शोध सार : धूमिल के काव्य में राजनीतिक अभिव्यंजना / सिद्धिनाथ

धूमिल के काव्य में राजनीतिक अभिव्यंजना
- सिद्धिनाथ

साभारः गुगल 

शोध सार : कविता मानव मन की उपज होती है, जो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों, विचारों एवं स्वभाव से परिवर्तित स्वरूप में प्रगति करती रहती है। कविता केवल पारलौकिक धरातल पर प्रतिष्ठित होकर उसके आदर्श एवं मूल्यों का गुणगान करके अपनी सार्थकता को साबित नहीं करती बल्कि उसकी सार्थकता तो मानव स्वभाव के कण-कण से प्रलक्षित होती रही है। कविता मानवीय संवेदनाओं की युगीन प्रवाहित धारा है, उसकी प्रासंगिकता का चरम बिंदु है। कविता समसामयिक पहलुओं से अछूती नहीं रह सकती क्योंकि वह जितनी अधिकता से उन पहलुओं की मार्मिकता को अभिव्यंजित करेगी वह उतनी ही सार्थक सिद्ध होगी। कविता समाज में घटित होती प्रतिदिन की घटनाओं से संबंधित होती है और जन समुदाय के समाज से सीधा सरोकार रखती है। कविता समाज का वह दर्पण है, उसका प्रतिबिंब समाज के समक्ष प्रकट करती है। व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है जिसकी उन्नति और अवनति इससे अलग नहीं देखी जा सकती है। वैसे ही समाज से राजनीति का अटूट रिश्ता रहा है जो कई सदियों से चला आ रहा है। जिसे हिन्दी साहित्य के कवियों ने भी अपनी कविताओं में व्यंजित किया है। इन हिन्दी कवियों में धूमिल सर्वोपरि माने जाते हैं। इनकी रचना-धर्मिता में राजनीतिक चेतना अपना एक अलग महत्त्व रखती है। जिसका विस्तृत उल्लेख इस शोध आलेख में किया गया है। 

बीज शब्द : राजनीतिक चेतना, आक्रोश, व्यवस्था-विरोध, गरीबी, जहालत, गवई-गंध, प्रजातंत्र, आजादी, राजनेता, संसद आदमी आदि।

मूल आलेख : राजनीति समाज का एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है जिससे कतरा कर निकल पाना किसी भी साहित्यकार के लिए संभव नहीं हो पाया है क्योंकि राजनीतिक यथार्थता प्रत्येक कालखंड की चेतना में प्रदर्शित होती रही है। हिन्दी कविता भी इस राजनीतिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है। भले ही यह कमोवेश रूप में प्रभावित रही हो। हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखंडों में राजनीति का वर्चस्वशाली प्रभाव परिलक्षित होता है। हिन्दी साहित्य की आदिकालीन काव्य परंपरा से लेकर आधुनिक काल तक की कविताओं में यह प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। आदिकालीन रासों काव्य राज-प्रासादों, दरबारों, सामाजिक संगठनों, समुदायों की राजनीतिक गतिविधियों का हवाला प्रस्तुत करते हुए लक्षित होते हैं। इसके साथ ही राज्याश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की वीरता का गुणगान करने के साथ-साथ उनकी राजनीतिक प्रभावशीलता का भी वर्णन करने में कम महारथ हासिल नहीं की थी। इसी तरह भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के कवियों ने भी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक वर्चस्व को भी अभिव्यंजित करने का भरसक प्रयत्न किया है। हिन्दी साहित्य के मध्यकालीन काव्य में राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। मुगलों की व्यवस्थाओं, व्यवस्थापिकाओं और उनकी शासन-प्रशासन की राजनीतिक गतिविधियों का हवाला प्रस्तुत किया गया है। यह हवाला चाहे भक्ति कालीन रचना धर्मिता के माध्यम से हो या फिर सीधे समाज केंद्रित। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास की अप्रतिम रचना 'रामचरितमानस' है। जिसमें गोस्वामी जी ने राजनीतिक व्यवस्था-विरोध को भलीभांति प्रश्रय दिया है।

       इसी तरह रीतिकाल में भी रीतिकालीन कवियों ने राजनीतिक व्यवस्था-विरोध के उठापटक को अभिव्यंजित करने का प्रयास किया है। रीतिकालीन कविता राजाओं, रईसों, सामंतों आदि के दरबारों में पली-बढ़ी है। जिससे इन दरबारों  की विलासिता वहाँ से निकल कर समाज को भी क्षतिग्रस्त करने लगी थी। जिसका भली-भांति वर्णन बिहारी, भूषण, सूदन आदि कवियों की रचनाओं में देखा जा सकता है। आधुनिक काल की कविता राजनीतिक चेतना से ओत-प्रोत है। आधुनिक काल के कवि अपनी कविताओं में केवल  ईश्वरीय भक्ति का गुणगान नहीं करते थे बल्कि मनुष्य को केंद्र में रखकर भी रचनाएँ करते थे। आम जन-मानस को राजनीति, देश-प्रेम, समाज सुधार जैसी भावनाओं से अवगत कराने के लिए रचनाएँ करते थे। आधुनिक काल में कई ऐसी राजनीतिक त्रासदियाँ हुई हैं जिनका कवियों ने अपनी कविताओं में विरोध किया है। हिन्दी साहित्य की कविता की विकास यात्रा आधुनिक काल तक आते-आते दरबारों से बाहर निकल कर अंग्रेजी सत्ता के चंगुल में फंस गईं थी, जिसका फायदा उठाकर अंग्रेजों ने कई वर्षों तक भारत को गुलाम बनाकर लूटपाट की। अपने स्वार्थ के लिए लोगों को एक दूसरे से लड़ाकर अपनी उन्नति करते रहे। "अनेक जातियों, उपजातियों में विभक्त इस देश में पारस्परिक एकता का सर्वदा अभाव रहा है। विदेशी मुसलमानों की विजय का कारण भी यही था और अंग्रेजों की विजय का भी।"1

      ऐसी स्थिति में आधुनिक काल के कवियों के लिए राजनीतिक गतिविधियों की अभिव्यंजना एक अहम विषय रहा है। स्वतंत्रता पूर्व के राजनीतिक अंतर्द्वंद्व  को भारतेन्दु, द्विवेदी तथा छायावादी युगीन काव्य रचनाओं में देखा जा सकता है। प्रगतिवादी कविता मार्क्सवादी सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें राजनीति का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रेम और मस्ती के काव्य में अनुभूतियों के अनुरूप कविताएँ रची जा रहीं थी तो प्रयोगवादी कविता में शब्द प्रयोग के साथ-साथ राजनीति का भी अभिव्यंजन देखा जा सकता है।

      समकालीन हिन्दी कविता भारतीय स्वतंत्रता के बाद की कविता है। समकालीन हिन्दी कविता केवल राजनीति की यथा स्थिति को ही नहीं व्यंजित करती है बल्कि उसकी मूल्यहीनता को भी अभिव्यक्त करती है। इस संदर्भ में डॉक्टर हुकुमचंद राजपाल लिखते हैं कि- "इस काव्यधारा के कवियों का मूल प्रतिपाद्य राजनीति और व्यवस्था की विद्रूपताओं के फलस्वरूप जन-सामान्य में व्याप्त मूल्यहीनता को व्यंजित करना है। ये कवि मूल्यहीन स्थितियों को उद्घाटित कर जन-मुक्ति के मूल्य के प्रतिष्ठापक हैं। सही और सार्थक पहचान इनका संबल है।"2 समकालीन हिन्दी कविता में समकालीन जन-सरोकारों को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। राजनीति आधुनिक व्यक्तियों के जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। जिसके फलस्वरूप समकालीन हिन्दी हिन्दी कविता के केंद्र में राजनीति का आ जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है। 

      समकालीन हिन्दी काव्य जगत के लगभग सभी कवियों ने राजनीति को दृष्टि में रखकर अपनी रचना की हैं। क्योंकि यह समकालीन संदर्भों का एक ऐसा प्रसंग था जिससे कोई अलगाव न रख सका। धूमिल समकालीन हिन्दी कविता के पक्षधर कवि माने जाते हैं। जिनका काव्य राजनीतिक व्यवस्था की विसंगतियों पर अधिकाधिक कटाक्ष करता दिखाई पड़ता है। धूमिल का वास्तविक नाम सुदामा प्रसाद पांडेय है। इनके मुख्यतः तीन काव्य संग्रह 'संसद से सड़क तक', 'कल सुनना मुझे', 'सुदामा पांडे का प्रजातंत्र' हैं। इन संग्रहों की कविताएँ किसी न किसी रूप में राजनीति के छल-छद्म को यथार्थता के धरातल पर अवश्य ही प्रकट करती हैं। उनकी राजनीतिक चेतना एक समस्या के रूप में चित्रित हुई है, जो कठिन परिस्थितियों में भी संवेदनात्मक चुनौतियों की भरमार करती दिखाई पड़ती है। 

      कवि ने राजनीति के अछूते पहलुओं पर ऐसा प्रहार किया है जिससे राजनीतिक चरित्र का दोहरापन बेनकाब होने से बच नहीं सका है। ऐसा ध्वनित होता है कि धूमिल अपने काव्य में समाज तथा देश की किसी भी विसंगति को छोड़ना नहीं चाहते थे। उनके काव्य में संसद, सड़क, जनता, जनतंत्र, आजादी, समाजवाद, राजनेता, आम आदमी जैसे सब प्रयुक्त हुए हैं जो कवि की दृष्टि में  अपनी सार्थक अर्थवत्ता को छोड़कर निरर्थक साबित हो रहे हैं। "व्यवस्था के प्रति आक्रोश और विरोध, विसंगतियों पर पैना व्यंग्य, व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के बदलते हुए आयाम भी उनकी कविता में अभिव्यंजित हुए हैं। सच्चे अर्थों में वे युग बोध के कवि हैं। उन्होंने जो कुछ भी देखा, जैसा देखा उसे वैसा ही चित्रित किया है। उनके काव्य में समकालीन यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कविताओं में व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के कथ्य के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ भी समाहित हैं। देश की ज्वलंत समस्याओं के प्रति भी वे सजग हैं। जनसंख्या, बेकारी, भुखमरी को उन्होंने अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाया है। धूमिल की कविताओं का मूल्यांकन समसामयिक संदर्भों तथा कवि चेतना की पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है।"3 

       वर्तमान में इस राजनीतिक मसौदे से कोई कट नहीं सकता है, क्योंकि यह मानव विकास की स्वचालित गति है जो समयानुसार उसको प्रभावित करती रही है। कविता भी राजनीति पर आज खुलकर अपनी पक्षधरता को व्यक्त करती है। धूमिल का काव्य राजनीतिक चेतना दृष्टि से हिन्दी काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

       हमारे देश की आजादी के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है। यह आजादी केवल शासकों का परिवर्तन मात्र नहीं थी बल्कि इससे सामाजिक जीवन में भी कई परिवर्तन हुए हैं। समाज में फैली भुखमरी, अशिक्षा, अकाल जैसी अनेक समस्याओं पर लोगों का ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास किया गया है।  परन्तु देश विभाजन, युद्ध और अशांति जैसी परिस्थितियों ने देश की जड़ों को हिला कर रख दिया है। देश की आजादी का सपना पूरा होने पर हर व्यक्ति प्रसन्न था, इस प्रसन्नता को कवि धूमिल भी अपने काव्य में व्यक्त करते हैं। यथा-

"मैंने कहा आजादी...
मुझे अच्छी तरह याद है
मैंने यही कहा था
मेरे नस-नस में
बिजली दौड़ रही थी
उत्साह में।"4

       कवि को आजादी के खुले वातावरण में कई प्रकार की अजीब चीजें देखने को मिलीं। वह दौड़कर  खेतों में देखता है कि आजादी का प्रभाव अनाज की उपज के अंकुरों में फूट पड़ा है, चिड़िया पेड़ों पर बैठी चहचहा रही हैं, बैलों के गले में पड़ी कांस्य की बजती घंटियों को देखकर उनकी पीठ थपथपाता है, वापस लौट सारे घर में रोशनी करता है, उत्साह में  सारे देश में दीप जलाए गए, दीवार में टंगी पुरानी तस्वीरों की सफाई कर उन्हें वहीं टांग देता है और आजादी के नाम पर एक पौधा लगा कर वन महोत्सव की घोषणा करता है।    

      भारत शांति का पर्याय माना जाता है, इसलिए कवि शांति के प्रतिरूप एक जोड़ी कबूतर पाल लेता है। धूमिल आजादी को ही अपना लक्ष्य नहीं मानते हैं। उनके लिए आजादी वह साधन है जिसमें सामाजिक जीवन की खुशहाली की दिशा दिखाई देती है। वे वर्तमान का  स्मरण कर भविष्य की काल्पनिक खुशहाली की सांत्वना को व्यंग्यात्मक रूप में काव्य में प्रकट करते हैं। उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्थाएँ शोषण मुक्त होंगी तथा कोई व्यक्ति रोटी, कपड़ा, मकान और दवा के अभाव में घुट-घुट कर नहीं मरेगा। जिसके लिए वे बार-बार अपनी सम्मोहित बुद्धि के कारण उन नेताओं को अपना नेतृत्व सौंपते रहे। परन्तु ये राजनेता देश के आम लोगों की मूल समस्याओं को अनदेखा कर विश्व शांति, पंचशील जैसे मुद्दों पर उलझे रहे। ऐसे समय में आम जनमानस की आशाएँ, आकाक्षाएँ निरर्थक मालूम पड़ रही थीं तथा विकास योजनाएं विफल साबित हो रही थीं। ये परिस्थितियाँ आजादी के बाद अधिक भयवाह होने लगी थीं। क्योंकि यह राजनीतिक विफलता का दौर था‌ लोगों का ऐसी राजनीतिक सत्ता से मोहभंग होने लगा जो अपने स्वार्थ के लिए छल-कपट, सत्ता-लोलुपता तथा चुनावी हथकंडे अपनाने से नहीं चूकते हैं। धूमिल आजादी के इस यथार्थ का आंकलन करके आजादी पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सवाल करते हैं- 

"क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?"5

       कवि इस मोहभंग की स्थिति में आजादी को निरर्थक मानता है जो सिर्फ औपचारिक बनकर रह गई है। जिससे न भूख मिटाई जा रही है, न मौसम बदला जा रहा है। विश्वनाथ त्रिपाठी का कथन है कि- "नेहरू का निधन स्वातंत्र्योत्तर भारत में निराशा और मोहभंग की पहचान है। यह मोहभंग तारसप्तक में  पाए जाने वाले मोहभंग जैसा केवल बौद्धिक नहीं। यह हमारे देश के एक दौर का मोहभंग है।"6 धूमिल की राजनीतिक अभिव्यंजना इसी मोहभंग की उपज कही जा सकती है। स्वतंत्र देश में प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई गई और सभी को स्वतंत्रता, समानता के अधिकार भी दिए गए। परन्तु इस व्यवस्था ने समाज को कई वर्गों में विभाजित करके आम लोगों के अधिकार पूंजीपतियों के हाथों में सौंप दिए जो उनकी विलासिता के एकमात्र साधन बनकर रह गए। आज जो साधन संपन्न हैं उनके लिए निर्बल, असहाय गरीब लोग सबसे गंदी गाली बन गए हैं। 

      प्रजातंत्र की इस व्यवस्था में चुनाव, राजनेता, संसद, जनता, न्याय व्यवस्था, संविधान आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस पर कवि धूमिल ने विचारकर प्रजातंत्र के असली चेहरे को समाज के सम्मुख उजागर करने का काम अपनी  कविताओं के माध्यम से किया। धूमिल की दृष्टि में आज जिसे 'जनतंत्र' कहते हैं वह आज इन भेड़ियों की जुबान पर ही जिंदा है, जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या की जाती है-

"जनतंत्र'
जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेड़ियों की जुबान पर जिंदा है।"7

      धूमिल वर्तमान की परिस्थितियों के लिए लोगों को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। क्योंकि ये लोग अपनी जड़ीभूत मानसिकता के कारण ही पीड़ित, शोषित और दमित हैं, जो व्यवस्था के अमानवीय अत्याचारों के शिकार हैं फिर भी वे अपने इस दशा के खिलाफ न ही आवाज उठाने और न ही कुछ करने को तैयार होते हैं। धूमिल इन लोगों की इस उदासीनता और तटस्थता को देखकर दुखी होते हैं जो देश के चालाक नेताओं के बहकावे में आकर शोषित होने को अपनी नियति मान बैठे हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद जो नेतृत्व उभरा वह अत्यंत स्वार्थी, धूर्त, क्रूर एवं संकीर्ण दृष्टि का था जो भ्रष्टाचार में संलिप्त होकर राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचाता था। ऐसे नेतृत्वकर्ता  नेताओं के चरित्र पर प्रकाश डालते हुए  धूमिल लिखते हैं कि-

"मगर चालाक 'सुराजिये'
आजादी के बाद के अंधेरे में
अपने पुरखों का रंगीन बलगम
और गलत इरादों का मौसम जी रहे थे
अपने-अपने दराजों  की भाषा में बैठकर
गर्म कुत्ता खा रहे थे
'सफेद घोड़ा' पी रहे थे।"8

       कवि ने चालाक 'सुराजिये' शब्द के द्वारा नेताओं के प्रति पूरी कुत्सा को चित्रित किया है। इस अव्यवस्थित एवं स्वार्थपूरित व्यवस्था के अंधेरे में इन चालाक नेताओं ने अपनी सुख-सुविधाएँ सुरक्षित करके पूर्व-शासकों के पदचिह्नों पर चलकर भी गलत दिशा का चुनाव कर लिया है। जिसका उद्देश राष्ट्र निर्माण न होकर अपने लिए सुख - सुविधाएँ जुटाना हो गया है। धूमिल ऐसे स्वार्थी नेताओं की कटु आलोचना करते हैं।

      धूमिल ऐसे अवसरवादी नेताओं को निर्लज्ज और निष्ठुर कहते हैं, जो सत्तापक्ष से अपने को अधिक समय तक अलग नहीं रख सकते। अगर आवेश या अन्य किसी कारणवश ये सत्तापक्ष से विमुख भी हो जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए सत्ता के गठजोड़ में लग जाते हैं। जिसके लिए ये नेता लोग चुनावों के समय आम जनता से कई तरह के झूठे वादे भी करते हैं। परंतु अपना स्वार्थ सिद्ध होने के बाद ये जनता की समस्याओं को अनदेखा करते नजर आते हैं। वर्तमान समय में राजनीतिक व्यवस्था की यह स्थिति अत्यंत भयावह रूप धारण कर चुकी है। धूमिल ने 'चुनाव' नामक कविता में यह अभिव्यंजित किया है कि आश्वासनों की बौछार और चुनावों के नाम पर लोगों को कैसे ठगा जाता है। "चुनाव जीतने के लिए उन्हें एक ओर तो पूंजीपतियों के अनुसार चलने के लिए बाध्य होना पड़ता तथा दूसरी ओर जनता को झूठे आश्वासन देने पड़े। इस दोमुंही नीति के कारण उनमें राजनीतिक चरित्रहीनता बढ़ने लगी।

      यह राजनीतिक व्यवस्था की विडंबना रही है कि वह सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई है जिसके चारों ओर पूंजीवादी दिमाग घूमता रहता है। इन नेताओं की निरर्थक नारेबाजी के फलस्वरुप ही राजनीतिक व्यवस्था में व्यंग्य के स्वर का मुखरित होना स्वाभाविक है। धूमिल इसे कई प्रसंगों में अभिव्यंजित करते हुए लक्षित होते हैं।

निष्कर्ष : फलत: यह कहा जा सकता है कि धूमिल की कविता आम आदमी की कविता होने के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था विरोध का केंद्र भी है। हाशिए पर धकेल दिए गए आम आदमी को संसद से लेकर सड़क तक जिस तरह से धूमिल ने देखा है तथा उनकी अंतर्व्यथा को हृदयंगम कर अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से रूबरू कराया है वह पुनर्नवीकरण आज की राजनीति में स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है। यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि धूमिल अपने दौर के सबसे समर्थ कवियों में से एक थे जिन्होंने आम जनमानस  के साथ-साथ तत्कालीन समय की राजनीति गतिविधियों का भी हवाला अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया है। उस राजनीतिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य प्रहार किया है जो तत्कालीन समय और समाज को स्वार्थपरता  तथा छल छद्म के व्यवहार से पंगु करती जा रही थी। 

संदर्भ : 
1. नगेन्द्र, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2014, पृ. सं.- 402
2. हुकुमचन्द राजपाल, ‘समकालीन बोध और धूमिल का काव्य’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. सं.- 42
3. मीनाक्षी जोशी, ‘धूमकेतु धूमिल और साठोत्तरी कविता’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. सं.- 180 
4. रत्नशंकर पाण्डेय, ‘धूमिल समग्र’ भाग 1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ. सं.- 113
5. वही, पृ. सं.- 47 
6. नीलम सिंह, ‘धूमिल की कविता में विरोध और संघर्ष’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. सं.-54 
7. रत्नशंकर पाण्डेय, ‘धूमिल समग्र’ भाग 1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ. सं.- 72 
8. वही, पृ. सं.- 74 ‌
9. मीनाक्षी जोशी, ‘धूमकेतु धूमिल और साठोत्तरी कविता’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. सं.- 52

सिद्धिनाथ

शोध‌ छात्र, हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

siddhi1707@gmail.com, 8423604156


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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