आलेख : कौवा-कोयल के मुहावरे का राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में पुन:पाठ / कविता सिंह

कौवा-कोयल के मुहावरे का राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में पुन:पाठ
- कविता सिंह

शोध सार : यह आलेख कौवा कोयल के प्रचलित मुहावरे के आधार पर लिखी गयी बच्चों की कविताओं और कहानियों का हमारे राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में पुनःपाठ है। इस पुनःपाठ में कौवा श्रमिक वर्ग और कोयल मध्यवर्ग की प्रतिनिधि है और कौवा-कोयल का मुहावरा वर्गीय पूर्वाग्रह और असमानता को बढ़ाने वाला है। इसके साथ ही इस मुहावरे को आधार बनाकर लिखी गई कविता-कहानियों में अन्य राजनीतिक व सांस्कृतिक मूल्यगत विसंगतियाँ भी हैं। इनमें सतही गुणों का महिमा मंडन, अपनी स्वाभाविकता का अस्वीकार, भीड़ तंत्र का हिस्सा बनने की प्रेरणा व प्राकृतिक न्याय का अभाव शामिल है, जो बच्चों को नैतिक रूप से भ्रमित कर उनमें लोकतान्त्रिक सामाज के सन्दर्भ में अवगुणों का विकास कर सकती हैं। अतः आलेख प्रचलित मुहावरों, बच्चों के लिए लिखी गयी कविता-कहानियों के पुनःपाठ व अधिक समावेशी रचनाओं के लेखन और समावेशन पर बल देता है।

आज विभाग में शिक्षक दिवस का कार्यक्रम था। परास्नातक के विद्यार्थियों द्वारा अनेक प्रस्तुतियाँ दी गईं। इसी दौरान एक विद्यार्थी ने कविता पाठ किया जिसमें कौवे की कर्कशता और कोयल की मधुरता के प्रचलित रूपक का प्रयोग था। बरबस ही इसके इर्द-गिर्द लिखी गयी कई कहानियाँ और कविताएँ याद आ गईं। सबसे पहले बचपन की पढ़ी कविता याद आयी जो कुछ इस प्रकार है-

'कौवा कोयल दोनों काले
पर दोनों के ढंग निराले
कौवा मार भगाया जाता
कोयल के गुण गाया जाता
कोयल मीठी बान सुनाती
सबके मन को वह हर्षाती'

इस कविता के माध्यम से बच्चों को सीख दी जाती है कि आतंरिक गुण अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं बाहरी रूप-रंग की तुलना में। इसके साथ ही यह कविता बच्चों को मीठा/अच्छा बोलकर सबका प्रिय बनने की सीख भी देती है। कबीर दास जी का भी एक दोहा कुछ इसी तरह की नैतिकता की सीख देता है –

'कागा काको धन हरे, कोयल काको देय।
मीठे बचन सुनाइके, जग अपनो करि लेय।।'

कबीर कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता, लेकिन उसकी कर्कश आवाज़ से लोग उससे दूर रहते हैं। वहीं, कोयल अपनी मधुर वाणी से बिना कुछ दिए ही सबका दिल जीत लेती है। अतः मीठी और विनम्र वाणी का बड़ा महत्त्व है।

'काकः कृष्णः पिकः कृष्णः, को भेदः पिककाकयोः।
वसन्तकाले सम्प्राप्ते, काकः काकः पिकः पिकः।।‘

अर्थात कौवा भी काला है और कोयल भी, दोनों में कोई भेद नज़र नहीं आता है, मगर बसंत आने पर जब कोयल बोलती है तब कौवे और कोयल का अंतर मालूम हो जाता है। पुरातन साहित्य से लेकर अद्यतन साहित्य तक में कौवा और कोयल के रूपक का इस्तेमाल इसी अर्थ में होता आया है और एक तरह से यह परंपरा और एक मुहावरा बन गया है।

वर्गीय प्रतिनिधित्व और पूर्वाग्रह -

यदि वर्ग चरित्र के दृष्टिकोण से देखें तो कोयल मध्यवर्ग का प्रतीक है और कौवा हाशिए पर खड़े, शोषित, और वंचित "प्रोलैटेरिएट" (श्रमिक वर्ग) का। कौवा श्रमिक की तरह ही भोजन और अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष करता हुआ कठोर जीवन जीता है। सड़कों, कचरे के ढेरों और सीमांत स्थानों पर भोजन ढूंढता है, जो उस वर्ग के संघर्ष को दर्शाता है जो अपने दैनिक जीवन की जरूरतों के लिए संघर्षरत हैं। वह श्रमिक वर्ग की तरह ही अपनी रंगत, कठोर आवाज़ और भोजन जुटाने के प्रयास में घृणित समझे जाने वाले स्थानों तक पहुँचने के कारण अक्सर असुंदर और अप्रिय समझा जाता है। वह जिस प्रकार अपनी चतुराई से किसी भी कठिनाई का सामना कर लेता है, उसी प्रकार. श्रमिक वर्ग भी अपने सीमित संसाधनों और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जीने का तरीका निकाल लेता है। पितृपक्ष के अलावा कौवे को भी समाज में अक्सर एक अवांछित और महत्त्वहीन प्राणी के तौर पर देखा जाता है। श्रमिक वर्ग भी समाज में एक ऐसी ही स्थिति में है, जहाँ वह सिस्टम का महत्त्वपूर्ण पहिया तो है लेकिन उसके योगदान को शायद ही कभी उचित मान्यता मिलती है। कौवा उन पक्षियों में से है जो सामूहिकता में यकीन रखता है। कौवे की सामूहिक प्रतिरोध की भावना मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी सोच और संघर्ष का प्रतीक है। कौवा अपने वर्गीय चरित्र में श्रमिक, शोषित और वंचितों का पक्ष है। मध्यवर्गीय चेतना और नैतिकता से निकली कविता-कहानियाँ जिस तरह से श्रमिकों, शोषितों और वंचितों को लालची, चोर व अन्य नकारात्मक भूमिकाओं में दिखाती हैं उसी तरह कौवे को भी। किसी मैले कुचैले गरीब के बगल से गुजरते हुए हमारा मध्यवर्गीय हाथ यों ही नहीं हमारे बैग को तेजी से जकड़ लेता है।

कौवे और कोयल के इस पारंपरिक रूपक को लेकर लिखी गई बच्चों की कविता और कहानियों का वर्ग प्रतिनिधित्व एवं देश के राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से विश्लेषण करें तो उसमें तमाम विसंगतियाँ दिखती हैं।

उपर्युक्त कविता का संदर्भ लेते हुए यह कहना आवश्यक है कि बच्चे जानने के क्रम में यह भी जानते हैं कि कोयल अपने अंडे कौए के घोंसले में रखती है और अक्सर अपने बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कौए के अंडों को बाहर फेंक देती है। कोयल के अंडे कौवे के श्रम पर पलते हैं और कोयल की कौवे से श्रम की अनैतिक ठगी चलती रहती है। इस तथ्य के संदर्भ में देखिए कि हम किस तरह का मूल्य सिखा रहे हैं अपने बच्चों को?

१. सतही गुणों का महिमा मंडन व शोषण और श्रम की अनदेखी -

उपर्युक्त कविता के माध्यम से बच्चों को सीख दी जाती है कि आतंरिक गुण अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं बाहरी रूप-रंग की तुलना में। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि आतंरिक गुण तक पहुँचने के क्रम में यह कविता केवल कौवा-कोयल की वाणी तक ही पहुँच पाती है उनकी प्रवृत्तियों तक नहीं। कविता केवल कोयल की मधुर आवाज़ के कारण उसकी प्रशंसा करती है और कौए को उसकी कर्कश आवाज़ के लिए ख़ारिज कर देती है। यह निर्णय का एक सतही आधार बनाती है, जो आंतरिक गुणों (जैसे ईमानदारी,सत्यनिष्ठा और श्रम) के बजाय बाहरी गुणों (सुखद वाणी) को अधिक महत्त्व देती है। कविता इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देती है कि कोयल मधुर आवाज़ के बावजूद ठग और क्रूर होती है। यही कविता कौए को उसकी ‘कर्कश’ आवाज़ के कारण नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करती है, जबकि उसकी निष्कपटता और श्रम की प्रवृत्ति को नज़रअंदाज़ कर देती है। कौए परिश्रमी और सहयोगी पक्षियों के रूप में देखे जाते हैं, फिर भी यहाँ उन्हें केवल इसलिए अस्वीकृत कर दिया गया है क्योंकि वे कोयल के गीत की 'मधुरता' से रहित हैं।

कोयल के कपटपूर्ण व्यवहार और कौवे की निष्कपटता और श्रम को रेखांकित किए बिना कविता एकपक्षीय हो जाती है और यह पुनर्बलित करती है कि कोई व्यक्ति केवल सतही प्रतिभाओं या गुणों के आधार पर समाज में प्रशंसित और सम्मानित हो सकता है, भले ही वे नैतिक रूप से संदिग्ध गतिविधियों में संलग्न हों। यह बच्चे के कोमल मन में वर्ग पूर्वाग्रह के बीज रोप सकता है, श्रमिकों के शोषण व वर्ग असमानता को ‘नॉर्मलाइज़’ कर सकता है। बच्चे इस धारणा को आत्मसात् कर सकते हैं कि सतही गुण (जैसे आकर्षक होना या मीठी आवाज़ होना) ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, श्रम और न्याय से अधिक मूल्यवान हैं। वे मूल नैतिक मूल्यों की तुलना में दिखावे और बाहरी मान्यता को प्राथमिकता देना सीख सकते हैं। इससे एक ऐसे समाज के निर्माण को बढ़ावा मिल सकता है जहाँ छल, कपट, या सतही होने को सच्चे गुणों से अधिक पुरस्कृत किया जाता है।

वास्तविक जीवन में, हम अक्सर ऐसे लोगों से मिलते हैं जो अपने आकर्षण, वाक्पटुता, प्रतिभा या भव्यता के लिए प्रशंसित होते हैं, भले ही उनके कार्यों में नैतिकता की कमी हो। कविता इस सामाजिक प्रवृत्ति को चुनौती देने में विफल रहती है।

कौवे-कोयल के इसी मुहावरे पर आधारित बच्चों की एक कहानी भी कुछ इसी प्रकार है। ‘कौवा हैरान परेशान है। कोयल उससे पूछती है कि क्या हुआ क्यों दुखी और उदास हो? कौवा कहता है कि वह यह जगह छोड़कर चला जायेगा, क्योंकि लोग यहाँ केवल कोयल को पसंद करते हैं कौवे को नहीं। इसपर कोयल कहती है कि ठीक है कहीं भी जाओ लेकिन जाने से पहले अपनी 'कर्कश' आवाज़ बदल लो।

२. स्वाभाविकता का अस्वीकार्य -

उपरोक्त कविता और यह कहानी भी कौए को यह संदेश देती हैं कि उसकी "कांव-कांव" समाज द्वारा अस्वीकार्य है और उसे अपनी आवाज़ बदलने की जरूरत है। ऐसी कहानियाँ अनजाने ही बच्चों को यह सिखा सकती हैं कि वे अपने मूल स्वभाव को छोड़कर समाज के मानकों पर खरा उतरने के लिए खुद को बदलें, ताकी समाज में स्वीकार किए जा सकें। इससे उनमें स्वयं के वास्तविक व्यक्तित्व के स्वीकार्य एवं स्वायत्त नैतिकता के विकास में समस्याएं हो सकती हैं। असुरक्षा और हीन भावना का विकास हो सकता है, जो उनके आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को कमजोर कर सकता है। यह विविधता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समावेशन की भावना को भी कमजोर करता है।

३. भीडतंत्र का हिस्सा बनने की प्रेरणा -

हमारा समाज अधिकतर उन व्यक्तियों, विचारों और मान्यताओं को मधुर मानकर स्वीकार्यता देता है जो सत्ता या बहुसंख्य के विश्वासों, आग्रहों, पूर्वाग्रहों, परंपराओं, आदि के अनुरूप होते हैं। जबकी यह मधुर होना सता और समाज को आत्ममुग्ध बना सकता है, उन्हें आत्म मूल्यांकन कर सुधार के अवसरों से वंचित कर सकता है। इस सन्दर्भ में मेरे गाँव-जवार में एक कहन प्रचलित है 'ई मिठ बोलवा, उजाड़ कईलस टोलवा' जिसका अर्थ है मीठा-मीठा बोलकर देस-समाज का नुकसान करना। फिर भी सत्ता और समाज कई बार इस नुकसान को नहीं देखते हैं। उनके द्वारा अलग नज़रिया रखने वालों और सत्ता व बहुसंख्य समाज के विश्वासों, आग्रहों, पूर्वाग्रहों व परम्पराओं पर सवाल उठाने वालों को कई बार देश-समाज द्रोही, अप्रिय और 'कर्कश' जैसे विशेषण दिए जाते हैं, अपनी बातों और विचारों में बदलाव लाने का दबाव बनाया जाता है या समाज में अलग-थलग कर दिया जाता है।

उपर्युक्त कविता हमें समाज की भावनाओं, आग्रहों, पूर्वाग्रहों, इच्छाओं के अनुरूप ढलने की सीख देती है। यह हमें स्वायत्त सोच-समझ वाला, आलोचनात्मक चिंतन करने वाला नागरिक बनने की जगह भीड़ में शामिल होने की सीख देती है। कहते हैं कि ‘यदि सभी एक जैसा सोच रहे हों तो इसका अर्थ है कि कोई भी नहीं सोच रहा है। भीड़ जिसकी सोच समझ को नियंत्रित किया जा चुका है वह देस-समाज के लिए ख़तरा होती है। समाज में विविधता को बनाए रखने और लोकतंत्र की मजबूती के लिए ज़रूरी है कि हर तरह की आवाज़ों को बोलने का मौका हो, उन्हें सुना और महत्त्व दिया जाय (भले ही वे कर्कश क्यों न लगें)।

वैसे इस तरह के नैतिक पाठों से प्रेरित होकर वही कौवा अगर अपनी मूल भावना को बदलने का प्रयास करता है तो यही समाज उसपर 'कौवा चले हंस की चाल' का तंज कसता है। ऊपरी तौर पर तो यह व्यक्ति को अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए स्वाभाविकता बनाए रखने की सीख देता है लेकिन प्रेरणा, विकास,अनुकूलन, विविधता और अनूठेपन को हतोत्साहित करता है।

कौवा-कोयल की एक अन्य प्रचलित कहानी है जिसमें जंगल में खाने की कमी होने पर कौवा और कोयल में यह समझौता होता है कि “हम अच्छे से इस जंगल में रहते हैं, लेकिन हमें यहाँ कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा है। इसलिए क्यों न जब मैं अंडा दूँ, तो तुम खा लेना और जब तुम अंडा दोगे, तो मैं उसे खाकर अपनी भूख मिटा लूँगी?”

समझौते के अनुसार कौवा अंडे देता है और कोयल उसके अंडे खा लेती है मगर जब कोयल अंडे देती है तो वह कौवे को यह कहते हुए कि “उसकी चोंच गंदी है, पहले वह अपनी चोंच धोकर आए।" कौवा नदी के पास जाता है और नदी से पानी माँगता है। नदी कहती है कि पहले वह बर्तन लेकर आए। बर्तन के लिए वह कुम्हार के पास जाता है। कुम्हार कहता है कि वह मिट्टी लेकर आए। मिट्टी के लिए वह धरती से आग्रह करता है तब धरती कहती है कि वह खुरपी लेकर आए। अब कौवा लोहार के पास जाता है। लोहार भट्टी से दहकती हुई खुरपी निकालकर कौवे की चोंच में पकड़ा देता है। कौवे की चोंच जल जाती है और वह मर जाता है। कहानी इस वक्तव्य के साथ समाप्त होती है कि ' इस प्रकार कोयल ने अपनी चतुराई से अपने अंडों की रक्षा की और कौवा विश्वास करने की मूर्खता के कारण मारा गया।’

यह कहानी पढ़ते हुए न जाने कितनी खबरें और चित्र आंखों के सामने आते हैं, जिसमें गरीब असहाय व्यक्ति न्याय की उम्मीद में एक टेबल से दूसरी टेबल, एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस, एक कचहरी से दूसरी कचहरी, एक दर से दूसरे दर को ठेल दिया जाता है और दर-ब-दर भटकता हुआ अंत में बिना न्याय के ही मर जाता है। इस कहानी और इसमें दी गई सीख में भी कई नैतिक विसंगतियाँ हैं जो इस प्रकार हैं:

४. धूर्तता और चतुराई सफलता की कुंजी -

कहानी में कोयल को चतुर और कौवे को मूर्ख के रूप में चित्रित किया गया है। कोयल अपनी चालाकी और चतुराई से अपने अंडों की रक्षा कर लेती है, जबकि कौवा अपनी 'मूर्खता' के कारण मारा जाता है। यह नैतिकता का एक धुंधला पक्ष प्रस्तुत करता है, जिसमें धूर्तता और चतुराई को सफलता की कुंजी के रूप में दर्शाया गया है, जबकि सरलता और ईमानदारी को कमजोरी के रूप में। यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या धूर्तता सरलता से अधिक महत्त्वपूर्ण है?

५. न्याय का अभाव -

इस कहानी में न्याय का अभाव भी देखा जा सकता है। कौवे का अंजाम उसकी 'मूर्खता' का नतीजा था, लेकिन कोयल के लिए कोई दंड नहीं था, भले ही उसने कौवे को धोखा दिया था। यह कहानी उस असंतुलन की ओर इशारा करती है जो अक्सर वास्तविक दुनिया में भी देखा जा सकता है, जहां चालाक लोग अपने अपराधों के बावज़ूद बिना किसी सज़ा के समाज में गर्व से घूमते हैं और शोषित और वंचित परेशानियाँ झेलते हैं।

६. नैतिक भ्रम को बढ़ावा -

कहानी का अंतिम संदेश यह है कि “कोयल ने अपनी चतुराई से अपने अंडों की रक्षा की और कौवा विश्वास करने की मूर्खता के कारण मारा गया।” यह एक अनिश्चित नैतिकता को दर्शाता है, जिसमें चालाकी को महिमामंडित किया गया है और सरलता को मूर्खता का रूप दिया गया है। यह संदेश खासकर बच्चों और युवा पाठकों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है कि विश्वास करना, सरल होना एक कमजोरी है और चालाकी सफलता की गारंटी।

ये केवल एक मुहावरे के इर्द-गिर्द रची गई कुछ कविता और कहानियों के उदाहरण थे। अगर गौर करें तो हम देख सकते हैं कि ऐसी विसंगतियाँ हमारी भाषा और साहित्य में जगह-जगह देखने को मिलती हैं। हमारा ऑफलाइन और ऑनलाइन बाल साहित्य तो इससे भरा पड़ा है। तभी तो 'टमाटर मज़ेदार इसलिए है क्योंकि इसको खाकर कोई कम ताकतवर जीव किसी ज्यादा ताकतवर जीव को मार कर भगा देता है (वो भी बिना वजह)। आश्चर्य नहीं कि एक शिशु जो किसी अनजान शिशु को भी रोता हुआ देखकर खुद रोने लगता है, अंततः बाहुबल का पूजक बन जाता है।

हमारी भाषा और साहित्य हमारी सोच-समझ, भावनाओं, और प्रवृत्तियों को आकार देने के शक्तिशाली उपकरण हैं। बच्चों के लिए भी यह केवल भाषा सिखाने या उनके मनोरंजन का सामान नहीं हैं। चेतन,अचेतन रूप से यह बच्चों की इस समझ को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि एक लोकतांत्रिक-समाजवादी समाज में क्या मूल्यवान और वांछनीय है। इसलिए लेखक, शिक्षक और अभिभावक के तौर पर हमें बच्चों के साहित्य में प्रयुक्त मुहावरों, विचारधारा और मूल्यों का आलोचनात्मक परीक्षण करते रहना चाहिए। उनमें मौजूद समस्याओं को रेखांकित करना चाहिए और समावेशी विकल्पों का चयन और निर्माण करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह उन मूल्यों और विश्वासों के साथ मेल खाता हो जिन्हें हम एक लोकतांत्रिक-समाजवादी समाज में बढ़ावा देना चाहते हैं। यह लोकतांत्रिक-समाजवादी नागरिकता व समाज के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है।


कविता सिंह
सहायक आचार्य, शिक्षा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
singhkavita.bhu@gmail.com, 7258810514

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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