- मनीष कुमार
शोध सार : यह शोधालेख मिथिलांचल, बिहार में जट-जटिन लोकनाट्य से संबंधित महिलाओं के लोक प्रदर्शन का पारिस्थितिक-नारीवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है। यह शोध इन प्रदर्शनों में सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों, पर्यावरणीय चेतना और लैंगिक गतिशीलता के बीच जटिल अंतःक्रिया का अन्वेषण करता है, जिसमें महिलाओं की भूमिका को सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संरक्षकों के रूप में उजागर किया गया है। यह शोध जट-जटिन लोकनाट्य में पारिस्थितिक संवेदनाओं और कलात्मक प्रस्तुतियों के बीच सहजीवी संबंध का अध्ययन करके बताता है कि कैसे स्थानीय परंपराएँ पर्यावरणीय दृष्टिकोणों के साथ जुड़ती हैं और कैसे महिलाओं की भागीदारी लैंगिक, प्राकृतिक और सांस्कृतिक सहनशीलता के बीच एक गहरे संबंध को दर्शाती है। मुख्यत: जुलाई और अगस्त के महीनों के दौरान किए जाने वाले इस लोकनाट्य का उद्देश्य वर्षा के देवता, इंद्र की कृपा प्राप्त करना है, ताकि सूखे की स्थिति से जूझ रहे क्षेत्र में वर्षा हो सके। यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि कृषि कार्यों, विशेष रूप से धान की फसल के लिए जल संसाधनों की उपलब्धता पर भारी निर्भरता होती है। एक पारिस्थितिक-नारीवादी दृष्टिकोण से.यह अध्ययन मिथिलांचल की सांस्कृतिक संरचना में बुने गए जटिल पारिस्थितिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के उन आयामों को उजागर करता है जिन्हें पहले नजरअंदाज किया गया था और समाज और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है।
बीज शब्द :
जट-जटिन, मिथिलांचल, लोकनाट्य, पारिस्थितिक-नारीवाद, इंद्र
मूल आलेख :
जट-जटिन आख्यान और उसकी सांस्कृतिक बुनावट -
मैं अप्रैल 2023 के मध्य में बिहार के उत्तरी भाग में स्थित मिथिलांचल के गाँव सरिसब-पाही पहुँचा, जहाँ मैं लोक ज्ञान और प्रकृति पर फ़ील्डवर्क करने आया था। यह मेरा मिथिलांचल में लोक ज्ञान को समझने का पहला अवसर था। यहाँ रहते हुए मैंने गाँवों में एथनोग्राफिक अध्ययन किया। मिथिला क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रामाणिकता की पुष्टि हिंदू धार्मिक ग्रंथ विष्णु पुराण और मौखिक परंपराओं में होती है। यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक, प्राकृतिक, और भाषाई समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। मिथिला का अद्भुत विस्तार उत्तरी हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में गंगा नदी तक फैला हुआ है, जबकि इसके पश्चिमी और पूर्वी सीमा पर गंडक/गंडकी और कोसी नदी बहती है।1 कुछ विद्वान महानंदा नदी तक इसका क्षेत्र मानते हैं। मिथिला एक सजीव संस्कृति है जो नदियों और तालाबों के किनारे फली-फूली है। यह धान की खेती, मछली, और तालाबों से खाद्य पदार्थों के एकत्र करने जैसी समृद्ध परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। मिथिला एक प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण क्षेत्र है, जहाँ की प्राकृतिक लालिमा और आभा में अनेक द्रष्टाओं के दर्शन और लोक कल्याण के लिए समर्पित सरस परंपराएँ और मान्यताएँ प्रकाशित हुई हैं। मखाना और मछली यहाँ के लोक जीवन का अभिन्न अंग हैं।
मिथिला में वसंत ऋतु की मनमोहक सुंदरता, तालाबों के किनारे पेड़ों की शीतल छाया, मखाने की फैली हुई हरियाली, और मनमोहक कमल के फूल इस क्षेत्र को एक मोहक और रहस्यमय वातावरण प्रदान करते हैं। जट-जटिन बिहार के मिथिला क्षेत्र का एक प्रमुख लोकनाट्य रूप है जो स्थानीय संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक संरचनाओं को अभिव्यक्त करता है। यह लोकनाट्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामूहिक स्मृति और लोकज्ञान का वाहक भी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है। इसके बारे में पहली बार फ़ील्डवर्क के दौरान ही जान पाया। मेरे एक उत्तरदाता अनुराग मिश्र ने बताया, जब मैंने उनसे पूछा था कि क्या कोई नाटक होता है जिसमें पानी बरसने के लिए विनती की जाती है? तब उन्होंने जट-जटिन लोकनाट्य का नाम लिया था।2 जट-जटिन मिथिला की लोक परंपरा की सांस्कृतिक पूंजी है। इसमें ऐतिहासिक, दार्शनिक, राजनैतिक, पारिस्थितिक एवं कलात्मक पक्ष अंतर्निहित हैं। अगर इसके ऐतिहासिक पक्ष की बात करें तो डब्ल्यू एफ. क्रुक महोदय ने लोक नाट्य जट-जटिन की उत्पत्ति को लेकर कहा है कि यह मेरठ एवं रोहिलखंड के क्षेत्र से शेष भारत में फैला है।3
जट को इसी क्षेत्र के किसान के रूप में मानते हैं। ये लोकनाट्य पद्यात्मक और लयबद्ध अभिनय पर आधारित होता है। जट-जटिन कथा को लेकर लोक समाज में कहानी भी है कि जट की उत्पत्ति भगवान शिव की जटा से हुई है। भगवान शिव ने जब दक्ष के यज्ञ में सती को अपने शरीर की आहुति देते देखा तो शिव इतने क्रोधित हो गए कि क्रोध को शांत करने के लिए पृथ्वी पर आ गए और अपनी जटा जोर से पटकी। इसी से जट उत्पन्न हुआ और शिव के आदेशानुसार उसने राजा दक्ष का यज्ञ भंग कर दिया। इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो बहुत सारे विद्वान कहते हैं की मोहम्मद गौरी के समय में जाट लोग भागकर नेपाल की ओर आए और इसी क्रम में वह बिहार और मिथिला भी आए और यहीं बस गए।4 जट-जटिन का आयोजन मुख्यतः अकाल के समय वर्षा निमित्त किया जाता है। सावन से लेकर भादव महीने तक चाँदनी रात में इस लोकनाट्य का प्रदर्शन किया जाता है। शाम को महिलाएँ गीत गाते हुए उस तालाब से जिसमें थोड़ा बहुत पानी होता है पानी लाती हैं, साथ ही उसमें रह रहे मेंढकों को पकड़ लाती हैं। किसी एक मेंढक को सिंदूर का टीका लगाकर ओखली के नीचे रखा जाता है और प्रतीकात्मक रूप से उसे ओखली में कूटने का अभिनय किया जाता है। कुछ स्थानों पर मेंढक को वर्षा के देवता इंद्र के लिए बलिदान के रूप में कूटा भी जाता है। लोक-विश्वास है कि इस चोट से मेंढक टर-टर करेगा और पानी बरसेगा। फिर, उस जीवित या मृत मेंढक को समाज के किसी झगड़ालू व्यक्ति के घर में फेंक दिया जाता है। यह माना जाता है कि उस व्यक्ति के क्रोधित होकर गाली देने से वर्षा होती है, क्योंकि लोक विश्वास में ये गालियाँ ही वर्षा का कारण हैं।5 इसमें पुरूष पात्र (जट) का अभिनय भी महिलाएं ही करती हैं। पुरुष पात्र के संकेत हेतु सिर पर अंगोछा बांध लिया जाता है। इस लोकनाट्य में दलित महिलाएँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं और इस प्रकार यह हाशिए पर रहने वाले समुदायों के अनुभवों, संघर्षों, और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को सामने प्रस्तुत करता है। अब यह लोक की परिधि से बढ़कर नगर की ओर गमन कर गया है। अब ये नगर के कार्यक्रमों में ‘कल्चरल प्रोग्राम’ के बैनर तले प्रस्तुत होता है। मैंने भी दरभंगा के एक नामचीन विश्वविद्यालय में इसका मंचन होते देखा है। जट-जटिन दलित महिलाओं का प्रकृति के साथ संबंधों का सांस्कृतिक नाट्य मंचन है। यह एक प्रकार से दलित महिलाओं का प्रकृति के साथ सहजीवन और सामंतवाद एवं पितृसत्तावाद के खिलाफ़ अभिव्यक्ति है।
जट-जटिन लोकनाट्य और उसकी सांस्कृतिक बुनावट को समझने के लिए कई विद्वानों के विचारों के आलोक में देखा जा सकता है। लोकज्ञान और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के अध्ययन में प्रमुख नामों में शामिल हैं रामचंद्र गुहा (1989), एरिक हॉब्सबॉम (1983), और एलिनोर ऑस्ट्रॉम (2009), जिन्होंने लोक परंपराओं के सामाजिक और पारिस्थितिक संदर्भों को गहराई से समझाया है। रामचंद्र गुहा (1989) का विचार है कि लोककथाएँ और लोकमंचन समाज की जीवंतता और प्रतिरोध के रूप हैं, जो सामूहिक चेतना को सहेजने और व्यक्त करने का कार्य करती हैं।6
लोकनाट्य जट-जटिन इस दृष्टिकोण से उन हाशिए पर रहने वाले वर्गों की आवाज़ है जो मुख्यधारा के इतिहास में अक्सर अदृश्य रहते हैं। लेकिन इतिहास के मौखिक मंच पर अपनी महत्त्वपूर्ण मौजूदगी प्रदर्शित करते हैं। कभी-कभी तो ये अपनी परिधि से आगे निकाल जाते हैं। ब्रिटिश इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम (1983) ने 'इन्वेंटेड ट्रेडिशन्स' की अवधारणा दी है, जहाँ परंपराएँ समाज के अंदर नए संदर्भों और जरूरतों के हिसाब से गढ़ी और पुनः गढ़ी जाती हैं।7 लोक समाज इसे समय के साथ नए अर्थ देता रहता है। भले ही उसे पहचान न मिले। अमेरिकी राजनीतिक अर्थशास्त्री एलिनोर ऑस्ट्रॉम (2009) ने सामुदायिक ज्ञान और संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय परंपराओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया है।8 ये कहती हैं कि लोक पम्पराएँ एक तरीके से लोक चातुरी (विज़्डम) का प्रतीक होती हैं। प्रकृति से संबंधित सारे अनुभव इसी में समाहित रहते हैं। जट-जटिन जैसे लोकनाट्य, जो पारिस्थितिक और सामाजिक अनुभवों को अपने में समाहित करते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि जट-जटिन को केवल एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक स्मृति, प्रतिरोध, और ज्ञान के एक महत्वपूर्ण वाहक के रूप में देखा जा सकता है।
प्रकृति, स्त्री और प्रतिरोध के स्वर -
लोकनाट्य जट-जटिन में पारिस्थितिक-नारीवाद के बीज कैसे अंतर्निहित हैं? प्रकृति और स्त्री के बीच का संबंध सभ्यताओं के विकास की धारा से सांस्कृतिक, धार्मिक और दार्शनिक विमर्श का विषय रहा है। लोक समाजों में, प्रकृति और स्त्री दोनों को सृजनशीलता, पोषण, और जीवनदायिनी के रूप में देखा गया है। लेकिन इसके बावजूद व्यवस्थाओं ने इन दोनों का शोषण किया। यह संबंध मात्र प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वस्तुगत और वैचारिक रूप से भी गहरे जुड़े हुए हैं। पारिस्थितिक-नारीवाद 1970 के दशक में उभरा एक सामाजिक और वैचारिक आंदोलन है, जो नारीवाद और पर्यावरणवाद को एक साथ जोड़ कर देखता है। पारिस्थितिक-नारीवाद दृष्टिकोण यह मानता है कि जिस प्रकार से मानव समाज ने प्रकृति का शोषण किया है, उसी प्रकार से स्त्रियों का भी शोषण किया गया है। दोनों के संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज़े एक-दूसरे से गहन रूप से जुड़ी हुई हैं। अपनी पुस्तक ‘पैट्रिआर्की एंड एक्यूम्यूलेशन ऑन ए वर्ल्ड स्केल (1986)’ में मारिया माइस ने पितृसत्ता और पूंजीवाद के बीच के संबंधों का विश्लेषण किया है।9
लेकिन इसी कड़ी में सामंतवादी समाज में इसकी अब तक मौजूदगी के बीज को भी शामिल किया जा सकता है। माइस ने तर्क दिया कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं के श्रम का शोषण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन पितृसत्तात्मक और पूंजीवादी संरचनाओं का हिस्सा है।10 ये शोषण प्रतिरोध के रूप में दर्ज होते हैं जो लोकगीतों, लोककहानियों और लोकनाट्यों के द्वारा सामाजिक और सांकृतिक जीवन में प्रगट होते हैं।
प्रसिद्ध सांस्कृतिक सिद्धांतकार जॉन फिस्के (1989) का कहना है कि लोक संस्कृति में ये प्रतिरोध दैनंदिन जीवन में व्यक्त होते हैं और मौखिक परम्परा और समाज की सूक्ष्म संरचनाओं के माध्यम से प्रसारित होते हैं।11 जैसे लोक में गीत उपसंरचनाओं के तहत अपनी बानगी प्रस्तुत करते हैं। फिस्के कहते हैं इन्हें सौन्दर्य बोध या मानवतावादी बोध के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक बोध के तहत समझा जाना चाहिए।12 हम तभी इनमें मौजूद प्रतिरोधों को समझ सकेंगे। जट-जटिन लोकनाट्य में मौजूद प्रतिरोध का स्वर, जहाँ एक ओर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और पर्यावरणीय संकटों के खिलाफ आवाज़ उठाता है, वहीं दूसरी ओर स्त्री अधिकारों, समानता और स्वतंत्रता की भी वकालत करता है। प्राकृतिक उपमाओं के जरिए अपनी स्थिति को सशक्त रूप में व्यक्त करता है। ये गीत देखिए:
गीत का भाव इस तरह है: ...जट कहता है- हे जटिन, तुमको झुकना पड़ेगा। झुकना ही पड़ेगा। जिस तरह केले के घौंद फलने पर झुक जाते हैं, ठीक उसी तरह विवाह के बाद तुम्हें भी झुक जाना पड़ेगा। जटिन कहती है-हे जट, मैं कभी नहीं झुकूँगी, कभी नहीं झुकूँगी। जिस तरह बाँस की कोंपल सीधी, ऊपर की ओर बढ़ती है, उसी तरह मैं भी सीधी निर्भीक होकर चलूंगी। जट कहता है- हे जटिन, तुमको झुकना ही पड़ेगा। झुकना ही पड़ेगा।जिस तरह कौनी (एक प्रकार का धान का अनाज) के शीश झुक जाते है, ठीक उसी तरह तुम्हें भी झुक जाना पड़ेगा। जटिन जवाब देती है- हे जट, मैं कभी नहीं झुकूँगी। जिस तरह पोखर (तालाब) का पानी गम्भीर और स्थिर रहता है, उसी प्रकार मैं भी दृढ़ और गम्भीर रहूँगी। इस गीत के माध्यम से नायिका, जटिन, न केवल पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती है, बल्कि वह अपने आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता को भी प्रकट करती है। जट की उपमाओं के जवाब में जटिन की दृढ़ता नारी शक्ति और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन जाती है। तालाब की उपमा, जो वह अपने लिए चुनती है, गहरे अर्थों से भरी हुई है। तालाब की स्थिरता और गहराई जटिन के शांत, सशक्त और स्थिर स्वभाव को दर्शाते हैं, जबकि उसके अंदर बहते हुए प्रतिरोध की जल धारा उसकी अंतर्निहित शक्ति और दृढ़ संकल्प का प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त, गीत का यह हिस्सा पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों को सामने लाता है। जटिन का साहस और आत्मविश्वास, उन परंपरागत मान्यताओं और विचारों को चुनौती देने की क्षमता रखता है, जो महिलाओं को सीमाओं में बांधने का प्रयास करती हैं। वह न केवल अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, बल्कि अपनी स्वतंत्रता की दिशा में उठाए गए कदमों के प्रति भी प्रतिबद्ध है। यह गीत व्यापक सामाजिक संदर्भों में महिलाओं की मुक्ति और समानता की पुरजोर वकालत और समर्थन करता है। ऐसे ही सूखे की स्थिति में प्राकृतिक परिदृश्य के बिगड़े हाल और इसके लिए जल के देवता इन्द्र से प्रार्थना और सामाजिक शोषण पर प्रतिरोध की बानगी है। गीत इस प्रकार है:
इस गीत में पानी के अभाव से उत्पन्न अकाल को बड़े मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। प्राकृतिक आपदाओं का सबसे अधिक प्रत्यक्ष प्रभाव उन लोगों या वर्गों पर पड़ता है, जिनके पास संसाधनों के उपभोग पर कोई नियंत्रण नहीं होता या नाममात्र का होता है। मिथिला में आज भी सवर्ण जातियों का ही उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण है। इसलिए, जब भी प्राकृतिक आपदाओं का सामना होता है, तो सवर्णों को उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी दलितों या दलित महिलाओं को होती है। इस गीत में जटिन इन्द्र से गुहार लगाती है कि पानी बरसे। वह कहती है कि धोबी के आंगन में बहुत थोड़ा सा पानी है, जिसमें एक ब्राह्मण नहा रहा है। लेकिन इस पानी से न तो धोती भीग रही है और न ही उसका जनेऊ साफ हो रहा है। उसने इतना चंदन लगाया है कि वह छलक रहा है। अकाल के कारण बेचारी विधवा ब्राह्मणी को हल जोतना पड़ रहा है। पानी के बिना अकाल पड़ गया है। फलाने बाबू का बाल-बच्चा चावल के माड़ के लिए रो रहा है। वह चावल की खुद्दी के लिए भी रो रहा है। अगर खुद्दी ही होती तो वह रोटी या चावल पकाकर खा लेता। इंद्र को यह सब देखकर भी दया नहीं आ रही। तालाब और कुएँ सब सूख गए हैं। चारों तरफ़ सूखा ही सूखा है। पानी के बिना अकाल पड़ गया है। सभी के घरों में बच्चे आपस में लड़ रहे हैं और जो मालिक (जमींदार) है वह बड़ा निर्दयी है, वह अन्न का भंडार नहीं खोल रहा है। गाँव का परचून वाला झूठ-मूठ का बही खाता बना रहा है और मजदूरों को मेहनताने में सड़ा हुआ खेसारी (एक प्रकार की दाल) दे रहा है। इन सबके पाप के कारण ही पानी नहीं बरस रहा है।
इस गीत में जटिन चारों ओर फैले अकाल के परिदृश्य और उससे उपजे शोषण को चित्रित करती है। वह इस विषम स्थिति को अभिव्यक्त कर सामंतवादी विचारधारा को चुनौती देती है। जैसा कि प्रसिद्ध समाजशास्त्री और पर्यावरणविद रामचंद्र गुहा (2006) ने लिखा है कि, “प्राकृतिक आपदाएँ और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे न केवल पर्यावरणीय होते हैं, बल्कि गहराई से सामाजिक और राजनीतिक भी होते हैं।”15 इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, दार्शनिक और नारीवादी आलोचक गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक (1988) ने टिप्पणी की है कि , "शोषित वर्गों की आवाज़ को बार-बार दबाने की कोशिश की जाती है, लेकिन उनकी पीड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श के माध्यम से व्यक्त होती रहती है।”16 इस गीत में जटिन ने जमींदारों और संपन्न लोगों की प्रकृति-विमुखता और शोषणकारी मानसिकता के कारण बिगड़े प्राकृतिक तंत्र को उजागर किया है। उसका मन्तव्य है कि हमारे श्रम से ही मालिक का अन्न भंडार भरा हुआ है, लेकिन वह उसे अपने मजदूरों पर खर्च नहीं कर रहा है।
जटिन का सामाजिक व्यवस्था और सामंतवाद के विरुद्ध आक्रोश साफ़ झलकता है, क्योंकि उसे इतना भी अधिकार नहीं कि वह एक वक्त की रोटी ठीक से खा सके। मिथिला के संदर्भ में सवर्ण जातियों और ज़मींदारों का प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा उनके आर्थिक और सामाजिक प्रभुत्व को दर्शाता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अकाल जैसी स्थिति में, जाति और वर्ग के आधार पर संसाधनों का असमान वितरण की व्यवस्था केवल असमानता को बढ़ावा देती है। पारिस्थितिक-नारीवाद के चश्में से, यह गीत केवल अकाल की व्यथा को नहीं, बल्कि समाज में वर्ग और लिंग के आधार पर होने वाले शोषण को भी प्रकट करता है। वंदना शिवा (1988) ने स्पष्ट किया है कि, "महिलाओं और प्रकृति के बीच एक गहरा संबंध है, और दोनों को ही पितृसत्तात्मक और शोषणकारी संरचनाओं के तहत दबाया गया है।"17 इस संदर्भ में, जटिन का प्रकृति से विनती करना केवल प्राकृतिक संसाधनों की कमी पर दुखी होना नहीं है, बल्कि यह उन संरचनात्मक असमानताओं का विरोध भी है जो महिलाओं और निम्न वर्गों पर दमनकारी प्रभाव डालती हैं। इसी संदर्भ में कैरोलीन मर्चेंट (1980) का कहना है कि, "पारिस्थितिकी और सामाजिक न्याय को अलग नहीं किया जा सकता।"18 इस गीत में, जटिन न केवल प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रही है, बल्कि उन सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ़ भी संघर्ष कर रही है जो इस आपदा को और गहरा कर रही हैं। यह गीत एक प्रकार से पारिस्थितिक-नारीवाद की चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसमें जटिन की आवाज़ उन सभी महिलाओं और शोषित वर्गों की आवाज़ बन जाती है, जो प्राकृतिक और सामाजिक अन्याय का शिकार हैं। इसी कड़ी में जब चारों तरफ़ हाहाकार मचा हुआ है और पुरुष वर्ग नगर की ओर जीविका के लिए कूच कर गए हैं, तब जटिन इन्द्र से पानी के लिये विनती करती है, जिसका सजीव चित्रण इस गीत में है। गीत इस प्रकार है:
हे इन्द्र देवता, रिमझिम बरसो। क्योंकि पानी के बिना अकाल पड़ गया है। हरे-भरे मैदान सूख गये हैं। नदी-नाले और तालाब मरुभूमि से दिखने लगे हैं और मेरे भाई के हरी फसल से भरने वाले खेत भी ऊसर हो गये हैं। हाय! विधवा ब्राह्मणी भी हल जोतने लगी, लेकिन पानी के बिना जमीन पत्थर-सी कड़ी हो जाने के कारण हल का फाल उछल-उछल कर आड़ा-तिरछा हो जाता है। हे इन्द्र देवता, झम-झम बरसो। पानी के बिना अकाल पड़ रहा है।
निष्कर्ष : पारिस्थितिक-नारीवाद आज के समय में विशेष रूप से प्रासंगिक है, जब पर्यावरणीय संकट गहराता जा रहा है और सामाजिक असमानताएं भी बढ़ रही हैं। इसी कड़ी में लोकनाट्य और उसका मंचन भी पर्यावरणीय दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। पर्यावरणीय और सामाजिक न्याय आपस में जुड़े हुए हैं। पारिस्थितिक-नारीवाद न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करता है, बल्कि पर्यावरणीय सुरक्षा और सामाजिक न्याय के लिए भी एक व्यापक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करता है। यह दृष्टिकोण प्रकृति और मानव समाज के बीच सामंजस्य स्थापित करने की वकालत करता है, जो कि दीर्घकालिक टिकाऊ विकास और शांति के लिए आवश्यक है। लोकनाट्य जट-जटिन भी उक्त विषय की ही बानगी है। ये सामाजिक सरोकार, पर्यावरणीय सुरक्षा और पितृसत्ता के शोषण से मुक्ति की अभिव्यक्ति है। यह लोकनाट्य न केवल मिथिला के सांस्कृतिक ताने-बाने को अभिव्यक्त करता है, बल्कि वर्तमान सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियों के संदर्भ में भी महत्त्वपूर्ण संवाद प्रस्तुत करता है।
1. रिचर्डबर्गहार्ट : ए क्वॉरल इन द लैंग्वेज फ़ैमिली: एजेंसी एंड रिप्रजेंटेशन ऑफ़ स्पीच इन मिथिला, मॉडर्न एशियन स्टडीज़, 1993, 27 (4): 761-804
2. अनुराग मिश्र जी से किया गया साक्षात्कार, नवटोल, सरिसब-पाही, मधुबनी, बिहार, दिनांक 2 जुलाई, 2023
3. राजेश्वर झा : जट-जटिन, मैथिली साहित्य संस्थान, पटना, 1971, पृ. सं. 68
4. वही, पृ. सं. 68
5. अमल झा जी से किया गया साक्षात्कार, पाही, सरिसब-पाही, मधुबनी, बिहार, दिनांक 20 जुलाई, 2023
7. ई हॉब्सबॉम और टी रेंजर (एडिटेड) : द इन्वेंशन ऑफ़ ट्रेडिशन, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1983, पृ.सं. 5
8. ई ओस्ट्रोम : गवर्निंग द कॉमन्स: द एवोल्यूशन ऑफ़ इंस्टीट्यूशंस फॉर कलेक्टिव एक्शन, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1990, पृ. सं. 99
9. मारिया माइस : पैट्रिआर्की एंड एक्यूम्यूलेशन ऑन ए वर्ल्ड स्केल. वीमेन इन द इंटरनेशनल डिवीज़न ऑफ़ लेबर, जेड बुक्स, 1986, पृ. सं. 77
10. वही, पृ. सं. 77
11. जॉन फिस्के : रीडिंग द पॉपुलर, रटलेज, यू.के, आठवाँ संस्करण, 1986, पृ. सं. 10
12. वही, पृ. सं. 10
13. रामइक़बाल सिंह ‘राकेश’ : मैथिली लोकगीत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, दूसरा संस्करण 1955, पृ. सं. 389
14. http://kavitakosh.org/kk दिनांक, 24 जनवरी 2024 को, 11:15 बजे पूर्वाह्न देखा गया
15. रामचंद्र गुहा : हाउ मच शुड ए पर्सन कंज्यूम? एनवायरनमेंटालिस्म इन इंडिया एंड द यूनाइटेड स्टेट्स, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस, 2006, पृ.सं.112
16. गायत्री चक्रवर्ती स्पीवेक : केन द सबाल्टर्न स्पीक? इन कैरी नेल्सन एंड लॉरेंस ग्रॉसबर्ग (एडिटेड), मार्किज़्म एंड द इंटरप्रिटेशन ऑफ़ कल्चर लंदन: मैकमिलन, 1988, पृ.सं. 271-313
17.वंदना शिवा : स्टेइंग अलाइव: वीमेन, इकोलॉजी, एंड डेवलपमेंट. जेड बुकस, 1988, पृ.सं. 45
18. कैरोलिन मर्चेंट : द डेथ ऑफ़ नेचर: वीमेन, इकोलॉजी, एंड द साइंटिफिक रेवोल्यूशन, हार्परोन,1980, पृ.सं. 164
19. रामइक़बाल सिंह ‘राकेश’ : मैथिली लोकगीत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, दूसरा संस्करण 1955, पृ.सं. 38
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