कथेतर : अखिल की चिट्ठी / अखिल

कथेतर : अखिल की चिट्ठी

- अखिल



सुनो! 

कैसी हो तुम! 

बहुत दिनों के बाद तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ। एक दशक से भी ऊपर हो गया। वर्षों के बाद भी तुम्हारी ख़बर है मुझे। शायद तुम्हें भी होगी। पर, तुम भी कुछ नहीं बोली और न मैं ही। न तुमने कोई ख़बर की और न मैंने। पर, आपस में हमारे समाचार एक दूसरे तक पहुँच रहे थे। किसी न किसी माध्यम से। क्या यह हमारे संतोष का विषय है? सोचना? तुम कह सकती हो कि मैं क्यूँ नहीं सोचूँ इस विषय में। बात सही है तुम्हारी। यह विषय मेरा भी उतना ही, जितना तुम्हारा। खैर! 


याद है हमारा पहली बार मिलना! नज़रें मिली थी पहली बार। सकुचायी-सकुचायी-सी! झेंपी-झेंपी-सी! आँख चुराते-चुराते! कॉलेज का कॉरिडोर था। न कोई अगल-बगल में और न कोई साथ में। हम दोनों के सिवा। एकदम ख़ाली कॉरिडोर। सूना। एकदम सुनसान। ख़ाली। कोई आवाजाही नहीं। एकदम शांति। अचानक से तुम्हारा सामने आ जाना। न मैं तैयार था और न ही तुम। अच्छा, याद है ना तुम्हें! हमारी नज़रें ही मिली थी ना उस दिन। नज़रों ने आपस में नज़रों को ही देखा था। नज़रें नज़रों पर ही टिकी। देह पर नहीं। ये नज़रों की सच्चाई थी। जो आज भी पवित्रता का अहसास करवाती है। यह नयनों का नयनों से मिलन था। आँख ही आँखों के रास्ते हमारा प्यार उतरा था दिल में। मौन। चुपचाप। बिना कुछ बताए। बिना संबोधन के। 


संबोधन तो आज तक नहीं दे पाए हम! तुम भी मुझे ‘सुनो’ बोलती और मैं भी तुम्हें ‘सुनो’। ज़्यादा से ज़्यादा भावावेश में हम आपस में एक-दूसरे को ‘सुनो ना!’ बोल देते। हो गया संबोधन। तुम भी आँखों से बोलती और मैं भी। आँख ही आँखों में हमारी बातें होतीं।। सही भी है, प्यार आँखों से ही होकर दिल में उतरता है। उतरा भी। आज भी उतना ही है, जितना उस समय था। कुछ बदला है क्या?  


याद है तुम्हें! हम एक बार एक साथ मंदिर गए थे। मनोकामना का धागा बाँधा था हमने एकसाथ मिलकर। तुमने जो माँगा, तुमने नहीं बताया। मैंने जो माँगा, मैंने तुम्हें नहीं बताया, आज तक। पर, आपस में हम एक-दूसरे को पता है। कि हमने क्या माँगा। ना तुमने उसे लफ्जों में बयाँ किया और न ही मैंने। पता है मैंने उस दौरान एक बात और महसूसी थी कि तुम मेरे साथ मंदिर जाने में कम्फ़र्ट और उत्साहित होती हो। मैं वीर हनुमान जी का उपासक और तुम देवी माँ की अनन्य भक्त। तुमने मुझे नवरात्र के व्रत करने सिखाए। मैंने तुम्हें मंगलवार और शनिवार के। हम दोनों ने एक साथ नवरात्र के व्रत रखे। फिर हमने एक साथ सोमवार के व्रत भी किए। तुम सोच रही होगी कि यह सब आज मैं तुम्हें लिखकर क्यों बता रहा हूँ। नवरात्र चल रहे हैं। सच बात मन से निकलनी चाहिए। इन मंदिरों और व्रतों ने हमारे रिश्ते को मजबूती दी। पवित्रता दी। निश्छलता दी। तब से लेकर आज तक बनी भी हुई है। यह तुम भी जानती हो। 


अच्छा, एक बात और। तुम एक मौसम की तरह नहीं आई मेरी जिंदगी में। आई और चली गई, ऐसा नहीं हुआ। एक बार आई और हमेशा के लिए बनकर रह गई। सदाबहार ऋतु की तरह। बारहमासी नदी की तरह। बहती हुई नदी की धार की तरह। सघन वृक्षों के बीच बहने वाली मंद-मंद बयार की तरह। दीप के प्रकाश की तरह। साँसों की तरह। रक्त संचार की तरह। तुम मंदिर में बजने वाली घंटी और वहाँ के संगीत की धुन की तरह मेरी जिंदगी में आई। आज तक ऐसे ही बनी हो। मैं आज भी जब-जब मंदिर जाता हूँ, तुम्हें महसूसता हूँ। यह ऐसे ही नहीं हुआ। तुम्हारे संग-साथ से हुआ। तुम्हारे पवित्र प्यार से हुआ। 


तुम्हें पता है! एक बार तुमने रोडवेज की स्टार लाइन बस में बैठने का आग्रह किया। मैं टाल नहीं पाया। पर, सच यह था कि मैं इससे पहले कभी स्टार लाइन बस में बैठा ही नहीं था। और एक तुम, स्टार लाइन से नीचे की बस में बैठी ही नहीं । एक बार की बात याद है ना तुम्हें! एक बार दिल्ली से आते समय तुम रोडवेज की साधारण बस में मेरे साथ बैठ गई। मेरी गोदी में सिर रखकर सो गईं थीं तुम। अजमेर के पंडित हलवाई की दुकान पर हमने एक साथ मिठाई खाई थी। एक साथ खाना भी। एक ही थाली में। मुझे वह दिन बहुत याद आता है। उस दिन तुम्हें खूब जोरो की भूख लगी थी। एक ही थाली में खाना मँगवाया। तुमने खाना शुरू कर दिया। तुम्हारी भूख तेज। तुम्हें खाना खाते हुए उस दिन मैंने पहली बार देखा। कितना कम खाती हो तुम। यह तुम्हें देखकर कोई भी बता सकता है। पर, उस दिन मैंने पहली बार देखा। तुम्हें भिंडी और आलू की सब्जी पसंद और मुझे दाल और राजस्थानी कढ़ी-पकौड़ा की सब्जी। पर, उस दिन अंदर ही अंदर मुझे हँसी इस बात पर आ रही थी कि तुमने खाना खाने से पहले मुझसे खाना खाने को पूछा ही नहीं! पर, मैं बहुत प्रसन्न हो रहा था। 


याद है तुम्हें! एक बार दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में तुमसे मिलने जयपुर सिंधी कैम्प बस स्टैंड चला आया। लगभग 10 किलोमीटर पैदल चलकर। खबर तुमने ही दी थी। तो कैसे नहीं आता? हालाँकि तुमने ऊपर के मन से मना भी किया था आने के लिए। ठंड के कारण। हमने एक साथ चाय भी पी थी। चाय तुम्हें पसंद नहीं। पर, मेरे कारण तुम चाय भी पी लेती। तुम्हें दूध पसंद। उसके बाद तुमने ही मुझे दूध पीना सिखाया। 


पता है! न जाने कितनी अच्छी-अच्छी बातें तुमने मुझे सिखाईं। पर, मैं तुम्हें कुछ सिखा पाया? मुझे नहीं पता। तुम ही जानो। पर, मैंने तुमसे बहुत कुछ सीखा है। मैं आज भी मंदिर जाता हूँ तो मंदिर से आते समय मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर आता हूँ। खाना झूठा नहीं छोड़ता हूँ। पानी बैठकर पीता हूँ। नवरात्र के व्रत। सुंदर हस्तलेख। पर, अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं सीख पाया। तुम जो ठहरी। आज भी हो। यही सोचता हूँ कि तुम कर दोगी। तुम अंग्रेजी, मैं हिंदी! पहले मैं अंग्रेजी से बहुत डरता था। पर, अब नहीं डरता हूँ। तुम जो हो। 


पता है तुम्हें! मेरी अंग्रेजी पहले से थोड़ी अच्छी हो गई है। तुम्हारी बदौलत। क्लास में भी सभी मुझे ‘हिंदी वाला’ के नाम से ही जानते रहे। तुम किसी से मेरे बारे में पूछती या बताती तो नाम नहीं लेती। पूछती- “आज पंडित नहीं देखा।” या किसी बात पर नाराज़गी होने पर बहुत दिन हो जाते देखें हुए, तो कहतीं- “बहुत दिन हुए पंडित नहीं देखा”। बस, सुनो के अलावा यही तुम्हारा संबोधन रहा। 


सुनो! एक कविता लिखी है तुम्हारी बातों पर। पढ़ना चाहोगी? यदि पढ़ना चाहो तो चिठ्ठी लिखना। भेज दूँगा तुम्हारे लिए। मुझे पता है तुम्हें चिट्ठी और कविता पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। तुम्हारी चिट्ठी की प्रतीक्षा रहेगी! 

तुम्हारा! 

सुनो! 

अखिल!

akhilkichitthi@gmail.com




चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

3 टिप्पणियाँ

  1. हेमंत कुमारअक्तूबर 25, 2024 4:13 pm

    संज्ञाएँ जब आवृत्ति से आक्रांत हों तो सर्वनाम में बदल जाती हैं। स्नेह में,संकोच में, शर्म में, भय में भीजकर सिर्फ़ क्रियाएँ रह जाती हैं -' सुनो।' यह 'सुनो के नाम सुनो की चिट्ठी' पढ़कर यह मत और दृढ़ हुआ। चिट्ठी शुरू से आखिर तक आत्मीयता में लिपटी है। यह चालीस के आस-पास वालों को टाइम मशीन से अतीत में जाने के बाँच जानी चाहिए तो नौजवानी को वाट्सएप, इंस्ट्रा, एफबी, ट्विटर और टिकटॉक से पहले के नयन-संवादी मौन प्यार से परिचय के लिए पढ़ जानी चाहिए। चिट्ठी आकार में छोटी है एक साँस में पढ़े जाने जोग और टॉफी के लालच में हरकारे बने अबोध बालक की मुट्ठी में भिंचकर प्रेयसी की ओर तेजी से भागती है।

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  2. आपने चिठ्ठी को मनोयोग से पढ़ा! दिल से निकली हुई बात दिल तक पहुँचती है, तब ऐसा ही होता है।
    लेखनी की कृतार्थता इसी में है।
    आपकी पठनीयता को प्रणाम!

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  3. आपने नब्ज़ को पकड़ लिया। स्मृतियों के चितेरे जो ठहरे। संस्मरण लेखक कोई तुम्हें यूँ ही नहीं कहता।
    जिस तरह राजस्थान की कथेतर विधा के अंतर्गत संस्मरण विधा को आपने प्राण वायु प्रदान की है। उसी तरह आपकी मनोयोगपूर्ण टिप्पणी ने चिठ्ठी की नब्ज़ को पकड़ लिया है।
    बहुत जल्दी आपकी लेखनी बात को भाँप जाती है।
    लग रहा है, जैसे इनमें से कुछ स्मृतियों आपने जिआ है।
    आपके शब्द चयन और कहन शैली स्वयं को और दूसरों को प्रभावित करती है।
    कृतार्थ हूँ।

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