शोध आलेख : छत्तीसगढ़ की अबूझमाड़िया जनजाति का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन / ममता ध्रुव

छत्तीसगढ़ की अबूझमाड़िया जनजाति का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन
- ममता ध्रुव

शोध सार : दण्डक अरण्यांचल में गोंड़ी भाषा परिवार की माड़िया उपभाषा शाखा की अबूझमाड़िया जनजाति मैकल पर्वत श्रेणी के बीहड़ एवं रहस्यमयी वन पर्वतों में निवास करती है। विशिष्ट जीवनशैली, प्रकृति-साहचर्य, वृहद सांस्कृतिक विरासत तथा रोजमर्रा की समस्याओं से जूझना ही इनकी पहचान है। घने जंगलों से दूर्लभ जंगली उत्पादों का संग्रह, जंगली जीवों से आखेट-अटखेलियां कर जब वे अपने घरों को लौटते हैं तो अंगाड़ी(रसोई घर) में आधुनिकता से परे कोदो, कुटकी, मड़िया, तीखुर तथा जंगली शाकों और शिकार से प्राप्त मांस से भोजन बनाते हैं।रात्रिकालीन भोजन के बाद अबूझमाड़िया चैपाल में एकत्रित होकर गौर माड़िया नृत्य करते हैं। युवक-युवतियों को ‘घोटूल‘ में गृहस्थ परम्पराओं की शिक्षा दी जाती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन के कारण अबूझमाड़िया को विशेष पिछड़ी जनजाति मान कर उनके विकास के लिए शासन, प्रशासन और सामुदायिक स्तरों पर उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप विकास योजनाओं को सृजित करने की जरूरत है।

बीज शब्द : बीहड़, बस्तर, अविरल, वनस्पत्ति, महुआ, माड़िया, खनिज, अंगाड़ी, घोटूल, तीखुर, ककवा।

मूल आलेख : भारत की आबादी का कुछ हिस्सा शहरों एवं मैदानी ग्रामों से बहुत दूर घने जंगलों, पहाड़-पर्वतों, नदी घाटियों, तटवर्ती क्षेत्रों में निवासरत है। विकास के मुद्दे पर अन्य समाजों की तुलना में इनका सामाजिक-आर्थिक, शैक्षणिक तथा स्वास्थ्य संबंधी विकास पीछे है। चाणक्य विष्णुगुप्त ने अपनी प्रसिद्ध कृति अर्थशास्त्र में इनका वर्णन आटविक जातियों के रूप में किया है। उन्होंने अरण्यक जाति को सामान्य जनजाति एवं आटविकों को जुझारू जनजाति स्वीकार किया है। इन्हीं आटविक सामर्थ्य को महत्व देते हुए चाणक्य ने इन्हें चंद्रगुप्त की सेना में भर्ती कराया था। जन सामान्य इन्हें आदिवासी, वनवासी, आदिमजाति, जनजाति, वन्यजाती तथा कोयतुर के रूप में पहचानते हैं। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में इन्हें अनुसूचित जनजाति का नाम देकर विकास पथ पर अभिसारित करने तथा उनके अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कई विशेष प्रावधान किए गए हैं। भारतीय मानव वैज्ञानिक सर्वेक्षण के द्वारा देश में 635 जनजाति समूह एवं उनकी उपजातियां चिन्हित की गई हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ थी, जिनमें से जनजातियों की संख्या लगभग 8.61 प्रतिशत थी ।

उद्देश्य -

1. छत्तीसगढ़ की अबूझमाड़िया जनजाति की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का अध्ययन करना।
2. अबूझमाड़िया जनजाति की सामाजिक क्रियाकलाप एवं धार्मिक मान्यताओं का अध्ययन करना।
3. अबूझमाड़ की भौतिक परिस्थितियों एवं जनजातीय जीवन से जुडी़ समस्याओं का अध्ययन करना।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -

“महर्षि बाल्मीकि विरचित रामायण में उत्तर कोसल तथा दक्षिण कोसल का उल्लेख मिलता है। उत्तर कोसल सरयूपार प्रसारित विस्तीर्ण प्रदेश था, जिसकी राजधानी अयोध्या थी।"1 “दक्षिण कोसल विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में फैला हुआ था। इसका विस्तार उत्तर में नर्मदा से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक व्याप्त था। दक्षिण कोसल की राजकुमारी कौशल्या का विवाह उत्तर कोसल के महाराज दशरथ के साथ हुआ था।“2 इसी ग्रंथ में राम के वनवास काल के वृत्तांत में दण्डकारण्य तथा वनवासियों का भी विवरण मिलता है। महाभारत के वनपर्व में दक्षिण कोसल के वनप्रदेश का वर्णन भी इसी प्रकार है। “छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ अर्थात् कालतीर्थ (उज्जैन) दक्षिण कोसल के पश्चिम की ओर था। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति लेख में दक्षिणपथ के राजा कोसलेश महेन्द्र तथा महाकान्तारपति व्याघ्रराज का उल्लेख है।"3 “वराहमिहिर की रचना वृहत्संहिता में हीरे का उत्पादन करने वाले प्रदेशों में कोसल प्रदेश का नाम है।“4 हर्ष रचित रत्नावली में भी कोसल प्रदेश का उल्लेख है।

प्रदेश के नामकरण के संदर्भ सत्रहवीं शताब्दी में यहां पर छत्तीस किले होने के कारण इसका नाम छत्तीसगढ़ हो गया। “रतनपुर के कवि गोपाल मिश्र ने अपने ग्रंथ ‘खूब तमाशा‘(1868 ई.) में छत्तीसगढ़ शब्द का उपयोग प्रथमतः किया था। इसके बाद रतनपुर के प्रसिद्ध विद्वान बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ ‘विक्रम विलास’ में छत्तीसगढ़ नाम का उल्लेख किया है।”5 प्रदेश का भौगोलिक इतिहास भी अत्यंत पुरातन एवं विशुद्ध रहा है। “उत्तर दिशा में रायगढ़ के सिंघनपुर, कबरा पहाड़ के गुफा चित्र सरगुजा के रामगढ़ के जोगीमारा तथा सीताबेंगरा की कंदराओं की दीवारों के भित्ति चित्र सांस्कृतिक विकास की अमूल्य धरोहर हैं।”6 “दक्षिण में बस्तर के महापाषाण संस्कृति की सूरत में माड़िया जनजाति का मृतक स्मृतिस्तंभ भी जनजातीय संस्कृति की पुरातन चिन्हों को दर्शाती है।”7 यद्यपि छत्तीसगढ़ के प्रागैतिहासिक शैलाश्रय, शैलचित्र तथा गुफाएँ यहाँ आदिम सभ्यता की उपस्थिति को प्रमाणित करती हैं।

अबूझमाड़िया जनजाति -

“अबूझमाड़िया जनजाति नारायणपुर, दंतेवाड़ा एवं बीजापुर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में निवासरत है। ओरछा को अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार कहा जाता है।”8 इस जनजाति की कुल जनसंख्या सर्वेक्षण 2002 के अनुसार 19401 थी। वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर 22 हजार से अधिक हो गई है। अबुझमाड़िया जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है। “किवदंतियों के आधार पर माड़िया गोंड़ जाति के प्रेमी युगल सामाजिक डर से भागकर इस दुर्गम क्षेत्र में आये और विवाह कर वहीं बस गये।”9 इन्हीं के वंशज अबूझमाड़ क्षेत्र में रहने के कारण अबूझमाड़िया कहलाये। सामान्य रूप से अबूझमाड़ क्षेत्र में निवास करने वाले माड़िया गोंड़ को अबूझमाड़िया कहा जाता है।

आवास एवं दिनचर्या -

अबूझमाड़िया जनजाति का गाँव मुख्यतः पहाड़ियों की तलहटी या घाटियों में रहता है। “पेद्दा कृषि पर निर्भर रहने वाले अबूझमाड़िया लोगों का निवास अस्थाई होता था। पेद्दा कृषि हेतु कृषि स्थान को कधई‘ कहा जाता है। जब ‘कधई‘ के चारों ओर के वृक्ष व झाड़ियों का उपयोग हो जाता था तो वो पुनः नई ‘कधई‘ का चयन कर ग्राम बसाते थे।”10 वर्तमान में शासन द्वारा पेद्दा कृषि पर प्रतिबंध की वजह से स्थाई ग्राम बसने लगे हैं।

इनके घर छोटे-छोटे झोंपड़ीनुमा लकड़ी व मिट्टी से बने होते हैं, जिनके ऊपर घांस-फूस की छप्पर होती है। घर दो-तीन कमरे का बना होता है। घर का निर्माण स्वयं करते हैं। घर में रोशनदान या खिड़कियाँ नहीं पाई जाती है। “घर में बरामदा, ‘अगहा‘ (बैठक), ‘आंगड़ी‘(रसोई), ‘लोनू‘(संग्रहण कक्ष), व बाड़ी होता है। ‘लोनू‘ में ही कुल देवता का निवास स्थान होता है।”11

घरेलू सामान में सोने के लिये ‘अल्पांजी‘, बैठने के लिये ‘पोवई‘(चटाई), अनाज कूटने की ढेकी‘, ‘मूसल‘, अनाज पीसने का ‘जांता‘ भोजन बनाने व खाने-पीने के लिये मिट्टी, एल्यूमिनियम, लोहे व पीतल के बर्तन, सिल व कुल्हड़, कृषि उपकरणों में हल, कुदाली, गैंती, रापा(फावड़ा), हसिया इत्यादि तथा शिकार के लिये तीर कमान, फरसा, टोंगया, फांदा, मछली पकड़ने के लिए मछली जाल, चोरिया, डंगनी आदि का उपयोग करते हैं।

श्रृंगारप्रियता -

“अबूझमाड़िया स्त्रियाँ गोदना को स्थाई गहना मानती हैं। मस्तक, नाक के पास, हथेली के ऊपरी भाग, ठुड्डी आदि पर गोदना सामान्य रूप से गोदवाया जाता है।”12 गिलट या नकली चाँदी के गहने पहनते हैं। “पैर में तोड़ा, पैरपट्टी, कमर में करधन, कलाईयों मे चूड़ी, सुडेल ऐठी, गले में सुता, रुपया माला, चेन व मूंगामाला, कान में खिनवा, झुमका और बाला, नाक में फूली पहनती हैं।”13 बालों को अनेक तरह के पिनों से सजाती हैं।

वस्त्र विन्यास में पुरुष लंगोटी, लुंगी या पंछा पहनते हैं और सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। स्त्रियाँ लुगरा को कमर से घुटने तक लपेटकर पहनती हैं। यही इनका मुख्य वस्त्र है। इनका मुख्य भोजन चावल, मड़िया, कोदो, कुटकी, मक्का आदि का पेज और भात, उड़द, मूँग, कुलथी की दाल, जंगली कंदमूल व भाजी, मौसमी सब्जियाँ, मांसाहार में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जैसे पड़की, मोर, कौआ, तोता, बकुला, खरगोश, लोमड़ी, साही मुर्गा, बकरा का मांस खाते हैं और वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। “महुये की शराब, सल्फी ताडी़, लांदा, सूर रस का उपयोग जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कारों में अनिवार्य आवश्यकता के रूप में करते हैं।”14

आर्थिक उपार्जन -

अबूझमाड़िया जनजाति का अर्थोपार्जन पहले आदिम खेती(पेद्दा कृषि), शिकार, जंगली उपज संग्रहण, कंदमूल एकत्रित करने पर निर्भर था परंतु अब पेद्दा कृषि का स्थान स्थाई कृषि ने ले लिया है। साथ ही विभिन्न तरह की मजदूरी का कार्य भी सीख गये हैं। ये अपनी खेती की जमीन पर मक्का, कोसरा, मूंग व उड़द, कुल्थी, कोदो, कुटकी, अलसी, तीवरा के अलावा मौसमी सब्जियाँ भी बोते हैं। कृषि मजदूरी बहुत कम करते हैं। कृषि मजदूरी के बदले में इन्हें अनाज मिलता है। जंगल से शहद, तेंदूपत्ता, कोसा, लांख, गोंद, धवई फूल, हर्रा, बहेरा इत्यादि एकत्र कर बाजार में बेचते हैं। छोटे पशु-पक्षियों का शिकार भी करते हैं। गाय, बैल, बकरी, सुअर व मुर्गी का पालन करते हैं। अबूझमाड़िया सदस्य वनों से कंदमूल एवं वनोपज संकलन करते हैं। संकलन का कार्य परिवार के सभी अर्धकार्यशील व कार्यशील सदस्य करते हैं। ये वन से अनेक प्रकार के जंगली कंद, भाजियां, पत्तियां, फूल, फल, बांस का नवीन कोमल तना(करील) विभिन्न प्रकार के मशरूम आदि का संकलन खाद्य सामग्री के रूप में करते हैं। वे आंवला, आम, इमली, जामुन, कोसा, शहद, चार, फूलबाहरी, महुआ आदि का संग्रहण बाजार में मुद्रा या वस्तु विनियम के लिये करते हैं, जिसके माध्यम से वे अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश -

“अबूझमाड़िया जनजाति पितृवंशीय, पितृनिवास स्थानीय व पितृसत्तात्मक जनजाति है।”15 यह जनजाति अनेक वंश में विभक्त हैं। वंश अनेक गोत्रों में विभाजित हैं जिन्हें ‘गोती‘ कहा जाता है। इनके प्रमुख गोत्र अक्का, मंडावी, धुर्वा, उसेंडी, मरकाम, गोंटा, अटमी, लखमी, बडे, छोटा इत्यादि हैं। गर्भवती का प्रसव परिवार की बुजुर्ग महिलाएँ या रिश्तेदार कराती हैं। पहले प्रसव के लिये घर के पास ही ‘कुरमा‘(प्रसव झोंपड़ी) बनाया जाता है।

शिशु की नाल तीर से काट कर कुरमा में ही गाड़ देते हैं। मृतक को दफनाते हैं एवं दाह-संस्कार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। “विशिष्ट और संपन्न व्यक्ति की याद में श्मशान में लगभग 4 फिट ऊंचा 4 फिट गोलाई का चौकोर विभिन्न पशु-पक्षी व देवी-देवता, भूत-प्रेत व संस्कारों से नक्कासी किये गये लकड़ी का खंभा(हनाल गट्टा) गाड़ते हैं।”16 तीसरे दिन मृत्यु-भोज दिया जाता है। इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। क्षेत्रीय आधार पर सर्वोच्च व्यक्ति मांझी(मुखिया) होता है, जिनके नीचे पटेल, पारा मुखिया व गायता होते हैं। इनका मुख्य कार्य अपने माढ़ में शांति व्यवस्था, कानून आदि बनाये रखना, लड़ाई-झगड़ों विवादों का निपटारा करना व जाति संबंधी नियम बनाना व आवश्यकतानुसार संशोधन करना है। इनके प्रमुख देवी-देवता बूढ़ादेव ठाकुर देव, बूढ़ीमाई या बूढ़ी डोकरी, लिंगोपेन, घर के देवता(छोटा पेन, बड़ा पेन, मंझला पेन) व गोत्रानुसार कुल देवता हैं। स्थानीय देवी- देवता में सूर्य, चंद्र, नदी, पहाड़, पृथ्वी, नाग व हिंदू देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा व सुअर की बलि दी जाती है। प्रमुख त्योहार पोला, ककसार व कोयापंडुम, तथा मरकापंडुम आदि हैं। जादू-टोना और भूत-प्रेत के संबंध में अत्यधिक विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार गायता सिरहा कहलाता है।

इस जनजाति के स्त्री-पुरुष नृत्य व गीत के अत्यंत शौकीन होते हैं। विभिन्न त्योहारों, उत्सव, मृत्यु और जीवन चक्र के विभिन्न संस्कारों पर युवक और युवतियाँ ढोल, मांदर की थाप पर लोकनृत्य करते हुए जैसे तमात कठिनाईयों को चुनौतियां देते हुए लय एवं ताल का बेजोड़ जुगलबंदी प्रस्तुत करते हैं। ककसार नृत्य, गेड़ी नृत्य व रिलो इनके प्रमुख नृत्य हैं। लोकगीतों में ददरिया, रिलोगीत, पूजागीत, विवाह व सगाई के शिकार के गीत, छट्ठी गीत, मृतक संस्कार गीत तथा आदि गाये जाते हैं। ‘माड़ी’ इनकी बोली है, जो द्रविड़ भाषा परिवार के गोड़ी बोली का एक विशिष्ट रूप है।

“वर्ष 2000 में कराये गये सर्वेक्षण में अबूझमाड़िया जनजाति में साक्षरता 19.25 प्रतिशत पाई गई थी।”17 इस जनजाति के लोगों के मकान घास फूस या मिट्टी के बने होते हैं। मकान प्रवेश हेतु एक दरवाजा होता है, जिसमें लकड़ी या बाँस का किंवाड़ होता है। छप्पर घास फूस या खपरैल की होती है। दीवारों पर सफेद मिट्टी की पुताई करते हैं। फर्श मिट्टी का होता है, जिसे स्त्रियां गाय के गोबर से लीपती हैं। घरेलू वस्तुओं में मुख्यतः चक्की, अनाज रखने की कोठी, बांस की टोकनी, सुपा, चटाई मिट्टी के बर्तन खाट, मूसल बाँस बर्तन बनाने के आसार, आइने, बिछाने तथा पहनने के कपड़े, खेती के औजार जैसे- गैंती, फावड़ा, हंसिया, कुल्हाड़ी आदि। इस जनजाति के लोग शिकार के विशेष शौकीन होते हैं। तीर-धनुष तथा मछली पकड़ने का जाल प्रायः घरों में पाया जाता है। पुरुष व महिलाएँ प्रतिदिन दातून से दाँतों की सफाई कर स्नान करते हैं। पुरुष अपने बाल छोटे रखते हैं तथा महिलाएँ लम्बे बाल रखती हैं। बालों को कंघी या ‘ककवा‘ की सहायता से पीछे की ओर चोंटी या जूड़ा बनाती हैं।

जनजातीय युवागृह घोटूल -

1947 में प्रकाशित ‘वेरियर एल्विन‘ की रचना ’द मुरिया एण्ड देयर घोटूल’ ने न केवल भारत के अपितु सम्पूर्ण विश्व के समाजशास्त्रियों का ध्यान बस्तर की मुरिया जनजाति की संस्था ‘घोटूल’ की ओर आकृष्ट किया। वे 1941 में अध्ययन हेतु बस्तर आए थे। एल्विन ने घोटूलों के अध्ययन और मुरिया कविताओं के अनुवाद के माध्यम से इस निष्पाप तथा रमणीय संस्था को जो महत्व दिया, उससे विश्व भर के लोगों में कौतुकता का भाव जागा। घोटूलों का विकसित अध्ययन बाद में मानव विज्ञानी ‘फ्यूरेर-हमनफोर्ड‘ ने किया था। इनकी मान्यता है कि बस्तर में घोटूल नवव्यापी कृषिपरक सभ्यता की देन है। “बस्तर के मुरियाओं की संस्था ‘घोटूल सामाजिक और धार्मिक जीव का केन्द्र है और इन्हीं तत्वों के पोषण के कारण यह संस्था विश्व की सर्वाधिक विकसित और अनुशासित प्राच्य संस्था है।”18

अभिप्राय -

वस्तुतः इसका सही नाम ‘गोल‘ के एक संयुक्त गोंड़ी शब्द है. ‘गो‘ का अर्थ है गोगा अर्थात् दुःख और क्लेष निवारण शक्ति, जिसे विद्या कहा जाता है। ‘टूल’ का अर्थ है ठिहा या ठाना जिसे स्थल कहा जाता है। इस प्रकार घोटूल का अर्थ ‘गोगा स्थल‘ अर्थात् ‘विद्या स्थल‘ होता है। ‘मुरिया‘ घोटूल वस्तुतः एक युवागृह है, जिसके सदस्य केवल अविवाहित होते हैं। यह आधुनिक क्लब का प्राच्य रूप प्रतीत होता है। अंग्रेजी में इसे डार्मिटरी तथा जर्मन में जुंगलिस हाउस काहा जाता है जिसकी स्थापना के अपने अलग उद्देश्य होते हैं। फिर भी सीमित अर्थ के आधार पर घोटूल को परिभाषित नही किया जा सकता अपितु यह ऐसा अधिक अनुशासित संगठन है जहां समुदाय के अविवाहित युवा पीढी को संस्कृति के आदर्शों एवं मुल्यों तथा रीति-रिवाजों की शिक्षा के साथ-साथ दाम्पत्य के समस्या समाधान विधियों से परिचय, युवाओं के समाज से अन्यत्र लैंगिक भटकाव को रोकना, तथैव उन परिस्थितियों से युवाओं का सामाजिक समायोजन करना जब पालक रति-कर्मलीन हों।

उत्पत्ति -

बस्तर में युवागृह का जन्मदाता लिंगों को माना जाता है। एल्विन के अनुसार, जब लिंगों की मृत्यु हो गई, तो मुरियाओं ने उसकी याद में सर्वत्र घोटूल की स्थापना की। जिससे उसकी आत्मा सुखी रहे। “श्री कंगाली के अनुसार, वास्तव में लिंगों ने अपने जीवन काल में ही सेमल वृक्ष के नीचे एकत्रित कर मुरिया बालकों को धार्मिक और बौद्धिक शिक्षा देकर घोटूल की स्थापना की. इसलिए इसे लिंगोपेन देव का देव स्थान माना जाता है और ऐसी मान्यता है कि उसकी छत्रछाया में रहने से बच्चे इसी के समान तेजस्वी व वीर बनते हैं।”19

घोटूल का सम्बन्ध रामायणकालीन घटनाओं से जुड़ा हुआ है। “शुक्राचार्य की कुंवारी पुत्री अरजा और इक्ष्वाकु के तृतीय पुत्र ‘दंड‘ द्वारा अरजा का चरित्र हनन तथा प्रतिक्रिया स्वरूप शुक्राचार्य का श्राप, केवल अरजा के समीप रहने वालों का सुरक्षित बचना और शेष का नष्ट हो जाना, आदि घटनाओं का उल्लेख ‘बाल्मीकि रामायण’ में मिलता है।”20 अरजा कुंवारी थी और घोटूल के सदस्य भी कुंवारे होते हैं। रामायण जैसे ग्रंथ में इस घटना का ‘दंडक वन‘ के वर्णन में आना कोरी कल्पना नहीं हो सकती। यदि इस तथ्य को स्वीकार किया जाए तो घोटूल कम-से-कम उतना प्राचीन तो है, जितनी राम कथा।

घोटूल परम्परा का उद्देश्य -

(1) बच्चों को माता-पिता के सम्बन्धों अथवा यौन सम्बन्धों से पृथक् रखना।
(2) बच्चों को आदर्श जीवन की उचित शिक्षा दिलाना।
(3) सह जीवन से सेवाभाव जाग्रत करना।
(4) सामाजिकता की शिक्षा देना ‘एक सबके लिए है, सब एक के लिए हैं।’
(5) मन पसंद जीवन साथी चुनने में सहायक, आदि।

घोटूल का स्वरूप -

घोटूल सभी जगह समान नहीं पाए जाते हैं, अलग-अलग गाँवों, टोली में घोटूल की बनावट व स्वरूप भिन्न होते हैं। मुख्यतः घोटूल गाँव के बाहर सीमा पर ऊंचे स्थान में होता है। घोटूल भवन, झोपड़ीनुमा कच्ची मिट्टी व घास-फूस का होता है। दीवारों पर अनेक अर्थपूर्ण रचना होती है। घोटूल का अलंकरण विविध प्रकार की नक्काशियों तथा भित्ति चित्रों से की जाती है।

घोटूल की कार्यपद्धति -

घोटूल की कार्यपद्धति जनजाति आधारित होती है। सभी सदस्य सर्वसम्मति से एक प्रमुख चुनतें हैं, जिसे ’सिरेदार’ कहते हैं। “घोटूल में अविवाहित युवक-युवतियों को वर्ष में एक बार प्रवेश दिया जाता है। परिपक्व होने के पश्चात कोई भी युवक-युवतियां घोटूल की सदस्यता प्राप्त कर सकता है।”21 सदस्यता प्राप्त होने के पश्चात उन्हें एक विशेष नाम, जो घोटूल संविधान द्वारा पारित होता है, दिया जाता है, जिसे घोटूल पोटोय कहा जाता है। यहां युवक को चेलिक तथा युवती को मोटियारिन, बेलोआ व दुलोआ कहा जाता है।

घोटूल का संस्थागत व्यवस्था -

घोटूल प्रमुख सिरेदार अपने सहायक मुंशी एवं कोटवार की नियुक्ति करता है, जो घोटूल की व्यवस्था में भागीदारी का निर्वहन करते हैं। अलग-अलग कार्यों का उत्तरदायित्व भिन्न-भिन्न सहायकों को दिया जाता है। सभी को सिरेदार के आदेशों का पालन करना पड़ता है। कोटवार सभी को तंबाकू वितरित करता है। मुंशी घोटूल की आर्थिक व्यवस्था देखता है तथा सभी अपने कार्यों का निर्वहन पूर्ण श्रध्दा से करते हैं।

घोटूल की गतिविधियां -

सूर्यास्त होते-होते घोटूल व्यस्त होने लगता है। गाँव की युवतियां एक-एक कर घोटूल पहुचने लगती हैं। युवक भी आवश्यक सामग्री सहित घोटूल पहुंचते हैं। अंत में सिरेदार पहुंचता है, और घोटूल की गतिविधियां आरंभ हो जाती है। आग जलाई जाती है चारों ओर बैठकर लोग आपस में मनोरंजक वार्तालाप करते है। इसी बीच नृत्य और श्रृंगार से संबंधित वस्तुएं बनाई जाती है।

श्रृंगार -

घोटूल जहां एक ओर अपनी प्रक्रिया के लिए विख्यात है, वहीं यहाँ के सदस्यों का नृत्य और श्रृंगार अपने में अद्वितीय होता है। घोटूल के सदस्य घोटूल में श्रृंगार नहीं करते। “इनका श्रृंगार विशेष अवसर और देव पूजन के लिए होता है। वस्तुतः ये श्रृंगार दिखाने के लिए नहीं बल्कि इनके लिए आराधना तथा आत्मसन्तुष्टि के लिए होता है।”22

नृत्य -

यह घोटूल का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है, जिसका उद्देश्य पूजा और आराधना होता है। यह पूर्ण रूप से ‘लिंग’ को समर्पित है। ये गाकर अपने आराध्य को प्रसन्न करते हैं ताकि अच्छी फसल हो, सम्पूर्ण गांव स्वच्छ और रोगमुक्त हो। मांदर इस नृत्य का प्रमुख वाद्य होता है। अतः इसे ‘मांदरी नृत्य’ भी कहा जाता है। “मांदर की थाप तोड़ी की नाद, मंजीरे की झंकार के साथ थिरकते हुए सभी ‘चेलिक‘ और ‘मोटियारिन’ आनन्द मग्न हो जाते हैं और इस मध्य वे परस्पर एक दूसरे के उपर मुग्ध हो जाते हैं।”23 जब नृत्य, गायन कर थक जाते हैं, तब अपने पंसदीदा साथी के साथ जोड़ियां घोटूल में प्रवेश करती है, अपने जोड़ीदार के बाल संवारती है, कंघी करती हैं और वे साथ में ही रात्रि व्यतीत करते हैं। मुर्गे की बांग के बाद घोटूल खाली हो जाता है।

निष्कर्ष : बस्तर अंचल के आदिवासी आधुनिकता के दौर में भी सीमित आवश्यकताओं के साथ अबूझमाड़ जैसे बीहड़ जंगलों में अपनी संस्कृति और परम्पराओं के बीच जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अबूझमाड़िया आदिवासियों के दिन की शुरूआत प्रकृति के बीच होती है तथा उनकी दिनचर्या का अधिकांश समय जंगलों और पहाड़ों में ही बीतता है। सीधे-सादे अबूझमाड़िया आदिवासियों के जीवन की लगभग हर जरूरतों की पूर्ति जंगलों से ही होती है। संभवतः इसीलिए वे प्रकृति के सच्चे उपासक एवं रक्षक हैं। उनका समूचा जीवन सादगी से भरा है। उन्हें वर्तमान आवश्यकताओं के अलावा संग्रह करने के लिए कुछ नही चाहिए। उनकी कृषि पद्धति, मिट्टी से जुड़े त्यौहार, पर्व विवाह की परम्पराएं सामाजिक शिक्षा आदि व्यवस्थाएं इतनी संजीदा हैं कि आधुनिक और सभ्य कहलाने वाले समाज में कहीं पर भी इतनी संजीदगी दिखाई नही देती।

उनकी घोटूल परम्परा आज भी नृजातीय इतिहास में अध्ययन का महत्वपूर्ण विषय है। घोटूल उत्सव, नृत्य तथा विविध प्रकार की क्रीड़ाओं का संगम स्थल है, जिनमें आदिवासी युवाओं का आपसी प्रेम, विश्वास और सामूहिक कला की अभिव्यक्ति होती है। घोटूल आज भी एक उच्च प्रकृति का संस्कारिक संगठन तथा सामाजिक शिक्षण का ऐसा सक्रिय कार्यात्मक माध्यम है, जो आदिम संस्कृति की शिक्षा पद्धति एवं व्यवस्था पर जनमानस की जिजीविषा को स्वतः आकर्षित करती है।

संदर्भ :
1. आभा रूपेंद्र पाल एवं डिश्वरनाथ खुटे, बस्तरः राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, ओरियंट ब्लैकश्वान प्राइवेट लिमिटेड, हैदराबाद, 2021, पृष्ठ- 88-110.
2. भगवान सिंह वर्मा, छत्तीसगढ़ का इतिहास(प्रारंभ से 1947 तक), मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल, तृतीय संस्करण 1995, पृष्ठ- 135.
3. हीरालाल शुक्ल, समग्र छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय परिसर, रायपुर, संस्करण, 2017.
4. हीरालाल शुक्ल, आदिवासी बस्तर का वृहद इतिहास(खंड 2 से 5), बी. आर. पब्लिशिंग कार्पोरेशन, दिल्ली, 2007.
5. हीरालाल शुक्ल, छत्तीसगढ़ का जनजातीय इतिहास, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल 2007.
6. जे. आर. वल्र्यानी एवं वासुदेव साहसी, छत्तीसगढ़ का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, दिव्या प्रकाशन, कांकेर, 1997. पृष्ठ-215.
7. लाला जगदलपूरी, बस्तर इतिहास एवं संस्कृति, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल 2007, पृष्ठ- 236.
8. महरोत्रा, रमेशचन्द्र, छत्तीसगढ़, वैभव प्रकाशन रायपुर (छ.ग.), 2001.
9. निवेदिता वर्मा, जनजातीय संस्कृतिः बस्तर क्षेत्र का व्यापक अध्ययन, रावत पब्लिकेशन, जयपुर, पुनर्मुद्रित 2022, पृष्ठ-6-48.
10. शम्मी आबिदी एवं राजेंद्र सिंह, अबूझमाड़िया एक विशेष पिछड़ी जनजाति, आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, नवा रायपुर, छत्तीसगढ़, 2020.
11. शम्मी आबिदी एवं मोहन साहू, अबूझमाड़िया विशेष पिछड़ी जनजाति का आधारभूत सर्वेक्षण 2019-20, आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, नवा रायपुर, छत्तीसगढ़, 2020.
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ममता ध्रुव
शोधार्थी, इतिहास अध्ययनशाला, पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर, छत्तीसगढ़

डिश्वरनाथ खुटे(शोध निर्देशक)
इतिहास अध्ययनशालापं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुरछत्तीसगढ़

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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