कथेतर : पिता के नाम लम्बी चिट्ठी / संध्या दुबे

कथेतर : पिता के नाम लम्बी चिट्ठी
संध्या दुबे

पूज्य पापा,

सादर प्रणाम

आप जहाँ कही भी हैं, हमें देख रहे हैं ना... ! मुझे आपसे बहुत सी बातें करनी थी, जो अनकही रह गई। विष्णु जी ने अधिकारपूर्वक कहा कि आपको पिता के लिए पत्र लिखना हैं... मैंने तुरंत सहमति दे दी। इस पत्र के माध्यम से मैं उन सभी स्मृतियों को सजीव करना चाहती हूँ जो मेरे मन के कोने में वर्षो से जमा हैं।

पापा, आपके साथ जीवन कितना सुखद था- आज जब याद कर रही हूँ तो मेरे बालमन की स्मृतियों के वे सारे चित्र एक-एक कर सामने आ रहे हैं जो आपके स्नेह से आपूरित थे। मैं नहीं भूल पाती 24 अप्रैल 1983 के उस दिन को जब आपका साथ और हाथ हमेशा-हमेशा के लिए हमसे छूट गया। विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि आप हमको छोड़कर चले गए हैं... शायद नियति को यही मंजूर था... हम आपके अंतिम दर्शन भी न कर पाए. यह कसक सालों तक बराबर सालती रही। बहुत दिनों तक यह रोष मम्मी से बना रहा कि आपने हमें क्यूं नहीं बुलाया। बहुत बाद में यह समझाया गया कि परिस्थितियाँ विकट थी। हमारी परीक्षाएँ चल रही थीं। दीदी बारहवीं कक्षा में और मैं ग्यारहवीं में थी; दोनों भाई आठवीं और दूसरी कक्षा में थे। सो, चाचाजी ने ही पापा का अंतिम संस्कार किया। पापा को शुगर की अधिकता के कारण पक्षाधात हुआ, पाँच छः दिन में ही हार्ट अटैक और... मृत्यु। पापा जोधपुर में थे, वहीं आपकी देह पंचतत्व में विलीन हो गई। आपके जाने के बाद हम सभी आसमान से धरती पर आ गए, जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। कहाँ एक तरफ सुखमय और समृद्ध जीवन शैली... और कहाँ दूसरी तरफ छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी मुश्किलात... जीवन की कड़वी सच्चाइयों से सामना करना बहुत मुश्किलों भरा था। पापा, आप इंदिरा गांधी परियोजना, सिंचाई विभाग में अच्छे पद पर कार्यरत रहे। सो हम लोग हमेशा ही बगीचों वाले खुले-खुले राजकीय आवासों में रहने में अभ्यस्त थे। आपके जाने के बाद पहली बार हमने जोधपुर में दो कमरे का छोटा घर, सीमित सामान, सीमित पैसा... देखा; मुश्किलों में पढ़ाई... सब कुछ अलग-सा और बहुत अटपटा-सा। समय बीतने पर जीवन तो बदला लेकिन बहुत दिनों तक सब सूना-सूना ही महसूस होता रहा। 

पापा के जाने के बाद सबसे बड़ी नियमित खर्च के लिए आमदनी की आई। चूँकि मम्मी  शिक्षित थी इसलिए यह तय किया गया कि अनुकंपा नौकरी के लिए प्रयास किए जाएँ... तब शुरु हुआ मम्मी के संघर्षो का दौर... लगभग छः महीनों तक जयपुर स्थित सचिवालय व अन्य विभागों के चक्कर लगाना, कभी पन्द्रह दिनों से लेकर एक महीने तक अकेले ही जाना और जूझना, नौकरी के लिए इधर से उधर चक्कर काटना... सब कुछ बहुत परेशानियों भरा था लेकिन मम्मी ने परिवार के लिए सब कुछ सहन किया। स्वयं भी हिम्मत रखती और हमें भी मुश्किल जीवन की सच्चाइयाँ बताकर हर काम सिखाती। और हर रोज की चुनौतियों के लिए तैयार करती। उस समय अगर आप होते तो ये परेशानियाँ न होती। हम सभी ने आपको बहुत याद किया। मम्मी बाहर नौकरी के लिए प्रयास करती और नानीजी हमें घरेलू कार्य सिखाती। मेरी नानीजी का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे अंग्रेजों के समय कलकत्ते में संपन्न जमींदार परिवार में जन्मी थी। उन्हें हिंदी, मारवाडी, बांग्ला, उड़िया, रूसी भाषा का ज्ञान था। उन्होंने रूसी, बांग्ला की बारहखड़ी हमें सिखाई। पाक कला का परिचय और ज्ञान भी मैंने उन्हीं से सीखा। गुज़िया, मठरी, नमकीन से लेकर सिलाई- तुरपाई उन्होंने ने सिखाई। सूती धोती को कलफ लगाना, सुखाना, अच्छी तरह समेट कर रखना, सलवटें न पड़े... ये उनकी खास हिदायतें होती थीं। नानीजी से हमने बहुत कुछ सीखा। 

पापा, आप थे तो तब मुझे कुछ आता ही कहाँ था ? केवल पढ़ाई करना, स्कूल जाना और  खेलना-कूदना। यही हमारा सुख का संसार था। मम्मी के ये कहने पर कि अपनी लाड़ली को घर के काम भी सिखाइए। तब आप कहते थे- “इसे तो मैं पढ़ा-लिखाकर बड़ी अधिकारी बनाऊंगा... और बड़ी होकर अपने-आप सब सीख जाएगी”।.... सच कहा था आपने। आपके जाने के बाद चाहे घर का काम हो, पढ़ाई हो या बाहर के काम... मैंने सब सीखा, भले ही धीरे-धीरे सीखा, कभी रोते तो कभी गाते सीखा... और कभी खूब मन लगाकर सीखा। बस जीवन में यह तय कर लिया था कि पहले पढ़ाई कर नौकरी करनी है... और नौकरी भी स्कूल की नहीं, कॉलेज की या कोई बड़ी नौकरी। आपकी लाड़ली को अफ़सर बनना था न ! सो, बी.एड. नहीं करना है, यह तय कर लिया था। और नौकरी मिली भी; एम.ए. और एम. फिल. सर्वाधिक अंक प्राप्त कर वरीयता के आधार पर घर बैठे चाँदी की तश्तरी में बड़ी नौकरी मिली। महाविद्यालयी शिक्षा में नियुक्ति मिली। लम्बे संघर्ष के बाद जीवन फिर से व्यवस्थित हुआ। पढ़ाई के दौरान ख़ूब मेहनत करते हुए; उसी के परिणाम स्वरुप नौकरी प्राप्त करते हुए... आप याद आए, हर बार बहुत याद आए। मन बार-बार कहता रहा आज आप होते तो अपनी लाडो को अफ़सर बनते देख कितना खुश होते। आपकी उपस्थिति को मैंने हर समय महसूस किया पापा। आपके साथ बिताए हुए ज़िंदगी के पन्द्रह-सोलह साल महत्वपूर्ण बन पड़े हैं। बालपन की वे स्मृतियाँ, आपके विचारों की छाप आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। जीवन की शिक्षा, अनुभव, आपकी कार्यशैली, व्यवहार जो कुछ ग्रहण किया, उसमें आपकी छवि प्रतिबिम्बित होती है। मैंने आप में पिता के प्यार को, आत्मीयता को, कर्मठता को, अनुशासित जीवन को उपर से कठोर दिखने वाले किंतु भीतर से नर्म दिल व्यवहार को देखा, निकट से छुआ और महसूस किया है। 

आपके व्यक्तित्व की अच्छाइयाँ, कमजोरियाँ बहुत व्यक्तिगत हैं, जिसमें मुझे संघर्ष करता हुआ एक जीवटता भरा मनुष्य दिखाई देता है। हर पिता अपने घर के दायित्वों को वहन करते ही हैं लेकिन विरले वे होते हैं वे पिता जो अपने बच्चों के लक्ष्य निर्धारित करते हुए समय के संघर्ष की सीख देते हुए कर्म के प्रति प्रेरित करते हैं, जीवन की शिक्षा देते हैं ताकि विपरीत परिस्थितियों में बच्चा सीख सके । ऐसी मुश्किल हालातों में आपकी तस्वीर हमेशा मेरे जेहन में बसी रही और आपके सपनों को पूरा करने के लिए मैंने आपके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने का प्रयास किया। 

मेरे पापा सरकारी नौकरी के प्रति गहरी निष्ठा और कर्मठता से कार्य करते थे। घर में एक कमरा उनके ऑफिस का निर्धारित होता था। ऑफिस के बाद घर पर ऑफिस हमेशा बना रहता था। उनके कमरे से बड़ी व्यवस्थित टेबल- जिस पर लाल, नीले, काले पैन का होल्डर पेपर वेट, डायरी कैलेंडर हमेशा होला था। रैक में लाल बस्तें में फाइलें करीने से लगी रहती थी। प्रतिदिन डायरी लिखना उनका आवश्यक कार्य होता था। टूर पर जाने के लिए टाइम टेबिल का होता था। उनकी अंग्रेजी व हिंदी दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। लिखावट बहुत सुंदर थी। वो गुण मुझ में भी थोड़ा आया है। वर्ल्ड बैंककी टीम आने पर वे किसी को अवकाश स्वीकृत नहीं करते थे। अति-आवश्यक कार्य होने पर उनके अधीनस्थ कर्मचारी मम्मी के पास आवेदन लेकर आया करते थे, तब कहीं जाकर उन्हें छुट्टी मिल पाती थी। अभिप्राय यह कि वे अपने सरकारी कार्य को गंभीरता से समर्पित होकर संपादित किया करते थे।

, आपके व्यक्तित्व में नैतिकता, ईमानदारी, निर्भीकता के गुण हमारी पीढ़ी तक आते आते अलग ही अर्थ में प्रयुक्त होते दीखते हैं। मेरे पिता सरल, सादा, बिना प्रदर्शन के सीमित संसाधनों में जीवन जीने के अभ्यासी थे। उनके बराबर के कह के लोगों के पास बंगले, जमीनें अथाह पैसा था। उन्होंने किसी की बराबरी नहीं की। वे ये सीख देते थे कि अपने से उपर के लोगों की ओर देखोगे तो कभी संतुष्ट नहीं हो पाओगे, हमेशा तनाव और दुख ही मिलेगा। उनकी यह सीख उस समय, परिस्थिति के अनुरूप तो सही थी पर लगता है आज उनके संदर्भ बदल गये हैं। उन्हें कई बार प्रलोभन दिए गए कि साहब मुफ़्त में चाहे जितनी जमीन ले लीजिए, यहीं रह जाइए। क्या करेंगे अपने देस (गोरखपुर) जाकर। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे यहाँ रहना ही नहीं है तो मुफ्त में भी कुछ भी क्यूँ लेना? ऐसा नैतिकतापूर्ण और सादगी भरा जीवन उन्होंने जीया। मेरे पिता बहुत मितव्ययी थे। फिजूल पैसे खर्चने में उनका विश्वास न था। हमारे खाने-पीने कपड़ो का पूरा ध्यान रखते थे। बचत में उनका विश्वास था, घर गृहस्थी पर कब खर्चे की नौबत आ जाए, इसका पूरा ध्यान वे रखते।

मेरे पिता धार्मिक विचारों के थे किंतु बाह्य आडम्बरों में उनका कतई विश्वास नहीं था। वे प्रात:काल व्यायाम के पश्चात् स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा-पाठ किया करते थे। जनेऊ धारण किया करते थे। लेकिन बाहर जाने पर वे जनेऊ खूँटी पर टाँग कर जाया करते थे। उनकी डायरी में सूरके पद बहुत प्राप्त होते हैं। जन्माष्टमी उनका प्रिय त्योहार था। उस दिन वे हमें भी बाजार और मन्दिर दर्शन के लिए ले जाते थे। साइकिल की आगे की डण्डे पर भाई और पीछे में बैठती थी। फल-फूल और सूखे मेवों से भरा थैला लेकर लौटते थे। दोपहर से कान्हा जी का श्रृंगार, झूला सजाना, हम बड़ी प्रसन्नता से सारी तैयारियाँ करते और आप गुनगुनाते-

सबसे ऊंची प्रेम सगाई,
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

दुर्योधन के मेवा त्याग्यो,
साग विदुर घर खाई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

जूठे फल शबरी के खाये,
बहु विधि स्वाद बताई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

राजसूय यज्ञ युधिष्ठिर कीन्हा,
तामे जूठ उठाई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

प्रेम के बस पारथ रथ हांक्यो,
भूल गये ठकुराई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

ऐसी प्रीत बढ़ी वृन्दावन,
गोपियन नाच नचाई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

प्रेम के बस नृप सेवा कीन्हीं,
आप बने हरि नाई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।

सूर क्रूर एहि लायक नाहीं,
केहि लगो करहुं बड़ाई ।
सबसे ऊंची प्रेम सगाई । 


पापा, आज भी हम उसी तरह आपके कान्हा का जन्मदिन मनाते हैं।

आपके साथ बचपन की बहुत-सी स्मतियाँ जुड़ी हैं। हर दो साल में तबादला होने के कारण सबसे पहले आप मेरा प्रवेश स्कूल में करवा दिया करते थे और मुझे अपने साथ रखते थे। स्कूल के टिफिन तैयार करना, चोटी बनाना, तैयार करना ये सारे काम आप किया करते थे, उन सब में जो सुकून, स्नेह और पिता का प्यार मैंने देखा वह अमूल्य निधि हैं। हर माता-पिता, खाने-पीने को लेकर अलग बच्चों ही लाड़-दुलार रखते है। बच्चों को खिलाकर ही अभिभावक तृप्त होते है। मेरे पापा जब भी बीकानेर टूर पर जाते तो उस समय वहाँ की मशहूर दुकान ‘छोटू मोटू’ से रसगुल्ले ले कर आते। हम बच्चों को खिलाकर ही तृप्त होते जाते हैं....भरी नींद से हमें जगाकर रसगुल्ले खिला कर फिर से सुला देते, फिर सुबह उठकर हमारे हालचाल पूछते ।

पापा, आपके जाने के बाद मम्मी के संघर्ष को हमने बहुत निकट से देखा है। उन्होंने हमें बड़ा करने में, पढ़ाई, देखभाल में अपने आप को खपा दिया। नौकरी के साथ घर की जिम्मेदारियों का निर्वहन करने से वे सदैव तत्पर रहती। उन पर दोहरा भार आ गया था, दोनों ही भूमिकाओं में वे सशक्त होकर खड़ी रही। हम चारों बहन-भाइयों के निर्माण में उनकी महती भूमिका हैं, उन्हीं के सुदृढ़ प्रयासों से हम सभी अपने-अपने क्षेत्रों मे सफल हुए और आपके स्वप्नों को साकार करने का प्रयास किया। मम्मी की अथक मेहनत और तपस्या के आगे हम नतमस्तक हैं। संघर्ष की इन स्थितियों में मम्मी ने आपके अभाव में जो अकेलापन सहा हैं, मन की व्यथा को मन में छुपाये रखकर उपर से मजबूत बनकर परिवार की धुरी बनकर जो कुछ उन्होंने सहा हैं, ऐसे में आप हमेशा बहुत याद आये हैं। आपकी दी हुई शिक्षाओं और आपके आशीर्वाद से हम अपने सुखी और समृद्ध जीवन यापन कर रहे है। आपसे बिछुडे़ लगभग इकतालीस बरस हो गए हैं... आपकी स्मृतियाँ समय के साथ कभी धुंधली भले हो गई हो लेकिन विस्मृत नहीं हुई हैं। आपने अपने जिन सिद्धान्तों से हमें गढ़ा ..... हमें जो आकार दिया। वह हमारे जीवन की थाती है, वह थाती आजीवन हमारे साथ रहेगी।

पापा, मैं आपसे बातें करना चाहती हूँ। जानना चाहती हूँ आप कहाँ हैं, कैसे हैं? कभी आप मुझे दीखते भी हैं और फिर अचानक अदृश्य हो जाते हैं।... फिर सोचती हूँ कि आप कहीं गए नहीं हैं बल्कि मुझमें ही तो शामिल हैं। अपनी लाड़ली की मुस्कान में ही तो बसे हैं आप। जैसे प्यारा कवि गीत चतुर्वेदी कहता है- “ईश्वर हमारे चेहरे पर रहता है, एक चौड़ी मुस्कान बनकर” या जैसे वह पागल लड़की बाबुषा कहती है- “मेरी उनींदी काया में छुपके रहते हैं ऐसे कि जैसे ‘ऑनेस्टी’ में बेईमानी से ‘एच’ रहता है।... पापा, आपकी स्मृतियाँ, हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी, ऐसी कामना है। 

इस पत्र में इतना ही... शेष फिर कभी।  


आपकी लाड़ली बेटी

संध्या


 संध्या दुबे
प्रोफेसर, हिंदी साहित्य, सिरोही(राजस्थान)
9414152778

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

2 टिप्पणियाँ

  1. हेमंत कुमारअक्तूबर 27, 2024 8:03 pm

    करुणा में भीगी पाती! पिता का साया जब अचानक सिर से उठ जाए तो खुद को और जिंदगी को संभालना-समेटना दूभर हो जाता है। ऐसे में माँ पिता में बदल जाती हैं। कई बार बच्चे भी कतरों-कतरों में पिता होने लगते हैं। पत्र कई जगह आत्मकथा हो फिर पाती में परिणत हुआ है। मर्मस्पर्शी लेखन के लिए बधाई संध्या जी!

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  2. माता पिता गाहे बगाहे हम में वो पिरो देते हैं जो वो पिरोना चाहते हैं।वो हम में ही कहीं जिंदा रहते है हमेशा।हमारा अचेतन उनकी अच्छी और बुरी लगने वाली किस बात को हमारे व्यक्तित्व में जोड़ देगा, ये हम भी नहीं जानते।पिया के प्रेम में पगी बिटिया की पाती।

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