अजमेर, एक ऐसा शहर जहाँ हर पत्थर, हर गलियारा, हर इमारत अपने साथ एक कहानी समेटे हुए है। मैं जब भी अजमेर के बारे में सोचता हूं, तो मेरी स्मृति में तैर जाते हैं मेरी युवावस्था के वो स्वर्णिम सुहाने दिन, जब मैं एक युवा मन को लेकर इस शहर में आया था। वो दिन जब हर चीज़ नई थी, हर कोना एक नई दुनिया की तरह था। एक कोरे कागज़ की तरह... जिस पर जीवन के अनुभवों की स्याही से बहुत कुछ लिखा जाना था।
सन 2002 में अगस्त महीने की एक गीली सुबह। भीलवाड़ा से अजमेर पहुँची उस रेलगाड़ी से उतरा मैं स्टेशन से बाहर निकलकर सामने ही गर्व से खड़े घण्टाघर को देखने में लीन हो गया। मानो आने वाले भविष्य के प्रवेश द्वार को निहार रहा था।
"ओ भाईसाहब, साइड में हटकर खड़े हो जाओ।" इस पुकार के साथ एक तांगे वाला लगभग मुझे हिलाते हुए निकल गया। अजमेर में 20 वर्ष पहले और आज भी तांगों का प्रचलन शेष है। ये बात अलग है कि अब उनका उपयोग पुराने दिनों को याद करने के लिए शौक़ियाना ही होता है। तो मुझे जाना था रामगंज, जिसके लिए 5 नम्बर का ऑटो पकड़ना था। अजमेर में स्थानीय आवागमन के लिए आज भी नम्बर वाले बड़े आकार के विक्रम ऑटो ही चलते हैं, जिसमें मेरे जैसे न जाने कितने “बेताल" अपनी अनगिनत कहानियों के साथ इस शहर में अपनी ताल बनाने का प्रयास करते हैं। स्टेशन पर खड़े टेम्पो रिक्शाओं की भीड़ ने एकबारगी अजमेर के प्रमुख स्थानों से मेरा परिचय करवा दिया। 4 नम्बर यानी मदार से स्टेशन होते हुए जनाना अस्पताल। 7 नम्बर का मतलब हटूंडी से यूनिवर्सिटी। इन सभी नम्बरों और मार्गों की खोज मुझे आने वाले एक वर्ष में करनी थी। फ़िलहाल उस वक़्त के गन्तव्य तक पहुँचाने वाले 5 नम्बर के टेम्पो को ढूंढकर मैं बैठने को उद्धत हुआ तो ड्राइवर ने आवाज़ लगाई,"भैया जी, 'लारे' बैठो।" मेवाड़ी में "लारे" का आशय "साथ में" होता है। जब मैं ड्राइवर के पास ख़ाली पड़ी सीट पर जमने लगा तो इस बार ड्राइवर चिंहुक उठा, “भाई, लारे बैठो लारे।"
मेरे चेहरे के अजनबीपन को भाँपकर उसने शब्द बदला, “पीछे बैठो-पीछे।"... झेंपता हुआ मैं पीछे जा बैठा। इस पुराने शब्द के नए अर्थ ज्ञान से मैं समझ गया था कि ये कुछ अलग शहर है। मेरे शहर सा जरूर दिखता सा, लेकिन उससे काफ़ी कुछ अलग भी! आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो महसूस होता है कि अजमेर ने तब सिर्फ़ मेरा ठिकाना ही नहीं बदला, बल्कि मेरी सोच को भी एक नई दिशा दी। लारे यानि पीछे बैठकर रामगंज की ओर गड़गड़ाते हुए बढ़ते टेम्पो की खिड़की से किंग एडवर्ड मेमोरियल के पुरानेपन को निहारता चला गया। रास्ते में आगे बढ़ते हुए दिखाई दे रही पुरानी इमारतों में एक अलग ही अनुभूति हो रही थी। जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कहीं मैं किसी पुनर्जन्म वाली फ़िल्म का हीरो तो नहीं जो अंग्रेजों के जमाने के इसी अजमेर में पैदा होकर काल-कवलित हो गया था और आज इस नए दौर में फिर से लौट आया है। शायद ये बॉलीवुड का स्वाभाविक असर था। जीसीए कॉलेज चौराहे पर खड़े युवाओं की टोली में स्वयं के भविष्य को ढूंढता हुआ न जाने कितनी उम्मीदों से भरा हुआ था मेरा उत्साही मन। उस वक़्त स्नातक उत्तीर्ण करते ही एक वर्षीय बी.एड. यानी शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्रवेश होने को सरकारी नौकरी की गारण्टी समझा जाता था। रिश्तेदारों और हितैषी लगने वाले दोस्तों ने अपने अनुभवों या सुनी-सुनाई बातों के आधार पर इस बात की तस्दीक़ करके मेरे कच्चे मन को सरकारी नौकरी पाने के प्रति अति-आत्मविश्वास से भर दिया, जो आगे चलकर संघर्ष की अग्नि में तपने वाला था।
रामगंज अपेक्षाकृत नया इलाक़ा है, जो अजमेर के इकलौते किले तारागढ़(गढ़ बिठली) की तलहटी में बसा हुआ है। साल 2002 में यह इलाका आबादी से इतना भरा हुआ भी नहीं था, जितना आज हो चला है। सवारियों के लिए रुकते-चलते टेम्पो ने अंततः मुझे डीएवी यानी दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज परिसर में एक भवन में चलने वाले मेरे बी.एड. कॉलेज जियालाल टीटी कॉलेज के सामने उतार दिया था, जहाँ मैं ऐसा वर्ष जीने वाला था, जो आज मेरी स्मृतियों में स्वर्णिम वर्ष की संज्ञा पा चुका है। इस एक वर्ष में मैंने बी.एड. से ज़्यादा अजमेर को पढा। आख़िर घर से निकलते वक़्त ही मैंने तय जो किया था कि अब तक समेटे हुए पंखों को जी भरकर फैलाऊंगा। शुरू में अकेलेपन में मैंने टेम्पो के माध्यम से हर ओर की सैर की। दृश्य-श्रव्य-घ्राण-स्पर्श और स्वाद के साथ सभी इन्द्रियों से अजमेर को जीते हुए।
अजमेर में मेरे प्रवेश से साल भर पहले ही मेरे शहर भीलवाड़ा में चाट की नयी दुकान खुली थी। दुकान की टेग लाइन थी, “अजमेर की प्रसिद्ध कढ़ी कचौरी" यहाँ आकर सबसे पहले कढ़ी-कचौरी के इन्हीं अड्डों की ख़बर लेना तय किया। उस टू थाउसेंड(2002) ज़माने की शुरुआत के उस वक़्त में नए दौर के नाम पर फास्टफूड बड़ी तेज़ी से युवाओं की जीभ से होते हुए दिल में जगह बना रहा था। जहाँ अजमेर ही नहीं पूरे देश में 1 में मिलने वाले बर्गर, पिज़्ज़ा, सेन्डविच जैसे फास्टफूड को खाकर युवा और नयी पीढ़ी के बच्चे स्वयं के आधुनिक होने की घोषणा करते हैं, वहीं अजमेर की कढ़ी-कचौरी आज भी बड़ी मज़बूती के साथ अपने क़दम जमाये हुए हैं। कढ़ी-कचौरी के ठियों में मानजी की कचौरी, गोल प्याऊ कचौरी, केसरगंज के गोल चक्कर वाली कचौरी हो या धन्ना कचौरी… इन दुकानों को आज भी याद करता हूँ तो उबलते तेल में सौंधी कचौरियों की स्मृति मेरे मन को एक साथ चक्षु, घ्राण और स्वाद बिम्ब के साथ तरंगित कर देती है।
स्टेशन होते हुए मदार गेट ही दरग़ाह बाज़ार का आरम्भ बिंदु है। यहाँ पर अजमेर मानों अपनी पूरी झाँकी सजाये हुए मिलता है। सड़क के किनारे बैठी सस्ते सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बेचती मनिहारिन, फल-फूल वालों के ठेलों की ठेलमपेल में से आते-जाते जायरीन और सोहन हलवा। सोहन हलवे का ज़िक्र न हो तो अजमेर में बताने लायक ज़्यादा कुछ न बचेगा। सोहन हलवा, जो नाम का हलवा है। देखने में बिस्किट की तरह लेकिन असल में ख़ालिस घी में भुने हुए मैदे और सूखे मेवों से महकता नायाब मिष्ठान्न है, जो दाँतों से काटते ही भुरभुराते हुए बिखर जाता है,और गले से उतरते-उतरते कुछ यूँ पिघलता है कि आपको फिर से और खाने की तमन्ना जाग उठती है।... और मदार गेट पर ही स्थित रबड़ी फ़ालूदा के स्वाद को मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ । जीभ को लालायित कर देने वाले इस वर्णन के बीच अजमेर के कुछ बाजारों में सामिष खाद्य की दुकानें मेरे वैष्णव मन को झकझोर देती थी। जन्म से प्राप्त होकर अब तक मन में जम चुके संस्कारों में किसी पशु को मारकर यूँ लटकाने और किसी इंसान द्वारा उसे खा लेने की कल्पना करना ही मेरे लिए जुगुप्सा का कारण था। अपनी नाक दबाये तेज़ गति से गुज़रकर इसी मण्डी के पास की सब्जी मण्डी और फूल मण्डी में भर-भरकर श्वास लेने लगता मैं। मदार गेट से होते हुए ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरग़ाह में पड़ने वाला बाज़ार मेरे लिए बिल्कुल नयी दुनिया की माफ़िक था। भीलवाड़ा जैसे छोटे शहर में दिखाई भी न देने वाली सामग्रियाँ यहाँ की दुकानों में सजी पड़ी थी। 2002 के मोबाइल विहीन युग में फिल्मी गीतों की धुन बजाते खिलौना मोबाइल भी उस वक़्त कौतुक का विषय थे। बाज़ार से दरग़ाह की तरफ बढ़ते हुए अलग-अलग राज्यों से आये हुए जायरीनों में पूरे भारत की झलक मिल जाय करती है। दरग़ाह तक पहुँचते-पहुँचते वातावरण खुशबुनुमा हो जाता है। पुष्कर में होने वाले गुलाबों की खेती की अधिकांश ख़पत दरग़ाह में ही होती है। अपने से अलग वेशभूषा के साथ ही नए रीति-रिवाजों को देखते हुए लोबान की रहस्यमयी गंध एक अलग ही प्रभाव बिखेर रही थी। एक वैष्णव हिन्दू के लिए पहली बार किसी मुस्लिम धर्मस्थल में अकेले जाना किसी रोमांच से कम नहीं था। वहाँ की रीति अनुसार रुमाल से सिर ढककर पूरी दरग़ाह में घूमते हुए मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि मैं किसी और मज़हब के धर्मस्थल पर हूँ। प्रवेश के लिए चारों तरफ से बेहद भव्य एवं आर्कषक दरवाजे बनाए गए हैं जिसमें निजाम गेट, जन्नती दरवाजा, नक्कारखाना (शाहजहानी गेट), बुलंद दरावजा शामिल हैं। यहाँ के सालाना उर्स पर होने वाली दावत के लिए बड़ी और छोटी देग अपने आप में सामूहिक भोज की तैयारियों के लिए एक अनूठा साधन है।
भारत भर में अजमेर की प्रसिद्धि साम्प्रदायिक एकता के समागम स्थल के रूप में रही है। यहाँ के स्थानीय हिन्दू-मुस्लिम के साथ ही सिक्ख और ईसाई धर्म के मतावलम्बी अपनी धार्मिक मान्यताओं का स्वतंत्र निर्वहन करते आये हैं लेकिन 2002 से अब तक तो काफ़ी पानी बह गया है। अंग्रेजों के लंबे समय तक अजमेर रहने और राजस्थान में ईसाई मिशनरीज के प्रमुख कार्यस्थल होने के चलते यहाँ चर्च भी अच्छी ख़ासी संख्या में है। वहीं हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में तीर्थराज पुष्कर का अपना महत्व है। मेरे लिए राजस्थान में नाथद्वारा और पुष्कर में एक जैसी भावात्मक समानता है। एक जैसी गलियाँ, मन्दिर की ओर पहुँचते हुए विविधतापूर्ण सुंदर बाज़ार और स्थानीय की अपेक्षा बाहरी श्रद्धालुओं की आवक। नाथद्वारा जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात है, वहीं पुष्कर विदेशी पर्यटकों हेतु एक विलक्षण भावभूमि है। विश्व में ब्रह्मा जी का एकमात्र मन्दिर होने के साथ ही पवित्र सरोवर का अद्भुत महत्व है। हरिद्वार से लौटकर आते हुए श्रद्धालु यहाँ भी अवश्य रुकते हैं। पुष्कर न केवल एक पवित्र धार्मिक स्थल है, बल्कि अपनी बहुरंगी संस्कृति के चलते विदेशी पर्यटकों का पसंदीदा स्थान भी बन चुका है। यहाँ पर स्वच्छन्द भाव से घूमती विदेशी रमणियों को मैं अपने होस्टल के साथियों के साथ कौतुक से देखता रहता। तब सोचता था कि भारतीय परिवेश में ऐसी स्वच्छन्दता आने में तो बहुत लंबा वक़्त लगेगा। फिर भी बीते 2 दशकों में हर क्षेत्र की तरह इस में भी बड़ा परिवर्तन आया है। पुष्कर में सावित्री माता के मंदिर के साथ ही सिक्ख धर्म का पवित्र स्थल गुरुद्वारा श्री सिंह सभा साहिब भी है। भारतीय मानस से जन्मे सिख धर्म और प्रमुख गुरुओं में सनातन के प्रति गहरा अनुराग देखा जाता है। पवित्र पुष्कर सरोवर के बावन घाटों में एक घाट गोबिंद घाट है, जहाँ अंतिम गुरु साहब श्री गोविंद सिंह जी ने यात्रा की थी। जैन धर्म के अनेक स्थल भी अजमेर में मिलते हैं, जिस में पर्यटन और धर्म के अद्भुत संगम के रूप में सोनीजी की नसियां प्रमुख हैं। अजमेर के सोनी परिवार द्वारा लाल पत्थर से निर्मित ये मंदिर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभदेव जी को समर्पित है। जैन पुराण आधारित अनेक कथाओं और मान्यताओं का निरूपण यहाँ की स्वर्णनगरी में किया गया है। कहते हैं कि मंदिर के विशाल हॉल में इन स्वर्ण आकृतियों के निर्माण में लगभग एक हजार किलो स्वर्ण का उपयोग हुआ था।आधुनिक स्थलों में नारेली का ज्ञानोदय तीर्थ का विशेष महत्व है, जो आचार्य ज्ञानसागर महाराज एवं विद्यासागर महाराज की स्मृति में निर्मित हुआ है। इन सभी धर्मस्थलों के भव्य निर्माण और संचालन को देखते हुए अजमेर में धार्मिक सौहार्द्र के प्रति कोई संशय नहीं होता।
अजमेर यानि अजयमेरु का इतिहास यहाँ की इमारतों के जरिये भी अपनी कहानी कहता है। चौहान वंश के समय का ढ़ाई दिन का झोंपड़ा, पन्द्रहवीं सदी का अकबर का किला, आना सागर की पाल या अंग्रेजों के जमाने का किंग एडवर्ड मेमोरियल। ये सब ऐतिहासिक स्थान मुझे आज भी गुज़रे अतीत के साथ लाकर खड़ा कर देते हैं, मानो कि मैं स्वयं उस युग में किसी भूमिका में मौजूद रहा हूँ। इतिहास में रुचि के चलते हर पत्थर में मुझे एक कहानी सुनाई देती थी, हर इमारत में एक जमाने की यादें दिखाई देती थी। इतिहास का आईना बनी इन इमारतों, स्मारकों में एक जगह और भी थी जो मेरी मौन साधना की कई बार गवाह बनी। आनासागर की पाल पर मैंने अज्ञात सोचते हुए, सफ़ेद पंछियों के कलरव और झील की लहरों के कलकल के पार्श्व संगीत में जाने कितने घण्टे गुज़ार दिए। श्वेत संगमरमर की बारहदरी के किसी खंभे से टिककर अपने भीतर झाँकने की जो आदत पड़ी थी वो आज फलरहित होकर भी निरंतर है।
अजमेर में शिक्षा का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। अजमेर की बात चले तो पूरे राजस्थान के स्कूली विद्यार्थियों का जीवन में कम से कम एक बार आकर धोक लगाने वाला देवरा यानि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के साथ ही केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का क्षेत्रीय मुख्यालय भी यहीं है। मेयो कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से लेकर डीएवी कॉलेज,जीसीए (गवर्नमेंट कॉलेज अजमेर जो अब सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अजमेर के नाम से जाना जाता है), सावित्री कॉलेज, रीजनल कॉलेज और मेरे अपने जियालाल बीएड कॉलेज जैसे अन्य प्रमुख संस्थानों तक, इस शहर ने कई पीढ़ियों के छात्रों को शिक्षित किया है। महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर का नाम लेना भी जरूरी है। यह राज्य का प्रमुख विश्वविद्यालय है और कई शिक्षण संस्थानों को मान्यता देता है। राज्य में सबसे ज़्यादा भार वर्तमान में इसी पर है। मेरी सम्पूर्ण महाविद्यालयी शिक्षा की मान्यता यहीं से है । पहले राजस्थान में सिर्फ राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर ही था , लेकिन बाद में, 1987 में शिक्षा सुधारों के प्रयासों के चलते अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। हालांकि, स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचारों और विश्वविद्यालय में घुसते ही स्थापित की गयी उनकी प्रतिमा के बीच का विरोधाभास एक ऐसा पहलू है जिस पर अब किसी को गौर करने की ज़रूरत भी नहीं होती। स्वामी जी की अनेकानेक धरोहरों में आर्यसमाज की विभिन्न संस्थाएँ आज भी कार्यरत हैं। राजस्थान लोक सेवा आयोग (आरपीएससी) का मुख्यालय भी यहीं है, जो राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ ही कई उच्च स्तरीय पदों की भर्ती के लिए जाना जाता है। हम जैसे अनेकानेक विद्यार्थियों के लिए आरपीएससी जीवन की नौका को किसी सुरक्षित और प्रतिष्ठित घाट पर ठहरा देने वाले मांझी-सा लगता था। और मेरे लिए तो ऐसा हुआ भी। आयोग द्वारा मैं तीन बार अलग-अलग पदक्रम में आरोही पदों हेतु चयनित होता गया। कुल मिलाकर अजमेर अकादमिक शिक्षा की पहले पायदान से शुरू करवाते हुए शिखर तक पहुँचाने की क्षमता भी रखता है।
अब तक के भ्रमण अनुभवों और कही-सुनी के आधार पर मेरे भीतर एक धारणा-सी बनी है कि राजस्थान के दक्षिण से उत्तर और पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ते हुए दुनियादारी बढ़ती हुई दिखती है। दुनियादारी यानी चालाकी और मौकापरस्ती जिसे सभ्य भाषा में लोक-व्यवहार कहा जाता है। अजमेर के बारे में बात करते हुए जब मैंने यहीं के मूल निवासी विजय मीरचंदानी के सामने मैंने अपनी ये धारणा रखी कि ऐसा होते हुए अजमेर तो मध्यम मार्गी है, बिल्कुल बीचोंबीच। विजय ने अपने अनुभवों के आधार पर मुझे टोका-
“नहीं भैया! अजमेर के लोग बड़े चंट-चालाक हैं।"
“फिर तुम तो नहीं लगते मुझे ऐसे चालाक?"
"मैं तो ज़माने से पिछड़ा हुआ हूँ। अपवाद कह लीजिए मुझे... हह्हाहा।"
ख़ैर, अजमेर मुझे तो मध्यममार्गी ही लगता है, बुद्धजीवी और बुद्धिजीवी। ये शहर जहाँ नए ज़माने के साथ क़दमताल करता दिखता है, वहीं पर इसने अपने भीतर पुरानेपन की सौंधी गंध भी बरक़रार रखे हुए हैं। अजमेर को स्मार्ट सिटी घोषित करने के बाद इसकी बदली फ़िज़ाओं को बख़ूबी अनुभव किया जा सकता है। अजमेर के नए इलाकों में वैशालीनगर एक्सटेंशन, मदार, लोहागल, माकड़वाली में नयेपन की बहार आई हुई-सी लगती है। यहाँ मल्टीनेशनल ब्रांड्स के शोरूम से पटा हुआ बाज़ार इस शहर की बदलती हुई रुचि का प्रदर्शन करता है। यद्यपि इस नयेपन में कोई विशिष्टता नहीं रहती, क्योंकि ऐसे बाज़ार तो अब हर मँझले से बड़े शहर के लिए आम है। लेकिन हर शहर की कोई ख़ासियत ज़रूर होती है, उसी ख़ासियत की तलाश में निकले तो वो अजमेर के पुराने बाज़ारों में पूरी होगी जो पुरानी मण्डी, मदार गेट, दरगाह बाज़ार, कवंडसपुरा, घी मण्डी, मूंदरी बाज़ार और केसरगंज में अलग-अलग दुकानों पर खाद्यानों और उपभोक्ता सामग्रियों के रूप में मिलेगी। यहाँ के चरम आधुनिक कहे जाने वाले बाज़ार से गुजरते हुए आपको लकड़ी के दरवाजों से बनी पुराने ज़माने की दुकान दिख जाएगी, जिसमें कोई पंसारी आज भी पुराने तरीके से मोलभाव कर रहा है। रेडियो के स्थान पर एफएम की धुन पर बाल काटते नापित, जिनके ग्राहकों के लिए रखी गयी सिंहासन जैसी भारी-भरकम कुर्सियाँ आज भी मुझे अपने बचपन की याद दिलाती है। उन्हीं कुर्सियों पर कभी लकड़ी का पट्टा लगाकर दादाजी हमारे बाल कटवाया करते थे। दरगाह बाज़ार में घुसते ही पुरानी और मूलभूत जरूरतों का सामान- इत्र, लोबान, आम पापड़, सुपारी, शिलाजीत, अश्वगंधा काँच के मर्तबानों में आज भी शोभित होती है। अजमेर का बाज़ार, वो गलियाँ जहाँ हर दुकान अपनी एक अलग ही दुनिया थी। मुझे आज भी उस पुराने दौर को जीना हो तो स्टेशन से लेकर पुराने बाज़ार तक के पैदल सफर पर निकल जाता हूँ।
मेरे व्यक्तित्व में सामूहिकता का जो थोड़ा सा पुट है, उसके निर्माण में अजमेर के छात्रावास जीवन का बड़ा योगदान है। जियालाल बीएड कॉलेज के हॉस्टल में रहकर ही मैंने बचपन से देखे-सीखे तथाकथित कुलीन संस्कारों का कदाचित् त्याग कर दिया। जैसे आदिवासियों में कबीले हुआ करते हैं, ठीक हम हॉस्टलर भी किसी आपदा में एक संगठित कबीले-सा व्यवहार करते थे। किराये को लेकर किसी टेम्पो-बस वाले से हल्की-फुल्की झड़प या खेल मैदान पर किसी अन्य हॉस्टल वालों का अतिक्रमण... हम सब हॉस्टलर एक सेना के लिए कूच किया करते थे। हॉस्टल के बोरिंग खाने से त्रस्त हम दोस्त किसी की शादी या किसी भी प्रयोजन के खाने की दावतों में कूद पड़ते थे। होस्टल में एक साथी ऐसा होता था जो आसपास क्या दस-दस किलोमीटर कहीं दूर हो रहे समारोह की पूरी जानकारी ले आता था। और हम सब हॉस्टलर शाम को दावत के लिए तैयार रहते... दूसरे दिन रामगंज वाली चौधरी की प्रसिद्ध होटल पर बैठकर सुबह की चाय में सब अपने-अपने अनुभव सुनाते। कभी राजनीति की बातें, कभी क्रिकेट-फ़िल्म की और कभी-कभार अपने भविष्य की भी! ये सब कुछ आज भी मेरी यादों में ताजा है। हॉस्टल की यही सेना भोजन कार्यक्रमों के साथ ही एक और मिशन में लगती थी, वो था नयी फिल्मों का फर्स्ट डे, लास्ट शो। ग्रामीण परिवेश से आये लड़के हो या मेरे जैसे छोटे शहर का युवा, सबकी रुचियों का एक समान तत्व फिल्में थी। अजमेर में तब मल्टीप्लेक्स का चलन शुरू हुआ था। पुराने सिनेमाघरों मृदंग, प्लाज़ा, अजंता, मैजेस्टिक और श्री टॉकीज की आगामी परम्परा में सिनेवर्ल्ड और माया मन्दिर सिनेमाघर आ जुड़े थे। माया मंदिर में ‘बागबान’, ‘काँटे’, सिनेवर्ल्ड में ‘कोई मिल गया’ जैसी बड़ी फ़िल्म अगर देखनी ही होती थी तो प्लाजा में ‘प्रेम रतन धन पायो’ या मैजेस्टिक में ‘तेरे नाम’ भी हम नहीं छोड़ते। यहाँ तक कि नयी फ़िल्म की रिलीज़ न होने पर पहले देखी हुई किसी फ़िल्म को ही दूसरी-तीसरी बार जा देखते। रात नौ से बारह बजे का अंतिम शो देखकर हम किस ढंग से पैदल-पैदल आठ-दस किलोमीटर दूर हॉस्टल तक पहुँच जाते थे, ये वर्तमान के मेरे आलस्यग्रस्त शरीर को विश्वास दिलवाना लगभग असंभव हो रहा है। उस दौर में देखी गयी हर फिल्म के साथ एक अलग ही अनुभव जुड़ा हुआ था। और साथ में दोस्तों का वो प्यार, वो मस्ती, वो पागलपन... ये सब कुछ तो जिंदगी भर के लिए यादगार बन गया है।
एक वर्ष के उस स्वर्णिम काल को जीने के लिए मैं विगत 21 वर्षों में बार-बार अजमेर जाता रहा। और यक़ीन मानिये अजमेर ने भी मुझसे कभी बेगाने जैसा सुलूक नहीं किया। सच कहूँ तो, अजमेर मेरे लिए सिर्फ एक शहर भर नहीं है। ये शहर मेरी जवानी की वो किताब है, जिसके हर पन्ने पर मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत अध्याय लिखे हुए हैं।
सहायक आचार्य, हिंदी, सेठ मुरलीधर मानसिंह का राजकीय कन्या महाविद्यालय, भीलवाड़ा
Sppareek2018@gamil.com
अद्भुत वर्णन , बहुत ही सुन्दर , ऐसा लगा मानो स्वयं ही यात्रा का वर्णन कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंआपका शिष्य P.singh kanawat
बहुत बहुत धन्यवाद जी। अच्छा लगा कि तुम अभी भी पढ़ते हो। नियमित पढ़ते रहिये।
हटाएंअजमेर मेरे लिए भी विशिष्ट रहा है और अनोखा संयोग यह है कि ऑटो नं. 5 में बैठकर रामगंज ही गया ; वही चौधरी के पास में बुआ का घर है। जहाँ मैं कक्षा 10 में2004 में गया था। ग्रीष्म में बोर्ड द्वारा आयोजित सृजनात्मक प्रतियोगिता में 2004, 2005 और 2006 में भीलवाडा़ का प्रतिनिधित्व करने को मिला। श्रीराम धर्मशाला में आवास और सावित्री स्कूल में प्रतियोगिता के दौरान अजमेर को काफी करीब से देखा। अजमेर आज भी आकर्षित करता है। शाम को सूर्यास्त बजरंगगढ़ मंदिर की पहाडी से देखना बहुत पसंद है। नीचे आनासागर झील के पानी पर गिरती सूर्य की किरणें देखना अलग ही नजारा होता है। आपके आलेख से स्मृतियाँ मस्तिष्क में पुन: हरी हो गई।
जवाब देंहटाएंहमारे सबसे नज़दीकी सम्भाग मुख्यालय पर भीलवाड़ा के हर शिक्षित व्यक्ति का आना-जाना लगा रहता है। आप द्वारा अपने अनुभवों को इस लेख की टिप्पणी में कुछ यूँ रखा गया है कि ये लेख का पूरक हिस्सा लगने लगा है। बहुत बहुत धन्यवाद जी
हटाएंआपकी पोस्ट पढ़ने पर ऐसा लगता है कि मैं भी आपकी यात्रा का हिस्सा हूं।
जवाब देंहटाएंअदभुत उत्तम , आपका लेखन हर बार ही अनुपम होता है। जिस भाषा और शैली में आप लिख लेते हो उस पर टिप्पणी अनिर्वचनीय है।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
सुंदर वर्णन ,
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह आज फिर इतने सारे नये शब्दों की जानकारी मिली है ।
मुख्यत: शहर के सभी पहलूओ (धार्मिक, सामाजिक, बाजार ,शिक्षा) के क्षेत्र का वर्णन अत्यधिक सुंदर शब्दों ओर अनुभवों के साथ प्रस्तुत किया गया है।
Aap mahaan ho Suraj sir pdhte pdhte me bhi ajmer ke khyalo me chla gya
जवाब देंहटाएंमुझे आपकी लेखन शैली बहुत पसंद है क्योंकि यह आकर्षक और सुलभ है।" आप इसी प्रकार
जवाब देंहटाएंके लेख और विचारो के लिए जाने जाते है
💐💐💐💐💐💐
शानदार .... अजमेर का एक बेहतरीन उम्दा और जीवन्त वर्णन
जवाब देंहटाएंसूरज जी, अद्भुत लेखन ..
जवाब देंहटाएंजैसे कोई फिल्म चल रही हो सामने...
मै भीलवाड़ा खरीददारी में व्यस्त होने के बावजूद जहाँ जहाँ समय मिला गाड़ी रोक रोक इस पोस्ट को पढ़ रहा था...
शानदार...👍👍👍
बहुत सुन्दर भावपूर्ण जीवन्त वर्णन।
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेखन।
जवाब देंहटाएंजीवंत वर्णन, मुझे अजमेर में 2000 से 2003 तक काअपना समय याद आ गया।
बहुत खास रिश्ता नहीं था अब तक मेरा अजमेर से। कई दफा गया हूं, मगर जी नहीं पाया कभी इसे। आज इस आलेख को पढ़ते-पढ़ते जी लिया।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत कोशिश बड़े भैया। केवल आलेख लिखने को देखता हूं, तो लगता है। आप इसे और भी खूबसूरत कर सकते थे। ये भागता सा लग रहा है। यूं लग रहा है जैसे जल्दबाजी हो और बहुत कुछ शामिल करना ही हो। और हां, ये खूबसूरत आप ही कर सकते थे, क्योंकि आपने जिया है इसे।
बहरहाल मज़ा आ गया पढ़कर। अबके जब जाना होगा, इन्हीं नजरों से देख जाएगा अजयमेरू...
बिल्कुल ठीक। मुझे भी ये भागता हुआ सा ही लगा है क्योंकि इसे मैंने भी भागते हुए ही लिखा है। अजमेर के इस वर्णन में हर स्थान पर पूरी एक कहानी बनती है, जैसे एडवर्ड मेमोरियल,जियालाल होस्टल या RPSC में मेरे वाक़िये। लेकिन कुछ तो लेख प्रारूप की मर्यादा थी तो कुछ ज़्यादा ही बड़े हो जाने का भय। साथ ही सबकुछ एक साथ समेटने का लालच भी मैं छोड़ न पाया! बहरहाल ये हाज़िर है। बचा-खुचा जो बहुत कुछ है, इसे जल्दी ही देखेंगे आप भी। सुकुमार??
हटाएंअजमेर का बहुत ही सुंदर और अद्भुत वर्णन 👍
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेखन भाई जी
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर 🙏🏻
जवाब देंहटाएंमुझे भी आपके पड़ोसी महाविद्यालय दयानन्द कॉलेज से वाणिज्य में स्नातक करने का अवसर मिला है....आपकी इस रचना ने मुझे भी फ्लेस बेक में प्रवाहित कर दिया....
गोल प्याऊ के शंकर चाट भंडार की कड़ी कचौड़ी, जलेबी, मादर गेट पर बद्री प्रसाद की रस मलाई, अजंता टॉकीज में नई फ़िल्म देखना, पुष्कर मेला, 1.2,5.7 नम्बर वाले ऑटो से प्रायः आवागमन सब कुछ जैसे कल परसों की ही बात लगती है.... अरावली की गोद में बसी जगत पिता ब्रह्म जी और अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की यह नगरी हृदय में स्थाई है, अतुल्य है, अद्वितीय है
बहुत सुंदर लेखन
जवाब देंहटाएंअजमेर का अद्भुत वर्णन
मेरे प्रिय बड़े भैया, राजस्थान और खासकर अजयमेरु मे मेरा कई बार आना जाना हुआ। आपके द्वारा उल्लेखित स्थलों मे कई स्थलों पर जाना भी हुआ। लेकिन उनमे आपने जितना कुछ अनुभव किया, मैं उसका आधा भी नहीं महसूस कर पाया। हमारे लिए तो आप पहले से ही मेरे अपने वाले राहुल सांकृत्यायन हो। अबकी बार जाऊंगा तो आपकी आँखों से पुनः उन सबकी अनुभूति करूँगा।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
देवेंद्र् सिंह
धन्यवाद साझा करने के लिए। बढ़िया लिखा है आपने। शहर और स्वयं दोनों अपने विकास के क्रम में एवॉल्व होते हैं। यह प्रक्रिया साथ साथ चलती रहती है। यह एक दिशीय नहीं है। हर इवोल्यूशन को लेकर एक विचार होता ही है कि यह कितना संतोषप्रद है। स्वयं का भी और शहर का भी। अमीबा से मनुष्य और मनुष्य से AI की यात्रा को ले कर दसियों प्रश्न हैं, वहीं कढ़ी कचौरी, और खुशबू से नथुने फूला देने वाली देशी घी में तली जलेबियों से लेकर मेयोनीज वाले पिज्जा और बर्गर तक विकास का क्रम अनवरत जारी है।
जवाब देंहटाएंआपके लेखन में उस बीते दौर के प्रति एक प्रेम का भाव है, उसकी मधुर स्मृतियां हैं वहीं बदलाव के प्रति एक सहज स्वीकार्यता भी है। हर बीता क्षण नॉस्टैल्जिया पैदा करता है लेकिन हर विकास नकारात्मक भी नहीं है। यह संतुलन ही जीवन का सार है। आपके लेखन में यह दिखता है।
बढ़िया लिखा है। लेखन का अंतराल कम हो तो और बढ़िया होगा।
धन्यवाद।
प्रिय सूरज जी,
जवाब देंहटाएंआपने इस लेख में अपने अनुभवों और भावनाओं को बेहतरीन रूप में प्रस्तुत किया है। अजमेर शहर की संस्कृति, इतिहास और लोगों से गहराई से जुड़ी यादें और संवेदनाएँ आपने कितने अच्छे से संजोई हैं। यह न सिर्फ एक स्थान विशेष की यात्रा है बल्कि एक जीवन यात्रा को भी दर्शाता है, जिसमें आपका मानसिक और भावनात्मक विकास स्पष्ट रूप से उभरकर आता है। यह यात्रा केवल स्थानिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक स्तर पर भी गहरी है। अजमेर की भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विविधताओं को आपने बहुत संजीदगी से उजागर किया है। आपने बेहद संवेदनशील और सजीव भाषा का भी प्रयोग किया है, जो पाठक को लेख से भावनात्मक रूप से जोड़ देती है। पाठक खुद को उन स्थानों पर महसूस कर सकता है। आपके शब्दों का चयन सरल और प्रभावी है, जो आपके अनुभवों को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। उदाहरणस्वरूप, "घण्टाघर को गर्व से खड़े देखना" और "टेम्पो में पीछे बैठने की स्थिति" जैसी छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से आपने शहर की और अपनी यात्रा को बखूबी संजोया है। लेख में आपकी संवेदनशीलता स्पष्ट रूप से झलकती है, खासकर जब आप कढ़ी-कचौरी की दुकानों या दरगाह के आस-पास के वातावरण का वर्णन करते हैं। आपने सामुदायिक सौहार्द, सांस्कृतिक विविधता और इतिहास के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए अजमेर की बहुस्तरीयता को प्रस्तुत किया है। सनातन धर्म से जुड़े होते हुए दरगाह शरीफ की यात्रा का उल्लेख आपकी सर्वधर्म सद्भाव की विचारधारा को पुष्ट करता है, यह भाव आपको अपने धर्म से विरासत में मिला है. आपका यह लेख सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में आपके अनुभव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अजमेर के समाज और संस्कृति का भी दर्पण है। आपने अजमेर में शिक्षा प्रणाली, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक विविधता पर ध्यान केंद्रित किया है, जिससे अजमेर का संपूर्ण रूप उभर कर सामने आता है। आप द्वारा लेख का गठन बहुत अच्छे से किया गया है। आपने अपनी यात्रा का क्रमिक विवरण प्रस्तुत किया है, जिसमें शुरू से अंत तक पाठक को बांधने की क्षमता है। अजमेर के विभिन्न स्थल, इतिहास और अनुभवों का विवरण एक दूसरे से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।
सुझाव
कहीं-कहीं लेख थोड़ा विस्तारित हो जाता है, विशेष रूप से बाजारों और खाद्य पदार्थों के वर्णन में। यह विवरण रुचिकर है फिर भी इसे थोड़ा संक्षिप्त किया जा सकता था ताकि मूल कथ्य और भी स्पष्ट हो सके। कुछ स्थानों पर अनुभवों के भावनात्मक पहलू को और भी अधिक गहराई से उभारा जा सकता है, खासकर शिक्षा और व्यक्तिगत संघर्ष के संदर्भ में।
कुल मिलाकर आपका लेख एक समृद्ध और विस्तृत अनुभव का प्रतिबिंब है, जो मेरे जैसे सैंकड़ों पाठकों को अजमेर की गलियों और उसकी सांस्कृतिक विविधताओं के दर्शन करवाता है। आपने न केवल शहर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं का चित्रण किया है, बल्कि आपकी निजी यात्रा को भी पूर्ण मनोयोग से दर्शाया है। लेख अजमेर के प्रति आपके गहरे भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है और इसे पढ़ते समय पाठक भी उस अनुभव का हिस्सा बन जाता है, जैसे कि मैं अभी स्वयं का आपसे, इस लेख से और अजमेर से जुड़ाव महसूस कर पा रहा हूँ।
अजमेर को जिस रूप में आपने देखा है, अजमेर को जिस रूप में कोई भी देख सकता है, महीनों-बरसों अजमेर रहने से रहनेवाले को अजमेर जैसा दिख सकता है वैसा भरापूरा , पूरा-पूरा अजमेर आपने दिखा दिया। सूरज जी देखा हुआ अजमेर तो आपने दिखा दिया मगर जिया हुआ अजमेर दबा गए, छुपा गए। आपका निजी अजमेर अभी बाकी रहा जिसे लिखा जाना है। बधाई💐💐
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