( संदर्भ : शैलेश मटियानी )
- आनंद सिंह कप्रवान
शोध सार : शैलेश मटियानी हिन्दी साहित्य के उन विशिष्ट रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने समाज के दलित, शोषित, वंचित तथा पीड़ित तबके के संघर्ष को वाणी दी है। उनके उपन्यासों के केंद्र में दलित, स्त्री तथा निम्न वर्ग के पात्रों को विशेष स्थान प्राप्त है। विशेषकर उन्होंने अपने आंचलिक उपन्यासों में स्त्री पात्रों के जीवन की विविध संवेदनाओं का चित्रण यथार्थ रूप में किया है। पर्वतीय परिवेश की सभी विशेषताओं को समेटे, उनके स्त्री पात्रों में पहाड़ का समाज और संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। जीवन की विकट से विकट परिस्थितियों में भी वह अपने कर्तव्य पथ से तनिक भी नहीं डिगती। मटियानी जी ने अपने आरंभिक जीवन
के
निजी
अनुभवों
के
माध्यम
से
इन
स्त्री
पात्रों
का
सृजन
किया
है।
गोपुली,
रमौती,
रामकली,
रेवती
आदि
उनके
भीतर
बसी
पर्वतीय
संवेदना
का
ही
एक
हिस्सा
है।
यह
पात्र
पर्वतीय
जीवन
में
निहित
दृढ़ता
के
गुणों
को
आत्मसात
करते
हुए,
संघर्ष
और
शोषण
के
बीच
भी
अपनी
अस्मिता
को
बचाए
रखने
का
भरसक
प्रयास
करती
हैं।
वह
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
सशक्तीकरण
का
आदर्श
स्थापित
कर,
एक
सशक्त
नारी
के
रूप
में
समाज
में
अपना
विशिष्ट
स्थान
बनाती
है
तथा
बिना
किसी
बनावटीपन
और
थोथी
नैतिकता
के
समाज
के
उस
वर्ग
का
प्रतिनिधित्व
करती
है,
जो
जीवन
के
मूलभूत
संसाधनों
से
वंचित
हैं
परंतु
आत्मसम्मान
और
संवेदना
से
परिपूर्ण
हैं।
बीज शब्द
: स्त्री सशक्तीकरण,
आंचलिकता,
पर्वतीय
परिवेश,
संकीर्ण
मानसिकता,
आत्मसम्मान,
संघर्षपूर्ण
जीवन,
चारित्रिक
दृढ़ता,
लोक-आस्था,
शोषण,
रूढ़िवादी,
अधिकार,
कुरीतियाँ,
मूलभूत
संसाधन,
मनोव्यथा
आदि।
मूल आलेख :
मानव
जीवन
स्त्री
और
पुरुष
के
समन्वय
का
आदर्श
रूप
है।
एक
ही
रथ
के
दो
पहिये
होने
के
कारण
दोनों
का
समान
महत्व
है
परंतु
फिर
भी
स्त्री
को
पुरुष
की
अपेक्षा
कमतर
आँकना
हमारे
समाज
की
सबसे
बड़ी
विडंबना
है,
जैसे
समाज
की
सबसे
महत्त्वपूर्ण
इकाई
परिवार
है,
वैसे
ही
परिवार
का
सबसे
महत्त्वपूर्ण
स्तंभ
स्त्री
है,
जो
कई
रूपों
में
परिवार
के
परिमार्जन
में
अपना
महत्त्वपूर्ण
योगदान
देती
हैं।
भारतीय
समाज
में
पुरातन
समय
से
ही
स्त्रियों
ने
अपनी
वीरता,
पराक्रम
और
बुद्धिमत्ता
से
समाज
का
प्रतिनिधित्व
किया
है।
हमारे
ऐतिहासिक
और
पौराणिक
ग्रंथ
स्त्रियों
द्वारा
समाज
के
लिए
किए
गए
उनके
उल्लेखनीय
कार्यों
के
जीवंत
साक्ष्य
हैं,
जहाँ
विदुषी
गार्गी,
मैत्रेयी,
माता
सीता,
द्रौपदी,
मीराबाई
और
रानी
लक्ष्मीबाई
आदि
ने
अपनी
विद्वता,
त्याग,
बलिदान
और
वीरता
से
समाज
में
स्त्रियों
के
लिए
उच्च
आदर्श
स्थापित
किए
हैं
परंतु
फिर
भी
स्त्री
सामाजिक
बंधनों
में
जकड़ी
हुई
है
और
स्त्री
की
इन
सामाजिक
बंधनों
से
मुक्ति
ही
स्त्री
सशक्तीकरण
का
मुख्य
उद्देश्य
है।
स्त्री
की
इसी
मुक्ति
का
आह्वान
करते
हुए
हिन्दी
के
सुप्रसिद्ध
कवि
सुमित्रानंदन
पंत
लिखते
हैं
–
पंत
जी
की
यह
पंक्तियाँ
नारी
को
हर
उस
बंधन
से
मुक्त
करने
की
प्रार्थना
करती
हैं,
जो
उसके
पैरों
की
बेड़ियाँ
बनी
हुई
हैं
तथा
जिस
कारण
स्त्री
शिक्षा,
संपत्ति
तथा
सम्मान
जैसे
मूलभूत
अधिकारों
से
वंचित
हैं।
समाज
में
स्त्री
के
सशक्तीकरण
के
लिए
अब
तक
लंबी
यात्रा
तय
की
जा
चुकी
है
परंतु
अभी
भी
इस
दिशा
में
कई
महत्त्वपूर्ण
कार्य
करना
शेष
है,
विशेषकर
ग्रामीण
क्षेत्र
में
और
ग्रामीण
क्षेत्र
में
भी
पर्वतीय
ग्रामीण
क्षेत्र
तो
अभी
भी
मूलभूत
आवश्यकताओं
के
अभाव
से
जूझ
रहा
है।
पर्वतीय
परिवेश
अपनी
विषम
भौगोलिक
परिस्थितियों
के
कारण
कई
प्रकार
की
समस्याओं
से
ग्रसित
है।
शिक्षा,
स्वास्थ्य
तथा
रोजगार
जैसी
मूलभूत
आवश्यकताओं
से
वंचित
इस
क्षेत्र
के
निवासी
जीवन-यापन
हेतु
प्रवास
के
लिए
विवश
हैं।
पुरुषों
के
घर
से
बाहर
रहने
के
कारण
परिवार
में
स्त्रियों
को
अतिरिक्त
भार
वहन
करना
पड़ता
है।
शिक्षा
तथा
मूलभूत
अधिकारों
से
वंचित
यहाँ
की
स्त्रियाँ
दोहरी
भूमिका
निभाती
हैं।
पहाड़ी
ग्रामीण
समाज
में
संघर्षशील
स्त्रियों
का
हिन्दी
साहित्यकारों
ने
अत्यंत
मार्मिक
चित्रण
किया
है।
जिनमें
से
एक
नाम
‘शैलेश
मटियानी’
भी
हैं,
उन्होंने
पर्वतीय
परिवेश
के
विविध
पक्षों
को
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
वाणी
दी
है।
उनकी
रचनाओं
में
निहित
आंचलिक
प्रभाव
के
कारण
आलोचकों
ने
उन्हें
आंचलिक
रचनाकार
की
श्रेणी
में
रखा
है।
शैलेश
मटियानी
ने
लगभग
तीस
उपन्यासों
की
रचना
की
है,
जिसमें
मुख्यतः
कुमाऊँ
अंचल
के
ग्रामीण
परिवेश
तथा
मुंबई,
इलाहाबाद
तथा
दिल्ली
के
महानगरीय
जीवन
की
पृष्ठभूमि
को
आधार
बनाया
गया
है।
‘हौलदार’,
‘चिट्ठी
रसैन’,
‘एक
मूठ
सरसों’,
‘चौथी
मुट्ठी’,
‘मुख
सरोवर
के
हंस’,
‘उगते
सूरज
की
किरण’,
‘भागे
हुए
लोग’,
‘गोपुली
गफ़ूरन’,
‘उत्तरकाण्ड’
आदि
उनके
प्रसिद्ध
आंचलिक
उपन्यास
हैं,
जिनमें
उन्होंने
पर्वतीय
अंचल
के
जीवन
समाज
और
संस्कृति
का
अत्यंत
सजीवता
पूर्ण
चित्रण
किया
है।
उनके
एक
प्रसिद्ध
आंचलिक
उपन्यास
के
विषय
में
मनोहर
श्याम
जोशी
लिखते
हैं–
“मेरी
मान्यता
है
कि
ठेठ
उत्तरांचल
ठाठ
में
लिखा
हुआ
मटियानी
जी
का
उपन्यास
‘मुख
सरोवर
के
हंस’
हिंदी
में
आंचलिक
उपन्यास
का
एक
क्लासिक
है।”[1]
उन्होंने
अपने
उपन्यासों
के
माध्यम
से
फणीश्वर
नाथ
रेणू
की
आंचलिक
कथा
परंपरा
को
आगे
बढ़ाने
का
सफल
प्रयास
किया
है
तथा
आंचलिक
उपन्यासों
की
खत्म
होती
परंपरा
को
पुनर्जीवित
करने
की
एक
प्रशंसनीय
पहल
की
है।
उनके
उपन्यासों
में
पर्वतीय
अंचल
अपने
सांस्कृतिक,
धार्मिक,
आर्थिक,
भौगोलिक
एवं
राजनीतिक
पक्षों
के
साथ
प्रस्तुत
हुआ
है।
उनके
आंचलिक
उपन्यासों
के
विषय
में
गोपाल
राय
लिखते
हैं
कि
“शैलेश
मटियानी
हिन्दी
के
एक
ऐसे
उपन्यासकार
हैं,
जिनकी
उपन्यास
यात्रा
लगभग
साढ़े
तीन
दशकों
में
फैली
हुई
है
और
उनमें
कथ्य
का
वैविध्य,
अनुभव,
संवेदना
और
विचार
की
समृद्धि
तथा
सृजनशीलता
का
लगातार
विकास
आश्चर्य
में
डालने
वाला
है।”[2] उनके आंचलिक
उपन्यासों
के
पात्रों
के
विषय
में
वह
लिखते
हैं–
“मटियानी
आंचलिक
उपन्यास
की
रचना
पद्धति
से
प्रभावित
उपन्यासकार
हैं,
पर
आंचलिकता
उनके
लिए
साधक
ही
है,
साध्य
नहीं।
उनके
उपन्यासों
में
‘अंचल’
विषय
या
‘नायक’
नहीं
हैं।
मटियानी
के
प्रत्येक
उपन्यास
में
कोई
न
कोई
केन्द्रीय
पात्र
है,
जो
पहाड़ी
जीवन
के
किसी
पक्ष
विशेष
को
उद्घाटित
करता
हैं।”[3] उनके आंचलिक
उपन्यासों
कि
मुख्य
विशेषता
उनके
पात्र
हैं,
जो
पर्वतीय
अंचल
के
जीवन
तथा
घटनाओं
को
जीवंतता
प्रदान
करते
हैं।
दलित,
स्त्री
तथा
निम्नवर्ग
से
संबंधित
उनके
पात्र
पर्वतीय
समाज
के
शोषित
वर्ग
का
प्रतिनिधित्व
करते
हैं।
‘गोपुली
गफ़ूरन’
की
गोपुली
हो
या
‘चिट्ठी
रसैन’
की
रमौती
अथवा
‘चौथी
मुट्ठी’
उपन्यास
की
कौशिला
तथा
मोतिमा
सभी
स्त्री
पात्र
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
की
स्थिति
तथा
उसके
जीवन
से
जुड़ी
समस्याओं
को
भली-भाँति
प्रकट
करते
हैं।
शैलेश
मटियानी
ने
अपने
उपन्यासों
में
समाज
में
स्त्री
की
दयनीय
स्थिति
के
प्रति
अपनी
संवेदना
प्रकट
की
है।
अपने
एक
उपन्यास
‘बोरीवली
से
बोरिबंदर’
तक
में
नारी
के
प्रति
शोषण
को
चित्रित
करते
हुए
वह
लिखते
हैं
– “नारी
वस्तुतः
साक्षात
दुर्गा,
क्षमा,
सुधा-धात्री
है,
फिर
नारी
माँ
पहले
है,
उसे
हम
अपने
हाथों
कोठे
पर
बैठा
आएं,
उसे
अपने
जिस्म
बेचने
पर
मजबूर
कर
दें,
तो
शरम
नारी
को
क्यों?
शरम
तो
उन
दैत्यों
को
आनी
चाहिए,
जो
बेशरम
हो
गए
हैं
कि
जिसके
अंचल
में
छिपे
पयोधरों
का
अमृत
पीकर
सौ
बरस
लंबी
उम्र
पाते
हैं,
उसी
का
चीर-हरण
कर
उसे
पशुओं
की
तरह
खरीदते-बेचते
हैं।”[4]
परंतु
मटियानी
जी
स्त्री
के
मात्र
दयनीय
रूप
का
ही
चित्रण
नहीं
करते
अपितु
उसके
सशक्त
रूप
को
भी
दर्शाते
हैं।
किस
प्रकार
एक
नारी
सारे
दायित्वों
का
निर्वहन
करते
हुए
अपनी
चारित्रिक
दृढ़ता
को
बनाए
रखती
है,
इसका
चित्रण
भी
मटियानी
जी
ने
अत्यंत
सफलता
पूर्ण
किया
है।
उनके
पर्वतीय
परिवेश
के
स्त्री
पात्र
जो
अपने
भीतर
तमाम
वेदना
और
संघर्ष
को
छिपाकर
एक
सशक्त
नारी
के
रूप
में
दिखाई
पड़ती
है।
शैलेश
मटियानी
जी
के
प्रसिद्ध
उपन्यास
‘गोपुली
गफ़ूरन’
की
नायिका
गोपुली
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
सशक्तीकरण
की
जीवंत
उदाहरण
है।
मटियानी
जी
ने
इस
उपन्यास
में
गोपुली
के
माध्यम
से
एक
स्त्री
की
जीवन
यात्रा
को
दर्शाया
है,
जो
तमाम
कठिनाइयों
तथा
समस्याओं
का
सामना
करते
हुए
अपने
परिवार
की
देखभाल
करती
है,
जिसके
विषय
में
आलोचक
गोपाल
राय
अपनी
पुस्तक
‘हिन्दी
उपन्यास
का
इतिहास’
में
लिखते
हैं-
“गोपुली
गफ़ूरन
में
गोपुली
के
रूप
में
मटियानी
ने
स्त्री
का
जो
रूप
प्रस्तुत
किया
है,
वह
महिला
उपन्यासकारों
के
लिए
भी
एक
चुनौती
है।
स्त्री
की
अदम्य
जिजीविषा,
आत्मविश्वास,
संघर्ष
की
अद्भुत
क्षमता
की
प्रतीक
है
गोपुली
– वह
नारी
की
कमजोरी
की
भी
प्रतीक
है
और
उसकी
दृढ़ता,
सहनशक्ति
और
ममता
की
भी।”[5]
गोपुली
जो
दलित
जाति
से
संबंध
रखती
है,
पति
के
फौज
से
लापता
हो
जाने
के
बाद
भी
अपने
छोटे
बच्चे
और
सास
का
पालन-पोषण
करती
है
और
इन
सबके
बावजूद
वह
समाज
से
मिल
रही
प्रताड़ना
और
शोषण
का
भी
शिकार
है
परंतु
फिर
भी
वह
अपनी
अस्मिता
को
बचाए
रखने
का
पूर्ण
प्रयास
करती
है।
वह
अपने
परिवार
पर
आने
वाले
प्रत्येक
संकट
का
सामना
स्वयं
करती
है।
मटियानी
जी
ने
गोपुली
के
माध्यम
से
यह
दिखाने
का
प्रयास
किया
है
कि
कैसे
ग्रामीण,
अनपढ़
स्त्री
जो
आश्रयहीन
है
परंतु
अपनी
दृढ़ता
के
कारण
वह
कई
स्त्रियों
का
आदर्श
है।
वह
स्त्रियाँ
जो
जीवन
संघर्षों
का
सामना
करते
हुए
बिखर
जाती
हैं,
वह
गोपुली
से
प्रेरणा
प्राप्त
कर
सकती
हैं।
गोपुली
के
चरित्र
की
विशेषताओं
के
विषय
में
आलोचक
गोपाल
राय
लिखते
हैं-
“गोपुली
एक
अविस्मरणीय
पात्र
है;
दलित
समाज
की
स्त्री
होने
पर
भी
उसके
चरित्र
में
जो
तेजस्विता
है,
वह
अनूठी
है,
उसमें
कोई
कुंठा
नहीं,
पराजय
का
भाव
नहीं,
वह
न
डरती
है,
न
हारती
है,
न
खरीदी-बेची
जा
सकती
है।
उसकी
ऊपर
से
दिखाई
देने
वाली
हार
में
भी
उसकी
जीत
ही
फुँफकारती
हुई
सुनाई
पड़ती
है।
उसके
चरित्र
में
एक
आदिम
नारी
और
माँ
पूरी
तरह
से
विद्यमान
है।
वह
अपने
अनुभवों
से
औरत
होने
का
अर्थ
जानती
है।”[6]
गोपुली
की
चारित्रिक
विशेषताएं
उसको
एक
सशक्त
स्त्री
के
रूप
में
प्रस्तुत
करती
है।
एक
ऐसी
स्त्री
जो
समाज
में
निर्मित
परिस्थितियों
से
समझौता
नहीं
करती।
वह
हर
विकट
परिस्थितियों
में
भी
दृढ़ता
से
खड़ी
रहती
है
तथा
समाज
में
बनी
उन
रूढ़ियों
से
बगावत
करती
है
जो
स्त्री
शोषण
के
लिए
उत्तरदायी
हैं।
शैलेश
मटियानी
ने
अपने
आरंभिक
जीवन
से
प्राप्त
निजी
अनुभवों
के
माध्यम
से
ही
आंचलिक
उपन्यासों
के
पात्र
तथा
विषयवस्तुओं
को
चुना
है
तथा
गोपुली
जैसे
पात्र
उनके
आरंभिक
जीवन
में
आई
स्त्रियों
में
से
एक
है,
जो
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
सशक्तीकरण
का
एक
आदर्श
उदाहरण
है।
जिसके
विषय
में
वह
लिखते
हैं-
“हू-बहू
ऐसी
ही
एक
स्त्री
को
मैंने
देखा
था
उसका
बोलना,
हँसना,
चलना-फिरना,
सब
कुछ
इसमें
ज्यों
का
त्यों
आ
गया
है।”[7]
इस
उपन्यास
में
कई
ऐसी
घटनाएं
हैं
जिनके
माध्यम
से
मटियानी
जी
ने
गोपुली
को
एक
सशक्त
स्त्री
के
रूप
का
स्थापित
किया
है।
गोपुली
का
यह
कथन
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
की
दयनीय
स्थिति
और
उस
स्थिति
में
उसके
प्रतिकार
का
परिचायक
है
“कुछ
नहीं
यह
सब
अपने
कर्मों
की
मार
है,
फांसी
लगाकर
मरना
है,
बाढ़
चढ़ी
सरयू
में
छलांग
लगा
लेनी
है
या
पर्वत
से
कूद
के
मरना
है
–जो
करना
है,
जिंदगी
रे
जिंदगी
तू
दूपरदू
लड़ने
को
तैयार
खड़ी
है,
तो
आ-जो
भाग
में
है,
भुगतना
है।
जो
तय
करना
है
अकेली
गोपूली
को
ही
तय
करना
है।”[8]
मटियानी
जी
का
यह
उपन्यास
कई
रूपों
में
स्त्री
के
एक
सशक्त
रूप
की
यथार्थ
अभिव्यक्ति
है,
जिसके
माध्यम
से
वह
पर्वतीय
समाज
में
स्त्री
के
महत्व
को
रेखांकित
करते
हैं।
शैलेश
मटियानी
ने
‘चिट्ठी
रसैन’
उपन्यास
में
भी
रमौती
नामक
स्त्री
पात्र
के
माध्यम
से
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
के
सशक्त
रूप
का
चित्रण
किया
है।
मटियानी
जी
ने
अपनी
प्रसिद्ध
कहानियों
‘रमौती’
तथा
‘पोस्टमैन’
को
विस्तार
देकर
इस
उपन्यास
की
रचना
की
है।
अल्मोड़ा
के
बाड़ेछीना
अंचल
में
स्थित
पनार
नदी
के
किनारे
बसे
उडलगांव
के
ग्रामीण
जीवन
पर
केंद्रित
यह
उपन्यास
सेना
में
कार्यरत
मोहन
सिंह
तथा
उसकी
धर्मपत्नी
रमौती
के
जीवन
पर
आधारित
है।
मोहन
सिंह
के
असमय
मृत्यु
के
पश्चात
रमौती
के
संघर्षपूर्ण
जीवन
का
सजीवता
पूर्ण
चित्रण
इस
उपन्यास
की
मुख्य
विशेषता
है।
मटियानी
जी
इस
उपन्यास
की
भूमिका
में
लिखते
हैं
- “मैं
स्वयं
ठेठ
पहाड़ी
हूँ,
सो
परदेश
की
नौकरी
में
गए
बेटों-पतियों
वाली
पहाड़नों
का
हिया
प्यार
से
हिलुरता
है,
टीस
से
कसमसाता
है
और
वो
ऊंचे
टीलों
पर
खड़ी
सड़कों
पर
चलते
मुसाफिरों
को
देख-देख
कर
अपनों
की
स्मृति
से
गद्-गदा
उठती
हैं,
गाँव
की
ओर
आते
चिट्ठी
रसैन
को
देखते
ही
उनकी
सिर
धरी
गागरियां
छल-छलाने
लगती
हैं,
हाथ
थमे
मूसल-कुटल
जल्दी-जल्दी
चलने
लगते
हैं,
तो
मेरे
सजातीय
संस्कारों
को
उनके
मन
की
संक्रामक
कसक
और
विह्वलता
व्याप
जाती
है।”[9]
इस
उपन्यास
की
मुख्य
पात्र
रमौती
है,
जो
पति
की
मृत्यु
के
पश्चात
आश्रयहीन
हो
जाने
के
कारण
शोषण
का
शिकार
हो
जाती
है
और
इस
शोषण
के
फलस्वरूप
वह
आत्महत्या
का
भी
प्रयास
करती
है
परंतु
उसकी
जान
बच
जाती
है,
जिसके
पश्चात
वह
तमाम
संघर्षों
का
अत्यंत
दृढ़ता
से
सामना
करती
है।
एक
ग्रामीण
विवाहित
स्त्री
के
जीवन
में
पति
के
महत्व
को
रेखांकित
करते
हुए,
मोहन
की
मृत्यु
के
पश्चात
रमौती
की
मनोदशा
के
विषय
में
मटियानी
जी
लिखते
हैं
- “शहर
से
मोहन
की
अकाल
मृत्यु
का
समाचार
आने
पर
मोहन
के
पिता
को
बहुत
ही
दुख
हुआ
था।
इससे
घर
में
कुहराम
मच
गया
था।
लेकिन
वज्र
जिसके
ठीक
सिर
गिरा
था,
वह
बेचारी
कुछ
भी
बोलने
की
स्थिति
में
नहीं
थी।”[10]
जिस
प्रकार
‘गोपुली
गफ़ूरन’
में
गोपुली
की
पति
रतनराम
के
लापता
हो
जाने
के
बाद
मनोदशा
होती
है,
वहीं
मनोदशा
रमौती
की
भी
है,
जहाँ
उसे
पति
की
मृत्यु
के
पश्चात
अंधकारमय
भविष्य
और
अधर
में
लटका
वर्तमान
दिखायी
पड़ता
है।
पति
के
जाने
के बाद गाँव
के
अन्य
पुरुषों
की
बुरी
नजर
पड़ने
पर
भी
वह
अपने
चरित्र
की
सुचिता
बनाए
रखने
का
प्रयास
करती
है,
जिसका
मटियानी
जी
ने
रमौती
के
इस
कथन
के
माध्यम
से
अत्यंत
मार्मिक
चित्रण
किया
है
– “पानेज्यू,
पानी
पीकर
जूठा
कर
देने
वाले
बहुत
मिल
जाते
हैं।
पर
लगी
को
निभाना
तो
सब
नहीं
जानते
न?
फिर
ऐसा
धागा
जोड़ने
से
क्या
फायदा,
जो
आगे
चलके
टूट
जाए?
मैं
हट्ठि
मट्ठी
की
हाँडी,
एक
बार
जूठी
हुई
नहीं,
कि
... कहीं
कुछ
ऊँच-नीच
हुआ
नहीं,
कि
किसी
को
मुँह
दिखाने
लायक
न रहूँगी... डूब
मरना
पड़ेगा
कहीं
गले
में
पत्थर
बांधकर।”[11]
उपन्यास
की
कथावस्तु
पर्वतीय
परिवेश
में
एक
ग्रामीण
नारी
की
मार्मिक
व्यथा
का
चित्रण
करती
है।
कम
उम्र
की
एक
विवाहिता
जो
विवाह
के
कुछ
दिन
पश्चात
ही
विधवा
हो
जाती
है
तथा
समाज
में
निहित
रूढ़ियों
का
सामना
करने
के
लिए
एक
सशक्त
नारी
के
रूप
में
प्रस्तुत
होती
है
परंतु
अंत
में
समाज
में
निहित
अमानवीय
तत्त्वों
का
शिकार
हो
जाती
है।
मटियानी
जी
ने
रमौती
के
माध्यम
से
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
जीवन
में
निहित
उन
विडंबनाओं
का
चित्रण
किया
है,
जिसके
कारण
गाँव
की
भोली-भाली
स्त्रियों
का
जीवन
नरक
समान
हो
जाता
है
तथा
अंत
में
वह
आत्महत्या
जैसे
विकल्प
को
चुनती
है।
‘चौथी
मुट्ठी’
उपन्यास
में
भी
‘कौशिला’
एवं
मोतिमा
नामक
स्त्री
पात्रों
के
माध्यम
से
मटियानी
जी
ने
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
के
सशक्त
रूप
का
चित्रांकन
किया
है।
इस
उपन्यास
में
दिखाया
गया
है
कि
सामाजिक
लोक
आस्थाओं
से
बंधी
एक
ग्रामीण
स्त्री
किस
प्रकार
समाज
में
व्याप्त
सामाजिक
संघर्षों
का
सामना
करती
है।
इसमें
दो
स्त्री
पात्रों
के
शोषण
का
मनोवैज्ञानिक
दृष्टि
से
चित्रण
किया
गया
है।
पति
के
त्याग
दिए
जाने
के
बाद
तथा
समाज
द्वारा
बहिष्कृत
कर
देने
के
बाद
एक
स्त्री
की
मनोव्यथा
का
यथार्थ
रूप
मटियानी
जी
ने
प्रस्तुत
किया
है।
इस
उपन्यास
में
पर्वतीय
समाज
में
प्रचलित
लोक
आस्था
तथा
लोक
विश्वासों
का
अत्यंत
सुंदर
चित्रण
है।
जहाँ
समाज
द्वारा
त्याग
दिए
जाने
के
बाद
उपन्यास
की
नायिकाएं
कुमाऊँ
अंचल
में
प्रचलित
लोक
देवता
गोल्ल
के
मंदिर
में
न्याय
की
गुहार
लगाती
हैं-
“आंचल
में
हाथ
डाल
कर
एक
मुट्ठी
चावल
को
बाहर
निकाल
मुट्ठी
को
असहाय
आक्रोश
के
साथ
भींचकर-एक
दम
प्रबल
वेग
से
कौशिला
ने
गोल्ल
देवता
के
चरणों
में
चावल
की
मूठ
मार
दी
ना-आ-आ-श
करना
हे
परमेश्वर!।”[12]
मटियानी
जी
के
स्त्री
पात्र
आधुनिक
नारी
की
भाँति
समस्याओं
तथा
संघर्षों
का
डट
कर
सामना
करती
हैं
परंतु
इसके
साथ
ही
वह
एक
पारंपरिक
भारतीय
नारी
के
गुणों
से
भी
परिपूर्ण
हैं,
अपने
परिवार
के
प्रति
उनके
मन
में
अपार
आस्था
है
तथा
इसी
आस्था
के
परिणामस्वरूप
वह
विकट
परिस्थितियों
में
भी
अपने
परिवार
की
रक्षा
करती
हैं।
उदाहरणस्वरूप
‘चौथी
मुट्ठी’
उपन्यास
की
स्त्री
पात्र
कौशिला
पति
के
त्याग
के
बाद
भी
अपने
पति
की
रक्षा
हेतु
देवता
से
प्रार्थना
करती
है
– “लिली
के
बाबू
को
तो
सुखी-संतोषी
काया
के
साथ
घर
लौटा
लाना
स्वामी!
मेरे
सारे
छीने
हुए
हक
मिल
जाएंगे
तो
सुदिनों
की
पूजा
चढ़ाने
आऊँगी।”[13]
इसी
प्रकार
बेटी
का
भूख
से
तड़पना
भी
वह
सहन
नहीं
कर
सकती
और
अपनी
आस्था
को
दरकिनार
कर
एक
माँ
की
ममतापूर्ण
संवेदना
को
प्राथमिकता
देती
है-
“कौशिला
का
मन
हुआ
कि
पूजा
की
थाली
में
से
पांचों
ताँबों
के
पैसे
बुकसेलर
बाबू
के
आगे
फेंककर,
उनकी
मूँगफलियाँ
खरीद
ले,
गोल्ल
देवता
को
भी
तो
आखिर
छोटी
का
रीता
उदर
और
माँ
का
दुखी
मन
दिखाई
दे
रहा
होगा।”[14]
मटियानी
जी
के
आंचलिक
उपन्यासों
की
स्त्री
पात्र
विवाह
के
पश्चात
स्त्री
के
जीवन
में
आने
वाली
समस्याओं
को
उजागर
करती
हैं।
‘चौथी
मुट्ठी’
उपन्यास
में
भी
कम
उम्र
में
विवाह
तथा
विवाह
के
पश्चात
स्त्री
के
शोषित
जीवन
का
मार्मिक
चित्रण
किया
गया
है
परंतु
इसके
साथ
ही
मटियानी
जी
ने
अपनी
नायिकाओं
को
परिस्थितियों
का
सामना
करने
का
सामर्थ्य
भी
प्रदान
किया
है,
जो
उनके
स्त्री
पात्रों
को
स्त्री
के
सशक्तीकरण
की
प्रक्रिया
में
एक
आदर्श
के
रूप
में
स्थापित
करता
है।
उनका
मुख्य
उद्देश्य
मात्र
एक
स्थान
विशेष
की
कथा
सुनाना
नहीं
है
अपितु
अपने
पात्रों
के
प्रति
उपजी
संवेदना
से
समाज
में
स्त्री
शोषण
के
विरुद्ध
जागरुकता
का
प्रचार-प्रसार
करना
है
तथा
ग्रामीण
स्त्री
को
सशक्तीकरण
की
राह
में
प्रशस्त
करना
है।
जिसके
विषय
में
वह
चौथी
मुट्ठी
उपन्यास
की
भूमिका
में
लिखते
हैं-
“जिस
समाज
व्यवस्था
के
अंदर,
जैसे
हृदयहीनों
के
बीच
रहकर
मोतिमा
पगला
गई,
उसी
समाज
व्यवस्था
के
पोषकों
की
दीठ
से
मेरी
कृति
गुजरे
और
वह
तिलमिला
न
उठें,
तो
यह
मेरी
असमर्थता
होगी
और
मुझे
यह
स्वीकार
करना
होगा,
कि
मैंने
मोतिमा-
कौशिला
की
कथा-व्यथा
और
उनके
मातृत्व-ममत्व
के
चरणों
में
एक
मुठ
अक्षत-अक्षत
नहीं,
कोई
धान
के
छिलके
समर्पित
किए
हैं।”[15]
इस
प्रकार
मटियानी
जी
इस
उपन्यास
के
माध्यम
से
कौशिला
तथा
मोतिमा
के
रूप
में
पर्वतीय
परिवेश
में
नारी
के
दो
सशक्त
रूपों
का
चित्रण
करते
हैं।
इसी
प्रकार
‘सर्पगन्धा’
उपन्यास
की
स्त्री
पात्र
गायत्री
भी
महिला
सशक्तीकरण
का
एक
जीवंत
उदाहरण
है,
जो
समाज
में
निहित
वर्णव्यवस्था
का
विरोध
करते
हुए,
अन्तर्जातीय
विवाह
करती
है।
उसके
अनुसार
“विवाह
में
अन्तर्जाति
या
बहिर्जाति
का
उतना
महत्व
नहीं
है,
जितना
अंतरसूत्रों
का
महत्व
है।
स्त्री
और
पुरुष
का
भीतर
से
एक-दूसरे
से
बंधना
ही
विवाह
है
और
हमारा
संबंध
तो
खैर
सिर्फ
एक
निजी
घटना
की
तरह
की
चीज
है,
सामाजिक
क्रांति
अथवा
प्रतिक्रांति
जैसी
चीज
से
इसका
क्या
वास्ता।”[16]
विवाह
के
पश्चात
समाज
से
उसको
बहिष्कृत
कर
दिया
जाता
है
तथा
कलुषित
और
संकीर्ण
मानसिकता
से
ग्रसित
लोग
उसे
घृणा
भरी
नजर
से
देखते
हैं
परंतु
मटियानी
जी
ने
उसे
एक
वीरांगना
के
रूप
में
प्रस्तुत
किया
है,
जिसके
लिए
वर्षों
से
चली
आ
रही
इस
सामाजिक
रूढ़ि
को
तोड़ना
आसान
नहीं
था।
इसलिए
वह
समाज
के
दृष्टिकोण
से
गायत्री
का
चित्रण
करते
हुए
लिखते
हैं
“शूद्र
के
घर
पहुँच
चुके
होने
के
पश्चाताप
में
जिस
औरत
के
चेहरे
को
मलिन,
आँखों
को
विगलित
हो
चूकना
चाहिए
था,
वह
किसी
रूप
गर्वित
की-सी
मुद्रा
में
खड़ी
थी।
कितना
बेधड़क
था
उसका
आँखे
गड़ाकर
देखना।
औरत
के
भीतर
की
अग्नि
का
उसकी
आँखों
में
उतार
आना
कैसा
होता
है,
जीवन
में
जैसे
पहली
बार
जानने
को
मिला
है।”[17]
गायत्री
के
माध्यम
से
वह
उन
स्त्रियों
को
प्रेरित
करने
का
प्रयास
करते
हैं,
जो
जीवन
में
सामाजिक
बेड़ियों
से
जकड़ी
हुई
हैं
तथा
यह
बेड़ियाँ
धीरे-धीरे
उनके
पूरे
जीवन
को
कसती
जा
रही
है,
साथ
ही
समाज
के
दबाव
और
साहस
की
कमी
के
कारण
वह
अपना
पूरा
जीवन
घुटन
में
जीने
के
लिए
मजबूर
हैं।
ऐसे
में
एक
ऐसे
पात्र
का
मटियानी
जी
सृजन
करते
हैं,
जो
ग्रामीण
परिवेश
से
होने
के
बाद
भी
तर्क
और
आधुनिकता
को
आत्मसात
करता
है
तथा
समाज
में
आदर्श
स्थापित
करता
है।
शैलेश
मटियानी
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
के
महत्व
को
स्पष्ट
करते
हुए
लिखते
हैं
कि
स्त्री
मात्र
पर्वतीय
समाज
का
अंग
ही
नहीं
अपितु
वह
तो
एक
बीज
है,
जिसने
पर्वतीय
समाज
और
संस्कृति
को
जीवित
रखा
है।
इसलिए
वह
समाज
में
स्त्री
के
सशक्तीकरण
की
वकालत
करते
हुए
लिखते
हैं-
“आप
लोग
पर्वतीय
समाज
के
प्राणों
को
बचाने
का
संघर्ष
कर
रहे
हैं।
इन
जंगलों
के
सिर्फ
आर्थिक
और
प्राकृतिक
पहलू
ही
नहीं
हैं,
मानवीय
और
सामाजिक
पहलू
भी
हैं।
इन
जंगलों
में
हमारे
छोटे-छोटे
बच्चों
के
ओठों
की
हरियाली
छिपी
है।
हमारे
नारी
समाज
का
संगीत
छिपा
है।”[18]
नारी
समाज
का
यह
संगीत
सदियों
से
सम्पूर्ण
भारत
को
सींच
रहा
है।
भारतीय
समाज
की
समृद्धि
के
लिए
इस
संगीत
का
गुंजायमान
रहना
अत्यंत
आवश्यक
है,
ऐसा
मटियानी
जी
का
मानना
है।
उपरोक्त
उपन्यासों
के
अतिरिक्त
‘एक
मूठ
सरसों’
उपन्यास
की
पात्र
रेवती,
रामकली
उपन्यास
की
मुख्य
पात्र
रामकली
आदि
भी
स्त्री
सशक्तीकरण
के
उपयुक्त
उदाहरण
हैं,
जिनके
माध्यम
से
शैलेश
मटियानी
ने
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
के
सशक्त
रूप
का
संवेदनात्मक
चित्रण
किया
है।
निष्कर्ष :
स्त्री
समाज
की
धुरी
है,
तथा
समाज
में
उनके
सशक्तीकरण
की
प्रक्रिया
में
कई
घटक
उत्तरदायी
हैं
जिनमें
से
एक
साहित्य
भी
है,
साहित्यकारों
ने
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
स्त्री
सशक्तीकरण
की
प्रक्रिया
में
अपना
विशेष
योगदान
दिया।
शैलेश
मटियानी
भी
उन्हीं
विशिष्ठ
साहित्यकारों
में
से
एक
हैं,
जिन्होंने
अपने
साहित्य
के
केंद्र
में
स्त्री
को
रखकर
उनके
जीवन
संघर्ष
का
यथार्थ
चित्रण
किया
है।
उनकी
रचनाओं
में
स्त्री
के
शोषित
रूप
के
साथ-साथ
उसके
सशक्त
रूप
की
भी
अभिव्यक्ति
हुई
है।
गोपुली,
रामकली,
कौशिला,
मोतिमा,
रेवती,
रमौती
आदि
उनके
उपन्यासों
की
प्रमुख
स्त्री
पात्र
हैं
तथा
इन
स्त्री
पात्रों
के
माध्यम
से
मटियानी
जी
पर्वतीय
परिवेश
में
स्त्री
सशक्तीकरण
के
विविध
रूपों
का
चित्रण
करते
हैं।
उनके
स्त्री
पात्रों
की
मुख्य
विशेषता
है
कि
वह
जीवन
संघर्षों
से
पलायन
करने
के
स्थान
पर
उन
परिस्थितियों
का
डटकर
सामना
करती
हैं
तथा
समाज
की
उन
स्त्रियों
के
समक्ष
उदाहरण
प्रस्तुत
करती
हैं,
जो
जीवन
में
शोषण
का
शिकार
हैं।
सन्दर्भ :
[2] गोपाल राय : हिन्दी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या- 265
[10] शैलेश मटियानी : चिट्ठी रसैन, आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली, संस्करण 1961, पृष्ठ संख्या- 64
[16] शैलेश मटियानी : सर्पगन्धा, हिन्द पॉकेट बुक्स, गुड़गांव, संस्करण 2020, पृष्ठ संख्या - 47
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
हेमवती नंदन बहुगुणा
गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर, उत्तराखंड – 246174
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