‘नटनी’ उपन्यास का एक अंश : आगाज़
- रत्नकुमार सांभरिया
स्वाधीनता आंदोलन का आगाज़ हो चुका था। गांधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आन्दोलन की आँधी चली कि आज़ादी पाने की चाह हिलोरें मार रही थीं। धरती के कण-कण संघर्ष का भाव उमड़ा था। आकाश के रोआं-रोआं जोश था। गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी, खेत-क्यार तक उबाल नजर आने लगा था। क्रांतिकारियों के पराक्रम का बखान जोरों पर था। शहीदों के गीत गाये जाने लगे थे। अवाम फिरंगी सरकार को उखाड़ फेंकने को आमादा था। युवाओं का लहू खदबदाते लावा-सा खौल उठा था और उन्होंने गांधीजी के ‘करो या मरो’ के आह्वान पर सिर पर कफ़न बाँध लिये थे।
‘‘महात्मा गांधी ज़िंदाबाद।‘‘
‘‘इंकलाब ज़िंदाबाद।‘‘
‘‘देश हमारा,‘‘
‘‘धरती हमारी।‘‘
‘‘राज तुम्हारा,‘‘
‘‘नहीं चलेगा-
‘‘नहीं चलेगा।‘‘
‘‘शीश कटवाएँगे‘‘
‘‘खून बहाएँगे,‘‘
‘‘भारत माँ को आजाद कराएँगे।‘‘ गूँजते नारों से गगन दहलता।
वीरों की गाथा और सपूतों की कुर्बानी पर भारत माता की छाती जुड़-जुड़ जाती। रणबाँकुरों को अपने आगोश में समेटकर आशीष देती, ‘वीर-विहीन नहीं है, वह। दिन बहुरेंगे।‘
गांधीजी की पोन ने कीलपुर गाँव के गबरुओं में ऐसा तेज भरा कि उनकी बाँहों की मछलियाँ फड़कने लगीं। हौसला आकाश नापने को तत्पर हुआ जाता था। चार युवाओं ने सिर पर फेंटा बाँध लिए, फेंटा नहीं, कफ़न हों, सच में। सरदारसिंह, जिसकी उम्र चौबीस के नीड़े-गोड़े थी, उसने शेष तीनों की अगुवानी की। उसका छोटे भाई कंवलसिंह, दयालाल बलाई और भूराराम कुम्हार। तीनों की उम्र बीस-इक्कीस के दरम्यान थी। चारों के चारों लाठियाँ भाँजते शहर की ओर ऐसे निकले, अंग्रेजी साम्राज्य की छाती में कील ठोक अपना राज लेंगे या फिर देश के काम आ जाएँगे। गुलामी! छी..छी..छी..!
सरदारसिंह हट्टा-कट्टा था। उसके गोल चेहरे पर खुंटियायी दाढ़ी और घुंडी खाई मूँछें थीं। शेष तीनों के निकलते क़द थे। दाढ़ी-मूँछों के सुनहरी रौएं कलवाए होने लगे थे। मसें भीगी थीं। माद्दा आसमान से तारे तोड़ लाएँ। पैर मार कर ज़मीन से पानी चुहा दें। फिरंगी किस चिड़िया का नाम है, भला?
‘‘महात्मा गांधी की जय हो।‘‘
‘‘इंकलाब ज़िंदाबाद।‘‘
‘‘इंकलाब ज़िंदाबाद।‘‘
सीने में उठी ज्वाला उनकी आँखों से निकल रही थी। आकाश की ओर लाठी उठाये, ऊँचे कंठ नारे लगाते हुए चारों के चारों शहर आ गये थे। गांधीजी की आँधी उन्हें यहाँ उड़ा लाई या देश के लिए उनकी आई।
नारे लगाते थाने के सामने से गुजरते हुए लाट साहब (कलक्टर) के बँगले की ओर बढ़े जाते थे। शेर को भगाने पर जंगल निर्भय हो जाता है, धनीधोरा को धराशायी कर अभय होंगे। चारों दसवीं पास थे और पढ़ने शहर आते थे। उद्दण्ड सरदारसिंह ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी थी। तीनों का विद्रोही मन पढ़ाई छोड़ कर स्वाधीनता के सपने बुनने लगा था।
लोगबाग उन चारों के दुःसाहस को ऐसी कातर निगाह देखे जाते थे, मानो निरीह बकरे राह भटक कर जिबहगाह की ओर चले आए हों।
आज़ादी की लड़ाई की मुहिम का भय, थाना-थाना चौकन्ना था। नींद उड़ी थी, एक-एक की। सिपाही-सिपाही ऐसा मुस्तैद, ड्यूटी पर रहता, अँगुली लोडिड गन के ट्रिगर पर होती। थाने के सम्मुख 'इंकलाब ज़िंदाबाद, गांधीजी की जय! इस आँधी में तो हम ही नप जाएँगे।’
राज के खिलाफ उनके इरादों को देख कर थाने के सामने संगीन लिए खड़े संतरी के कान खड़े हो गये। आँखें फैल गईं, जद तक। ‘गांधी के अनुयायी यहाँ तक आ पहुँचे हैं। देशभक्त हैं, सच्चे। दुर्दान्त राजद्रोही।’ संतरी की आपातकालीन विह्सल बज उठी थी।
प्रहरी की इमरजेंसी विह्सल और ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘गांधीजी की जय’ के नारे सुनकर थानेदार मानो आसमान से गिरा। उसके अंग-अंग आग लग गई। आँखें अंगार। अंतस, ज्वालामुखी का धधकता लावा। वह एक-एक विद्रोही को भून कर रख देने को कटिबद्ध हुआ। उसने झट अपनी पिस्तौल संभाली और चीते की तरह लपक कर थाने के गेट पर आ गया था। दस-बारह सिपाही बंदूकें लिए उसके साथ रहे। एक-एक अँगुली बंदूक के ट्रिगर पर थी। दबी। धाँय। धराशायी।
पुलिस को सामने देखकर चारों गंवई युवकों ने लाठियाँ और ऊँची उठा लीं और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों से धरती दहला दी। उनके कंठ इतने निर्भय और साहस भरे थे, थानेदार साँसें रोक कर उनकी ओर देखता रहा। सोचा, जुनूनी युवक हैं। किसी की हवा-पानी बुलबुले हैं, एक-एक कोड़े की मार से ही नानी याद आ जाएगी। ‘इंकलाब जिंदाबाद’ कहना या उस फकीर का नाम लेना तो दूर, खुद को संभालते सब भूल-बिसर जाएँगे। थानेदार ने वह लक्ष्य नहीं साधा, जो मन में ठाने था। उसने सरदारसिंह की ऊपर उठी लाठी पर पिस्तौल से गोली दाग दी। लाठी दूर जा गिरी। निहत्था सरदारसिंह हाथ की झनझनाहट मुट्ठी खोलता-बंद करता रहा। हेकड़ी निकल गयी, चौकड़ी भूल गया था।
थानेदार के निर्देश पर सिपाहियों की बंदूकों के घोड़े दब गये थे। तीनों युवकों की ऊपर उठी एक-एक लाठी बिखर कर दूर जा गिरी और हाथों में झनझनाहट रह गई, जैसी सरदारसिंह के हाथों थी। निहत्थे खड़े रह गये चारों युवक संगीनों के साये में थे। सरदारसिंह भयभीत। वे तीनों निर्भय। भागे ! पीठ पर गोली खाएँ ! कायर कहलाएँ!
थानेदार का दाईं आँख दबाने का मतलब नसीहत लगाना और बाईं आँख दबाने का आशय शूट करना था। उसने सिपाहियों की ओर अपनी दाईं आँख चला दी थी। ‘छोरछंड से युवकों पर गोलियाँ चला कर पुलिस असलाह बरबाद करे? कोड़े और काल कोठरियाँ मौजूद हैं।’
दो-दो-तीन-तीन सिपाहियों ने एक-एक युवक को जकड़ लिया था। पुलिस बाघ। युवक मेमना। छिपकली के मुँह में फड़फड़ाती तितली। मगर के मुँह में हिरण-शावक। पुलिस उन्हें धकियाती, धमकाती, घूँसे-थप्पड़ मारती, थाने के अंदर ले आई और उस कक्ष में ले गई जिस पर मोटे अक्षरों में ‘‘सुधार गृह’’ लिखा हुआ था।
बियालीस-तियालीस की उम्र के थानेदार का बदन लम्बा-तगड़ा था। कद छह फीट रहा होगा। गोरा जैसा गोरा रंग, चौड़ा माथा, सिर पर तुर्रेदार साफा। उसकी लाल डोरों भरी आँखों से ऐसी आग निकल रही थीं, जंगल धधका दे। ‘दूध के टूटे नहीं, देशप्रेम की सनक चढ़ी है, स्सालों को।’
वह अपने कक्ष में आकर बैठ गया था। उसने अपना कलंगीदार साफा उतार कर टेबल पर रख दिया। श्वेत-श्याम सिर पर हाथ फेर कर आक्रोश भरी नज़रों से इधर-उधर देखे जाता था। ‘उस मुल्क को कौन गुलाम रख सकता है, जिसके युवा आजादी पाने के लिए शीश हथेली पर लिए हों।’
सुधार गृह! हक़ीक़त, सज़ाखाना।
एक-एक युवक के कपड़े उतरवा कर टेबल पर रखवा दिये गये और उनको अर्द्धनग्नावस्था में अलग-अलग स्टूल पर खड़ा कर दिया। छत के हुकों से बँधी रस्सियों से उनके हाथ बाँध दिये। चारों की फटीं-फटीं आँखें कमरे की लहू सनी दीवारों को देखतीं हाथ में कोड़ा संभाल चुके काले-कलूटे से उस गुस्सावर सिपाही पर ठहर गई थीं।
सरदारसिंह चारों में सबसे बड़ा था। कदकाठी गठी-पकी थी। वह गुमान अब गायब हो चुका था, जो गाँव से चला तब था। चेहरा डर के मारे नीला पड़ता गया था और जीव ऐसे कुरलाने लगा था, कत्लगाह में खड़ा मेमना। सिपाही की निगाह पहले उसी पर पड़ी- ‘‘स्साले इतनी हिम्मत! थाने के सामने नारेबाजी!’’
सिपाही ने गुस्सा खाकर साँस खींचीं। सर्र्......सरदारसिंह की नंगी पीठ पर सरसराता हुआ कोड़ा पड़ा। आसमान से कौंधती बिजली गिरी हो जैसे और धरा लपेट ली। कोड़े की मार से उसकी कमर की चमड़ी उधड़ गई और लहू चुहाया। चीखें कमरा फाड़ कर बाहर गईं। साँस भूल गया। आँखें बाहर आ आईं। दर्द और भय से सर्वांग काँप उठा। पेशाब रुकते रुका। अंग्रेजों के द्वारा क्रांतिकारियों पर बरसाये जा रहे कोड़ों के बारे में सुन कर वह देशभावना के प्रति उत्साही जरूर था, खुद की पीठ पर कोड़ा पड़ा कि दिन में तारे दिख गये। ‘कोड़ा कि यमदूत। एक बार और सरसराया। प्राण गये।’
यहाँ आमतौर पर देशद्रोही पिटते थे और कोड़ों की सटकारें उठा करती थीं। सरदारसिंह की वीभत्स चीख से कक्ष में बैठे थानेदार के कान उठ गये थे। ‘स्साला शेर बन कर चला था, एक ही कोड़े से मेमना-सा मिमिया उठा।’ उसने सिर पर तुर्रा पहना, डण्डा उठा कर मेज पर ठकठकाया और लपकते कदमों ‘सुधार गृह’ आ गया था, तमतमाता हुआ।
उसकी आँखों के डोरे खिंचे थे और आग बबूला हुआ जाता था। डण्डा टेबल पर रख दिया और सिपाही के हाथ से हंटर छीन लिया। उसने दम भरा और खींच कर सरदारसिंह की नंगी पीठ पर मार दिया- ‘‘हरामखोर, राज के खिलाफ़ नारेबाजी करता है। फकीर का नाम लेकर देशभक्ति जताता है।‘‘ पीठ पर सरसरा दिये गये दो कोड़ों की मार से वह ढांडा की तरह ढाह-ढाह डकर उठा- ‘‘हुकुम मैं काली गाय हूँ, आपकी।’’
चीखते-बिलखते उसका मुँह बंद नहीं होता था।
‘‘खोल दो, इसे।’’
थानेदार उसकी ओर आँखें निकालकर दाँत पीसता रहा।
छत का हुक झड़ते ही सरदारसिंह सिसकियाँ भर-भर पीठ पर पडे़ कोड़ों की मार रो-रो सहलाये जाता था। खून-पसीना लिथड़ी देह, वह पेट के बल लमलेट हो गया और थानेदार के जूते की टो पर माथा टिका दिया था। पीठ पर दर्द की लहरें उठती रहीं, वह अश्क बहाता सुबक-सुबक गुहार करता रहा।
थानेदार पैर ऊपर उठाता गया। वह उसके पैर के साथ उठता गया। थानेदार ने उसके अश्रुभरे गाल पर खींच कर तमाचा जड़ा- ‘‘स्साले गद्दार, हरामखोर, राज की खि़लाफ़त करता है। इंकलाब ज़िंदाबाद बोलता है? गांधी के जयकारे करता है? आजादी की जंग का हिस्सा बनता है?‘‘
वह थानेदार के पैरों में गिर कर फिर गिड़गिड़ाया-‘‘हुकुम, हुकुम बख्श दो, मुझे। हुकुम मैं-मैं....हवा के साथ बहक आया। आइंदा उनका नाम तक नहीं लूँगा।‘‘ खौफ भरा उसका शरीर काँपता रहा। कंठ खुलता और बंद होता रहा।
थानेदार ने कोड़ा सिपाही को पकड़ा दिया। हुकों से बँधे तीनों युवकों पर निगाह रोक कर कहा- ‘‘तीनों कच्ची उम्र हैं। एक-एक कोड़ा की सजा दो और माफी मंगवा कर चारों को मेरे चैम्बर में ले आओ। गंवई हैं। गरम खून है। किसी के बहकावे बह आये। माफ़ीनामा लिखवा कर छोड़ देंगे।’’
थानेदार अपने कक्ष में आकर बैठ गया था। वे तीनों युवक मानो भारत माँ पर बलिदान होने को ही जन्मे थे। एक-एक युवक कोड़ा खाता रहा। ‘गांधीजी की जय‘ बोलता रहा। ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाता रहा। जैसे भगतसिंह लगाते रहे थे, बेधड़क। चन्द्रशेखर आजाद लगाते थे, निर्भय-निडर। एक-एक कोड़े की सजा के बाद तीनों युवकों के हुक बंधे हाथ खोल दिये और कपड़े पहनने को कह दिया गया। कोड़ों की मार से उन तीनों की खरगोश के छैना सी मुलायम चमड़ी उधड़ गई। उठी नील लहू बह निकला, बावजूद उनकी आँखों में आँसू का कतरा तक नहीं था।
सरदारसिंह को अपने साथ लेकर सिपाही थानेदार के कक्ष में प्रविष्ट हुआ। दरोगा ने कबाहती कौआ की भाँति आयें-बायें देखा और सिपाही से साश्चर्य पूछा- ‘‘और वे तीन?’’ उसने आँखें उठाईं और टेबल पर डण्डा फटका।
सिपाही ने गर्दन नीची करके झेंपते हुए बताया- ‘‘सर, वे तीनों तो कोड़े खाते रहे, गांधी के जयकारे लगाते रहे। ‘इंकलाब ज़िंदाबाद‘ बोलते रहे। क़ैदखाने में पटक दिया है, बेवकूफों को।’’
‘‘सड़ने दो खोतों को।‘‘ थानेदार सरदारसिंह की ओर भर्त्सना और क्रोध से दाढ़ें पीसने लगा- ‘‘अरे ओ गधे। क्या नाम है, तेरा?’’
थानेदार ने टेबल पर डण्डा मारा और उसकी ओर भक्षी जैसे नेत्र उठाये।
उसमें और खौफ़ भर गया। धूज बढ़ गई। आँखें डबडबा आईं। होंठ बिसूरते रहे। उसने हाथ जोड़ दिये और कांपते कंठ लड़खड़ाती जुबान कहा- ‘‘हुकुम, सरदारसिंह।’’
‘‘तभी तो इन छोकरों का सरदार बन कर निकला है, घर से। हरामखोर, नीच, बोल माफ़ीनामा लिखता है या दो कोड़े और लगवाऊँ? पटक दूँ उन्हीं के साथ, कैदखाने में?’’
उसकी पीठ पर पड़ी कोड़ों की मार कराह उठी। आँखें भर आईं। एक कोड़ा और पड़ा कि साँसें गईं। अंतस बिलख उठा- ‘‘हुकुम माफ़ीनामा।’’
माफीनामा थानेदार की क्रोधाग्नि वह नहीं रह गई थी, जो थी। वह बख्श देने के मन से उसकी ओर देखने लगा था।
सरदारसिंह ने खुद का माफीनामा तो लिख कर दे ही दिया। गाँव के उन तीनों बांकुरों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाये जाने पर सरकारी गवाह बनना भी मंजूर कर लिया था, लिखित में।
थानेदार ने स्याही और आँसुओं से लिखी उसकी अर्ज़ी देखी। गाँव का नाम पढ़ा। उसकी भीरुता देखी। उसका समर्पण थाह और ताक़ीद की- ‘‘तुझे पुलिस का मुखबिर बनाया जाता है। आज के बाद तुझे न केवल अपने गाँव की हरकतों, विशेषतः गदर या द्रोह जैसी कारगुजरियों पर नज़र रखनी होगी, बल्कि आसपास के तीन-चार गाँवों में सुई का खुड़का होने तक की ख़बर थाने पहुँचनी चाहिए। तनिक कोताही बरती, चमड़ी उतरवा कर नमक भर दूँगा। काले पानी की सज़ा होगी वह अलग। और सुन-‘‘इंकलाब जिंदाबाद का नारा कहीं सुनाई नहीं पड़े। उस फकीर के नाम की तो हवा तक नहीं उठनी चाहिए।‘‘
सरदारसिंह दोनों हाथ जुडे़ थे और बोटी-बोटी धूज थी- ‘‘हुकुम।‘‘ थानेदार का प्रस्ताव! कोड़ों की मार पर मरहम। उसने थरथराते होंठों कहा- ‘‘हुकुम मैं अपनी बात से मुकरूं, आपका कोड़ा मेरी पीठ, आपकी फांसी, मेरी गर्दन।’’
सरदारसिंह को पुलिस की ओर से मुखबिर का खिताब क्या मिला, गाँव का सिरमौर बन बैठा। एक पैर गाँव में, दूसरा थाने होता। कभी इसकी शिकायत थाने पहुँचती, कभी उसकी रिपोर्ट करा आता। जेल में बंद उन तीनों आरोपी युवकों के केस समन आते, वह सरकारी गवाह के रूप में हाजिर होता। मजिस्ट्रेट के सामने वही बोलता, जो पुलिस रटा देती।
गाँव मानो पुलिस की अस्थाई चौकी बन गया था। आये दिन धर-पकड़। आज इसे पकड़ लिया, कल उसे रिहा कर दिया। इस बेगुनाह के हाथों हथकड़ी, उस बेकसूर के पैरों बेड़ी। किसी सिरफिरे ने सरदारसिंह को हाथ जोड़ कर शीश झुका कर लियाकत से नमस्कार नहीं किया, या फिर कोई ऊँचा बोलने की गुस्ताखी कर बैठा या उसके द्वारा ओढ़ाए काम को नुकुर दिया, ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के नारे या ‘गांधीजी के जयकारे‘ की उसकी झूठी शिकायत थाने पहुँच जाती। निर्दोष को थाने ले जाया जाता और कोड़े पड़ते। ले देकर पीछा छूटता। माफ़ीनामा होता। बेचारा रोता-कराहता घर लौटता। एक पर पड़ी मार, पचासों को सबक देती। गाँव में परचूनी की दो दुकानें थीं। दोनों पर ही हल्दी, तेल और गुड़ की खपत बढ़ गई। गाँव मुखबिर के खौफ़ जीने लगा था।
अपने तीनों सपूतों के लिये तरसता गाँव क्रिमिनल हो, राजद्रोह की लिस्ट में आ गया था। दहशतगर्दी का कोहरा, दम घुटने लगा। न रहने का सुख रहा, न खाने-पीने का चाव। न सोने-उठने का सुकून, न मेले ठेले की लौ। गाँव की चर्या सरदारसिंह बर्बरता से बंध गई। उसका आतंक न केवल कीलपुर गाँव तक ही फैला, आसपास के तीन-चार गाँवों के बीच भी वह अपनी मुखबिरी के बल हुक्मरान बन बैठा।
सरदारसिंह और उसके अनुज कंवलसिंह के बीच संग्रामसिंह और महाराणा प्रताप जैसी भावभूमि थी। माँ जाये थे। बावजूद एक मातृभूमि का गद्दार, दूसरा मर मिटने को तत्पर।
बघेर जब खूनखोर हो जाता है, पहला शिकार आसपास करता है। जेल में बंद भाई कंवलसिंह के परिवार के साथ वह वैरी की तरह बेरहमी से पेश आया। जब पल-पल जीना मुहाल हुआ तो आँसुओं गुँथी उसकी सत्यवती पत्नी एक साल के अपने बच्चे के साथ घर से निकल गई और मायके जा बसी। सरदारसिंह ने उसके दोनों छप्पर हथिया कर चारों खेत भी अपने कर लिये।
मुखबिर सरदारसिंह की यह पहली चाँदमारी थी, जो अपने भाई के घर पर की थी। बघेर के मुँह लगा लहू, उसके दाँत दृढ़ होते जाते हैं और निपोरता है। आकार लेते मगरमच्छ का जबड़ा बढ़ता जाता है और शिकार की लालसा खोलता है। खड्ग जितना लहू पीता है, उतना ही उसका विस्तार होता जाता है।
न बघेर में दया। न मगर में रहम। न तलवार में करुणा। सहोदर का नहीं, गाँव क्या? वह अपने आस-पड़ोस के लोगों को झूठे केसों में फंसा कर कहर बरपाने लगा। निगुरा की नाल बड़ी। पड़ोसी घर छोड़ खेतों में जा बसे। एक पड़ोसी के घर पर कब्जा हुआ, दूसरे पड़ोसी की जगह पर निगाह टिक गई। जिस किसी ने आँखें दिखाईं, आँखें जार-जार रोईं।
मालिक के बूते म्याऊं शेरनी हो जाया करती है। अंग्रेजी शासन की मुखबिरी, आसपास के छान-छप्पर उठते गये। जगह साफ़ होती गई। आँसुओं भीगी बीघा भर ज़मीन उसके कब्जे एकसार हो गई थी।
समतल करा दी गई जमीन के बीच झूंपा सरीखे उसके दो छप्पर खडे़ रह गये। खूँटे बंधी एक भैंस, दो बैल, दो गायें और उनके बछड़े-बछिया, सामंत का शगल जैसे लगते। खेतों के लिए हरवाहे रख छोड़े थे। एक ओर पड़ा उसका हल जैसे अपने वजूद पर टसुए बहा रहा था।
गाँव वासी अंग्रेजी शासन से इतने दुःखी नहीं थे, जितने गाँव के मुखबिर के उत्पीड़न कराह उठे थे। लोहकण चुम्बक की ओर खिंचे आते हैं, गरीब-गुरबे उसकी चाकरी चले आए।
सरदारसिंह! थाने के लिए सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी। अपने इस मुखबिर की नेकनीयत पर थानेदार का यक़ीन इतना मजबूत हुआ कि स्टॉफ उपलब्ध नहीं होने पर उसी के हाथों संदेश या समन भिजवा देता था।
वह थाने का संदेश हस्तगत करवाने की बाबत एक सामंत की हवेली गया। वह भी उसी की तरह मुखबिर था। हवेली की शान-शौकत देखकर उसकी चाह ने जेहन में घोंसला बना लिया। न वह हवेली के भीतर तक जा सका, न ही हवेली के मालिक के दीदार कर पाया। हवेली के गेट पर तलवार की मूठ थामे बैठे प्रहरी को ही संदेश सुपुर्द कर दिया। हाँ, उसने एक गुस्ताखी जरूर की। प्रहरी से उस कारीगर का नाम-पता पूछ लिया, जिसने हवेली को मूर्तरूप दिया था।
सरदारसिंह की सनक, सपना, बेचैनी, बेकरारी एक होकर जैसे संयोग बन गये। जिस राजबलाई की निगहबानी में सामंत की उस हवेली का निर्माण हुआ था, वह उस गाँव का ही निकल आया, जो उसकी मुखबिरी की नज़र तले था।
दूसरे दिन ही आदमी भेज कर उस राजबलाई को तुरंत बुलाया गया। राजबलाई, नाम नन्दूराम। उम्र चालीसेक। शरीर से लम्बा, काम में मजबूत। तौर-तरीके से जितना तेज-तर्रार, हाथ हुनर।
उसी हवेली के जोड़ की हवेली के निर्माण का तकमीना हुआ। जगह की नापजोख की गई। जगह कम पड़ी तो और दो-चार घरों को उठा कर हथिया ली गई। काग़ज़ पर नक्शा उतारा गया। नक्शा, वह हवेली।
कीलपुर गाँव से कोस दूर दो पहाड़ियाँ थीं। जुड़वई। आस-पास के गाँवों के मकान उन्हीं पहाड़ियों की देन थे। गाँवों में मुनादी पिटवा दी गई। जितनी बैलगाड़ियाँ हैं, जितनी ऊँटगाड़ियाँ हैं, सबकी सब पहाड़ियों से पत्थर ढोने के लिए जुट जायें, हुकुम की हवेली बनेगी।
राह में रहजन की इतनी दहशत नहीं थी, गाँव में सरदारसिंह की थी। मुनादी हुई कि अगले दिन काम शुरू हो गया था। दिन सूरज रहता। साँझ ढलते बैलगाड़ियों और ऊँटगाड़ियों के दोनों ओर लालटनें बँध जातीं। पत्थर-भाटा ढोने के लिए चार गाँवों की ऊँटगाड़ियाँ और बैलगाड़ियाँ जोत दी गई थीं। दो पारी। दिन उगने से छिपने तक पहली पारी। दिन छिपने से उगने तक दूसरी पारी।
टटकार-फटकार। चल-चल हटकार। बैलों की पीठ पर पड़ती साँटों की सटकारें, ऊँटों की पीठ पर गिरती संटियों की सटकारें। गाँव दिन भर बेचैन रहता। रात नींद उड़ी रहती। थाने से कब किसका बुलावा आ जाये, गाँव में खौफ बना रहता।
एक पखवाड़े तक पत्थर ढोने का काम बदस्तूर जारी रहने के उपरान्त चिनाई के लिये कंकड़ों की दरकार थी। पिसे-घुटे चूना बने। निर्माण का कार्य प्रारंभ हो। गाँव के ऊसर पड़े एक खेत में कंकड़ों की खानें थीं। खानों से कंकड़ आने शुरू हुए कि एक कोने में ढूह लगता गया।
इधर के कुछ गाँवों में आज़ादी की जंग ने ऐसी हवा पकड़ ली कि रणबाकुंरों का खून उबाल खा गया था। दरोगा सदर के कानों जब यह ख़बर पड़ी तो उसकी नींद हराम हो गई। आँखें पथरा गईं। सिर घूम गया। लाटसाब तक बात पहुँची, कुर्सी गई। कुर्सी इलाके में अमन-चैन कायम करने के लिए है। बढ़ते विप्लव को दबाने के लिये वह अश्व पर आसीन हो बख्तरबंद सिपाहियों को साथ लेकर कीलपुर गाँव से गुजर रहा था। एकाएक उसे मुखबिर सरदारसिंह की वफादारी का ख्याल आ गया। उसने बीच गाँव लगाम खींच घोड़े को ठिठका दिया। पुलिस के भय से गठरी हुआ एक गंवई दीवार में घुसा खड़ा था। थानेदार ने डपट कर उससे पूछा- ‘‘अरे ओए, सरदारसिंह का घर कहाँ है रे?’’
ग्रामीण मुँह तक नहीं खोल पाया। उसका रोआं-रोआं पत्ते की तरह कांप रहा था। साँसें रुक-रुक चलने लगी थीं। थानेदार ने उसकी ओर डण्डा झाल कर अपने पास बुला लिया। वह हाथ जोड़ता, धूजता-काँपता, दया की भीख मांगता, झेंपता-झेंपता सामने आ खड़ा हुआ था। तेज हवा में पत्ता भी इस तरह नहीं हिलता, उसके शरीर का अंग-अंग काँप उठा था।
थानेदार ने उसकी ओर आँखें उठाकर फिर पूछा- ‘‘अरे ओए, मुखबिर का घर कहाँ है, यहाँ?’’
ग्रामीण के हाथ जुड़े थे। भयभीत कंठ कहा- ‘‘हुकुम, मालिक साब को घर ?’’
थानेदार का दिमाग झटका खाकर संभला-‘‘हाँ-हाँ।’’
उसने कांपते कंठ कहा- ‘‘आओ हुकम।‘‘ उसने उधर कदम बढ़ाये, जिस ओर सरदारसिंह का घर था।
सरदारसिंह अहाते में अपनी खाट बिछाये विशेष बना बैठा था। उसकी चिलम भरने वाले लोग नीचे बैठे जमीन कुरेद रहे थे। एक ओर पत्थरों का पहाड़ सा ढूह लगा था। दूसरी ओर कंकड़ों की ऊँटगाड़ियाँ खाली की जा रही थीं।
थानेदार नज़र पड़े कि सरदारसिंह झट उठा और उसके घोड़े के पास जा खड़ा हुआ। थानेदार के बूट पर सिर रख कर नमन किया और हाथ जोड़ कर याचक जैसा खड़ा रह गया। लोगबाग हिकारत और आश्चर्य से देखते रहे, कनखी-कनखी।
थानेदार घोड़े से नीचे उतरा। पुलिस जाप्ता घोड़ों से नीचे उतरा। सरदारसिंह ने घोड़े एक ओर बँधवा दिये। दो-तीन आदमी उनका चारा-चापट करने में जुट गये। दो आदमी छप्परों में से खाटें निकाल लाये। शेष ताबेदारी में चौकस खडे़ रहे। पीठ पर हाथ बाँधकर, गर्दन झुकाए।
जंगल में शेर की दहाड़, जानवरों को अपना जीव बचाना होता है। लावलश्कर के साथ आये थानेदार को देखते ही गाँव में जैसे आतंक के मेघ घिर आये। कितने ही अपने-अपने घरों में घुस गए। गूदड़ों जा दुबके। पेड़ों पर चढ़ गए। एक-एक को झुरझुरी सी लग गई। पत्थर चूना ढोने में कोई कोर-कसर रह गई, ‘सरदारसिंह ने बुलवाई है, पुलिस। बँधेंगे। जेल सड़ेंगे। कोडे़ बरसेंगे।’ देखते-देखते एक चौथाई गाँव थानेदार की आवभगत में आ जुटा था। सरकार की आँख उठ न जाए, एक-एक दरसाने की चेष्टा कर रहा था, ‘हुजूर मेरे से बड़ा सेवक दूसरा नहीं है।’
सरदारसिंह ने दो-तीन लोगों के कानों में फुसफुसाया- ‘‘भोजन होवेगो।’’ उसका कहना हुआ, जैसे मशीन का बटन दब गया।
एक-एक कृपा पात्र था। कोई बाजरा का, कोई मक्का का और कोई गेहूँ का आटा ला रहा है। कोई बर्तन जुटा रहा है, कोई माटी की हांडियाँ लिये आता है। लकड़ियों का ढेर अलग से लगता गया। दो व्यक्ति गाँव सेठ की दुकान पर जा धमके थे।
तीन-चार गबरू भागते पैरों, खटिकों, चमारों, मेहतरों और धानकों के मोहल्लों की ओर निकल पडे़। कई घर मुर्गें पालते थे। लफाड़े से उन लड़कों ने बिना पूछे दड़बों के फाटक खोल कर मुर्गें इस हकूक से खींच लिये- ‘‘कोई मुँह तक मत खोल देना, मुखिया जी के घर दरोगा जी बैठ्या है, हाँ।’’
मुर्गियाँ छोड़ दी गईं।
एक-एक ने दो-दो मुर्गों के पंजे अपने हाथों जमूर की भाँति मजबूती से पकड़ लिए। कलंगीदार मांसल मुर्गे पंख फड़फड़ाते रहे। छटपटाते रहे। कुकडूकू, कुकडूकू करते रहे। छूट नहीं पाए।
वे उन्हीं मोहल्ले के दो-तीन लोगों को धमकी मार कर अगुवा कर लाये- ‘‘अरे चालो-चालो, झटका कर, साफ-सूफ कर चल्या आइयो। माँस हम मल-मल, धो-धो साफ कर पका लावेगां।’’
दरोगा का बढ़ता भय। कहीं मसाला बंट रहा था। कहीं सोंठ, कालीमिर्च, डोडा, लौंग, इलायची इमामदस्ते में कुट-पिस रहे थे। दूसरी ओर सिलबट्टे पर मसाला बंट रहा था। एक ओर मुर्गों का झटका हो चुका था। परातों में मीट मल-मल फटाफट साफ किया जा रहा था। थानेदार की आँखें जाएं और गंदगी नजर पडे़। झटका करने वाले पंख और बेकार उठा ले गये थे।
मसाला बांट कर थालियों में डाल दिया गया था। ‘थानेदार की शान में घी में पकेगा मुरगा। तेल की झार हुकुम की नाक-भौं चढ़ जावे। लेना को देनो पड़ जावे। मार पडे़ बेहिसाब।’ वे अपने-अपने घरों की तरफ भभूल्या से दौडे़ और घी की हांडियां लिये हवा से लौट आये थे। दो किसानों ने धोती संगवा ली। मुंडासे ठीक कर लिये।
दो चूल्हों आग जली। बड़ी-बड़ी हांडियां चढ़ गईं। बरतन से जियादा माटी की हाण्डी में जायका है। दूसरी ओर तीन अलग-अलग चूल्हों पर तीन तरह की आटे की रोटियाँ तैयार होने लगीं। शाकाहारियों के लिए घी डाल कर आटा गुंथा। ‘मोइन की रोटियां दाँतों नहीं, होंठों कटेंगी, साब लोग खुश होवेगा।’
एक हांडी से दाल का तड़का ऐसा उठा गंध परिसर में फैल कर पौन के साथ तिरती रही, देर तक। लोगों के हाथ मशीन थे, होंठ सिले थे।
सरदारसिंह थानेदार को दारू पिला, खेतों की हवाखोरी करा कर लौटा। मुर्ग-मुसल्लम बन चुका था। रोटियाँ सिंक रही थीं। थानेदार खाट पर बैठ गया। वह खड़ा रहा। थानेदार ने चारों ओर निगाह की। दूर-दूर तक मैदान दिखाई दिया।
सरदारसिंह ने उसकी नज़र थाह ली, हाथ जोड़ कर कहा- ‘‘हुकुम, यहाँ छोटे-बड़े पेड़ थे, जिन्हें उखड़वा कर जगह तैयार की गई है।’’
खाट पर बैठे थानेदार के सिर के ऊपर एक गिद्ध मंडराने लगा था। थानेदार ने दो-तीन बार ऊपर देखा, गिद्ध उसके सिर पर ही बना रहा। वह घबरा उठा, गिद्ध और बाज एक जूण होते हैं। सध कर झपटते हैं। उसने अपनी पिस्तौल की सीध ली और गोली दाग दी। गिद्ध थानेदार के पाँव आ गिरा और छटपटाता-छटपटाता निस्तेज हो गया था। सबके रोम-रोम भय भरा। ‘थानेदार कसाई है, पक्का।’ सरदारसिंह की निगाह एक व्यक्ति पर ठिठकी और मृत गिद्ध की ओर देखने लगा था। व्यक्ति ने मृत गिद्ध के पंजे में रस्सी बांधी और उसे घसीटते हुए खेत में पटक आया था, दूर।
खाट पर बैठने वालों को रोटी-बोटी परोस दी गई थीं। सिपाही अलग खाटों पर, थानेदार अलग चारपाई पर। निरामिष के लिए दरियाँ बिछीं।
थानेदार और सरदारसिंह एक ही चारपाई पर भोजन अरोगने बैठे। थानेदार सिरहाने। वह पायताने। लोगों की डरी-डरी आँखें रह-रह देखती थीं। ‘पोंच तो खूब है, मुखिया की। दरोगा के लार खाट पे बैठ के जीमे।’ चार-पाँच युवक समर्पित भाव से तत्पर रहे, परोसने में। कोर-कसर नहीं रह जाये।
सरदारसिंह ने मुर्गे की टांग की बोटी के साथ पहला कोर मुँह में रखा। भटका हुआ एक कंकड़ उसकी दाईं आँख के पपोटा पर लग कर थाली में गिरा और साग सन गया। एक-एक को मानो साँप-सा सूँघ गया। आँखें फटीं-फटीं। होंठ स्तब्ध। ‘बँधे, सब बँधे। बस बँधे। गाँव को दुसमन कौन ? सिरकार से बैर ठान लियो।’
थानेदार कहीं अधिक चौकन्ना हुआ। मुँह में कोर चुभलाते आँखें अंगार हो गईं, उसकी। हाथ पिस्तौल पर चला गया, ‘राजद्रोही है, यह पत्थर नहीं, राज की खि़लाफ़त की चिनगारी है। बगावत की लपटों से मुखबिर बेखबर है। मेरे सामने ही .....?’
उसने सरदारसिंह की ओर आग्नेय नेत्रों देखा-‘‘साँसें बीत गई लगती हैं हरामखोर की। फाँसी चढ़ने की सामत आई है। सिपाही दौड़ा कर पहले उस द्रोही का खात्मा करवाता हूँ, भोजन पचेगा।’’
सरदारसिंह ने थाली में सना पड़ा कंकड़ निकाल कर दूर फेंक दिया और सिर झुकाते हुए अर्ज़ की- ‘‘हुकुम, गाँव का एक कुत्ता कुछ दिनों से पागल हो रहा है। बच्चे गुलेल लेकर उसके पीछे पड़े हैं। भटका कंकड़ मुझे आ लगा है। आप तो इत्मीनान से भोजन करें। मैं आदमी दौड़ाता हूँ, उधर।’’
थानेदार का गुस्सा चढ़ा रहा- ‘‘मुझे लगता?’’
‘‘ना हुकुम, ना। मुझे ही लगना था, निश्चिंत रहें।’’
‘‘कहा न मैंने। सिपाही से शूट करा दूँ, निष्कंटक हों?’’
‘‘ना, हुकुम ना। मैं ही मरवा दूँगा, उसे। आप भोजन करें।’’
‘‘ध्यान रखना आजादी का धुआं धरती पर फैलता आकाश नाप रहा है।’’
‘‘हुकुम।’’ वह स्वयं भोजन करने लग गया था।
भोजन हुआ। चुल्लू कर लिये गये। थानेदार की नजर उठी की एक-एक सिपाही अपने-अपने घोड़े के निकट जाकर खड़ा हो गया था।
थानेदार ने सिर पर पहना कलंगीदार तुर्रा संभाला और बैल्ट कस कर अश्व पर आरूढ़ हुआ। थानेदार के आगमन पर उपकृत और आत्ममुग्ध सरदारसिंह ने जेब से थैली निकाल ली और थानेदार के नज़दीक जा खड़ा हुआ। घोड़े पर बैठ कर लगाम संभाल चुके दरोगा के बूट पर उसने अपना माथा टिका दिया। दोनों हाथ अंजुलि बांध कर थैली नज़र करते हुए विनय कंठ कहा- ‘‘हुकुम नाचीज़ की चौखट पधारे आप।’’
जिगरसिंह के द्वारा भेंट की गई गाँठ की दमक थानेदार के नेत्रों से होती दिल में जा पैठी थी। गाँठ अपनी जेब में पटक ली और उसे बख्शीश दी- ‘‘ठिकानेदार।’’
घोड़े को एड़ लगाने से पूर्व थानेदार ने अपनी पिस्तौल से आकाश की ओर गोली दाग दी थी। मायने, ‘अवाम में भय बरपा रहे, अंग्रेजीराज कायम है। मुखालफत का अंजाम। गोली।‘ गोली की भयानक आवाज सुन कर पशु रंभा कर खूँटें तुड़ाने लगे। पक्षी चहचहा कर उड़ने लगे। भय ने गाँव को अपने आगोश में ले लिया था।
थानेदार ने घोड़े की लगाम खींचकर ढीली छोड़ी कि घोड़ा आदतन हिनहिनाया और उसकी उठती टापें गन्तव्य की ओर बढ़ गयीं। पुलिस नफरी पीछे-पीछे चली। पुलिस जब तक गाँव की सीमा में रही, गाँव का खून सूखा रहा। आततायी जैसा खौफ़ बना रहा। हाँ, श्वान भूंक-भूंक अपनी उपस्थिति ज़रूर दर्ज़ कराते रहे।
रत्नकुमार सांभरिया
(हिंदी कथा साहित्य का बेहद ज़रूरी नाम जिन्होंने 'साँप' जैसा चर्चित उपन्यास लिखा और 'फुलवा' जैसी प्रसिद्ध कहानियों के लेखक हैं आप )
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