- विकास कुमार यादव
शोध सार : हिंदी में चल रहे विमर्शों में दलित विमर्श आज एक महत्त्वपूर्ण स्थिति में है, जिसकी नींव दलित अस्मिता आंदोलन पर आधारित है, जिसके नायक डॉ. भीमराव अंबेडकर हैं। आज दलित साहित्य इस मकाम पर पहुँच चुका है कि उससे सहमत या असहमत तो हुआ जा सकता है किंतु उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इस विमर्श की कुछ सीमाएँ भी हैं लेकिन यह भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मानवाधिकारों पर आधारित समाज की स्थापना के लिए एक रोशनी देने का काम कर रहा है। दलित लेखन का प्रमुख उद्देश्य दलितों की हीनता ग्रंथि को समाप्त करना और उनकी अस्मिता को स्थापित करना है। यह लेखन कला के लिए नहीं बल्कि समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे की गहरी भावना को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित है।
बीज शब्द : अस्मिता, आधुनिकता, अंतर्विरोध, जाति, धर्म, समानता, बंधुता, राष्ट्रवाद, भूमंडलीकरण, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, बाज़ारवाद, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापन।
मूल आलेख : दलित विमर्श का साहित्य और समाज के सकारात्मक निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसने जाति के प्रश्न को आज इस देश में इस तरह से खड़ा किया है कि उससे कोई नज़र चुरा के बच नहीं सकता है। प्रो. वीर भारत तलवार ने भी कहा है कि ‘‘आज यह हमारे देश में देशज आधुनिकता की कसौटी बन चुका है। मॉडर्न आदमी, आधुनिक व्यक्ति कौन है, कल तक हमारे पास इसकी कोई कसौटी नहीं थी, हम पश्चिम की मुताबिक ढलने को ही मॉडेरेनिटी समझते थे। लेकिन आज इस देश में एक कसौटी है हमारे पास कि जाति प्रथा में विश्वास करते हुए कोई आधुनिक नहीं हो सकता। आप चाहें बाकी कितनी बातें करें, बहुत महीन काटते रहिए, लेकिन अगर आप जाति में विश्वास करते हैं तो आपका सारा पिछड़ापन, आपकी सारी जहालत सामने आ जाएगी।’’[1] इसका श्रेय डॉ. अंबेडकर को जाता है क्योंकि पहली बार उन्होंने जाति के प्रश्न को तार्किक ढंग से देश की राजनीति के केंद्र में पहुँचाया था। हालाँकि इस प्रश्न को सबसे पहले बुद्ध ने संबोधित करते हुए कहा था कि ‘‘किसी आदमी के ‘जन्म’ से नहीं, बल्कि उसके ‘कर्म’ से ही उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए।’’[2] इसके बाद इस प्रश्न को क्रमशः अश्वघोष, मध्यकालीन संत कवियों ने भी संबोधित किया। संत शिरोमणि रविदास जाति-प्रथा को अमानवीय बताते हुए कहते हैं कि- ‘‘जाति-जाति में जाति है, जो केलन के पात। रैदास मानुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।’’[3] इसके बाद फुले, पेरियार से होती हुई यह विचारधारा अंबेडकर के यहाँ आकर एक शास्त्र का रूप प्राप्त कर लेती है।
दलित लेखन की एक और महत्त्वपूर्ण भूमिका धर्म की आलोचना है। इसका भी श्रेय डॉ. अंबेडकर को जाता है। ऐसे देश में, जहाँ धर्म की आलोचना को नास्तिकता समझा जाता है और इसके लिए सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है वहाँ डॉ. अंबेडकर ने निर्भीकता से धर्म की आलोचना की। उन्होंने जाति व्यवस्था को सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया। उनका मानना था जाति हिंदू धर्म की साँस है।
यदि इसे समाप्त कर दिया जाए तो समाज को समतामूलक बनाया जा सकता है। जाति व्यवस्था समाज में समानता, सामूहिकता और सहभागिता की भावना को जन्म ही नहीं लेने देती है। इसलिए, इसे समाप्त करके ही हम एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। अतः दलित साहित्य का गहरा
संबंध अंबेडकर दर्शन से है।
दलित लेखन की एक
अन्य
महत्त्वपूर्ण भूमिका हिंदी आलोचना की पद्धति पर प्रश्न चिह्न लगाना है। इसने साहित्यकारों की परंपरागत भूमिकाओं को चुनौती दी है। विशेष रूप से कबीर, तुलसी, प्रेमचंद और निराला जैसे लेखकों की हिंदी साहित्य में स्थापित जगहों पर प्रभावी ढंग से सवाल उठाए हैं, जिससे हिंदी आलोचना में एक हलचल मच गई है। इसके अलावा, इस लेखन ने कई ऐसे प्रश्न उठाए
हैं
जो वास्तव में हिंदी साहित्य को 'सत्यं शिवं सुंदरम्' की दिशा में अग्रसारित करने का कार्य कर रहे
हैं।
दलित लेखन की प्रभावशाली भूमिका को इसके व्यापक पाठक वर्ग से भी समझा जा सकता है। आज इसकी किताबें बाज़ार में आते ही ताबड़तोड़ बिक जाती हैं। यही कारण है कि बड़े प्रकाशक भी इन्हें छापने के लिए तत्पर रहते हैं। इस लेखन ने हिंदी साहित्य और हिंदी समुदाय का बड़ा उद्धार किया है। साहित्य का उद्धार इस संदर्भ में भी है कि इसका अनुवाद अनेक भाषाओं में हो रहा है। परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य के क्षितिज का
भी
विस्तार हो रहा है। इस प्रकार, सही मायने में इस लेखन से हिंदी का राष्ट्रीयकरण हो रहा है। अतः डॉ.
रामचंद्र ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘हिंदी के प्रचार में लगे ढेर सारे सत्ता प्रतिष्ठान, संस्थान और विभाग इतने लंबे अरसे से जो काम नहीं कर सके; वह काम दलित साहित्य कर रहा है। फिर भी हिंदी
के
तमाम
आलोचकों को दलित साहित्य महत्त्वहीन, कलाविहीन और अप्रासंगिक क्यों लगता है?’’[4]
आज
दलित
लेखन
की
सृजनात्मकता के कारण हिंदी साहित्य की धारा उच्च और मध्य वर्ग की सीमाओं को पार करके व्यापक जनजीवन की बोलचाल से जुड़ गई है, जिससे
यह
अधिक
जीवंत
और
प्राणवान बन गई है। हिंदी जाति या समुदाय का उद्धार इस दृष्टि से
कि
इसने
उस
समाज
के
शोषण
को
साहित्य में उतारा है जो अब
तक
तथाकथित इतिहास से अदृश्य था। यानी, हिंदुस्तान में आलोचकों और इतिहासकारों को साहित्य और जाति के प्रश्नों के संदर्भ में जो कार्य करना चाहिए था और जिनसे
वे
चूक
गए, वह कार्य
अब
दलित
साहित्य पूरा कर रहा है।
इतनी
सारी
भूमिकाओं से अलंकृत दलित साहित्य में कुछ बुनियादी अंतर्विरोध और सीमाएँ भी मौजूद हैं, जिन
पर
चर्चा
करना
आवश्यक है। उदाहरण के लिए, डॉ.
रामचंद्र का मानना है कि ‘‘असमानता, अन्याय, ऊँच-नीच,
अस्पृश्यता तथा उत्पीड़न की शिकार वे सभी जातियाँ जो हिंदू व्यवस्था के अंदर चिह्नित की गयी
हैं,
के वर्ग
समूह
को
आज
दलित
वर्ग
के
रूप
में
पहचान
मिली
है।’’[5]
यह
एक
सामान्यीकरण की परिभाषा है क्योंकि सभी
वंचित,
उत्पीड़ित समुदाय को शामिल कर लिया गया है, जैसे कि
दलित,
पिछड़ा, स्त्री और
आदिवासी आदि। इस सामान्यीकरण के अपने ख़तरे भी होते हैं। इस संदर्भ में वीर भारत तलवार ने ठीक ही कहा है कि ‘‘असल
में
इस
तरह
के
सवाल
राजनीतिक तकाजों से पैदा
होते
हैं।
उक्त
समुदायों को समान रूप से दलित मानकर उनका एक संयुक्त मोर्चा बनाने का ख़्याल मंडल विरोधी आंदोलन और रामजन्म भूमि के दौर में उभरा था पर इन
समुदायों की समस्याएँ अलग-अलग
हैं।
इनके
बीच
आपस
में
अंतर्विरोध भी हैं पर दुश्मन, खासकर
राजनीतिक दुश्मन एक होने के कारण इन चारों को एक करने की कोशिश की जाती है।’’[6]
यह
एकता
ज़रूरी भी है क्योंकि ‘‘सिर्फ़
अपनी
मुक्ति की सोच से (दूसरे)
उत्पीड़ित समाजों-समुदायों की
मुक्ति नहीं हो सकती’’[7]।
यह
ज़रूरी
भी
है
क्योंकि ‘‘किसी
भी
उत्पीड़ित समुदाय की मुक्ति के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है कि दूसरे उत्पीड़ित समाजों की मुक्ति के बारे में वो क्या सोचता है? कोई
भी
उत्पीड़ित समाज अगर सिर्फ़ अपनी मुक्ति के बारे में सोचता है, वो कभी
मुक्त
नहीं
हो
सकता,
जब
तक
कि
वो
दूसरे
उत्पीड़ित समाजों की मुक्ति के बारे में भी न सोचे, उनके प्रति
एक
सही
रवैया
न
रखे,
उनके
साथ
मिलकर
चलने
को
तैयार
न
हो’’[8]।
यह संदर्भ इसलिए बताना आवश्यक है क्योंकि इन समुदायों के बीच अंतर्विरोध वास्तव में देखने को मिलता है; जो व्यावहारिक स्तर पर एकता की कमी का कारण बनता है। उदाहरण के लिए, दलित समाज हिंदू समाज से जुड़ा हुआ है, जबकि आदिवासी समाज का इससे कोई सीधा नाता नहीं है। दलितों का मुद्दा जाति व्यवस्था से गहराई से जुड़ा है जबकि आदिवासियों में जाति प्रथा का अस्तित्व ही नहीं है। आदिवासी अपनी जमीन की रक्षा केवल आर्थिक कारणों से नहीं बल्कि अपनी मातृभाषा, धर्म और संस्कृति को बनाए रखने के लिए करते हैं, जो उनकी पहचान का हिस्सा हैं। इन्हीं से उनकी पहचान बनी है। अतः आदिवासी विमर्श अपनी पहचान को बचाने का विमर्श है। आदिवासियों की सबसे बड़ी चिंता अपनी भाषा और संस्कृति का है जो दलितों के यहाँ गौण है। अतः कहा जा सकता है कि जो आदिवासी हैं वो आदिवासी के रूप में अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि दलित, दलित के रूप में अपने अस्तित्व को ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। आदिवासी अपनी उसी पुरानी परंपरा (समानता, सामूहिकता और सहभागिता) के साथ जीना चाहता है जबकि दलित अपनी पुरानी परंपरा (जाति व्यवस्था) को ख़त्म करना चाहता है। यह स्थिति इसलिए है क्योंकि हिंदू धर्म की नींव ही वर्ण और जाति व्यवस्था पर आधारित है तो इसकी इमारत में कहाँ से समानता, सामूहिकता और सहभागिता की हवा आ पाएगी? डॉ. अंबेडकर ने भी जाति व्यवस्था की तुलना एक चार मंजिला इमारत से की है, जिसमें न कोई दरवाज़ा है, न खिड़की। जिस मंजिल पर व्यक्ति होता है, उसका जीवन वहीं रुक जाता है। उन्होंने 'इंटर-कास्ट मैरिज' को इस व्यवस्था के टूटने का एक उपाय माना क्योंकि अपनी ही जाति में विवाह करने से ही यह व्यवस्था मज़बूत होती है।आज इक्का-दुक्का(छिटपुट) इंटर-कास्ट शादी-विवाह भी हो रहें है लेकिन जाति नहीं जा रही है क्योंकि लोग इसे ईश्वरीय देन मानते हैं। यानी ईश्वर ने इसे बनाया है; और जब तक लोग इसे ईश्वरीय देन मानते रहेंगे तब तक जाति व्यवस्था नहीं टूटने वाली है। अतः संत शिरोमणि रविदास ने बहुत सही कहा है-
दलित
और
स्त्री विमर्श के बीच भी अंतर्विरोध स्पष्ट है। दलित विमर्श में घर की महिलाओं के प्रति जो नकारात्मकता है, जिसे दलित साहित्यकार पूरी तरह से स्वीकार नहीं करते लेकिन उसके साथ वे सहज भी नहीं हैं। यही कारण है कि दलित स्त्री विमर्श का उदय हुआ। दरअसल, हिंदुस्तान में मार्क्सवादियों द्वारा जाति के संदर्भ में की गई भूल के समान ही, हिंदी के दलित लेखक अपनी घर की स्त्रियों को लेकर एक तरह की उपेक्षा कर रहे हैं, जिससे दलित स्त्री विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई।
प्रसिद्ध दलित कवयित्री सुशीला टाकभौरे का काव्य-संग्रह 'तुमने मुझे कब पहचाना?' उनके दलित चेतना से कहीं अधिक उनकी स्त्री चेतना को उजागर करता है। इस संग्रह में वह एक दलित की हैसियत से नहीं बल्कि एक स्त्री की हैसियत से खुद को पहचानती हैं और इस पहचान को न पहचानने के लिए या इस पहचान को कुचलने के लिए वो जिन पुरुषों को कटघरे में खड़ा करती हैं, उनमें दलित पुरुष भी हैं बल्कि वे ही हैं। हालाँकि, अब यह दूरी कम हो रही है। इसके सत्यापन के लिए लीलाधर मंडलोई की कविताओं को देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी माँ, पत्नी और पुत्री पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। अतः मंडलोई जी एक तरह से अपने घर की स्त्रियों की सकारात्मक उपस्थिति को अपने काव्य में दर्ज कर इस कमी को दूर करते हैं और इनकी काव्य-दृष्टि भी यही है कि ‘‘मेरे लिखे में/ अगर दुक्ख नहीं/ और सबका नहीं/ मेरे लिखे को आग लगे।’’[11] वे अपने माँ के जीवन-संघर्ष और वात्सल्य प्रेम पर लिखते हुए कहते हैं-
इस
कविता
का
एक
अर्थ
माँ
के
संघर्ष और प्रेम से तो है लेकिन साथ ही एक दूसरा गहरा अर्थ भी है। वह यह कि दोपहर का भोजन की सिद्धेश्वरी की तरह एक माँ अपना पेट
काटकर
अपने
बच्चों का पालन-पोषण तो
करती
है
लेकिन
उसको
इस
संघर्ष, प्रेम और
बलिदान का सिला चीफ़ की दावत के मिस्टर शामनाथ की माँ जैसा मिलता
है।
किंतु,
मंडलोई जी अपनी माँ
के
संघर्ष और प्यार को दर्ज़ कर इस कमी को दूर करते हैं।
इनके
यहाँ
‘नारी
की
झांई
परत,
अंधा
होत
भुजंग’
जैसी
स्थिति भी नहीं
है।
लीलाधर मंडलोई को
महान शख़्सियत बनाने में उनकी पत्नी की भी
महत्त्वपूर्ण भूमिका है- ‘‘तपते पठारों पर/ दौड़ते-दौड़ते लगभग धरती की गोद में था जब/ एक स्त्री ने बचाया मुझे।’’[13]
इसलिए
वे
अपनी
पत्नी
को
बड़े
प्रेम
से
याद
करते
हैं।
वह
अपनी
पत्नी
से
यह
नहीं
कहते
हैं
कि
‘मुझसे पहली-सी
मुहब्बत मेरे महबूब न माँग’ और न
ही
यह
कहते
हैं
कि
‘इश्क ने
ग़ालिब निकम्मा कर दिया’। इसके
बरक्स
उनके
महबूब
का
प्यार
तो
उन्हें इंसान बना रहा है, उन्हें त्रिलोचन की तरह ‘जगत
जीवन
का
प्रेमी बना रहा है’ क्योंकि ‘‘बीमार होना
किसी
कमौआ
का/ अदृश्य भय से घेर लेता है घर को/ बीमारी हो
अगर
लाइलाज/ लोग-बाग
सोचने
लगते
हैं/ हिस्से-बँटवारे की
बात’’[14]
लेकिन
‘‘एक औरत
हारती
नहीं
भरोसा/ अंतिम
वस्तु/ गिरवी
रखी
जाने
के
बाद
भी/ पल्लू
में
बाँध
के/ चुपके
से
दो-एक
गाँठ/ बाँध
लेती
है
मृत्यु का भय।’’[15]
दलित
और
पिछड़ों के बीच भी एक स्पष्ट अंतर्विरोध है, जिसे फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास "मैला आँचल" में देखा जा सकता है। इसमें वर्णित है कि ‘यादव
समाज
राजनीतिक लाभ के लिए दलितों के साथ मिलकर चलता है लेकिन जब
भूमि
सुधार
का
मुद्दा उठता है तो वे
सवर्ण
समुदाय के साथ मिलकर दलितों के
खिलाफ
हो
जाते
हैं’।
इसी
प्रकार कई दलित नेता जो अस्मिता की राजनीति करते हैं, अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए उन शक्तियों के साथ गठजोड़ कर लेते हैं जिनका विरोध करते हुए उनकी पहचान बनी थी। उदाहरण के लिए,‘‘कांशीराम-मायावती ‘भाजपा’
के
सहयोग
से
मुलायम सिंह से अलग होकर सरकार बनाते हैं।... यह बड़ी
अजीब
बात
है
कि
एक
ओर
तो
ये
लोग
सवर्णवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हैं और वही सवर्णवाद जब अपने पूर्ण संयुक्तवादी रूप में दिखाई पड़ता है तो उससे सहयोग लेने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता।’’[16]
बहुत
सारे
दलित
राजनीतिक और साहित्यिक रोटी सेंकने के लिए ‘ओबीसी’ को
विभीषण कहते हैं जबकि अंबेडकर ने ‘ओबीसी’
(छत्रपति शाहूजी महाराज, सर सैयाजी राव गायकवाड, महात्मा ज्योतिबा फुले और विद्या की देवी सावित्रीबाई फुले आदि) के सहयोग
और
प्रेरणा से ही समतावादी आंदोलन को आगे बढ़ाने का कार्य किया था।
लेकिन हाल के समय में, ये समाज एकता का अहसास करने लगे हैं क्योंकि एक-दूसरे के सहयोग और प्रेरणा के बिना उनका विकास संभव नहीं है। अब उन्हें समझ में आ गया है कि एक-दूसरे के साथ मिलकर ही उनका भविष्य सुरक्षित है। इस तथ्य के सत्यापन के लिए राजनीतिक पटल पर वर्ष 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद ‘सपा’ और ‘बसपा’ के बीच आगामी चुनावों में सियासी समीकरण के लिए गठबंधन की सुगबुगाहट को देखा जा सकता है। साहित्यिक स्तर पर कवि लीलाधर मंडलोई के काव्य को देखा जा सकता है, जिसके कारण ही डॉ. वी. जी. गोपालकृष्णन ने इनकी कविता को ‘वामपंथी विकल्प की तलाश’ कहा है। वे विभिन्न खेमों में बंटी हुई लड़ाई के बजाय, एकजुट संघर्ष को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि असली शक्ति एकता में निहित है-
दलित
साहित्य की एक सीमा यह है कि उसके साहित्यकार अन्य सारी विधाओं में लेखन कर रहे हैं। जबकि आलोचना के क्षेत्र में न के बराबर। जिसके लिए फिर वे उन द्विज आलोचकों को ही ताकते हैं जिनका वे विरोध करते हैं। दलित साहित्य की दूसरी एक बड़ी सीमा है कि वह देश के अन्य
उबलते
प्रश्नों पर चुप है; जैसे कि
भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापन आदि। आज
ज्ञान
के
समस्त
अनुशासनों की प्रमुख चिंता है पृथ्वी के परितंत्र को बचाना अन्यथा मानवीय ज्ञान-विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ धरी-की-धरी
रह
जाएँगी। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापन आज ऐसे मुद्दे हैं जो दुनिया की कूटनीति को बदल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से संबंधित संगठन एवं सम्मेलनों जैसे कि [अंतरराष्ट्रीय
स्तर
पर
स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र कांफ्रेंस, पर्यावरण एवं
विकास
पर
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, यू.एन.एफ.सी.सी.सी.
एवं
इसकी
कार्यविधि- {क्योटो प्रोटोकॉल (कार्बन क्रेडिट, कार्बन ट्रेडिट), बाली सम्मेलन, कॉकनुन सम्मेलन, कोपेनहेगन सम्मेलन, डरबन सम्मेलन, दोहा सम्मेलन, वारसा सम्मेलन, लीमा सम्मेलन, पेरिस सम्मेलन, माराकेश सम्मेलन}, रेड(REDD) एवं रेड+ (REDD+), GEF (ग्लोबल इनवायरनमेंट फैसिलिटी) और GCF (ग्रीन
क्लाइमेट चेन्ज़) एवं भारत
द्वारा जलवायु परिवर्तन पर घरेलू कार्य जैसे कि भारत का आइएडीसी(INDC), कार्बन फुटप्रिंट, हरित लेखांकन, ग्रीन इकोनॉमी, ग्रीन वित्त,
अर्थ
ऑवर,
क्लाइमेट फिक्शन और कार्बन स्पेश] से इस
बात
का
सत्यापन हो जाता है। इसके साथ ही ‘‘दलित
विमर्श में जो जाति का प्रश्न है, उसका दलित
के
जीवन
के
आर्थिक प्रश्न से क्या संबंध है ? जाति के
प्रश्न का वर्ग के प्रश्न से क्या संबंध है ?’’[18]
जिसको
नामवर
सिंह
इस
प्रकार कहते हैं कि ‘दलित
वर्ग’
और
‘मज़दूर वर्ग’
में
कोई
सम्बन्ध है कि नहीं?[19] अभी दलित
विमर्श में इसको खुलकर एक स्थापित तथ्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा है। हिंदुस्तान में जो भूल मार्क्सवादियों ने जाति के संदर्भ में की
वही
भूल
वर्ग
को
लेकर
दलित
विमर्श कर रहा है। हालांकि, सामाजिक बेइज़्ज़ती मूल समस्या है लेकिन एक गरीब दलित की दोहरी बेइज़्ज़ती होती है
क्योंकि उसके पास कुछ नहीं है। एक दलित की सामाजिक बेइज़्ज़ती जो
होती
है
उसके
आर्थिक स्रोत भी होते हैं। अतः हिंदुस्तान में सामाजिक परिवर्तन तथा
समतामूलक समाज की
स्थापना के लिए मार्क्स और अंबेडकर दोनों के विचारों को एक साथ लेकर चलना होगा। जब मार्क्स हेगल के
तथा
अंबेडकर बुद्ध के विचारों को अपने दर्शन के विकास के लिए ले सकते हैं तो दलित साहित्यकारों को मार्क्स के दर्शन को लेने में क्या संकोच है? इसी तरह
सहानुभूति और स्वानुभूति के दायरे को दरकिनार करते हुए एक ऑब्जेक्टिव क्राइटेरिया बनना
चाहिए,
जिसके
केंद्र में अंबेडकर की वैचारिकी होनी चाहिए। जैसे कि अंबेडकर ने स्त्रियों के लिए बहुत कुछ किया है। अतः
यदि
किसी
साहित्यकार का साहित्य स्त्री विरोधी हो तो उसे दलित साहित्य न कहा जाए, चाहे वह
साहित्यकार दलित ही
क्यों
न
हो।
इस
तरह
जाति
को
आधार
बनाकर
साहित्य को न बाँटा जाए बल्कि प्रामाणिक अभिव्यक्ति को प्रमाण माना जाए। वैसे भी
साहित्य परकाया प्रवेश की साधना
है।
अतः
यदि
कोई
ब्राह्मण भी दलित साहित्य लिखता है और उसकी अभिव्यक्ति प्रमाणिक है तो उसे
दलित
साहित्य माना जाना चाहिए; जैसे की
मदन
दीक्षित कृत मोरी की ईंट को।
अंबेडकर ने भी
कहा
है
कि
‘हमारा विरोध
ब्राह्मणवाद से है न कि ब्राह्मण से; जो एक
सवर्ण
में
भी
हो
सकता
है
और
ग़ैर-सवर्ण
और
दलित
में
भी।’
निष्कर्ष : हिंदी के दलित लेखन की कुछ सीमाएँ और अंतर्विरोध तो हैं किंतु यह आज मानवाधिकारों पर आधारित एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रेरणा का स्रोत बन रहा है। दलित लेखकों ने हिंदी साहित्य में पहले से स्थापित कई मान्यताओं को चुनौती दी हैं। परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन दिन-ब-दिन आवश्यक होता जा रहा है। यदि दलित साहित्यकार इसे व्यवस्थित रूप से कर पाने में सफल होते हैं तो यह उनकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। आज दलित साहित्य इस स्थिति में पहुँच चुका है कि अन्य लेखनों को दलित साहित्य द्वारा उठाए गए प्रश्नों और प्रतिमानों के आलोक में परखना आवश्यक है, उन्हें अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करनी होगी। अगर ऐसा नहीं किया गया तो अन्य लेखनों की प्रासंगिकता पर सवाल उठ सकता है।
https://tirchhispelling.wordpress.com/2013/04/25/दलित-विमर्श-सिर्फ-अपनी-मु-2/
[2] डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर, भगवान बुद्ध और उनका धर्म, बुद्धभूमि प्रकाशन, नागपुर, 1997,पृ. सं.242
[3]आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद, गुरु रविदास, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली,2014,पृ. सं. 53
[4]डॉ. रामचंद्र, दलित साहित्य: आशय, आंदोलन और अवधारणा, संघर्ष/स्ट्रगल/ई-जर्नलऑफ दलित साहित्य अध्ययन, जनवरी-मार्च: 2012, वैलूम- 1, इस्यू- 1, पृ. 63
https://tirchhispelling.wordpress.com/2013/04/25/दलित-विमर्श-सिर्फ-अपनी-मु-2/
[8]वही
[9]आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद, गुरु रविदास, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली,2014,पृ. सं. 53
[11]http://kavitakosh.org/kk/लिखे_में_दुक्ख_(शिर्षक_कविता)_/_लीलाधर_मंडलोई, 31 मई, 2017
[14]http://kavitakosh.org/kk/मृत्यु का भय (क्षमायाचना से)/_लीलाधर_लीलाधर, 30 मई, 2017
[15]वही
https://tirchhispelling.wordpress.com/2013/04/25/दलित-विमर्श-सिर्फ-अपनी-मु-2/, 11 मई 2017
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