शोध सार : सदियों से दुनिया का कोई न कोई हिस्सा युद्ध, आतंकवाद, गृहयुद्ध, हिंसा आदि से जूझता रहा है।लेकिन आज के युद्ध में आधुनिक विज्ञान की सहायता से आविष्कृत नवीन रक्षा हथियारों का प्रयोग हो रहा है। इन हथियारों के कारण युद्ध अधिक भीषण, ख़तरनाक और विध्वंसक हो गए हैं। इन हथियारों के पीछे का मनोविज्ञान विरोधियों पर जीत, उनके सामने शक्ति प्रदर्शन, वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा, देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए पड़ोसियों में भय का विस्तार आदि करना है। इन्हीं बातों के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में आयुध व्यापार बहुत बढ़ गया है, लेकिन साथ ही युद्ध, आतंकवाद और हिंसा के ख़तरे भी बढ़ रहे हैं। हथियारों का व्यापार करने वाले देशों के लिए यह मुनाफ़े का मुद्दा है, लेकिन विकासशील देशों के लिए कर्ज में डूबने का। इस शोध पत्र में गिरिराज किशोर के उपन्यास ‛असलाह’ के आलोक में वैश्विक स्तर पर हथियारों के विभिन्न प्रभावों की बात की गई है।
बीज शब्द : असलाह, मनोविज्ञान, नवीन रक्षातंत्र, वैश्विक अर्थव्यवस्था, युद्ध, विज्ञान, परमाणु बम, रेडियोएक्टिव प्रदूषण, पर्यावरण, नाटो, सिपरी, आतंकवाद।
मूल
आलेख
: गिरिराज
किशोर
द्वारा
लिखा
गया
उपन्यास
‛असलाह’
वर्ष
1987 में
प्रकाशित
हुआ
था।
1987 से
पूर्व
दो
बड़े
विश्वयुद्ध,
भारत-चीन,
इजराइल-फिलिस्तीन,
अमेरिका-वियतनाम
आदि
अनेक
युद्ध
हो
चुके
थे।
वहीं
युद्धों
में
पारंपरिक
शस्त्रों
जैसे-
तलवार,
तीर-धनुष,
भाला
आदि
के
स्थान
पर
तकनीक
की
सहायता
से
बनाए
जा
रहे
हथियारों
का
प्रयोग
होने
लगा
था।
युद्ध
और
हथियारों
का
प्रयोग,
इन
दोनों
ही
स्थितियों
का
मानव
जीवन
पर
गहरा
प्रभाव
पड़ा,
जिसकी
प्रक्रिया
आज
भी
जारी
है।
इन्हीं
समस्याओं
का
उल्लेख
गिरिराज
किशोर
जी
अपने
उपन्यास
‛असलाह’
में
करते
हैं।
यूँ
तो
आलोचकों
की
दृष्टि
में
उपन्यास
में
अनेक
कमियाँ
हैं।
यथा;
गोपाल
राय
लिखते
हैं-
“असलाह
में
प्रतीक
कथा
का
शिल्प
अपनाया
गया
है,
पर
इनकी
रचनात्मक
सार्थकता
संदिग्ध
है।
गिरिराज
किशोर
की
भाषा
सर्जनात्मक
तो
है,
पर
उसमें
वह
ठनक,
वैविध्य,
धार
और
संवेदनशीलता
नहीं
है
जो
विवेकी
राय,
अमृतलाल
नागर,
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
और
निर्मल
वर्मा
में
है।”1
वहीं
पुनः
वह
लिखते
हैं-
“गिरिराज
किशोर
के
दो
उपन्यासों,
असलाह
और
अन्तर्ध्वंस
का
विषय
आधुनिक
विज्ञान
की
मानव
विरोधी
प्रगति
और
उससे
क्षय
होती
मानवीय
संवेदना
का
यथार्थ
है।
असलाह
में
एक
प्रतीक
कथा
के
माध्यम
से
आज
की
दुनिया
में
हथियार-संग्रह
की
होड़
का
चित्रण
किया
गया
है।
उपन्यासकार
ने
इस
अविवेकपूर्ण
दौड़
में
मानव
विवेक
की
विजय
दिखाई
है।”2
इस
प्रकार
कहा
जा
सकता
है
कि
यह
उपन्यास
शिल्प
की
दृष्टि
से
भले
कमज़ोर
हो,
परंतु
कथावस्तु
प्रासंगिक
और
आलोच्य
है।
इसकी
कथावस्तु
विज्ञान,
हथियार,
मानवीय
सम्बन्ध,
पर्यावरण,
अर्थव्यवस्था
आदि
अनेक
पहलुओं
को
समेटती
है।
‛असलाह’
उपन्यास
की
कथा
का
मुख्य
पात्र
‛अमरी’है।
गिरिराज
किशोर
जी
ने
इसी
पात्र
के
माध्यम
से
हथियारों
के
सम्पूर्ण
मनोविज्ञान
को
चित्रित
किया
है।
अमरी
को
बचपन
से
ही
हथियारों
से
प्रेम
है
तथा
उसे
नित
नए
हथियारों
के
बारे
में
जानकारी
जुटाना
पसंद
है।
अपने
इसी
हथियार
प्रेम
के
कारण
वह
माता-पिता,
प्रेमिका,
पत्नी
एवं
बच्चों
से
नैसर्गिक
सम्बन्ध
नहीं
रख
पाता।
बचपन
में
पिता
की
पिटाई
के
बाद
उसके
मन
में
ज़िद,
विद्रोह
और
बदले
की
भावना
आ
गयी।
अमरी
माँ
से
कहता
है-
“पापा
मारें,
तुम
लेप
लगाओ-मैं
सब
जानता
हूँ।
ना
मैंने
एक
से
एक
बन्दूक,
तमंचे,
तोप
इकट्ठे
किये
तो
मेरा
नाम
भी
अमरी
नी!”3
उसकी
यही
भावना
आगे
चलकर
ऐसे
हथियार
के
निर्माण
की
प्रेरणा
देती
है,
जितना
विनाशकारी
हथियार
पहले
कभी
नहीं
बना,
अर्थात-
परमाणु
बम।
गिरिराज
किशोर
ने
अमरी
के
हथियार
प्रेम,
हथियार
संग्रह
और
नवीन
आविष्कारों
के
माध्यम
से
वर्तमान
वैश्विक
स्तर
पर
राष्ट्रों
के
मध्य
हथियारों
के
संग्रह
की
प्रतिस्पर्धा
को
दिखाया
है।
सभी
राष्ट्र
हथियार
संग्रह
के
पीछे
का
कारण
राष्ट्र
की
सुरक्षा
को
बताते
हैं।
छोटे
देश
कर्ज
लेकर
विकसित
देशों
से
हथियार
ख़रीदते
हैं,
वहीं
विकसित
राष्ट्र
हथियारों
का
निर्यात
कर
अपनी
अर्थव्यवस्था
चमकाते
हैं।
सिपरी
(SIPRI- Stockholm International Peace Research Institute) की
2024 की
रिपोर्ट
के
अनुसार-
‛2019 से
2023 तक
शीर्ष
पाँच
हथियार
आयातक
देश
भारत,
सऊदी
अरब,
कतर,
यूक्रेन
और
पाकिस्तान
हैं।
वहीं
शीर्ष
पाँच
निर्यातक
देश
यू.एस.ए.,
फ्रांस,
रूस,
चीन
और
जर्मनी
है।’
(www.sipri.org, 11मार्च 2024) शीर्ष
निर्यातक
देशों
में
तीन
विकसित
देश
हैं,
जिनकी
अर्थव्यवस्था
में
हथियार
निर्यात
एक
बड़ा
हिस्सा
है,
वहीं
शीर्ष
आयातकों
में
भारत
लगातार
कई
वर्षों
से
शीर्ष
पर
बना
हुआ
है।
प्रश्न
उठता
है
कि
क्या
राष्ट्र
सुरक्षा
ही
हथियार
संग्रह
का
एकमात्र
कारण
है?
निस्संदेह
नहीं।
अमरी
अपने
पिता
से
कहता
है-“दरअसल
आपने
हथियारों
का
केवल
यही
इस्तेमाल
देखा
और
जाना
है।
हथियार
शक्ति
और
संतुलन
का
माध्यम
है।
मुल्कों
के
प्रेसीडेंट,
प्रधानमंत्री,
राजे-महाराजे
क्या
इसलिए
बड़े
हैं
कि
वह
इस
नाम
की
कुर्सी
पर
बैठे
होते
हैं…
उनका
बड़प्पन,
उनकी
शक्ति,
उनके
उपकरण
हैं
और
उन
उपकरणों
को
सही
तरह
से
प्रयोग
करने
या
न
करने
की
दक्षता
है!”4
अमरी
के
इस
कथन
से
स्पष्ट
है
कि
उन्नत
हथियारों
का
संग्रह
राष्ट्र
की
शक्ति
और
प्रतिष्ठा
का
प्रतीक
है
और
वर्तमान
में
राष्ट्र
इस
शक्ति
का
प्रयोग
अन्य
राष्ट्रों
को
भयभीत
करने
के
लिए
करते
हैं।
पुनः
वे
अन्य
राष्ट्र,
भय
से
बचने
के
लिए
हथियार
संग्रह
में
लग
जाते
हैं।
आदिमानव
ने
हथियारों
का
आविष्कार
किया
ताकि
भोजन
एवं
जानवरों
से
रक्षा
का
उपाय
किया
जा
सके।
वहीं
किसी
समय
धनुष,
तलवार,
भाला
आदि
चलाना
कला
एवं
खेल
का
हिस्सा
था,
जबकि
यह
पूर्वमध्यकाल
एवं
मध्यकाल
में
युद्धों
में
शौर्य
का
प्रतीक
बन
गया।
इसी
शौर्य
के
बल
पर
राजाओं
ने
साम्राज्य
विस्तार
किया।
इसके
साथ
ही
यह
प्रश्न
भी
उठता
रहा
कि
युद्ध
और
घोर
हिंसा
के
बल
पर
साम्राज्य
विस्तार
कहाँ
तक
उचित
है?
पुनर्जागरण
काल
में
औद्योगिक
क्रांति
की
शुरुआत
हुई।
दुनिया
के
अनेक
हिस्सों
पर
औपनिवेशिक
शासन
को
बनाए
रखने
के
लिए
अनेक
देशों
ने
युद्ध
एवं
हिंसा
का
सहारा
लिया।
इस
औपनिवेशिक
शासन
से
मुक्ति
के
लिए
दुनिया
के
अनेक
देशों
में
जनता
ने
सशस्त्र
क्रांति
का
सहारा
लिया।
इस
पूरी
समय-यात्रा
में
न
केवल
हथियारों
के
प्रयोग
का
उद्देश्य
बदला
बल्कि
स्वयं
हथियारों
की
प्रकृति
भी
बदलती
गयी।
आज
शस्त्रों
का
स्थान
अस्त्रों
ने
ले
लिया
है।
अमरी
कहता
है-
“बाबर
ने
जब
हिंदुस्तान
पर
हमला
किया
तो
इस
मुल्क
के
लोगों
को
यह
तक
पता
नहीं
था
कि
दूसरे
मुल्कों
में
बारूद
से
लड़ाई
लड़ने
का
ज़माना
आ
गया
है।
वे
घोड़ों,
हाथियों
और
आदमियों
को
पेले
पड़े
थे।
बाबर
ने
लाकर
तोपें
घुसा
दीं।
हथियार
टेक्नॉलाजी
के
विकास
और
वैज्ञानिक
दृष्टि
के
प्रतीक
हैं।”5
यह
सच
है
कि
जैसे-जैसे
विज्ञान
ने
अपनी
उन्नति
की,
वैसे-वैसे
हथियारों
का
भी
विकास
होता
गया।
नई
तकनीकों
ने
अनेक
भयावह
हथियारों
का
निर्माण
किया
है,
जो
मानव
जाति
पर
ख़तरे
की
भांति
मंडराते
रहते
हैं।
उदाहरणस्वरूप-
द्वितीय
विश्वयुद्ध
में
प्रयुक्त
नाभिकीय
बम
ने
दुनिया
को
हिलाकर
रख
दिया।
यह
विज्ञान
की
अब
तक
की
सबसे
ख़तरनाक
खोज
थी।
दुनिया
में
परमाणु
हथियारों
के
निर्माण
को
रोकने
के
लिए
1968 में
“परमाणु
अप्रसार
संधि”
पर
हस्ताक्षर
किए
गए।
इस
संधि
के
बावजूद
वर्तमान
में
9 देशों
के
पास
परमाणु
हथियार
हैं-जिनमें
यू.एस.ए.,
रूस,
फ्रांस,
चीन,
यू.के.,
पाकिस्तान,
भारत,
इजराइल
और
उत्तर
कोरिया
हैं।
परमाणु
हथियारों
का
कुल
वैश्विक
भंडार
लगभग
13 हज़ार
के
क़रीब
है।
परवेज़
हुडभाय
लिखते
हैं-
“नाभिकीय
शस्त्रों
के
विकसित
होने
से
जो
गंभीर
क्षति
हो
रही
है
वो
मनोवैज्ञानिक
और
राजनीतिक
है,
न
कि
भौतिक।
एक
बटन
को
छूकर
हज़ारों
लोगों
को
मौत
की
नींद
सुला
देने
की
ताक़त
ने
देश
या
संस्थानों
द्वारा
अख्तियार
किये
जाने
वाले
तौर-तरीक़ों
को
गहरे
रूप
से
प्रभावित
किया
है।”6
इसी
मनोविज्ञान
को
‛असलाह’
उपन्यास
में
गिरिराज
जी
ने
चित्रित
किया
है।
एक
तरफ़
दुनिया
के
शीर्ष
नेता
वैश्विक
मंचों
पर
शांति
के
प्रयास
की
बात
करते
हैं
वहीं
राष्ट्रीय
स्तर
पर
नित
नवीन
घातक
हथियारों
का
आविष्कार
करते
हैं
और
वैज्ञानिक
रूप
से
पिछड़े
एवं
ग़रीब
देशों
को
ऊँची
क़ीमतों
पर
निर्यात
करते
हैं।
‛असलाह’
से
एक
उदाहरण
है-
“छोटे
से
छोटे
हथियार
के
लिए
तड़पड़ाते
दरोगा
के
उस
बेटे
ने
हथियारों
की
तिजारत
शुरू
कर
दी।
उसके
द्वारा
बेचे
जाने
वाले
हथियारों
को
ख़रीदने
के
लिए
उसके
उन
हल्कों
के
लोग
परेशान
थे,
जिनके
सामने
अस्तित्व
का
ख़तरा
था
और
सुरक्षा
के
लिए
साधन
एकत्रित
करने
के
लिए
पर्याप्त
धन
नहीं
था।
कौम
के
लिए
कुछ
करने
का
जज्बा
निरंतर
परेशान
करता
रहता
था।
अमरी
उन
सबको
साँस
बंधाए
था।
वे
ज़रा
भी
परेशान
न
हों,
आवाज़
देने
की
देर
है
वह
मय
हथियारों
के
हाज़िर
हो
जाएगा।
वह
बिना
संकोच
कहता
घूमता
था
कि
जो
हमारे
साथ
हैं
उनका
ख़तरा
हमारा
ख़तरा।
उनकी
तकलीफ़
हमारी
तकलीफ़।
उनकी
ज़रूरत
हमारी
ज़रूरत।
लेकिन
जो
साथ
नहीं,
वह
चाहे
कहीं
भी
हों,
दुश्मन
माने
जाएँगे।”7
नाटो
(North Atlantic Treaty Organization) की स्थापना के बाद अमेरिका, समूह में शामिल सभी देशों से इसी प्रकार के सैन्य एवं हथियारों के सहयोग की बात करता है। दुनिया में हथियारों का कारोबार फलता-फूलता रहे, इसके लिए लोगों में असुरक्षा का डर फैलाया जाता है। उनके मन में साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, नस्लवाद, कट्टरता, नफरत, प्रतिशोध आदि की भावना भरी जाती है। सत्ता का लालच देकर दूसरे देशों की सीमा के अतिक्रमण को उकसाया जाता है। आतंकवाद को बढ़ावा दिया जाता है। पहले ऐसे नफरती एवं नकारात्मक विचारों को फैलाया जाता है, फिर उन्हें ही ख़त्म करने के लिए शांति स्थापना के नाम पर हथियारों के बल का प्रयोग किया जाता है। विडंबना है कि ये कार्य आज हर देश, हर महाद्वीप में चल रहा है- आंतरिक एवं बाह्य दोनों ही ताकतों के माध्यम से। अमरी का छोटा बेटा कहता है- “इंसान मूलतः बुज़दिल है... मरने से डरता है... जो उसे सुरक्षा दे सके, उसके सामने दुम हिलाता है... और पीछे नष्ट करने की साजिश भी रचता है। तुम भी उन्हीं में हो...।”8
नंदकिशोर
आचार्य
लिखते
हैं-
“यदि
हम
एक
ऐसी
व्यवस्था
चाहते
हैं
जिसमें
मनुष्य
का
शोषण,
दमन
और
उत्पीड़न
सम्भव
न
हो
सके
तो
हमें
एक
ऐसी
ही
प्रौद्योगिकी
का
विकास
करना
होगा
जो
अपने
पैमाने
में
मनुष्य
से
बड़ी
न
हो,
जो
मनुष्य
का
नियंत्रण
नहीं
करे
बल्कि
स्वयं
मनुष्य
जिस
का
नियंत्रण
कर
सके
अर्थात्
जिसमें
मनुष्य
किसी
मशीन
का
पुर्जा
नहीं
बल्कि
एक
व्यक्तिवान
मनुष्य
बना
रह
सके।”9
परंतु
जैसे-जैसे
विज्ञान
रक्षा
प्रौद्योगिकी
के
क्षेत्र
में
उन्नति
कर
रहा
है,
अर्थात्
अब
ऐसे
स्वचालित
मिसाइलों,
युद्धक
विमानों,
ड्रोन्स,
टैंक,
परमाणु
हथियार
से
लैस
सबमरीन्स
आदि
का
निर्माण
हो
रहा
है,
जिसने
युद्ध
को
आसान,
भयानक
और
महँगा
भले
ही
बना
दिया
है,
परंतु
व्यक्ति
के
भीतर
इन्हें
इस्तेमाल
करने
और
इनका
संग्रह
करने
की
लालसा
बढ़ा
दी
है।
इक्कीसवीं
सदी
में
देश
उन्नत
हथियारों
को
रखना
अपनी
प्रतिष्ठा
और
शक्ति
से
जोड़कर
देखने
लगे
हैं।
अब
देश
अपनी
सीमा
के
भीतर
रहते
हुए,
दूसरे
देश
के
भीतर
हमला
करके
युद्ध
लड़
सकते
हैं।
यही
कारण
है
कि
उत्तर
कोरिया
जैसे
देश
अपने
विरोधियों
को
लगातार
युद्ध
की
धमकी
देते
रहते
हैं।
यदि
युद्ध
के
प्रमुख
कारणों
की
पड़ताल
करें,
तो
अनेक
कारण
सामने
आते
हैं,
प्रसिद्ध
दार्शनिक
कांट
के
अनुसार-“शास्त्रों
की
ताक़त,
गठबंधन
की
ताक़त,
धन
की
ताक़त,
इन
तीनों
में
धन
की
ताक़त
ही
युद्ध
का
सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण
कारण
है।”10
निस्संदेह
धन
एक
बड़ा
कारण
है।
इसके
साथ
ही
गिरिराज
किशोर
ने
इससे
भी
बड़ा
कारण
व्यक्ति
की
प्रवृत्ति,
उसके
मनोविज्ञान
को
माना
है।
अमरी
का
हथियारों
के
प्रति
अटूट
प्रेम
ही
उसे
हथियारों
के
संग्रह
और
उसके
व्यापार
की
प्रेरणा
देता
है।
यह
प्रेम
उसके
भीतर
बाल्यावस्था
में
ही
उपज
गया
था।
इसी
प्रेम
की
वजह
से
वह
अपराध
की
ओर
मुड़
गया,
जैसे-
हथियारों
को
रखने
के
लिए
ज़मीनों
पर
कब्जा,
जंगल
कटवाना,
झोपड़-पट्टियां
जलवाना
आदि।
इसी
नकारात्मक
प्रेम
की
प्रवृत्ति
के
कारण
वह
अपने
सभी
मानवीय
सम्बन्ध
ख़त्म
करता
गया।
वह
मनुष्य
और
मशीन
में,
मशीन
को
महत्त्व
देने
लगा।
आगे
चलकर
वह
अशांत
और
झुंझलाया
हुआ
रहने
लगा,
क्योंकि
उसके
अपने
बच्चे
मशीनी
मनोवृत्ति
से
बाहर
आने
की
कोशिश
करने
लगे
थे।
अशोक
वोहरा
लिखते
हैं-“विचलित
करने
वाली
इच्छाएँ,
लोभ,
कामवासना
और
दुर्वासना
शांति
की
अवधारणा
के
नकारात्मक
पक्ष
है।
कांट
इन्हें
‛आंतरिक
व्याधि’
या
‛आंतरिक
संघर्ष’
का
नाम
देते
हैं।
उनके
अनुसार
मनुष्य
की
ये
स्वाभाविक
नकारात्मक
प्रवृत्तियां
‛चिरस्थायी
शांति
की
रहने
की
सबसे
बड़ी
अड़चनें
हैं।’
इन
प्रवृत्तियों
पर
दक्षतापूर्ण
क़ाबू
पाना
ही
शांति
का
सकारात्मक
पक्ष
नहीं
है,
अपितु
उन्हें
सही
दिशा
देना
भी
उसका
भाग
है।”11
यह
इतिहास
रहा
है
कि
दुनिया
में
अनेक
बर्बर
तानाशाह
हुए,
जिन्होंने
जनता
का
शोषण
किया
एवं
दुनिया
में
आतंकवाद
फैलाने
का
काम
किया।
वहीं
इसी
दुनिया
में
महात्मा
बुद्ध
और
गांधी
जैसे
अहिंसावादी
भी
हुए।
व्यक्ति
का
मनोविज्ञान
एवं
उसकी
प्रवृत्ति
निश्चित
रूप
से
हथियारों
के
प्रति
प्रेम
का
एक
बड़ा
कारण
है,
जिसे
समय
रहते
पहचान
कर
काबू
पाने
की
आवश्यकता
होती
है।
ये
मानव
ही
है
जो
हथियार
बनाता
है
और
उसे
इस्तेमाल
करता
है,
क्योंकि
हथियार
स्वयं
नहीं
बन
जाते।
अमरी
दुनिया
का
सबसे
ख़तरनाक
हथियार
अर्थात
परमाणु
बम
बनाने
के
बाद
खुद
को
महाकाल
मानने
लगता
है।
वह
बदहवास-सा
होकर
चिल्लाता
है-
“नहीं,
मैं
सबको
नष्ट
कर
दूँगा...
मैं
महाकाल
हूँ...
इस
ब्रह्मांड
का
कण-कण
मेरी
मार
के
अंदर
है!
शक्ति
की
जिस
पीठ
पर
मैं
आसीन
हूँ
वहाँ
से
मुझे
ग्रह,
नक्षत्र,
पृथ्वी,
आकाश
सब
नश्वर
नजर
आ
रहे
हैं।
मैं
रुद्र
हूँ...
शक्ति
और
संहार
भाव
में
स्थिर
रुद्र...
मैं
सबको
उदरस्थ
कर
चुका
हूँ...
ये
सब
एक-एक
करके
मेरे
मुख
में
प्रवेश
करते
जा
रहे
हैं...।
मेरा
वज्र
इन
पर
कभी
भी
गिर
सकता
है।
हा...
हा...
हा...!”12
इसी
प्रकार
दुनिया
के
सामने
हमेशा
यह
डर
बना
रहता
है
कि
यदि
परमाणु
बम
बनाने
की
तकनीक
किन्हीं
ग़लत
हाथों
में
या
आतंकवादियों
को
मिल
गई
तो
वे
दुनिया
पर
भय,
हिंसा,
आतंक
का
कहर
बरपा
देंगे।
मनीष
शर्मा
लिखते
हैं-
“विज्ञान
मूल्य
निरपेक्ष
नहीं
है
और
उस
समय
की
राजनीतिक
व
अन्य
व्यवस्थाओं
पर
निर्भर
है।”13
वर्तमान
वैश्विक
युग
में
देश
अपने
राजनीतिक
व
आर्थिक
लाभ
के
लिए
विज्ञान
में
निवेश
करते
हैं।
एक
देश,
अन्य
देशों
से
उन्नत
हथियारों
के
निर्माण
की
होड़
करते
हैं,
जिससे
युद्ध,
विनाश,
पर्यावरण
प्रदूषण
आदि
का
भय
बना
रहता
है।
‛असलाह’
उपन्यास
में
भी
पर्यावरण
प्रदूषण
का
प्रश्न
उठाया
गया
है।
अमरी
की
प्रेमिका
चंदा
कहती
है-
“तो
तुम
मेरे
लिए
नहीं
आते?
इस
ठूँ-ठाँ
के
लिए
आते
हो?
इस
धुएँ
को
फेफड़ों
में
भरने
आते
ही
जिससे
सारा
पर्यावरण
दूषित
हो
रहा
है!
बस्ती
वाले
लिख-लिखकर
मरे
जा
रहे
हैं
कि
इस
चानमारी
मैदान
को
यहाँ
से
कहीं
और
ले
जाओ- तुम कहते हो- यह गंध आदमी की गंध से भी बेहतर है।”14 हथियारों
के
परीक्षण
और
उनके
प्रशिक्षण
से
अनेक
प्रकार
के
प्रदूषण
फैलते
हैं,
इसलिए
इसे
मानव
आबादी
से
बहुत
दूर
किया
जाना
चाहिए।
इन
सबमें
नाभिकीय
हथियार
सबसे
ख़तरनाक
है
क्योंकि
ये
जिस
स्थान
पर
विस्फोट
कराए
जाते
हैं
वहाँ
रेडियोएक्टिव
तत्त्व
फैल
जाते
हैं
जो
कैंसर
जैसी
गंभीर
बीमारी
को
जन्म
देते
हैं।
विशेषज्ञ
बताते
हैं
कि
पोखरण
में
जहाँ
भारत
का
परमाणु
परीक्षण
हुआ
था,
अब
वहाँ
कैंसर
के
मरीज
बढ़
रहे
हैं।
रेडियोएक्टिव
प्रदूषण
का
सबसे
बड़ा
ख़तरा
है
कि
वे
आँखों
से
दिखाई
नहीं
देते।
इसके
बचाव
के
विषय
में
संदीप
जी
लिखते
हैं-“नाभिकीय
दुर्घटना
से
बचने
के
लिए
पहले
तो
लोगों
को
ऐसी
दुर्घटना
के
सम्बन्ध
में
पर्याप्त
तथ्यात्मक
समझदारी
होनी
चाहिए
और
सरकारी
बचाव
व्यवस्था
में
भरोसा।
किंतु
अनुभव
यह
दिखाता
है
कि
विकसित
देशों
में
भी
लोग
चेतावनी
को
गंभीरता
से
नहीं
लेते
और
ग़रीब
देशों
में
तो
लोगों
को
नाभिकीय
दुर्घटना
के
ख़तरों
के
बारे
में
कोई
जानकारी
ही
नहीं
है।
नाभिकीय
गतिविधियों
में
जो
गोपनीयता
बरती
जाती
है
और
सरकार
द्वारा
विकिरण
के
ख़तरों
को
एकदम
मानने
से
इंकार
कर
देने
से
इसकी
संभावना
कम
ही
है
कि
लोगों
को
विकिरण
के
प्रभावों
के
विषय
में
सही
जानकारी
मिल
पाएगी।”15
दुःखद
है
कि
द्वितीय
विश्वयुद्ध
में
परमाणु
विस्फोटों
के
बाद,
परमाणु
ऊर्जा
के
स्वच्छ
ईंधन
रूप
में
दोहन
हेतु
स्थापित
संयंत्रों
में
विस्फोट
हो
गए,
जिससे
उन
स्थानों
से
लोगों
को
पलायन
करना
पड़ा।
भारत
में
यूरेनियम
की
खदानों
में
काम
करने
वाले
मज़दूरों
का
जीवन
हमेशा
असुरक्षित
रहता
है।
गिरिराज
इस
उपन्यास
में
नाभिकीय
हथियारों
को
हमेशा
के
लिए
ख़त्म
करने
की
बात
करते
हैं।
वर्तमान में रूस-यूक्रेन और इजरायल-फिलिस्तीन
के मध्य चल रहे युद्ध में सर्वाधिक पर्यावरण
को नुकसान हो रहा है। वायु, जल, भूमि, ध्वनि, प्रकाश आदि सभी कुछ दूषित हो गया है। शहर के शहर करोड़ों टन मलबे में तब्दील
हो रहे हैं। इस प्रकार नवीन रक्षा हथियारों से लड़े जा रहे युद्ध में मिसाइल,
बम, ड्रोन, युद्धक
विमानों से बम बरसाये जा रहे हैं। इसमें सैनिक, आमजन, बच्चे, बुढ़े, महिलाएँ, स्कूल, अस्पताल आदि सभी नष्ट हो रहे हैं। वैश्विक
शीर्ष संस्थाएँ युद्ध रोककर शांति बहाली का मात्र दिखावा
कर रही हैं। अमेरिका जैसे देश एक तरफ़ शांति की बात कर रहे, वहीं इजराइल को लगातार हथियार
दे रहे। उधर उत्तर कोरिया से भयभीत दक्षिण कोरिया
ने अमेरिका से हाथ मिला लिया है, संभवतः भविष्य
में ये दो देश भी युद्ध लड़ते नज़र आएँ। किसी भी युद्ध में केवल मानवता
हारती है, बच्चों
के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है, परिवार बिछड़ जाते हैं। भूखमरी,
बेरोज़गारी, बीमारियाँ
फैलती हैं। फिलिस्तीन
में मारे जा रहे बच्चों के मनोविज्ञान को इस कविता से समझ सकते हैं-
निष्कर्षतः इस उपन्यास का वृहद उद्देश्य हथियारों
के विषय में सभी दृष्टिकोणों को सामने रखना है। हथियार से डराकर या युद्ध से समस्या को कुछ हद तक, शायद ठीक किया जा सके, परंतु इससे किसी भी समस्या का पूर्णतः समाधान
संभव नहीं है। युद्ध, हारने वाले के मन में प्रतिशोध के भाव छोड़ जाता है, जो बदले के लिए अवसर की तलाश में रहता है। महात्मा
गांधी भी देश या व्यक्ति में सुधार, हृदय परिवर्तन
के माध्यम से मानते थे। उपन्यास
अंत में यह दिखाता है कि हथियार एक प्रकार के ज्ञान से अधिक कुछ नहीं है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उसका ग़लत प्रयोग
न करे। दुनिया
में शांति कायम करने के लिए संवाद एवं सांस्कृतिक
मेल-जोल को बढ़ावा देना चाहिए, ना कि हथियारों
के आयात-निर्यात
से।
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