आदमी की बेचैनी शाश्वत है। इस शाश्वत बेचैनी को पहचाना दार्शनिकों-वैज्ञानिकों ने। और दर्शन की इन गहरी, उलझी और रूखी-सूखी बातों को ही संसार के बहुतेरे कवियों ने अपनी कविता में बहुत सरल व सरस भाषा में कह डाला। लेकिन आदमी तो अनोखा जीव है न! सरल बात उसे समझ नहीं आती क्यूँकि दुनिया में सरल होना ही कठिन है। इस आदमी ने नए-नए सिद्धांत गढ़े और आगे चलकर ख़ुद ही ख़ारिज किए। हालाँकि कहा जाए तो यह विकास की एक प्रक्रिया है। यह आदमी की ईमानदारी का तकाज़ा है। संज्ञानात्मक विकास के क्रम में आदमी की बेचैनी बढ़ती गई और उसकी कोशिश रही कि इस दुनिया-जहान को मैं जानूँ। और जब थोड़ा-बहुत उसके जानने में आया तो उसमें एक भाव यह उठा कि अब इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँ। साथ ही ‘इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँ’ का उसका स्वयं का यह विजय या श्रेष्ठता का भाव आदमी के मन में कहाँ से आ रहा है, इस पर भी उसने चिंतन-मनन किया। ख़ासकर इस देश में इस पर ख़ूब विचार हुआ। आदमी को ख़ुद को जानने का काम शायद इस देश में जितना हुआ उतना दुनिया में कहीं नहीं हुआ। लेकिन आदमी तो अनोखा जीव है न! आत्मज्ञान की इस सर्वश्रेष्ठ विधा को सबसे पहले इस देश के बाशिंदों ने ही बिसराया। यही उनकी पराजय का कारण भी बना। वह दुनियाभर के आक्रांताओं से लुटा-पिटा और लतियाया गया। हालाँकि आत्मज्ञान की एक पतली धार हमेशा ही यहाँ बहती रही। ‘इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँ’ के विचार के मद्देनजर आदमी ने गढ़ा एक और सिद्धांत ; और उसे नाम दिया- ‘मानवतावाद’। इस सिद्धांत के केंद्र में रखा उसने स्वयं को रखा। अन्य जीवों या प्रकृति की तुलना में उसने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया। अपनी चिंता के केंद्र में केवल स्वयं को रखा। प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय उपभोग किया। फलतः जलवायु परिवर्तन के रूप में परिणाम हमारे सामने हैं। और उससे उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहा है अब यह आदमी। इतिहास ने न जाने ख़ुद को कितनी ही बार दोहराया लेकिन आदमी फिर गलती पर गलती करता रहा। क्या ठोकर खाकर सीखना ही इसकी नियति है?
मानवतावाद से समस्याएँ उत्पन्न हुई तो आया ‘उत्तर-मानवतावाद’। मानव-मानव का परस्पर संबंध, मानव और अन्य जीवों का संबंध, मानव और मशीन का संबंध और पूरे में कहें तो मानव और प्रकृति के बीच का संबंध इसके केंद्र में हैं। इस दर्शन या सिद्धांत की चिंताएँ बहुत वाज़िब हैं लेकिन तौर-तरीके फिर गड़बड़ हैं। दर्शन और नैतिकता के तौर पर यह सैद्धांतिकी प्रकृति में सह-अस्तित्व की बात करती है। मनुष्य की अस्मिता, स्वतंत्रता और गौरवपूर्ण जीवन; बहुलता का सम्मान, पर्यावरण सम्यक विकास इसकी प्राथमिकताएँ हैं। वहीं जैव-प्रत्यारोपण, बायो-हैकिंग, कृत्रिम बुद्धिमता... इसके टूल हैं। उत्तर-मानवतावादी दार्शनिक डोना हरावे का तर्क है कि “मनुष्य और प्रौद्योगिकी का विलय शारीरिक रूप से मानवता को नहीं बढ़ाएगा बल्कि हमें खुद को गैर-मानव प्राणियों से अलग होने की बजाय परस्पर जुड़े हुए के रूप में देखने में मदद करेगा”। यह सही है कि कृत्रिम बुद्धिमता आने के बाद आदमी को अपने जिस बुद्धि-बल पर भरोसा और श्रेष्ठता का बोध था, वह भी धराशायी होता नज़र आ रहा है लेकिन उत्तर मानवतावादी विचारक मनुष्य और प्रौद्योगिकी के विलय द्वारा भविष्य के जिस सह-अस्तित्ववादी मानव को बनाने में तुले हैं, वह तकनीक द्वारा संभव नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच के भेद का भाव पैदा करने वाला, अन्य जीवों से श्रेष्ठता का बोध पैदा करने वाला, ‘इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँ’ भाव पैदा करने वाला सॉफ्टवेयर जन्म से ही आदमी के भीतर इन-बिल्ट होता है। अद्वैत वेदांत की भाषा में उस सॉफ्टवेयर का नाम है- ‘अहम्’। और इस अहम् को जानने का नाम ही आत्मज्ञान है। यह अहम् ही है जो खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को कमतर आँकता है। यह अहम् ही है जो कह उठता है- “सुंदर है सुमन, विहग सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम।” यह अहम् ही है जो कहता है कि मनुष्य के जीवन की हानि न्यायालय में दंडनीय है लेकिन पशु जीवन की हानि हमारे लिए बेहतरीन स्वाद है। यह अहम् ही जो कहता है कि गाय के दूध पर उसके बछड़े का नहीं हमारा हक़ है। हम इससे स्वादिष्ट मिठाइयाँ, पनीर के पकवान, चाय-कॉफ़ी-आइसक्रीम बनाएँगे और खाएँगे-खिलाएँगे। यह अहम् ही है जो कहता है कि हमारा धर्म, जाति और लिंग दूसरे से श्रेष्ठ है। इस अहम् से आत्म की यात्रा ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। और असल में इसी का नाम इंसानियत है। भारतीय मनीषा से इसे बहुत सुंदर और ऊँचा नाम दिया- ‘आत्मा’। लेकिन हमारे अज्ञानरूपी अहम् ने उसे भी विकृत कर दिया तो फिर एक मनीषी महात्मा गौतम बुद्ध को कहना पड़ा- ‘अनात्मा’। यानी जिसे तुम आत्मा कह रहे हो वह आत्मा नहीं है। और हमने बुद्ध को ही इस देश से धक्का मारकर बाहर निकाल दिया। बुद्ध के अनुयायियों का उपहास करने के लिए शब्द गढ़ दिया- ‘बुद्धू’। लेकिन प्रकाश को कौन रोक सका है भला? महामना बुद्ध की यह रौशनी पूरी दुनिया में फैली और दीये तले अँधेरा रह गया। पुतिन और जेलिंस्की के अहम् ने दो देशों को ढाई साल से युद्ध में झोंक रखा है। कुछ लोगों के इस अहम् के कारण ही सैंतालिस में इस देश को विभाजन की विभीषिका झेलनी पड़ी। दुनिया में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, असमानता... के मूल में यह अहम् प्रवृत्ति ही है। कोई मशीन ऐसा आदमी नहीं बना सकती जो न्यायपूर्ण और समतामूलक भाव वाला हो। इसी आदमी को हमें ठीक से पहचानना है। इसी को ठीक करना है। और ‘इसी’ की शुरुआत करने के लिए सबसे मुफ़ीद आदमी हम ख़ुद हैं। मेरा अनुभव यही रहा है कि ये काम ‘सही शिक्षा’ के द्वारा संभव है। कृष्ण की निष्कामता, बुद्ध की मैत्री, महावीर की अहिंसा, हज़रत मोहम्मद की दया और ईसा मसीह का क्षमा भाव आत्मज्ञान का ही प्रतिफलन है। कबीर-सूर-तुलसी और जायसी से सरल भाषा में कौन बता सकता है इस बात को?
‘अपनी माटी’ के संपादन-कार्य से लगभग दो वर्ष से जुड़ा हूँ लेकिन स्वतंत्र रूप से एक अंक के संपादन करने का यह पहला अवसर है। इस अवसर को देने और मुझमें विश्वास जताने के लिए भाई माणिक का शुक्रिया। जीवन-दर्शन की सह-यात्रा में हमने साथ में यह जाना कि जो ख़ुद पर विश्वास करता है, वही दूसरे पर विश्वास जताता है। शून्य से एक ऊँचे मुकाम पर पहुँची पत्रिका के इस अंक को परवान न चढ़ा सकूँ तो कम से कम जिस धरातल पर वह कल तक पाँव टिकाए खड़ी थी, वहाँ खड़ी रखना मेरे लिए एक चुनौती थी। कितना सफल रहा हूँ इसका निर्णय पाठकों के हाथ में है। पराजित के पक्ष में खड़े रहने का हमारा दशक भर पुराना निर्णय है। हम इस पर अटल हैं। इसी क्रम में इस अंक में हमने अबूझमाड़िया, बैगा और जौनसारी जनजाति की सांस्कृतिक परम्पराओं और दलित साहित्य पर आलेख शामिल किए हैं। एक ओर अंकुश गुप्ता का आलेख ‘भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में किशोरों का योगदान’ इतिहास के कम गौर किए गए पहलू से आपको रूबरू कराएगा तो दूजी ओर कविता सिंह का लेख ‘कौवा-कोयल के मुहावरे का राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में पुनर्पाठ’ हमारे सोचने-विचारने के पैटर्न को एक झटका देगा। ‘ऑनलाइन समाचार के उपभोक्ता व्यवहार पर क्लिकबेट हेडलाइंस का प्रभाव’ और ‘वेब सीरीज : भाषा और संवाद की नई प्रवृत्तियाँ’ जैसे आलेखों द्वारा हमने समकालीनता पर भी अपनी गहरी दीठ रखी है। कुमार अम्बुज की कविताओं पर शम्भु गुप्त का आलेख पत्रिका के लिए बड़ी उपलब्धि है।
रचनात्मक लेखन में ‘रिश्तों का संसार’ कॉलम में संध्या दुबे का पिता के नाम लम्बी चिट्ठी और अनाम प्रेयसी के नाम अखिल की चिट्ठी के द्वारा गुम हुई इस विधा को फिर से सहेजने का प्रयास है। बकौल बाबुषा कोहली “कि तूने केवल स्टेटस बदलते देखा है। मैंने सिगड़ी को गैस चूल्हे में, चिट्ठी को टेलीफोन में और आदमी को मशीन में बदलते देखा है”। हमारे संस्मरण कॉलम के नियमित स्तंभकार हेमंत कुमार आपके लिए लेकर आए हैं एक और बेजोड़ रचना ‘रतन कुआँ मुख साँकड़ा’। और चीकू के बीज में है बिलकुल नई रौशनी।
इस अंक में जो कुछ अच्छा बन पड़ा है उसके लिए माणिक और ‘अपनी माटी’ की पूरी टीम को बधाई दें और जो कमियाँ रह गई हैं उनकी जिम्मेवारी मेरी है।
ये एक शानदार सम्पादकीय और जबर्दस्त अंक है। इस संपादकीय, इस अंक और आप पर विश्वास के निश्चित रूप से पत्रिका का कद बढ़ा दिया है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन, पढ़कर अच्छा लगा ❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत अंक बना दिया है आपने अपने सतत प्रयासों से। मैं भी अपनी माटी का लम्बे समय से पाठक रहा हूँ लेकिन जितने अपनेपन और आग्रह के साथ आपने मुझे इस माटी में मिलाया है, मैं इससे अभिभूत हूँ। आपके व्यक्तित्व को दर्शाते हुए सम्पादकीय में अध्यात्म की चुनौतियों को अनुभव किया, जो अध्यात्म की कलात्मक अभिव्यक्ति के साधन "कविता" द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। इस अंक की सभी रचनाएँ और चित्रांकन बहुत खूबसूरत है। माणिक जी के साथ ही सम्पूर्ण रचनात्मक दल इस बधाई के हक़दार है।इस पत्रिका में कार्य करते हुए कुछ यूँ लगा, जैसे परोपकार के लिए काम कर रहा हूँ। माणिक जी से जुड़ा कोई भी विद्यार्थी हो, विद्वान या सामान्य पाठक...हर कोई इस साहित्यिक मिशन से जुड़ता चला जाता है। करेक्शन के लिए भाई गुणवंत को भी धन्यवाद, जो भेजते ही तत्काल अपेक्षित सुधार कर के Done कहते हैं। और निःसन्देह ये कार्य धनाश्रित नहीं हो सकता था। "अपनी माटी" एक साहित्यिक भावधारा है, जिससे मुझे फिर से जोड़ने के लिए शुक्रिया... जोड़े रखियेगा।
जवाब देंहटाएं'अपनी माटी' का यह सामान्य अंक महत्वपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंइस अंक में रत्नकुमार सांभरिया का उपन्यास-अंश, सत्यनारायण व्यास की डायरी, दिनेश कुशवाह से बातचीत, विजय राही की कविताएँ आदि महत्वपूर्ण सामग्री है।
और भी कई ज़रूरी लेख हैं।
इतना बड़ा अंक निकालना व इतनी विविध सामग्री देना सचमुच बहुत मेहनत और धैर्य का काम है।
सम्पादक और उनकी टीम को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।
मनुष्य के 'अहम्' की जिस तरह की पड़ताल संपादकीय में की गई है, उससे सहमति के अलावा और किसी 'मति' की संभावना नहीं। यह एकदम वाजिब पक्ष है कि मानव प्रकृति का अंश भर है , उसका स्वामी नहीं फिर मनुष्येतर के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण मानवोचित क्यों नहीं है? हालांकि अभी मानव का मानव के प्रति मानवोचित व्यवहार भी सीखना शेष है।
जवाब देंहटाएंनए संपादक 'अंक' के स्तर को 'अपनीमाटी' की प्रतिष्ठा के अनुरूप कायम रखेंगे, इसका यकीन था। मगर जब 'अंक' सामने है तो इसकी समृद्धि पर मन में खुशी के फूल इफरात से खिल आए हैं। यह भी खबर है कि संपादक जी को संपादन के साथ-साथ (बल्कि समानांतर) भी बहुत कुछ संपादित करना पड़ा है। शोध के साथ पत्रिका का रचनात्मक पक्ष काबिले -तारीफ़ है। पत्र , डायरी, संस्मरण और कविताएँ टटकेपन व अहसास से भरी-पूरी हैं। टीम अपनी माटी बधाई की पात्र है। भाई विष्णु जी का संपादक के रूप में पगफेरा शुभ रहा है।
इतनी अच्छी है ये कहानी तो
जवाब देंहटाएंइसमें भी रोल सब तुम्हारा है
- विजय राही
सुंदर संपादकीय। संग्रहणीय अंक। आपने देरी से कविताएँ भेजने के बाद भी उन्हें इसी अंक में शामिल किया, यह आपका स्नेह है। संपादकीय दायित्व की इस नई पारी के लिए मेरी बहुत बधाई और शुभकामनाएँ 🌻
अहम और वहम का मारा मनख अपना तो क्या भला करेगा ? इस कायनात का रंग बदरंग करेगा | आपके संपादकीय में समकालीन वैश्विक चिंताएँ मुखरित हैं | दिनेश कुशवाह जी से संवाद और शोध-पूर्ण लेख इस अंक को यादगार रखेंगे | हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें |
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