भूदान-ग्रामदान आन्दोलन की वर्तमान परिणति और ‘विश्रामपुर का संत
- अमृता राव
शोध सार : भूदान आंदोलन भारत के स्वतंत्रता-पश्चात के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय था। यह केवल भूमि के पुनर्वितरण का प्रयास नहीं था, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का आह्वान था। पश्चिमी विचारक लुई फिशर ने कहा था, ‘Gramdan is the most creative thought coming from the East in recent times’(अभी के वर्षों में ग्रामदान पूर्व से आने वाला सबसे अधिक रचनात्मक विचार है)। भारत की स्वतंत्रता के समय देश की अधिकांश जनसंख्या गांवों में निवास करती थी और कृषि पर निर्भर थी, परंतु भूमि का असमान वितरण एक बड़ी समस्या थी। बड़े जमींदारों के पास अत्यधिक भूमि थी, जबकि अधिकांश किसान या तो भूमिहीन थे या बहुत कम भूमि के मालिक थे। यह असमानता गरीबी, शोषण और सामाजिक तनाव का एक प्रमुख कारण थी। इस पृष्ठभूमि में, विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन की संकल्पना की, जिसका उद्देश्य था भूमि के स्वैच्छिक पुनर्वितरण के माध्यम से इस असमानता को दूर करना। इसने भारतीय समाज को एक नया दृष्टिकोण दिया और लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि वे अपने समुदाय और देश के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। भले ही आंदोलन ने अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया, लेकिन इसने भारतीय समाज में एक ऐसी चेतना जगाई जो आज भी विभिन्न रूपों में जीवित है। वर्तमान समय में इस आंदोलन की परिणति क्या है और ‘विश्रामपुर का संत’ उपन्यास में उसको किस प्रकार देखा गया है, इस आलेख के माध्यम से इन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित किया गया है।
बीज शब्द : भूदान, ग्रामदान, विनोबा भावे, आंदोलन, उपन्यास, परिवर्तन, सत्याग्रह, राजनीति, ग्राम स्वराज, सामूहिकता, व्यक्तिवाद।
मूल आलेख : 18 अप्रैल 1951 को आंध्र प्रदेश के पोचमपल्ली गांव की एक घटना ने देखते-देखते एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया था। देश की बहुसंख्यक आबादी बेजमीन थी। जमीन पर थोड़े से लोगों का अधिकार कायम था। फलस्वरूप आजादी के कुछ ही सालों के बाद जमीन पर मुट्ठी भर लोगों की मिल्कियत का नतीजा सामने आने लगा। आंध्र प्रदेश के कुछ इलाके में जमीन और बेजमीन वालों के बीच तनाव और टकराव का माहौल था। कुछ हिंसक घटनाएं भी सामने आने लगी थीं। जमीन के सवाल पर आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में हिंसक माहौल कायम था। ‘सर्वोदय समाज’ ने इसी इलाके के शिवरामपल्ली गांव में अपना सम्मेलन करने का फैसला किया और विनोबा जी से इस सम्मेलन में शामिल होने का आग्रह भी किया। विनोबा जी इस सम्मेलन में भाग लेने हेतु पैदल निकले। रास्ते में लोगों से मिलते हुए, दुःख-दर्द सुनते हुए। समाज, देश और दुनिया के हाल के बारे में लोगों की राय पर गौर करते हुए। सम्मेलन से वापसी के दौरान पोचमपल्ली गांव में, गांव वालों से समस्याओं पर विचार के क्रम में, बेजमीन दलित समुदाय के लोगों ने जमीन की मांग की। विनोबा जी ने गांववालों से इस समस्या को सुलझाने का उपाय पूछा। उस गांव के रामचंद्र रेड्डी ने, इसके लिए, सौ एकड़ जमीन दान देने की बात कही। आचार्य विनोबा ने इस घटना पर गहन विचार-विमर्श कर इसे सैद्धांतिक रूप दिया। इन्होंने इस अनोखी घटना में, समूचे देश में, निकट भविष्य में, जमीन को लेकर होने वाले तीखे कोलाहल का हल देखा। यहाँ यह बात अहम नहीं रह गयी कि रामचंद्र रेड्डी ने बेजमीन लोगों के जमीन पर अधिकार के लोकतांत्रिक हक के बारे में सोचकर दान दिया था, या अपनी पिता की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए। इस घटना से प्रेरित होकर महात्मा गांधी के आध्यात्मिक शिष्य आचार्य विनोबा ने भारतीय मानस में मौजूद दान-वृत्ति के महत्त्व को समझकर भूदान की योजना बनायी और इस परिकल्पना को अमली जामा पहनाने निकल पड़े, देश के विभिन्न हिस्से में। गौरतलब है कि पहले बौद्धिक रूप से सिद्धांत-निर्माण कर उसे जमीन पर उतारने की कोशिश आचार्य विनोबा ने नहीं की थी। बल्कि जमीन पर घटित कार्यवाही से सिद्धांत-निरूपण किया गया था और पोचमपल्ली नामक जगह को पूरे देश की मूल आत्मा मानने-समझने की कोशिश की गयी थी।
गांधी के ग्राम स्वराज के सपनों को साकार करने के लिए विनोबा भावे ने लोगों को भूदान और ग्रामदान के लिए प्रेरित किया विनोबा ने कहा था, “स्वराज के बाद अब सर्वोदय का मंत्र हमारे सामने है।”1 लेकिन लगभग सात दशक बाद इनमें से कई गांव इस दायरे से बाहर निकलना चाहते हैं तो कुछ गांव पुराना रुतबा हासिल करना चाहते हैं। ‘डॉउन टू अर्थ’ पत्रिका जुलाई 2023 के अनुसार महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के वन क्षेत्र के अंदर बसे गांव मेंढ़ा (लेखा) ग्रामदान अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। मेंढ़ा में सभी ग्रामीणों ने अपनी जमीन दान कर दी है। जो एक अनूठा मामला है। मेंढ़ा गांव के लोग अपनी निजी जमीन सामूहिक स्वामित्व वाली ग्राम सभा को सौंपकर दशकों पुराना अधिनियम को क्यों लागू करना चाहते हैं, जबकि इस युग में निजी जमीन की कीमतें और महत्व काफी बढ़ रहा है?“ दरअसल, मेंढ़ा अपने काम करने के तरीके वाला एक अनूठा गांव है। अति व्यक्तिवाद की ओर बढ़ रहे समाज में यहां का समुदाय सामूहिक दृष्टिकोण अपना रहा है। गांव पूरी तरह से भोजन व पशु चारे के लिए खेती, वन उपज और इमारती लकड़ी पर निर्भर है। गांववासियों की आय का स्रोत बांस और अन्य गैर-काष्ठ वन उपज की बिक्री और दैनिक मजदूरी है। यहां के लोगों का मानना है कि भूमि कोई निजी संपत्ति नहीं है, बल्कि एक सामूहिक संसाधन है जो भोजन और आजीविका प्रदान करती है और इसे बचाया जाना चाहिए और अगली पीढ़ी को दिया जाना चाहिए।”2 लोग कहते हैं, “आदिवासियों की परम्परा में जमीन किसी एक व्यक्ति के नाम पर नहीं है। यहां तक कि मकान भी रहने के लिए हैं। उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन बेचा नहीं जा सकता है।”3 गांधी के सपनों की ग्रामस्वराज की झलक इस गाँव मे देखी जा सकती है, “ग्राम सभा ने एक सामूहिक अनाज प्रकोष्ठ भी बनाया है, जिसमें हर ग्रामीण कुल उपज का ढाई प्रतिशत अनाज जमा करता है। इसका उपयोग विवाह समारोहों या किसी परिवार के पास अनाज की कमी होने पर किया जाता है। ग्रामीणों को अपनी कुल आय का 20 प्रतिशत भी है, जिसका उपयोग बच्चों की शिक्षा या शादी के खर्च के लिए किया जाता है। यहां यह माना जाता है कि बच्चे गांव के होते हैं न कि किसी एक परिवार के ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका में मेंढ़ा के निवासी हीरा लाल कहते हैं, "सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त करने के बाद गांव में इस बात पर चर्चा हुई कि ग्राम सभा को मजबूत करने और गांव के स्व-शासन के विचार को अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है। इसके बाद गांववासियों के बीच ग्रामदान पर चर्चा शुरू हुई।”4 सिद्धराज ढडडा ने भूदान पत्र में लिखा, “ग्रामदान-भूदान स्वेच्छा पर ज़ोर देने वाला आंदोलन है।फिर भी व्यवस्था की दृष्टि से उसे कानून की मदद अपेक्षित है। क़ानून की मदद इतनी ही चाहिए की लोगों ने जो परिवर्तन करना स्वीकार किया है, उसे वह मान्यता देकर उसे अपनी व्यवस्था में बिठा ले।”5
सीड, अनडाड़ गाँव जैसे मेंढ़ा गांव में सामूहिकता के सिद्धांत पहले से ही मौजूद थे। ऐसे में उनके सिद्धांतों से मेल खाने वाले कानून (ग्रामदान अधिनियम) की वजह से गांव के भूमि अधिग्रहण विरोधी एजेंडे को बल मिला। टोफा कहते हैं कि कृषि और वन भूमि के अधिग्रहण को लेकर उन पर दबाव रहता है, लेकिन ग्रामदान जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा का काम करेगा। यदि ग्रामदान को लागू किया जाता है तो हमारी जमीन, अधिग्रहण के किसी भी पुराने या नए कानूनों से सुरक्षित रहेगी। वह पास के कुछ गांवों का उदाहरण देते हैं, जहां कृषि भूमि को हाल ही में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से जुड़े एक राजमार्ग के लिए अधिग्रहित किया गया है। वह कहते हैं, “प्रस्तावित राजमार्ग के कारण निजी डेवलपर्स ने अभी से रेस्तरां और होटल बनाने के लिए जमीन खरीदना शुरू कर दिया है।”6 इस गांव की एक विशेषता इसका एक अध्ययन समूह है, जिसे वह अध्ययन मंडल कहते हैं। यह एक ऐसा मंच है, जहां गांव के लोग खुले मन से विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हैं। कोई भी इस मंडली का हिस्सा हो सकता है और यह ग्राम सभा को निर्णय लेने में मदद करता है। गांव आम सहमति के सिद्धांत पर काम करता है और पूरा गांव एक परिवार की इकाई है। गांव में सभी निर्णय ग्राम सभा द्वारा सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, जिसमें गांव के सभी वयस्क सदस्य (प्रत्येक परिवार से एक पुरुष और एक महिला) शामिल होते हैं। टोफा कहते हैं, “यहां हम तब तक कोई निर्णय नहीं लेते, जब तक कि गांव के सभी सदस्य अपनी सहमति नहीं दे देते। एक सदस्य के असहमत होने पर भी निर्णय को रोक दिया जाता है और समीक्षा की जाती है।”7
अनडाड गांव की ही तरह आखिर मेंढ़ा गांव के लोग ग्रामदानी गांव बनने के लिए इतना संघर्ष क्यों कर रहे हैं? महाराष्ट्र के थाणे जिले के गांव अनडाड को 28 अप्रैल, 1972 को ग्रामदान घोषित किया गया। गांव के 40 लोगों की 50 हेक्टेयर जमीन पर ग्राम सभा का स्वामित्व है। यह गांव समृद्धि महामार्ग (जिसे नागपुर-मुंबई एक्सप्रेस-वे के नाम से ज्यादा जाना जाता है) से लगभग एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। अनडाड ग्राम मंडल के पूर्व महासचिव शिवराम राजी मोगरे 22 वर्ष के थे, जब उनके गांव में ग्रामदान लागू किया गया था। वह याद करते हैं कि 1980 के दशक से निजी बिल्डरों द्वारा भूमि अधिग्रहण का चलन था और उस समय आसपास के गांवों के किसानों ने अपनी जमीनें 5000 रुपए से 6000 रुपए प्रति एकड़ तक बेच दी थीं।
मोगरे जो ग्रामदान बोर्ड के सदस्य भी हैं। वह कहते हैं, "बिल्डर्स यहां भी आते थे, लेकिन उन्हें अधिनियम के बारे में पता नहीं था। कई लोग जिन्होंने उस दौरान अपनी कृषि भूमि बेच दी थी, अब दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं।"8 लेकिन ग्रामदान को लागू करने के उनके फैसले की बदौलत अनडाड के किसान आज बागवानी निर्यातक हैं। मोगरे कहते हैं कि करीब 30 साल पहले पास की भातसा नदी से गांव में लिफ्ट सिंचाई के जरिए पानी लाया गया और आज गांव के करीब 50 किसान भिंडी का निर्यात करते हैं। वर्तमान में गांव रोजाना औसतन 50 क्विंटल निर्यात करता है और 40 रुपए प्रति किलो की दर से भिंडी की कीमत मिलती है। साथ ही कई ग्रामीणों ने 3-4 लाख रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन भी लीज पर दी है। मोगरे कहते हैं, "आज हम करोड़पति जैसा महसूस करते हैं।"9 लेकिन मेंढा, सीड़ और अनडाड जैसे कुछ गांव अपवाद हैं। बाकी कई गांवों में ग्रामदान अपनी प्रासंगिकता खो रहा है।
क्यों समस्या बना ग्रामदान? -
मेंढ़ा गांव के तोफा की तरह महेश आरे महाराष्ट्र के अकोला जिले के तुलजापुर ग्राम मंडल के अध्यक्ष भी इन दिनों अदालती लड़ाई में व्यस्त हैं, लेकिन टोफा के विपरीत वह चाहते हैं कि उनके गांव की जो 6.47 हेक्टेयर जमीन ग्रामदान अधिनियम के अधीन है, उसे अधिनियम से हटा दिया जाए। यहां के लोग आसपास हो रहे विकास का हिस्सा बनना चाहते हैं। पिछले कुछ वर्षों से कृषि लाभप्रद नहीं रही और ग्रामदानी होने के कारण गांव में समस्याएं बढ़ी हैं। महात्मा गांधी के सपने को हकीकत में बदलने की विनोबा भावे की कोशिशें लगभग सात दशक बाद कमजोर पड़ने की एक वजह जमीन की बढ़ती कीमतें भी है। जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ा और जमीन की कीमतें बढ़ने लगीं, उसके चलते लोगों का ग्रामदान के प्रति मोह भंग होने लगा। यही वजह है कि जयपुर जिले के ग्रामदानी गांव के लोगों ने मिलकर ग्रामदानी हटाओ संघर्ष समिति बनाई है। समिति के अध्यक्ष सोहन लाल सेपट खेजड़ावास ग्राम पंचायत के सरपंच भी हैं। वह कहते हैं, "ग्रामदानी बहुत अच्छी योजना थी। लेकिन धीरे-धीरे में इसमें कमी आने लगी। चूंकि ग्रामसभा के अध्यक्ष तय करते हैं कि गांव की जमीन किसे अलॉट की जाएगी। इसके चलते ग्रामसभाओं में भ्रष्टाचार बढ़ गया। ग्रामसभा के पदाधिकारी बाहरी लोगों को अवैध तरीके से जमीन बेच रहे हैं और गांव के लोगों को उनके हिस्से की जमीन कम कर देते हैं। अध्यक्ष व समिति के सदस्य मिलकर ग्रामसभा में प्रस्ताव पारित कर देते हैं, जिसके बारे में ग्रामीणों की राय तक नहीं ली जाती।"10 खेजडावास ग्राम पंचायत के अधीन छह ग्रामदानी गांव हैं। सेपट गाँव के निवासी कहते हैं कि ये ये सभी गांव अब ग्रामदानी से निकलना चाहते हैं। इसलिए हम लोगों ने मिलकर ग्रामदानी हटाओ संघर्ष समिति बनाई है। जयपुर जिले के ही ग्रामदानी गांव गोकुलपुरा ग्रामसभा के पूर्व प्रधान केसर सिंह कहते हैं कि उनकी गांव की बहुत सी जमीन बाहरी लोगों को बेच दी गई है। इसके लिए बकायदा बाहरी लोगों को ग्रामसभा का सदस्य बनाया गया, वोटर लिस्ट में गड़बड़ी की गई। वे लोग इसकी शिकायत भी कर चुके हैं। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। सेपट कहते हैं कि हमारी मांग है कि हमें काश्तकार अधिनियम-1955 के तहत जमीन आवंटित कर दी जाए। क्योंकि कुछ लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते हैं वो कम से कम इस जमीन को बेच सकते हैं या गिरवी रखकर ऋण ले सकते हैं।
‘डाऊन टू अर्थ’ के अनुसार रूपेश नानामदाने का ही मामला लें। उनकी 5.6 हेक्टेयर सोयाबीन भारी बारिश से 2022 में नष्ट हो गई और उन्हें 1 लाख रुपए का नुकसान हुआ। जब उन्होंने सरकार की प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत फसल बीमा के माध्यम से राहत के लिए आवेदन किया, जिसके लिए उन्होंने 2021 में 6000 रुपए का प्रीमियम चुकाया था, तो रिलायंस जनरल इंश्योरेंस ने उनके दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कृषि भूमि उनके नाम पर नहीं है। गांधी के सपने को हकीकत में बदलने की भावे की कोशिश करीब सात दशक बाद फीकी पड़ गई है। 2018 में ‘राजीव गांधी इंस्टीट्यूट फॉर कंटेम्परेरी स्टडीज’ द्वारा प्रकाशित एक पेपर में लिखते हुए संस्थान के तत्कालीन निदेशक, लेखक विजय महाजन कहते हैं कि पोचमपल्ली में युवा लड़के रामचंद्र रेड्डी ने अपने पिता की 100 एकड़ जमीन भूमिहीनों को देने का फैसला किया हो या मंगरोथ (उत्तर प्रदेश में ग्रामदान घोषित करने वाला पहला गांव) के ग्रामीणों ने अपनी सारी जमीन सामूहिक रूप से देने का फैसला किया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि अधिकांश भारतीय ऐसा ही करना चाहते थे। परंतु विनोबा की साधुता के सम्मान में और दूसरे गांव वालों की देखादेखी कई और जमींदारों ने भूदान में अपनी जमीन का हिस्सा देने का फैसला किया। वह भी तब, जब सरकार भूमि के स्वामित्व पर सीलिंग लगाने की सोच रही थी, ताकि बड़े जमींदारों को बेदखल किया जा सके।
भूदान-ग्रामदान की इन्हीं स्थितियों को दर्शाती, भूदान आन्दोलन की सफलता असफलता पर प्रश्न चिह्न लगाने वाली कृति है श्रीलाल शुक्ल कृत उपन्यास ‘विश्रामपुर का संत’ उपन्यास। ‘विश्रामपुर का संत’ उपन्यास श्रीलाल शुक्ल द्वारा सन 1998 ईस्वी में रचित है। ‘विश्रामपुर का संत’ विनोबा भावे के नेतृत्व में संचालित भूदान आंदोलन की विशेषताओं, कमियों और असफलताओं के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है। इस उपन्यास में आचार्य विनोबा के चलाए गए भूदान आंदोलन और ग्रामदान आंदोलन का प्रसंग आया है। भूदान आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रस्तुत उपन्यास में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक घटनाओं के साथ ही निजी जीवन का उत्थान पतन भी सिमट आया है। इस उपन्यास में एक और भूतपूर्व तालुकेदार और राज्यपाल कुंवर जयंती प्रसाद सिंह की अंतर्कथा के रूप में महत्वाकांक्षा, आत्म छल, अतृप्ति, कुंठा आदि की जकड़ में उलझी हुई जिंदगी को परत दर परत खुलती है। दूसरी ओर यह भूदान आंदोलन की पृष्ठभूमि में स्वातंत्र्योत्तर भारत में सत्ता के व्याकरण और उसी क्रम में हमारी लोकतांत्रिक त्रासदी की सूक्ष्म पड़ताल करती है।
इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र कुंवर जयंती प्रसाद है। इसकी कथावस्तु को 11 भागों में विभाजित किया है। उपन्यास में लेखक ने ग्रमीण हड़पनीति, आपसी ईर्ष्या द्वेष, दो पीढ़ियों के बीच का संघर्ष, ग्रामीण जनजीवन की नीति संबंधी अवधारणा, प्रेम की अवधारणा, सरकारी संस्थाओं में चलने वाला भ्रष्टाचार, किसान आंदोलन, ग्रामीण जनजीवन की आत्मकेंद्रीयता, राजनीतिक नेताओं का दोहरा चरित्र, ढोंगी वृत्ति पात्रों के बीच के अंतर्द्वंद, अनैतिक प्रेम संबंध आदि ग्रामीण जनजीवन के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
उपन्यास की शुरुआत लेखक ने बिल्कुल अलग और व्यंग्यात्मक ढंग से की है। उपन्यास की शुरुआत में राज्य के मुख्यमंत्री राज्यपाल से मिलने के लिए उनके दीवानखाने में बैठे हैं। उसी वक्त राज्यपाल जयंतीप्रसाद सुंदरी का सपना देख रहे हैं। नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण भोग्यवादी है। कुंवर साहब कुंठित तथा ज्यादा महत्वकांक्षी होने के कारण एक साफ-सुथरी जिंदगी नहीं जी पाते। वे हमेशा अतृप्त रहे हैं और उसके कारण उन्होंने जीवन में आए सुखदायी क्षणों को भी गलत निर्णय में बदल दिया है।
इस उपन्यास में राजनीतिक नेताओं के जातीय भेदभाव मिटाने के झूठे वादों पर व्यंग्य किया गया है। कुंवर जयंती प्रसाद के बारे में खबर फैल जाती है कि कोई हरिजन राजभवन के सोफे पर बैठ जाए या किसी पर्दे के कपड़े को छू ले तो राज्यपाल तुरंत ही वह कपड़े बदलवा देता है। इससे यह पता चलता है कि राजनीतिक नेता जातीयता के बारे में विचार कैसे रखते हैं और समाज में बर्ताव कैसे करते हैं।
कुंवर जयंती प्रसाद के बड़े भाई तालुकेदार थे और साथ ही एक सत्याग्रही और राजनीतिक नेता थे। समाजवादी आंदोलनों में जेल भी गए कुंवर साहब के बड़े भाई को भूदान आंदोलन अनोखा आंदोलन लगता है। विवेक से कहते हैं- “दुनिया में यह अपने ढंग का अनोखा आंदोलन है तुमको इसका बहुत नजदीक से अध्ययन करना चाहिए देखना होगा कि इसके अल्पकालीन और दीर्घकालीन परिणाम क्या है या क्या होगा।”11 कुंवर जयंती प्रसाद महत्वकांक्षी रहे हैं। भूदान यज्ञ में जो थोड़ी सी जमीन दान दी थी उसका उन्हें अनुकूल फल प्राप्त हुआ।
इस उपन्यास में पात्रों की दो विचारधाराएं हैं। गांधीवाद और मार्क्सवाद। कुंवर जयंतीप्रसाद, राव साहब जैसे लोग गांधीवादी विचारधारा को अपनाते हैं तो विवेक सुशीला जैसे पात्र मार्क्सवाद को अपनाते हैं। दो विचारधाराओं के साथ लेखक ने शोषक और शोषितों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। दुबे जैसे लोग परंपरा से किसानों का शोषण करते आ रहे हैं और राम लोटन जैसे कितने सारे किसान ऐसे लोगों का अन्याय अत्याचार सहते आए हैं। भूदान आंदोलन में गवर्नर स्तर के लोग भी अपने-अपने फायदों को लेकर शामिल हुए हैं। इन तत्वों को उपन्यास में स्पष्ट और समीक्षात्मक शैली में उभारा गया है। भूदान के नाम पर लोग अपना स्वार्थ कैसे साध रहे थे उसका स्पष्ट चित्रण उपन्यास में है। सभी योजनाएं बनाई तो जाती हैं आम आदमी के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए लेकिन वह अपने उद्देश्य में असफल ही रहती हैं।
उपन्यास में सुंदरी और विवेक जैसे पात्र सामाजिक परिवर्तन के आधार स्तंभ है। सुंदरी जिस गांव में रहती थी, जिस गांव में उसका आश्रम था, उसका नाम 'विश्रामपुर' था। वही सुंदरी द्वारा स्थापित किया हुआ बालविहार था। उससे जुड़ी हुई अन्य संस्थाएं भी थी। वह गांव भी विनोबा भावे भूदान यज्ञ में ग्रामदान के रूप में अर्पित हुआ था। इसी गांव में किसानों को एकजुट करके खेती की एक परियोजना बनाई थी। इस आश्रम में और भी कई परियोजनाएं थी जैसे ग्राम उद्योग, माध्यमिक विद्यालय, नारी कल्याण का शिल्प प्रशिक्षण केंद्र, एक बाल विहार जहां गरीब और निराश्रित बच्चों को रहने और पढ़ने का प्रबंध है। समाज में स्थित संस्थाओं के लिए अनुदान तो मिलता है लेकिन नेता किस तरह हड़प लेते हैं इसका चित्र लेखक ने किया है। “एक मिनिस्टर आये थे, उन्होंने भी यही कहा। पर हमारे सान्याल भाई कहने लगे कि विकास शब्द से सरकारी धंधे की बू आती है। तब सरकारी ग्राम विकास का नाम चल निकला था, सामुदायिक विकास की योजना आ गयी थी, उसमें काम भी हो रहा था और वह बदनाम भी हो रही थी। इसलिए सान्याल भाई ने कहा कि विकास वाटिका का नाम नहीं चलेगा, इसे विजय वाटिका कहना चाहिए”12
जमींदार लोग परंपरा से ही छोटे किसानों को किस तरह छलते हैं उसका भी जिक्र है। बाद में मृत्यु होने के बाद वही जगह उसका बेटा ले लेता है और वह भी छोटे किसानों को उसी तरह त्रस्त करता है। जिस तरह उसका बाप करता था। मंत्री जी कुवर साहब से बताते हैं –“दुबे वंशावली जमींदार कोआपरेटिव फॉर्म बना उसमें अधिकांश भूमि दुबे वंश की थी किसानों की जोते थी। उसी साल बुजुर्ग जमीदार दुबे का देहांत हो गया। उनकी जगह इस दुबे महाराज ने ले ली।”13 उनका विश्रामपुर में जो कोआपरेटिव फॉर्म है उसका मैनेजिंग डायरेक्टर दुबे महाराज हैं उसी को ऑपरेटिव फॉर्म का अध्यक्ष दूबे का चचेरा भाई है। जो पागल से भी बढ़कर है। “शुरु से ही फॉर्म घाटे पर चला इसके सदस्यों यानी पुराने किसानों की हालत खेतिहर मजदूर की हो गई है।”14 और इस घाटे की अदायगी दुबे ने राम लोटन जैसे छोटे किसानों को धमकाकर उन्हें मारकर जबरदस्ती से कागज पर लेकर जमीन पर कब्जा कर दिया। यहां ग्रामांचलों में स्थिति हड़पनीति के दर्शन होते हैं। कृषि निदेशक और अतिरिक्त कृषि निदेशक आश्रम आकर सरकारी फॉर्म के भविष्य पर विस्तार से बात करते हैं इसी बीच में कुंवर साहब और दुबे महाराज दोनों में अनबन हो जाती हैं। सरकारी फॉर्म की हालत खराब हो चुकी है। “सरकारी फॉर्म एक उजाड़ बंजर है, बीहड़ में बदल रहा है इसके कई सदस्य इस्तीफा देकर बाहर चले गए हैं वे शहर में ईटगारा ढो रहे हैं। रिक्शा चला रहे हैं।”15
भूदान के रूप मे जो ज़मीन मिली थी उसमें से काफी बंजर थी। ज़मीन को खेती बनाने के लिए सरकार से मदद लेने की बात समिति के समक्ष प्रस्ताव प्रस्तुत होता है। कुंवर साहब और दुबे में झड़प हो जाती है रिपोर्ट लिखने से पहले ही खबर आती है कि पुलिस ने दुबे को गिरफ्तार कर लिया है इस बात पर कुंवर साहब कहते हैं- “यहां हम गांधीवादी संस्था चला रहे हैं। हम इस मामले को बढ़ाना नहीं चाहते हैं।”16 इस तरह कुंवर साहब की नाटकीयता इस उपन्यास में पल-पल देखने को मिलती हैं।
कुंवर साहब जब अकेले होते हैं उन्हें जयश्री की याद हमेशा सताती है। कुंवर साहब सोचते हैं कि जीवन के अंतिम दिनों में आकर सुंदरी के जीवन पद्धति को अपनाकर अपने पापों का प्रायश्चित कर रहे हैं। उन्हें अपने जुनून पर ग्लानि जरूर होती है। उनके त्याग और साधुता के चर्चे हो जाते हैं। वे अपने बारे में सोचते हैं और अपने को ही उपहास से देखते हैं। एक दिन आश्रम में सुशीला आकर मिलती है और कहती है कि मेरा आपसे पत्र व्यवहार नहीं रहा लेकिन विवेक से हमेशा संपर्क रहा। यह सुनकर कुंवर जयंतीप्रसाद को धक्का सा लगा। कुंवरसाहब और सुंदरी के बीच जो हुआ था वह सुशीला को पता था। कुंवर साहब को लगा सुशीला यह सारी बातें विवेक को बताई होगी। सुशीला बिश्रामपुर तीन दिन रही। दोनों में भूदान आंदोलन के बारे में काफी चर्चा हुई। कुंवर साहब सुशीला को कहते हैं कि अब मैं यही रहूंगा और अपनी गलतियों का प्रायश्चित करूंगा। सुंदरी और कुंवर साहब के बीच जो हुआ था उसका साक्षीदार केवल सुशीला ही थी इसलिए बिना हिचक के कहती है- “पर इसके लिए सुंदरी का आश्रम भी क्यों? आपको इसकी कोई विडंबना नहीं दिखती? शायद मुझे यह सब ना कहना चाहिए पर …?”17 ‘सुशीला के नाम सुंदरी’ सुंदरी ने जो पत्र लिखा था वह कुंवर साहब को मिल जाता है। उन्होंने सुंदरी और विवेक के जिंदगी के सहज क्रम को तोड़ दिया है। इस एहसास ने उन्हें कहीं का भी नहीं रखा। कुंवर साहब को जिस दिन सुंदरी का पत्र मिला उसी दिन अखबार में उनकी तस्वीर और साथ में साक्षात्कार भी छप कर आता है। दो तस्वीर छपी थी। जिसमें दूसरे चित्र का शीर्षक था ‘विश्रामपुर का संत’। कुंवरसाहब पुत्र की प्रेयसी से शादी करना चाहते थे और यह सच्चाई जानने के बाद 83 वर्ष की उपलब्धियों पर चिंतन करते हुए अपनी इच्छा से मृत्यु को अपनाते हैं।
श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखित यह उपन्यास भूदान आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित सामाजिक उपन्यास है। इस उपन्यास की कथावस्तु के केंद्र में कुंवर जयंतीप्रसाद हैं। सारी गौण कथाएं एवं बाकी सारे पात्र उन्हीं को केंद्र में रखकर उपन्यास की कथावस्तु में समाविष्ट हुए हैं। जयंतीप्रसाद के माध्यम से राजनीतिक नेताओं पर व्यंग्य किया गया है। भूदान आंदोलन के पीछे जमींदारों की उदारता की खिल्ली उड़ाई है। भूदान की सफलता, असफलता पर गहराई से चिंतन किया गया है। भूदान की आड़ में तत्कालीन युग के जमीदारों में अपना उल्लू सीधा कैसे किया यह दिखाया गया है। जयंतीप्रसाद को ‘विश्रामपुर का संत’ कहकर आधुनिक राजनीतिक नेताओं और संतों की पोल खोल दी है। इस उपन्यास में राजनीतिक नेताओं के प्रश्नय में पल रहे भ्रष्टाचार को निर्मल के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। भूदान आंदोलन के नाम पर भ्रष्टाचार करके किस तरह लोग अपने स्वार्थ की ओर प्रेरित होते हैं इसका स्पष्टीकरण करके लेखक ने भ्रष्टाचार प्रकृति के लोगों की पोल खोली है। आंदोलन किस मायने में सफल रहा और इसमें राजनीतिक नेताओं की कूटनीति किस तरह बरकरार रही लेखक ने पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
निष्कर्ष : हालांकि भूदान आंदोलन ने अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया, फिर भी इसने भारतीय समाज पर गहरा और स्थायी प्रभाव डाला। इसने भूमि सुधार, सामाजिक न्याय और ग्रामीण विकास के मुद्दों पर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। इसने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि संपत्ति का वास्तविक उद्देश्य क्या होना चाहिए और समाज के प्रति व्यक्ति की क्या जिम्मेदारियां हैं। विनोबा ने कार्यकर्ताओं से बात करते हुए कहा था, “भूदान आंदोलन अब मंद पड़ा है।…जो बाढ़ का पानी था अब नहीं रहा आर्थिक, सामाजिक या भूमि की समस्या हल करने का साधन समझ कर जो इसमें शरीक हुए थे, वे अब नहीं रहे। केवल आध्यात्मिक वृत्तिवाले ही आगे टिके रहेंगे। शुद्ध निर्मल जल का छोटा सा प्रवाह अब इस गर्मी में बहता रहना चाहिए लोगों को शुद्ध विचार देते रहना चाहिए।”18 भूदान आंदोलन की संकल्पना ने भारतीय राजनीति और समाज पर भी प्रभाव डाला। इसने एक नए प्रकार के राजनीतिक नेतृत्व को जन्म दिया, जो सत्ता की राजनीति से परे था और लोगों की सेवा पर केंद्रित था।
‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका के माध्यम से कहा जा सकता है कि मेंढ़ा, सीड़ और अनडाड जैसे कुछ गांव अपवाद हैं, जहां भूदान-ग्रामदान की प्रासंगिकता बनी हुई है। बाकी कई गांवों में ग्रामदान अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। ‘विश्रामपुर का संत’ उपन्यास विनोबा भावे के नेतृत्व में संचालित भूदान आंदोलन की विशेषताओं, कमियों और असफलताओं के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है। इस उपन्यास में आचार्य विनोबा के चलाए गए भूदान आंदोलन और ग्रामदान आंदोलन का प्रसंग आया है। भूदान आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रस्तुत उपन्यास में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक घटनाओं के साथ ही निजी जीवन का उत्थान पतन भी सिमट आया है।
संदर्भ :
- पराग चोलकर, सबै भूमि गोपाल की, खंड-1, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, 2010, पृष्ठ, 5(प्रस्तावना)
- डाउन टू अर्थ(पत्रिका), तुग़लक़ाबाद इंस्टीट्यूशनल एरिया, नईदिल्ली, जुलाई, 2023, पृष्ठ, 28
- वही, पृष्ठ 28
- वही, पृष्ठ 28
- पराग चोलकर, सबै, भूमि गोपाल की, खंड-2, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, 2010, पृष्ठ, 235
- डाउन टू अर्थ(पत्रिका), तुग़लक़ाबाद इंस्टीट्यूशनल एरिया, नईदिल्ली, जुलाई, 2023, पृष्ठ, 28
- वही, पृष्ठ 28
- वही, पृष्ठ 29
- वही, पृष्ठ 29
- वही, पृष्ठ 30
- श्रीलाल शुक्ल, विश्रामपुर का संत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ, 44
- वही, पृष्ठ 122
- वहीं पृष्ठ, 123
- वही, पृष्ठ 123
- वही, पृष्ठ 136
- वही, पृष्ठ 141
- वही, पृष्ठ 165
- पराग चोलकर, सबै भूमि गोपाल की, खंड-2, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, 2010, पृष्ठ, 149
अमृता राव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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