कुमार अंबुज : छह जन-विरोधी शक्तियों के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज़ करती कविता
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शंभु गुप्त
कुमार अंबुज की एक बहुत ही खूबसूरत और सहज कविता है- ‘पुरानी तस्वीर के बरअक्स’। इस कविता में व्यक्ति के मूल रूप व सभ्यता की चमक-दमक में धीरे-धीरे उसके बदलते जाने और लगभग दूसरा ही रूप लेते जाने की परिघटना का संक्षिप्त सांकेतिक संरचन है। इसमें सबसे खूबसूरत बिम्ब है, माँ जो चेहरा छोड़ गयी थी! माँ ने जैसा हमें बनाया या बनाना चाहा, हम लगातार उससे भटकते व बदलते चले-
यह किसकी क़मीज़ पहने हुए हूँ मैं
यह कोट तो कभी था नहीं मेरे पास
लेकिन वह जीवन ऐसा था कि पड़ोसी से
निस्संकोच माँगे जा सकते थे कपड़े या जूते
मैं भी अपने इसी चेहरे को
पहचान सकता हूँ कुछ भरोसे के साथ
इसे ही देखा था पहली बार नदी में झाँकते हुए
इसी चेहरे को आसमान की तरफ़ सिर उठाते
मगर यह शक्ल जो अब रह गई है मेरे पास
इसे नहीं पहचान पाते पुराने संगी-साथी
और मैं भी पड़ जाता हूँ संशय में
यह वह चेहरा नहीं जो माँ जाते समय छोड़ गई थी
कभी स्वप्न में मिले तो शायद अपनी अचूक ममता से पहचाने
बाक़ी तो मैं ख़ुद एक अजनबी हूँ इस चमकदार सभ्यता में।
(उपशीर्षक; पृष्ठ-71)।
माँ जाते समय आख़िर मेरा कौन-सा चेहरा छोड़ गयी थी? इस पर विचार किया जाए, तो थोड़ा रुककर पहले हमें इस पर विचार करना होगा कि माँ आख़िर कैसा चेहरा हमारा चाहती रही थी? वह हमें आख़िर कैसा बनाना चाहती रही होगी? उसने हमसे कैसा बनना चाहा रहा होगा? लेकिन इस पर आने से पहले हमें यह भी जान लेना ज़रूरी होगा कि माँ स्वयं में आख़िर क्या थी, उसका अपना जीवन और व्यक्तित्व क्या/कैसा था? यहीं वह कुंजी छुपी है कि आख़िर गड़बड़ कहाँ और क्या और क्यों हुई है!
माँ के कई सन्दर्भ कुमार अंबुज की कविताओं, डायरी तथा कहानियों में आते हैं। जहाँ तक कविताओं की बात है, ‘किवाड़’ से लेकर ‘उपशीर्षक’ तक सभी छहों संग्रहों में अनेकशः माँ का ज़िक्र है। माँ के इन संदर्भों का अध्ययन-आकलन इसलिए ज़रूरी है कि हमारी सामाजिक-पारिवारिक परम्परा और एक व्यक्ति के बतौर हमारे संस्कारों के निर्माण में सबसे ज़्यादा हाथ माँ का होता है। माँ ही हमें सिखाती है कि हम आने वाले समय में किधर जाएँगे; हम धर्मनिरपेक्षता को अपनाएँगे या धार्मिक रूप से कट्टर बनेंगे? जीवन में लोगों, वस्तुओं, घटनाओं, परिदृश्य के प्रति हमारा रवैया प्रगतिशील होगा या प्रतिक्रियावादी? माँ प्रकारान्तर से ख़ुद को हमारे अन्दर प्रतिरोपित/transplant जैसा करती है। माँ के व्यक्तित्व का सबसे लम्बा और गहरा असर सन्तति पर पड़ता है। उसी के बनाये हम प्रस्तुत होते हैं। माँ न केवल हमें भौतिक तौर पर पैदा करती है बल्कि इसी के साथ हमारा सामाजिक अस्तित्व भी सबसे पहले वही गढ़ती है। हम जानते हैं कि सामाजिक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में सबसे बड़ा हाथ माँ का ही होता है। कुमार अंबुज एकदम सही कहते हैं कि माँ ही हमारे ‘चेहरे’ का स्वरूप निर्मित करती है।
कुमार अंबुज की कविताओं, कहानियों, डायरी इत्यादि में माँ के जो सन्दर्भ मिलते हैं, उनसे आसानी से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि माँ हमें कैसा बनाकर छोड़ गयी थी और अब हम उससे भटकते-छिटकते हुए कहाँ आ लगे हैं! माँ के संदर्भों का यह अध्ययन इसलिए भी दिलचस्प है कि हम इस प्रक्रिया से यह जान लेते हैं कि यह इधर जो लगातार हमारा विचलन होता आया है, उसके पीछे हमारी अपनी मध्यवर्गीय लिप्साएँ और आकांक्षाएँ रही हैं; न तो माँ ऐसी थी, न उसने हमें यह सिखाया! यह ठीक है कि स्थितियाँ ऐसी हो आयी हैं कि या तो आप शिकार करो या फिर ख़ुद शिकार हो जाओ; तीसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है-
मैं फँस गया हूँ किसी अजीब से युद्ध में
जो मेरे उस मित्र को भी नहीं दिखता
जो रोज़ मेरे घर आता है चाय पीता है
और रोज़ मुझे गले लगाता है
मुझे बचाया भी नहीं जा सकता कि मेरे पक्ष में
सिर्फ़ मेरी गवाही है
जो बचा सकते हैं ख़ुद को भागकर या ज़मीन पर गिरकर
अभिनय से ताकत से या रिरियाकर
उनकी वजह से ही तो बात यहाँ तक आई है
कि दोहरी मुश्किल है : शिकारी होना होगा या शिकार
(अमीरी रेखा; पृष्ठ- 122-23)।
शिकार करने और होने में हालाँकि ज़्यादा आशंका यही है कि शिकार हो जाया जाये! लेकिन सवाल यह नहीं है कि तुम तन्त्र का शिकार हुए; बल्कि असल सवाल यह है कि इस शिकार होने से बचने के लिए तुमने क्या किया? हक़ीक़त तो यह है कि इस मामले में तुमने ख़ुद को पूरी तरह नियति के हवाले छोड़ दिया, तुमने इतनी भी कोशिश नहीं की, जितनी एक चूहा बिल्ली से ख़ुद को बचाने को करता है-
यदि तुम इस तंत्र का शिकार हो तब भी
तुमने उतनी दूर तक भी दौड़ नहीं लगायी है
जितनी बिल्ली को देखकर चूहा लगाता है
(वही; पृष्ठ-77)।
इसलिए यह तो होना ही था कि यह हुआ-
इस बीच बाज़ारों की क्यारियाँ तुम्हें लुभाती हैं
विश्वविद्यालयों के परिसर तुम्हें पुकारते हैं
राजनेता और धर्माचार्य तुम्हें
झाड़ियों में ले जाने के लिये उद्यत हैं
इतिहास पर टुकड़ों में रोशनी गिरती है
(वही; पृष्ठ-76)।
कालान्तर में धीरे-धीरे जब यह लोभ-लालच हमारी अंतरात्मा तक उतर आता है तो लगभग यही स्थिति पैदा होती है कि हम एकदम अपना अन्यथाकरण ही करने लगते हैं और इसके प्रति ख़ुद को गौरवान्वित भी महसूस करने लगते है! ‘संस्कार’ कविता की ये प्रारम्भिक पंक्तियाँ, जो पूर्व में आ नहीं पायी थीं, यहाँ प्रासंगिक हो उठती हैं। इस कविता का यह अंश स्पष्ट करता है कि यह जो आज हम हो आये हैं, इसके ज़िम्मेदार हम ख़ुद हैं-
अब तुम अपमानित होते हो और मुसकराते हो
यह यकायक नहीं है
यहाँ तक आने में तुमने कई बरस लिए हैं
उपदेशों, परिपत्रों, नियमों, ज़रूरतों और सुविधाओं ने
तुम्हें अनुभवी बनाया और शिक्षित किया
सबसे ज़्यादा उन्होंने जो ठीक तुम्हारे पास बैठते हैं
और अपमान को कभी अपमान नहीं कहते
बल्कि मौक़े-बेमौक़े तुम्हें समझाते हैं
कि ऐसे क्षणों में हिम्मत रखो
याद करो तुमने पहले भी कई बार सहनशीलता दिखाई है
इतनी कि मनुष्य को शोभा नहीं देती
मगर जीवन के ये बरस
मनुष्य की शोभा-यात्रा के नहीं जवाबदारियों के हैं
(वही; पृष्ठ-57)
स्पष्ट है कि माँ ने यह हमें नहीं सिखाया था। यह हमने अपनी मध्यवर्गीय आरामपरस्ती और सहूलियत-पसंदगी के चलते सत्ता-व्यवस्था के साथ समायोजन की प्रक्रिया में सीखा; चाहे भले इससे हमारी मनुष्यता ही खटाई में क्यों न आ पड़ती चली हो! जीवन की इन कथित जवाबदारियों के तहत हमने यह सब किया! माँ ने तो हमें मनुष्यता को शोभित करने वाली चीज़ें ही सिखायी थीं। दरअसल माँ से सीखने की प्रक्रिया कुछ इस तरह की है कि कई बार माँ सीधे-सीधे कुछ नहीं सिखाती, हम उसका अनुकरण करते हुए, उसके मनोनुकूल कार्य करते हुए, उसकी इच्छाएँ पूरा करते हुए, उसे खुश रखते हुए बहुत सारी चीज़े ख़ुद-ब-ख़ुद सीखते चलते हैं। माँ की डाँट, उसकी वर्जनाएँ, उसकी अनिच्छा, उसका रुख़ हमें बहुत-कुछ सिखाता चलता है। उदाहरण के लिए, कुमार अंबुज की कविताओं में माँ के व्यक्तित्व को देखा जाए तो वह एक बहुत ही श्रमशील, संघर्षशील, लोभ-लालच रहित, संयमित जीवन जीने वाली, मनुष्यता से लबरेज़, उदारमना, असांप्रदायिक, कष्टसहिष्णु, व्यक्ति-स्वातन्त्रय व स्वायत्तता को महत्व देने वाली, व्यक्तिवादिता के स्थान पर समूहवाद की हिमायती, गति व प्रगतिशील जीवन-दृष्टि से लैस, क्षमाशील, असीम धैर्यवती स्त्री रही होगी, जिसके यही गुण उन्हें अब तक स्मरणीय बनाये हुए हैं। माँ के इस व्यक्तित्व की अमिट छाप कुमार अंबुज के काव्यनायक पर पड़ी है। ‘क्रूरता’ में एक कविता है-‘अकस्मात् एक दिन’। ऐसी कविताएँ हिन्दी में बहुत विरल हैं। यहाँ जो माँ है, वह अपने स्वरूप में इतनी सहज है कि आश्चर्य होता है कि कितने आत्मसंघर्ष से भरा उनका जीवन रहा होगा! माँ की यह सहजता सबसे बड़ी सीख है कि वह यह मानती आती है कि जो कुछ उसने किया या सहा या झेला; वह उसका दायित्व था, उसने किसी पर कोई अहसान नहीं किया! कुमार अंबुज की कविताओं में दायित्वबोध जो एक महत्वपूर्ण काव्य-वस्तु के बतौर उभरकर आता है; जिसकी विस्तृत चर्चा पीछे हमने की; संभवतः उसके पीछे माँ की यही अंतःप्रेरणा काम कर रही है! कवि ने लिखा-
अपने बारे में बताएगी सिर्फ़ इतना
थोड़े-से समय में बचा हुआ है ज्यादा जीवन
माँ जान चुकी है हमारे समय का धीरज
एक खाई में से निकल कर दूसरी खाई में गिरने की हमारी व्यस्तताएँ
वह विपत्तियों की सुरंग पार करके आई है
और कहती है ऐसा सबने किया इसमें नया कुछ नहीं
(क्रूरता; पृष्ठ-83)।
अपनी इसी अकूत जीवटता और संघर्षशीलता के चलते एक तरफ़ यह माँ परम्परा की दृढ़ संरक्षक है तो दूसरी तरफ़ भविष्य की विश्वसनीय खैरख्वाह। ‘किवाड़’ शीर्षक कविता में कवि ने लिखा-
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों से
देखती है—‘क्या हुआ?’
x x x
भैया जब इन्हें
बदलवाने का कहते हैं
माँ दहल जाती है
और कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
(किवाड़; पृष्ठ-20)
और फिर इसी संग्रह की एक और कविता ‘सुबह के लिए’ में कवि लिखता है-
चौका-बर्तन के बाद
माँ ने ढँक दिये हैं कुछ अंगारे
राख से
थोड़ी-सी आग
कल सुबह के लिए भी तो
चाहिए !
(वही; पृष्ठ-65)।
दुनिया की लगभग हर माँ ऐसा करती है। हमारे यहाँ तो गाँवों में आज भी यह देखा जा सकता है। लेकिन माएँ इसके साथ एक काम और भी करती हैं और वह है, रूढ़ियों, ठस परम्पराओं, अमानवीय और अन्यायपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक संरचनाओं और संस्कारों की संरक्षा और उनका पुनरुत्पादन। संकीर्ण धार्मिकता, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, नस्लवाद इत्यादि का संरक्षण और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनरुत्पादन। इधर कथाकार गौरीनाथ ने अपनी एक लम्बी कहानी ‘हिन्दू’ में ऐसी ही एक माँ का चरित्र प्रस्तुत किया है, जो धार्मिक संकीर्णता, नस्लवाद, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, धार्मिक बहुसंख्यकवाद इत्यादि का परिपोषण तथा पुनरुत्पादन करती दिखायी देती है। यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण है और ‘पहल’ के अंक 122 (जून-जुलाई, 2020; पृष्ठ- 97-120)। लेकिन कुमार अंबुज की माँ का व्यक्तित्व इसके एकदम उलट है। वह मनुष्यता, न्याय, प्रतिरोध, संघर्ष, धैर्य-क्षमा, साहस, धर्मनिरपेक्षता, बहुलतावाद, समता, प्रगतिशीलता इत्यादि मूल्यों की प्रतिनिधि-प्रस्तोता दिखायी देती है। कुमार अंबुज की कविताओं में बार-बार आता है कि माँ चली गयी है! वह जब तक थी, घर में एक गहरी जीवन्तता थी। अपनी एक कविता ‘पूर्वजन्मों की स्मृति’ में एक स्थान पर कुमार अंबुज लिखते हैं-
उस जन्म की साफ़ याद है कि मेरी माँ भी थी जीवित
उसके रोने की आवाज़ अभी भी सुनाई देती है
वहाँ हमारे पास आग थी पत्थर की चक्की और एक गुदड़ी
मिट्टी का तवा और गिरती हुई एक दीवार
घर में और कुछ नहीं था लेकिन चहल-पहल थी
(अमीरी रेखा; पृष्ठ-41)।
ध्यान देने की बात है कि यहाँ जीवन की बहुत सामान्य स्थितियाँ हैं, लगभग एक तरह की घोर अभावग्रस्तता है, लेकिन जीवन की अप्रतिहत ऊष्मा और ऊर्जा है। यह शायद माँ के कारण ही था! माँ का होना दरअसल एक मूल्यवत्ता, सोद्देश्यता, अग्रगामिता का मौज़ूद होना था! माँ यहाँ एक भावावेश, उच्छ्वास या विवशता नहीं है बल्कि एक उत्प्रेरणा, उम्मीद और आश्वस्ति है, जो आत्मविश्वास और निर्भीकता का वातावरण पैदा करती है। कुमार अंबुज में माँ का जो स्वरूप है, वह एक सामान्य स्त्री का व्यक्तित्व भी है। जैसा कि ऊपर कहा गया, वह एक चुपचाप सारे कष्ट, दु:ख सहती चली जाती है, उनका प्रचार या प्रोपेगेंडा नहीं करती! उसे ज़माने से कोई शिकायत नहीं है। वह सबसे पहले अपनी कमियाँ और कमज़ोरियाँ देखती है और ख़ुद को चुस्त-दुरुस्त रखने की कोशिश करती है। जिसे सब्मिसिव/submissive होना कहते हैं, लगभग वही स्थिति है। लेकिन माँ की असल ताक़त है, उसका वह जनतान्त्रिक और बहुलतावादी व्यक्तित्व, जो सबको बराबर सम्मान देती है, सबकी इयत्ता का ख़याल रखती है। कुमार अंबुज की एक कहानी है, ‘माँ रसोई में रहती है’। इस कहानी से माँ के व्यक्तित्व को ज़्यादा आसानी से समझा जा सकता है। कुमार अंबुज की माँ-संदर्भित कविताओं के साथ मिलाकर पढ़ने पर चीज़ें ज़्यादा साफ़ होती नज़र आएँगी।
इस कहानी की माँ ज़्यादातर रसोई में रहती है। एक तरह से रसोई ही उसका अपना कमरा है, जिसमें वह अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय गुज़ारती है। खाना पकाना तथा उसकी तैयारी तो रसोई में होते ही हैं, अपने बाक़ी के काम, जैसे सोना, आराम करना, उठना-बैठना आदि भी वह यहीं करती है। रात-दिन वह रसोई में ही देखी जाती है। अपने पति के साथ उसका कमरा घर में है, लेकिन वह लगभग न के बराबर उसमें जाती है! माँ के व्यक्तित्व का यह भी एक पक्ष है जो संकेत से बताता है कि माँ एक स्त्री को जीवन-भर पराधीनता और पराश्रितता में डाले रखने वाली हमारी इस पारिवारिक-सामाजिक संरचना से सन्तुष्ट और सहमत नहीं है और उसे अपना एक स्वतन्त्र स्थान- स्पेस/space - चाहिए, जहाँ वह खुली हवा में साँस ले सके, सीधी तनी खड़ी रह सके, जहाँ उसे शान्ति मिले! वह कहती है- “मेरा काम रसोई में चल जाता है। यहाँ मुझे शान्ति रहती है।” (कुमार अंबुज; इच्छाएँ; भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली; पहला संस्करण, 2008; पृष्ठ-21)। एक तरह का लगातार आत्मावलोकन, आत्माभिज्ञान, आत्मसंशोधन का स्वभाव इस माँ का है। जितनी भी हो सकती हैं, यहीं से वह अपनी संभावनाएँ और हौसला अर्जित कर लेती है। शायद इसी तनाव-रहितता का परिणाम है कि माँ शारीरिक व मानसिक दोनों रूप से अभी तक उम्र के असर से बची हुई है। वह कभी थकती नहीं है। वह अभी भी रसोई के प्लेटफॉर्म से किसी लड़की की तरह कूद सकती है, उसे कोई मोच या चोट यदि आती भी है तो उसका कोई असर उस पर नहीं दिखायी देता (द्रष्टव्य; वही; पृष्ठ- 21-22)! इसके अलावा यह भी कि “इस उम्र में भी उसके केश काले और लम्बे हैं।” (वही; पृष्ठ-21)।
इस अकूत जीवटता, धैर्य, स्वतन्त्रता-स्वायत्तता और अपने लिए एक मुकम्मल स्पेस की इच्छा और अंतःशक्ति ने माँ के व्यक्तित्व में एक ऐसा लचीलापन और बहुलतावाद पैदा किया है, जो अमूमन इस उम्र के स्त्री-पुरुषों में नहीं मिलता। एक उम्र के बाद स्त्री और पुरुष दोनों ही नितांत ठस, यथास्थितिवादी बल्कि पश्चगामी हो आते हैं और जंजीरों के सामाजिक उत्पादन-पुनरुत्पादन में मसरूफ़ हो आते हैं। लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ जिस माँ को हम देखते हैं, वह इस ज़मात में शामिल नहीं है। हम देखते हैं कि कुमार अंबुज ने ऐसे किसी प्रसंग में माँ का सन्दर्भ नहीं दिया है, जो इस तरह की पश्चगामिता की कार्यवाहियों में शामिल रहती आती हो। जैसे कि कुमार अंबुज की एक बहुत ही शानदार कविता है, ‘वे लताएँ नहीं’ (अनंतिम; पृष्ठ- 17-19)। उम्र और हैसियत के हिसाब से इस कविता में इन ज़ंजीरों को लता बनाने में माँ की बड़ी भूमिका होनी चाहिए थी; जैसा कि अमूमन होता है कि माएँ अपने जीवन के उत्तर-काल में दुनियाभर की रूढ़िवादिता-परंपरावादिता, पितृसत्ता इत्यादि की बड़ी मज़बूत पैरोकार और प्रवक्ता हो आती हैं; लेकिन हम देखते हैं कि इस कविता में माँ का कहीं हवाला तक नहीं है। कविता थोड़ी बड़ी है, और जैसा कि कुमार अंबुज की रचना-प्रक्रिया की अंतःप्रकृति है कि कविता लिखते या उसकी संरचना के समय वे लगभग एक निर्वैयक्तिकता और वस्तु-यथार्थ के प्रति घनघोर एकाग्रता-सम्बद्धता की स्थिति में एक साथ होते हैं; जिसे अपनी एक टिप्पणी में उन्होंने एक ‘ट्रांस’ जैसी स्थिति कहा। एक उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- “मैं आज जब एक झरने के सामने अभिभूत खड़ा हूँ, उसे एकटक देख रहा हूँ, आँखें, मन और जीवन के वे क्षण पूरी आयु से अलग होकर वहाँ ठिठके रह गए हैं तब कविता लिखते समय, जानता हूँ कि उसमें पिछले समय मेन देखे गए तमाम झरने, उनकी कौंध, सम्पन्नता, एकाकीपन और विशालता भी जुड़ गई। एक अनुभव कभी अकेला नहीं होता। साथ ही स्मृतियाँ, बोध, कल्पना, वैचारिकता और समानान्तर रचनाशीलताएँ एक साथ हस्तक्षेप करती हैं। आप एक ‘ट्रांस’ में होते हैं। किसी जादू के प्रभाव में। अथवा यह ख़ुद एक जादू है लेकिन जादूगर को नहीं पता कि यह कैसे होता है क्योंकि यह सिर्फ़ हाथ की सफ़ाई, अभ्यास या आँखों में धूल झोंकना नहीं है। यह कुछ हद तक शिकार होने जैसा है। आपको पता तब चलता है जब आपकी गर्दन पंजों में आ चुकी है या आप किसी के जबड़े में हैं। कई बार आपको पीछा करके, दौड़ा-दौड़ाकर, थकाकर भी क़ब्ज़े में ले लिया जाता है। और कई बार आप ख़ुद ही समर्पण कर देते हैं जैसे बचना ही नहीं चाहते।” (थलचर; पृष्ठ-79)।
एक कवि की रचना-प्रक्रिया की जब ऐसी स्थिति है कि उसे ख़ुद अपना ही होश नहीं, केवल वस्तु-तत्व उसके सामने है और उसके सामने वह एकदम निहत्था और बेबस है; तो भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कविता में कुछ मेनिपुलेट वह कर सके! कथ्य को मेनिपुलेट करने वाले दूसरे लोग होते हैं, जो कविता को शरणस्थली समझते हैं। कविता को अपनी या अपने वर्ग-समूह या संगठन की शरणस्थली समझने वाले लोग उसे मेनिपुलेट करके ही उसे अपनी सैरगाह बना पाते हैं। बिना मेनिपुलेशन के वह शरणस्थली नहीं बनायी जा सकती; उसमें किसी भी तरह का कोई मेनिपुलेशन न हो तभी वह तथ्य एवं वस्तुपरक बनी रह सकती है। कुमार अंबुज अपनी कई कविताओं और एक डायरी में भी कवियों को कविता को अपनी शरणस्थली बनाने के प्रति सावधान करते हैं। कुमार अंबुज की कविताओं को देखा जाए तो वहाँ यह साफ़ तौर पर दर्ज़ है कि कविता कोई शरणस्थली नहीं, वह एक मोर्चा है! मोर्चा, सत्ता और व्यवस्था से लगातार लड़ते रहने का, क्योंकि इस सबके साथ एक बहुत बड़ा सच तो यह भी है कि एक लेखक या कवि की सम्मानजनक जगह सत्ता के गलियारों में नहीं, प्रतिपक्ष की बेंचों पर ही है; और, जैसा कि हम ऊपर देखते आये हैं, प्रतिपक्ष की बेंच तक एक कवि तभी पहुँच सकता है, जब वह अपनी मध्यवर्गीय कमियों और कमज़ोरियों पर निज़ात पा ले! कुमार अंबुज ने अपनी टिप्पणी ‘फच्छड़ की तरह ठोकना’ के चौथे हिस्से में लिखते हैं- “अवसरवाद, सुविधाओं के लोभ, साहसहीनता- जो मध्यवर्ग की प्रमुख कमज़ोरियाँ होती हैं, ये अपने विराट होते स्वरूप में हैं और एक बहुत बड़े लेखक समुदाय में, जो इसी वर्ग से है, ये सारे लक्षण अब सतह पर भी दिख रहे हैं। जो बचे हुए हैं, वे रोते-कलपते-झींकते संवेदनशील, भावुक मनुष्यों का ठप्पा लिये समाज के एक उपेक्षित कोने में पड़े हैं। लेखक की गरिमापूर्ण जगह सत्ता के गलियारे में नहीं हो सकती। उसकी उन्नत और यशस्वी जगह प्रतिपक्ष की बेंच पर ही सम्भव है।” (थलचर; पृष्ठ-118)। प्रतिपक्ष की बेंच पर होने का अर्थ क्या है? प्रतिपक्ष की बेंच पर बैठने का मतलब है, कविता को एक शरणस्थली न समझकर उसे मोर्चे की एक चौकी में तब्दील कर देना; यानी कि अपने समय और समाज की समीक्षा और इसी क्रम में वहाँ व्याप्त अनैतिकता और अमानवीयता का जमकर प्रतिरोध करना। अपनी ‘सदी के अन्त में कविता’ शीर्षक टिप्पणी (1999) में एक जगह कुमार अंबुज लिखते हैं- “किसी भी समाज में कविता के सरोकार सर्वाधिक रूप से ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परम्परा और समकालीन सामाजिक बोध से जुडते हैं और कवि के संवेदनों के साथ सीधी क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। हालाँकि कवि कई बार कविता में शरणस्थली की तरह जाता है लेकिन जल्दी ही उसे अपनी शरणस्थली को एक मोर्चे की चौकी में बदलना होता है क्योंकि भाषा और समय की सामाजिकता किसी को कविता में देर तक सिर्फ़ अपनी निजी पनाहगाह बनाए रखने की मोहलत और इजाज़त नहीं देती है। यह कलाओं का लक्षण है। लेकिन भाषा के माध्यम के कारण कविता में यह लक्षण अधिक स्पष्ट है। इससे ज़ाहिर है कि कविता का मुख्य सरोकार और व्यापार अपने समय की और अपने मनुष्य समाज की समीक्षा करना है और साथ ही अनैतिकता और अमानवीयता का प्रतिरोध।” (थलचर; पृष्ठ-141)।
‘अमीरी रेखा’ की दो कविताओं- ‘पूर्वजों की लिपि’ तथा ‘शरणस्थली और क़त्लगाह’- में लगभग यही बात कुमार अंबुज कविता की भाषा में कहते हैं। यहाँ फ़र्क यह है कि कविता और जीवन के बीच एक अभेद और तद्वत्ता का प्रतिपादन वे करते हैं और कहते हैं कि जीवन के लोभ-लालच, बाज़ार की चमक-दमक, धर्म और राजनीति द्वारा फैलाये गए संभ्रम, इतिहास के विरूपीकरण और विशृंखलीकरण; इन सबके बीच से ही; जो कि इस समय के हमारे यथार्थ की भयावह विभीषिकाएँ हैं; कविता और विचार का रास्ता निकलता है! यहाँ अलग से यह कहने की ज़रूरत नहीं कि यथार्थ की विभीषिकाओं के बीच से निकलने वाला यह रास्ता प्रतिरोध की मोर्चाबन्दी के तहत ही निकलता है-
और इन्हीं के बीच से होकर कविता का रास्ता है
जो कला भी है और भाषा भी
(अमीरी रेखा; पृष्ठ-76)
इस कविता का समापन इसी अवधारणा के साथ होता है कि कविता कोई शरणस्थली नहीं है, वह एक मोर्चा है! कविता से जब हम एक शरणस्थली का काम लेते हैं तो दरअसल यथार्थ और वस्तु-तत्व के मेनिपुलेशन की प्रक्रिया यहीं से शुरू होती है। प्रतिरोध के अभाव और सत्ता-व्यवस्था के साथ समानुकूलन के तहत हम अपने समझौतों, अनैतिकता, अमानवीयता, विचलन इत्यादि को उचित ठहराने/जस्टीफ़ाई करने की कवायद शुरू कर देते हैं और ऐसे-ऐसे तर्क देने लगते हैं कि जो सिर्फ़ इनकी कमजर्फी का ही बयान करते हैं। इनकी यह कमजर्फी, स्पष्ट है कि, आततायी सत्ता-व्यवस्था को ही मज़बूत करने का काम करती है! लेकिन यह न जीवन का वास्तविक रास्ता है न कविता का। कविता में कल्पना का पुट चाहे जितना हो, जीवन के यथार्थ से परे वह नहीं जाती। उसकी प्रामाणिकता की कसौटी ही यथार्थपरकता है। सबसे खाँटी यथार्थपरक कविता तो दरअसल वह है, जो जीवन के एकदम समानान्तर और प्रतिच्छाया की तरह चलती है; जैसा कि कुमार अंबुज ‘शरणस्थली और क़त्लगाह’ कविता में एक जगह कहते हैं-
वहीं वह बंदूक भी है जो जब कविता में चलती है
तो ठीक उसी वक़्त जीवन में भी चलती है
वहाँ वे फूल भी हैं जो जीवन में खिलना चाहते हैं
तो खिलते हैं कविता में भी
वहीं वह स्पर्श है जो इंद्रियों को
एक साथ उल्लसित और मूर्छित करता है
(वही; पृष्ठ- 76-77)
इसलिए, ज़्यादा अच्छा यही है कि कविता के साथ छेड़छाड़ न की जाए; उसे अपने अग्रगामी रास्ते पर चलते रहने दिया जाए! और, अग्रगामी रास्ता; जैसा कि स्पष्ट है; यही है कि उसे ख़ुद से, ख़ुद के अंतर्निषेधों से मुक्त करके शरणस्थली बनने के बजाय एक खुला मोर्चा बनने दिया जाए; दरअसल ऐसी ही कविता हमें समय की भीषणताओं से उबारती है-
यह कविता की कला है लेकिन भाषा के साथ है
उसका एक काम यह भी हो सकता है
कि वह हमें दिन के मरुस्थल या रात की सुरंग के
पार ले जाये और किसी अजायबघर में छोड़ दे
(वही; पृष्ठ- 76)
यह आकस्मिक नहीं है कि कुमार अंबुज जब कविता को शरणस्थली न बनने देने और उसे एक मोर्चे में तब्दील करने की बात करते हैं तो वे मुक्तिबोध को याद करते हैं! ‘पूर्वजों की लिपि’ कविता ‘मुक्तिबोध जैसे पूर्वज कवियों को याद करते हुए’ ही लिखी गयी है! यहाँ मुक्तिबोध को कुमार अंबुज ख़ास तौर से इसी सन्दर्भ में याद करते हैं कि कैसे कविता को उन्होंने एक शरणस्थली बनाने के बजाय एक युद्ध का मोर्चा बनाया-
कवियों को अपने जीवन का इंतज़ाम
हमेशा कविता के बाहर करना होता है
वे उतना ही ज़्यादा जीते हैं
जितने कम कवि होते जाते हैं
कम उम्र में मारे गये कितने महाकवि
सबको पता है उनकी नाभि में अमृत है
साधारण से युद्ध में भी वे एकदम मैदान में हैं
और निष्कवच
आख़िरी तक लड़ते हुए अपने मोर्चे पर
और इस सबके लिये ख़ुद ही जवाबदेह
(वही; पृष्ठ- 75)
एक जेन्युइन कवि की जवाबदेही की बात विस्तार के साथ पीछे की गयी। कविता को शरणस्थली न बनने देना और उसे एक खुले मोर्चे में बदलते जाना; यह दरअसल एक जेन्युइन कवि की अपनी जवाबदेही ही तो है! एक मोर्चे में बदली हुई या बदलती हुई कविता धीरे-धीरे किस तरह तमाम शरणस्थलियों की सांघातिकता की क़लई खोलती जाती है, उनके हत्यारेपन को उजागर करती चलती है; यह एक दिलचस्प वाक़या है! एक कवि को यदि कविता को शरणस्थली बनने से रोकना है, तो उसे कविता को एक मोर्चे में बदलना ही होगा! कविता एक वक़्त में इन दोनों में से एक ही स्थिति में रह सकती है! या तो शरणस्थली या मोर्चा! अब यह आपका चयन है कि आप किसे अपनाते हो! कुमार अंबुज ने ‘शरणस्थली और क़त्लगाह’ कविता के समापन में लिखा-
तुम जो कविता को शरणस्थली बनाते हो
जो कला भी है लेकिन हर बार
खुले में एक मोर्चा हो जाती है
और शरणस्थलियों को क़त्लगाह बनाती है।
(वही; पृष्ठ-77)।
कविता एक मोर्चा कैसे बनती है और शरणस्थलियों को क़त्लगाह कैसे बनाती है; इस पर विचार किया जाए तो काव्य-रचना-प्रक्रिया, एक कवि की चयन-दृष्टि, प्राथमिकताओं, वरीयताओं इत्यादि आधारभूत वृत्तियों का लम्बा सिलसिला ध्यान में आने लगता है। कुमार अंबुज अपने मौज़ूदा समय और समाज में एक कवि की भूमिका और दायित्व पर अपनी कविताओं और अपनी डायरी व टिप्पणियों में लगातार बात करते रहे हैं। पीछे भी इसके कुछ सन्दर्भ आये। कुमार अंबुज बहुत तफ़सील और शिद्दत के साथ इस प्रकरण में मुख़ातिब होते हैं। अपनी काव्य-यात्रा के शुरू से ही यह मुद्दा उनका एक प्रमुख एजेंडा रहा है। वे केवल कविता लिखकर या डायरी और टिप्पणियों में आपबीती दर्ज़ कर अपने रचना-कर्म की इतिश्री नहीं कर देते बल्कि समय के ऐतिहासिक यथार्थ में एक संगठन के स्तर पर सामूहिक हस्तक्षेप और विचार-विमर्श/बहस की कार्यकर्तामूलक आन्दोलनात्मक पहल भी करते हैं। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव के रूप में तथा बैंककर्मियों के साहित्यिक संगठन ‘प्राची’ के अध्यक्ष के बतौर किए गए उनके काम यहाँ उल्लेखनीय हैं। यों और भी होंगे लेकिन फ़िलहाल इसके दो उदाहरण मुझे याद आते हैं; एक सन् 2002 में राजकमल प्रकाशन से उनके नियोजन एवं सम्पादन में निकली गुजरात दंगों पर केन्द्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए?’ तथा ‘राष्ट्र क्या है? केवल आभिजात्य लोग!’ शीर्षक विचार पुस्तिका, जो प्राची द्वारा सन् 2008 में प्रकाशित की गयी थी। इनमें भी ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए?’ सबसे महत्वपूर्ण कार्य रहा है। क्या हमें चुप रहना चाहिए?; यह विचार-सूत्र जैसे कुमार अंबुज की रचनात्मकता का डाइनमो/dynamo साबित होता नज़र आता है! एक तरह से चुप न रहना मात्र बोलना या अपनी बात सामने रखना नहीं है, अपितु अपने समय को जानना-समझना, उसमें हस्तक्षेप व उसका सामना करना भी है; जैसा कि ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए?’ के सम्पादकीय में कुमार अंबुज ने लिखा कि- “इस प्रकाशन का उद्देश्य क़तई तात्कालिक नहीं है, देश में साम्प्रदायिक हिंसा, घृणा और अलगाव का जो वातावरण बनाया गया है, उसके नेपथ्य की प्रेरणाओं को जानने-समझने और सामना करने की ज़रूरी आकांक्षा ही मंतव्य है।”
चुप न रहने, अपने हिस्से का सच कहने, विरोध दर्ज़ करने और करते चलने, अपने मन की बात बेधड़क कह देने की एक तरह की बान-सी कुमार अंबुज में शुरू से दिखायी देती है। घनघोर संकटपूर्ण समय में भी, जबकि सारी जन-विरोधी शक्तियाँ और उनकी एजेंसियाँ अपनी मनुष्य-विरोधी गतिविधियों और आयोजनाओं में दत्तचित्त हो लगी हों, तब भी इनके प्रति अपना विरोध दर्ज़ करती कविता लिखी ही तो जा रही है! 1986 में ‘किवाड़’ की एक कविता ‘रात आधी है’ में कुमार अंबुज ने लिखा-
इस समय एक आदमी सोच रहा है
विश्वविजय का स्वप्न
एक वैज्ञानिक बना रहा है
मीठी जहरीली गैस
एक कंप्यूटर-पहरेदार रक्षा कर रहा है
सारे अणु-बमों की
एक क्रान्तिकारी छिपा रहा है ख़ुद को
तानाशाह की निगाहों से
और ठीक इसी समय
लिखी जा रही है
एक कविता !
(किवाड़; पृष्ठ-74)
कुमार अंबुज पर लिखी जा रही मेरी किताब का यह छठवाँ हिस्सा है। किताब लगभग 200 पृष्ठ की होगी। लगभग पूरी होने को है; आख़िरी हिस्से का काम रह गया है। अभी इस किताब का शीर्षक तय नहीं किया है। फ़ौरी तौर पर इसका नाम मैंने रखा है : ‘कुमार अंबुज : एक कवि एक गद्यकार’। यह नाम फ़ाइनल नहीं है; लेकिन शायद यही इसका मुकम्मल नाम हो!
शंभु गुप्त
21, सुभाष नगर, एन ई बी, अग्रसेन सर्किल के पास, अलवर-310 001 (राजस्थान)
shambhugupt@gmail.com, 91-8600552663
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
बहुत सुंदर आलेख। कुमार अंबुज मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं। कुमार अंबुज पर आलोचनात्मक किताब के लिए अग्रिम बधाई और शुभकामनाएँ सर 🌻
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