेषज्ञ बताते थे कि जिस मुँह पर जड़ी दो आँखों की नज़र लगी है, अगर उसी मुँह में उत्पादित थूक के दो छींटे रोगी के बदन पर पड़ जाएँ तो नज़र उतर जाएगी। लेकिन संबंधित मुँह से वैक्सीन प्राप्त करना आसान न था। वैक्सीन का डोज उपलब्ध करवाने की कहने भर से संबंधित मुँह पर सूजन के रूप में साइड इफ़ेक्ट नज़र आता। इतना ही नहीं उस समय 'रेडियो- एक्टिव मुँह' से निकली ध्वनि तरंगे रिश्तों को भी संक्रमित करने की क्षमता रखती थीं। ऐसे में स्थानीय वैज्ञानिकों द्वारा वैकल्पिक उपाय खोजे गए। जिनमें से कुछ बचावपरक थे। जैसे हवेली पर पुराना काला मटका रख देना या टायर लटका देना। गले में ताबीज बाँध देना। बच्चों के माथे पर एक ओर काजल से चाँद बना देना। उन दिनों यह लगभग आम रिवाज था, माँएँ दस-बारह बरस तक के स्कूल जानेवाले बच्चों के पहले सुंदरता के लिए आँखों में काजल डालतीं , फिर नज़र से बचाने के लिए माथे पर चाँद और एक दिठौनी टीकी लगा देतीं। उस दौर में स्कूल जानेवाले तकरीबन सभी बच्चों की आँखें काजल की मोटी लकीरों से रेखांकित तो माथा चंद्रबिंदु की मात्रा लगा होता था। इसके बावजूद अगर नज़र लग जाती तो सातू संझ्या (ठीक संध्या) चुपचाप मुट्ठी में चुटकी भर राई, लूण, मिर्ची लेकर चौराहे से सात लोगों के खोजों (पदचिह्नों) से चुटकी भर मिट्टी उठाकर पीड़ित के ऊपर से सात बार वार कर चुल्हे की आग में डालनी होती। तर्कहीनता के तर्क विचित्र होते हैं। सम्पूर्ण प्रयोग प्रयोक्ता को मौन , बिना हँसे, बिना पीछे मुड़कर देखे सम्पन्न करना होता। फिर बस्ती ने न जाने कब , किस घड़ी में एक सुगम मगर अचूक उपचार खोज निकाला। नज़र किसी के भी लगी हो, किसी की भी लगी हो उपचार एक ही व्यक्ति की थुथकारी से हो जाएगा। चमत्कार!
गाँव की हथेली पर जिंदगी की लकीर की तरह खिंचा अगूण-आथूण (पूर्व-पश्चिम) एक रास्ता है जो तळाव के जोहड़ के बीचोंबीच से होता हुआ पाटोदा गाँव की ओर चला जाता है। उसी जोहड़ के उत्तर-पूर्वी कोने में बाड़ से घिरी लदक पड़ी ( पिचकी छत) झोंपड़ियाँ घर की दरिद्रता को बिना पूछे बता देती थीं। बाहर बँधी इत्मीनान से जुगाली करती तीन-चार बकरियाँ ही उस घर का पशु धन थीं। न गाय, न भैंस, न ऊँट, न खेती, न पाती। बरसात होती तो झोंपड़ियों की चूती चैळ तले उँगली से मिट्टी कुरेद कर डाले गए तुरई और कद्दू के बीज ही उस घर की कुल खेती बाड़ी थे। भूमिहीन हरिजनों के पास खेतीहर मजदूरी के अलावा कोई आजीविका का चारा न था। आगे जब जमाना बदला और लोगों का पैसे के मामले में थोड़ा हाथ सरकने लगा और पक्के मकान बनने लगे तो चौमासे के चार महीनों के अलावा भी मजदूरी मिलने लगी। मगर उन कच्ची झोंपड़ियों में जिस आदमी का बसेरा था, उसकी कदकाठी देखकर उसे कोई अपने यहाँ मजदूरी पर न ले जाता। चमड़े की जूतियों में जनाना से पाँव,पीढ़े के पायों की तरह पतली ठिगनी साँवली पिंडलियाँ, उन पर नारियल की टोकसी ( कटोरीनुमा खोल) की तरह घुटने। घुटनों तक पायचे चढ़ी भूरे बदरंग वर्तमान वाली पुरानी धोती जिसका धोला अतीत न जाने कब बीत गया। कमर से कुछ नीचे तक लटकता पूरी बाँह का खाकी कुर्ता। कुर्ते की एक जेब में खलीची ( कपड़े की थेली), खलीची में तंबाकू, तंबाकू में गंध। दूसरी जेब में काठ की छुटकी चिलम, चिलम में स्यापी (चिलम के नीचे लपेटने का कपड़े), स्यापी के नीचे कोयला। कुर्ते के कालर। कालर की गिरफ्त में दुबली सी गर्दन। गर्दन पर बेतरतीब दढ़ियाया गणगौर मेले के ईसर जी की मूर्ति के गोल चेहरे सा चेहरा। चेहरे पर चस्पा दो आँखें। आँखों में बेहिसाब , बेढ़ब, बेपनाह, बेआवाज़ , बेकस, बेकल भावनाएँ। सिर के बढ़े बालों को बाँहों में लपेटे गमछा। दढ़ियाये चेहरे में एक जबान और खूब सारा थूक। नज़र लगने का उपचार थूक …माने थुथकारी!
सुबह की पहली किरन में जो आकर्षण है , वह दिनभर के समूचे उजास में कहाँ! भोर में पंछी की पहली चहक में जो मधुरिमा है वह दिनभर के शोर में कहाँ! पहला प्यार…पहली संतान…किसी कतार में पहला होने का सुख…मनुष्य में पहलेपन का आकर्षण खूब है। सबेरे की पहली थुथकारी जितनी पलती (असर करती) है उतनी बाद की थुथकारी नहीं।
इतना बड़ा गाँव ! इतने लोग! इतनी निगाहें! भुगाना बाबा के द्वार पर सवेरे ताँता लग जाता। लोग दूधमुंहे बच्चों को लेकर आते। बाबा बच्चे की नाभी को निसाना बनाकर थू-थू थुथकारी डालते। बड़े आते, बूढ़े आते , जवान आते, औरतें आतीं, नव ब्याहताएँ आतीं। कुछ आधा-पड़दा पेट उघाड़तीं, कुछ नहीं। भुगाना बाबा बिना भेद थुथकारते। धीरे-धीरे वे इस मामले में लोकदेवता से समादृत हो गए। लोग तड़काउका (ब्रह्म मुहूर्त में) उठ-उठकर आने लगे।
अपने साठ -पैंसठ साल के जीवन में भुगाना बाबा कभी पूरी नींद सो न सके। लोग उन्हें सुदिया ( सुबह जल्दी) जगा देते। इस प्रसंग की सीमा यह है कि भुगाना बाबा जैसा भोला मानुष भी उम्रभर इस तर्कहीनता का हिस्सा बना रहा। पर यह तो उस परिवेश की सीमा है। उजला पक्ष यह था कि उन्होंने जन विश्वास का कभी व्यावसायिक उपयोग नहीं किया। वे कभी किसी के द्वार थुथकारने नहीं गए। थुथकारी के बदले ताजिंदगी उन्होंने कोई लाभ स्वीकार नहीं किया। न श्रद्धा से, न दया से , न सहानुभूति से उन्होंने कुछ स्वीकारा। तब उनकी आजीविका कैसे चली?
वे ग्राम-ग्वाले थे। गाँव में सालभर में दो हेले गूँजते थे। जब आषाढ़-जेठ की पहली बिरखा होती। हळ की मूठ, हाळी की कलाई और ऊँट-भैंत की गर्दन में कपड़े की कातर में अन्न के दाने बँधी राखियाँ बँधती। आकाश में घिर आए साँवले बादलों से झरे छाँटों ( बूँदों ) की पहली छुअन से सिहरी धरती के बदन की रुँवाळी (रोमावली) की तरह जब नन्हीं नरम च्यूँटी (छोटी घास) उग आती। दो-घड़ी तक भिगोई मेंहदी की लकीरों की तरह जब खेतों की हथेली पर हळ से ऊमरे खिंच जाते। ऊमरों की लीक के बीच-बिचाळे जब बोए गए नाज(अनाज) की सळियों की हरियाळ पड़ते लगती। सबेरे उन्हीं नन्हीं अन्न शलाकाओं के नाक में सूरज द्वारा ओस के मोती पहनाए देखकर जब माटी मुळकने लगती। जब नवांकुरित घासें किसानों के नित्य संगी पशुओं के लिए अनबोए छोड़े गए खेत - 'अड़ाओं' और सार्वजनिक चारागाह - 'जोहड़ों' तक सीमित हो जाती तब उन शिशु घासों को पूरे चौमासे तक आयुष्मान रखने के लिए गाँव के हमउम्र और बीचोंबीच बने राघोदास जी के मिंदर की छत पर चढ़कर रात के पहले पहर में गाँव का कोई काका-बाबा तीन बार हेला (तेज स्वर में पुकार) मारता - " ए…ए…ए..आगली पाँचैं मंगळवार से सब गुवाळ हुज्यायो…यो…ओ…ओ..ओ…!"
फिर जब चौमासे की विदाई होती। साँवले बादल रूई के फाहों सा धोळा भेख (वेश) धर लेते। कातिक मास उतार पर होता। घरों में दिवाळी का घुँवासा झाड़ने (सफाई) का वक्त आ जाता या कभी-कभी दिवाळी का त्योहार आकर चला जाता। चवळा, मूँग, मोठ की लावणी हो जाती। बाजरे की कड़ब कट जाती। कहीं- कहीं गुँवार की हठीली -कँटली फसल ही नजर आती। अड़ाओं के घास समाप्तप्राय होते तब उन्हीं के सीवाँजोड़ (सीमावर्ती) खेत फसल कटने के बाद कागलेर, चजाबड़ी, सरेळी, सुरेळी,दूधली, कुंदरो, काँटी-भाखड़ी, भरूट, गोरड़ी, आग्या, झेरन्याँ, मकड़ा, चूनड़ी- गूगाजाँटी जैसी हरी-अधहरी घासों से भरे होते। नब्बे प्रतिशत फसलें कट चुकी होतीं। तब फिर किसी दिन उसी राघोदास जी के ऊँचे मिंदर से उनींदे -रतियाये गाँव की हवा हर कान तक यह हेला लेकर पहुँचती- " ए…ए..ए…आगली सातैं (सप्तमी) से भेळवाट हो गया है….अ…अ..अ…!"
भेळवाट माने अब खलिहान को छोड़कर समूचे खेतों पर पशुधन का निर्बाध राज। कोई किसी को ओळमा (उलाहना) नहीं देगा। कोई किसी से शिकायत न करेगा। अब तक खेत किसान के थे। आज से पशुओं के हैं। खेतीबाड़ी किसान और पशुओं की साझी होती है। मोठ, मूँग , बाजरा किसान का है तो गुँवार , फळकटी, चारा, गुणा(मोटे अनाज वाली फसलों के डंठल), कुतर-कुट्टी, त्यूँतड़ा, फन्सुरा और तमाम तरह का फूस पशुओं का है।
भुगाना बाबा ग्राम-ग्वाल रहे मगर कभी उन्होंने गाय नहीं चराई, भैंस नहीं चराई, भेड़ नहीं चराई। वे चरवाहे थे बकरियों के। जैसे वे आदमियों में दलित, वैसे बकरी पशुओं में दलित। बकरियों में चंचलता होती है पर सरलता और निरीहता भी। भुगाना बाबा ने नया 'स्टार्टअप' किया। वे सबेरे आठ-नौ बजे घर-घर घूमकर बकरियाँ रोही में ले जाते। दिन भर उन्हें चराते हुए बन में घूमते। साँझ ढले गोधूलि वेला में गाँव लौटते। गोधूलि की बजाय बकरी-धूलि बेला कहना ज्यादा संगत है। प्रति बकरी हर माह चरवाही के पंद्रह रुपये लेते।
सुबह उनके चरवाही पर निकलने की सूचना देने का अनोखा तरीका था। वे दिनभर वन-वन डोलते थे। खेजड़ी और रोहिड़े पर दौड़ती काँटकिलारियों (गिलहरी), नेवलों, गोहरों, घुरसली (मैना), सोनचिड़ी, लीलटांस(नीलकंठ) और तीतरों की वन-वाणी सुनते हुए। शायद उन्हीं को सुन-सुनकर उन्होंने अपनी संकेत-ध्वनि ईजाद की। वे हेला नहीं मारते थे कि बकरी खोल दो…ओ..ओ। बल्कि वे वन पाखियों की बोली बोलते जिसमें न कोई शब्द होता, न कोई वर्ण! वे गलियों से गुजरते हुए टुकार्या मारते - उ..उ..उ….उउउउ…उ! लगता जैसे बन के गूँगे गाछो (वृक्षों) को वाणी मिल गई हो। जैसे रोही के कैर-कंकैड़े, रोहिड़े-खेजड़े एक-दूजे को आवाज़ दे रहे हों। बकरियाँ तुड़ाव करने लगतीं। औरतें, बच्चे, बुजुर्ग सब उस आवाज को पहचानते। फोरन बकरियाँ घरों के फळसों (मुख्यद्वारों) से निकल-निकल कर टोली में मिलने लगती। सुबह तो यह नजारा होता लेकिन शाम को लौटती बर किसी-न-किसी बकरी का या तो पेट नहीं भरता या ममता नहीं भरती। ऐसी बकरी किसी खींप -कंकेड़े या बाड़-झीड़ की ओट छिपी रह जाती। भीड़ में अहसास ही नहीं होता कि कौन पीछे छूट गया। मगर जब एक दो-घरों की बकरियाँ बिना सूचना के अनुपस्थित पाई जातीं तब भुगाना बाबा के दिनभर बन-बन बिचरते पाँवों की सामत आ जाती। गोडे-से टूट जाते। दीया-बत्ती की बेला जब लोग फळसों के बाहर लक्ष्मण रेखा की तरह पानी की कार से घरों को अलाय-बलाय से सुरक्षित कर धुँधुआते चुल्हों से गरम सिकती रोटी की गंध को नथुनों में भर रहे होते। बड़े-बुजुर्ग जब घर के किसी कोने में फटी बोरी बिछाकर माळा फेरकर भगवान को सिमर रहे होते। गुवाड़ी में उगे तुलछी के पौधे के चरणों में मिट्टी का दिया उजास की अंजुरी चढ़ा रहा होता। तब भुगाना बाबा के थककर तल्डाते पाँव वापस रोही का रुख करते। वे खँखारती छाती से आवाज़ लगाते -" चिच्यू…चिच्यू…आए..आए…आयेए …चिच्यू!" चिच्यू (बकरी) अगर आस-पास ही अटकी होती तो ठीक वर्ना उनके कदम काँकड़-काँकड़ को गाहते। कभी अँधेरे की उपराँत ओढ़े खींपड़े , आकड़े, बाड़ें और डोळ-खाइयाँ बकरियों को लुकमीचणी (छुप्पम छुपाई) खेलने का मौका देते तो कभी आकाश में चाँद की लालटण लटकाए रात उनके साथ-साथ चलती। चाँद के चाँदणे में कभी बाड़ की गोद में उगी बुई की झाड़ी की जड़ों में बनी घुरी (बिल/गुफा) में से कोई ल्यूँकड़ी (लोमड़ी) निकलकर दौड़ती निजर आती तो कभी किसी बूढ़े जाँट पर बैठी कोचरी (उल्लू) हालचाल पूछ लेती। पोह- माह की ठिठुराती रहळ (शीत लहर) में भी भुगाना बाबा झिणझिणी धोती और पुराने घिसे कुर्ते में ही भटक रहे होते। जैसे कोई आदिम मानुष युगों से अपने खोए हुए ख्वाब को खोजता भटक रहा हो।
दिनभर पशु-पक्षियों की संगत से उनके भीतर एक खास तरह का दर्शन उग आया था , जिसके अनुसार सभ्यता विकास में आदमी का दर्जा पशु-पक्षियों के बाद था। वे उदाहरण देते -'कोई जिनावर खाने और उत्सर्जन का काम एक साथ नहीं करता। चरती गाय-भैंसे, भेड़-बकरियाँ भी उस दौरान चरना और जुगाली करना छोड़ देती हैं जबकि आदमी होंठ के नीचे जर्दा दबाएगा या बीड़ी सुलगाकर कश खींचता हुआ लौटा उठाकर चलेगा। फिर आदमी जिस तरह आदमी का जीना हराम करता है उतना कोई जानवर क्या करेगा!'
गुस्सा होते, झगड़ते उन्हें किसी ने न देखा। अपवाद स्वरूप एक किस्सा बन गया था। हुआ यों था कि पच्छिम धरा से कुछ चरवाहे आए थे रेवड़ के साथ। उतरादी रोही (उत्तर दिशा के खेत) में उनका पड़ाव था। रात को रेवड़ जिस खेत में बैठता भेड़-बकरियों की मेंगनियों से धरती उपजाऊ हो जाती। मगर पछाही भेड़ें जैसे जन्म भर की भूखी थीं। दो ही चार दिन में घास चट कर गईं। उन चरवाहों ने खेतों में खड़े नीम, बबूल, झाड़ी को छाँग-छाँग कर रेवड़ को खिलाना शुरू कर दिया। भुगाना बाबा हरे दरखत (पेड़) को हाथ तक नहीं लगाते थे। और ये लोग दरखत को रूंड-मूंड कर रहे हैं। दरख्तों की कटी डालियाँ वहीं पड़ी रहतीं। बाबा शोकग्रस्त भदर (मुंडित) सिर मानुष की तरह खड़े दरखतों और उन पर बैठे नष्ट नीड़ परिदों को देखकर उदास हो गए। चरवाहों ने उन्हें अपने पास आते देखा तो एक ने अपने दूरस्थ साथी को आवाज़ दी - " अजी भुगानै नै रेत में रगड़ नाखज्यो।"
भुगाना बाबा भड़क गए , " अपनी माँ का दूध पिया है तो आगे आओ! कौन है मुझे मिट्टी में रगड़ने वाला! तुम्हें गऊ जैसी धरती को बरतना तो नहीं आता, दरखत को काटना गाय को तुआने (पशु का असमय गर्भपात) बराबर है। मिट्टी में मिलानेवालो मिट्टी में कौन नहीं मिलेगा!"
असल में चरवाहों ने दूर से बाबा को आते देखकर एक साथी को चाय बनाने के लिए भेज दिया था। चाय बनाने का बर्तन- टोपिया या देगची जिसे उनकी बोली में भगोना कहा जाता था, उसे मिट्टी से माँजने के लिए कहा था -' भगोने को रेत में…।' बाबा को भगोने की बजाय अपना नाम 'भुगाना' सुनाई दिया। खुलासा हुआ तो खिलखिला पड़े - 'अरै मेरा ही भौगना( भाग्य/अंतर्दृष्टि) फुट गया था जो भगोने को भुगाना समझ बैठा।'
निपट अनपढ़ भुगाना बाबा ने राजनीतिक चेतना के नाम पर ग्यानी जी (गाँधीजी) -नैरू जी का नाम सुन रखा था। वे अपने जाति के पर्याय नामों की कई तरह की निरुक्ति करते थे। रामायण-महाभारत की कई कथाओं के कंठ-संस्करण उनके पास थे और कितनी ही बेजोड़ पहेलियाँ वे खुद जोड़ते थे या सुनसुनकर सहेजे हुए थे। मगर वे पहेलियाँ बेहद रोचक थीं। वे हाथ के ठेगे (लाठी) से जमीन पर लकीरें खींचते हुए सिर हिला-हिलाकर पहेली पूछते। कीड़ी नगरे (चीटियों के बिल) पर बाजरा डालकर लौटती बामणी दादी से बोले-
(एक ऐसी नगरी देखी है, जिसमें सिर्फ़ नारियाँ रहती हैं , वे भी निर्वसन! माया उन्हें इतनी प्रिय है कि जो उनके पास है, उसे छिपा देती हैं और दूसरों का चुराने की ताक में रहती हैं।)
एक खेत में ईंटों का कजावा बनते देखकर कर मजदूरों से बोले-
(सवा लाख नारियाँ एक आसन पर चुपचाप बैठी हैं। जब उनका पति मरा तब सभी ने सुंदर शृंगार किया।)
जवाब ना मिला तो बोले देखो ये ईंटें ही नारियाँ है। कजावा है इनका पति। कजावे में आग लगाना ही उसकी मृत्यु है। आग में ईंटों का पककर सुर्ख़ होना ही सिंगार है।
गाँव-गुवाड़ी में जरूरत के वक्त एक की चीज में सब का सीर (हिस्सा) होता है। मेहमान के लिए चाय या हारी-बीमारी या दूधमुंहे बच्चे के लिए गिलास भर दूध बिन पैसे मिल जाता है। ऐसे ही एक रोज जब कोई गिलास भर दूध लिए राह में मिला तो भुगाना बाबा के मुख से निकला -
माँ के जिस स्तन से दूध रूपी रतन को हाथी, घोड़े और स्त्री-पुरुष अपने शिशुकाल में पीते हैं। वह रतनों का कुआँ है। हर कुएँ में चड़स, डोल या बाल्टी डालकर बड़े जतन से नीर निकाला जाता है पर यह तो ऐसा कुआँ है जिसमें तिल या राई समाने जितनी जगह भी नहीं है मगर उस ममतामय के सागर(ईश्वर या माँ) की चतुराई देखो कि जब शिशु सबसे ज्यादा असहाय , अबोध और अवश होता है तब अनायास इस रतन कुएँ से जीवन की रसधार फूट पड़ती है और यह रस-रतन हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, मानव आदि धरती-पुत्रों का ही प्राप्य है। धरती का आँचल छोड़कर आकाशचारी बने पंछियों को यह नसीब नहीं।
सोचता हूँ भुगाना बाबा किसी स्कूल-कॉलेज में नहीं गए। मंदिर-देवरे, कथा- तीरथ का अवसर न मिला। मिनखों से ज्यादा जीव- जिनावरों के साथ वक्त गुजारा। फिर ये ज्ञान, ये सर्जना, ये अनायास फूट पड़नेवाला तत्त्व चिंतन उनमें कैसे उपजा! वे भी तो 'रतन कुआँ' थे , अपने कभी-कभार मुखर होनेवाले 'साँकड़े मुख' से उन्होंने रत्न ही तो बाँटे थे। काश! मेरा गाँव उनसे थुथकारी की बजाय चिंतन की चिंगारी माँगता!
एक अदना आदमी जिसकी लम्बाई नापो तो चार फिट से ज्यादा न होगी मगर जिसके कद के बराबर के कद्दावर आदमी ढूँढे न मिलेंगे। एक ठिगना आदमी जो आधी सदी तक पंद्रह- बीस कोस बिना नागा रोज चला मगर उसके बिवाई फटे पाँव गाँव की काँकड़ ना लाँघ सके।
बुढ़ापे में वे बहुत आहिस्ता कदम चलने लगे थे। फिर न जाने किस बरस के किस महीने, किसी तिथि- किस घड़ी गाँव की धूल में रुळता रतन कोई अदृश्य जौहरी उठाकर लोप हो गया।
आपको पढ़ना शुरू करते ही राजस्थान के गांव में प्रवेश करते हैं और पढ़ना ख़त्म करने पर भी उस गांव से निकल नहीं पाते हैं। धन्यवाद हमें अपने अपने गावों में ले जाने के लिए...❤️❤️❤️
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