डायरी
- सत्यनारायण व्यास
- सत्यनारायण व्यास
विद्वान और मूर्ख- 16/08/2024
क्या फ़र्क़ है मूर्ख और विद्वान में? मूर्ख ख़ुद को ज्ञानी और ज्ञानी ख़ुद को मूर्ख मानकर चलता है। तत्त्व को जानने का दावा करना मूर्खता है। मूर्ख अपनी बातों से यह जताना चाहता है कि वह कितना ज्ञानी है। मूर्ख और ज्ञानी की क्या सीमा-रेखा है? दोनों की क्या पहचान है? इस विराट और अपार जगत-मंडल में ज्ञानी के ज्ञान की क्या तो औकात और क्या महत्त्व? वह कुछ जान गया तो क्या जान गया? उसका ज्ञान कितना प्रामाणिक है, इसे कौन सिद्ध करेगा?
उधर मूर्ख ज्ञानियों को अपनी बातों से लगातार सहमत करना चाहता है कि उसे सुनो, उसे मानो। और ज्ञानी उससे बिदकता है, भागता है। मूर्ख की बातों में छिपे अज्ञान, जो कि अज्ञान नहीं है- की थाह नहीं लेना चाहता। यह परंपरा ज्ञान की मूल चेतना- जिज्ञासा के ख़िलाफ़ है। मूर्खता और विद्वता दोनों की परिणति भ्रामक है। दोनों गफ़लत में हैं। ज्ञानी का ‘जानना’ भी क्या जानना है? मूर्ख की ‘मूर्खता’ क्या सचमुच मूर्खता है? ज्ञान और अज्ञान दोनों ही ‘निरपेक्ष सत्य’ रूपी पर्वतराज के आगे चींटी के बराबर हैं। उन दोनों के ‘प्रस्थान’ और ‘प्रवृत्तियाँ’ तुच्छ और नगण्य।सार की बात यह है कि मूर्ख को मूर्ख न माना जाए और ज्ञानी को ज्ञानी न माना जाए। दोनों को ही सहानुभूति की ज़रूरत है।
नित्यानित्य- 17/08/2024
जब सभी कुछ अनित्य है तो नित्य क्या है? गीता कह चुकी, उपनिषद और शास्त्र कह चुके। क्या उनका कहा मान लें? क्यों मान लें? शास्त्रकर्ता ख़ुदा नहीं थे, मनुष्य थे। हम भी मनुष्य हैं? शरीर, धन-संपदा और संसार सब अनित्य। ठीक। तो नित्य क्या बनाया गया- आत्मा। जो शरीर के बाद भी नित्य है। जब शरीर नष्ट हो जाए तो आत्मा किस काम की? आत्मा के अनुभव का आधार यह शरीर है। शरीर न रहा तो कौन है जो आत्मा को महसूसेगा? उस आत्मा का होना भी मान लिया जाए तो उसे होने-न-होने से क्या होना-जाना है?
बिना शरीर के उस आत्मा का प्रयोजन क्या? न व्यवहार, न अनुभव, न उपयोग और न कोई सार्थकता!केवल उसका होना मान लो। क्यों भाई? बुद्ध चुप रहे, चार्वाक ने विरोध किया। जैन वैदिक धर्म के पिछलग्गू रहे। प्राणी-पत्थर सबमें आत्मा को माना। पर हमारा मन है कि मानता नहीं। उन सबका मानना ध्रुव तारा नहीं हो सकता। मानना ही तो है! वे मानते रहें, हम नहीं मानते। हिसाब बराबर। आत्मा को मान लेने भर से क्या दुनिया के दुःख समाप्त हो गए? नहीं।
आत्मा शब्द का प्राचीनतम अर्थ था- श्वास लेना यानी ज़िन्दा रहना। इसकी धातु है- अत् या अद्, जिसकी मूल भावना थी- जीवित रहने के लिए प्राणवायु को भीतर लेना। आगे चलकर ‘श्वास लेना’ के लिए ‘आहार-ग्रहण’ वाला अर्थ हावी हो गया। इसी से अन्न शब्द बना। शास्त्र में धड़ल्ले से कहा गया- अद्यते अन्नि च तदन्नम्। जो खाया जाता है और जो खाने वालों को खा जाता है, वह अन्न है! श्वास और अन्न- दोनों जीवन के आधार बने। इन दोनों पर कुंडली मारकर बैठ गई आत्मा। वह आत्मा जो नित्य है। न शस्त्र से, न अग्नि से, न जल से और न वायु से उसका नाश संभव है। यहाँ पुरखों के दिमाग़ की चतुराई कहो या होशियारी कि- श्वास, अन्न जीवन के परम आवश्यक मूलाधार- तत्त्व सब धरे रह गए और यह कल्पनाप्रसूत और अदृश्य ‘आत्मा’ नामक प्रत्यय इन सबकी छाती पर बैठ गया। क्या यह ठीक है? जिसका होना कल्पनाश्रित और अदृष्ट है- यह तो हो बैठा नित्य और जिसके आधार पर यह सब बखेड़ा खड़ा हुआ वह ख़ास,आम, जीवन और शरीर हो गए अनित्य। इसे अस्वीकार कर देना गुनाह नहीं होगा।
शब्दों से परे- 17/08/2024
शब्द कोई मामूली चीज़ नहीं है। यह हमारे प्राण और चेतना का अंश है। शब्द उथल-पुथल और आंदोलन मचा सकता है। पर शब्द के भी सोपान हैं। गप्पबाज़ी, झूठ-प्रपंच, निंदा-स्तुति निम्न कोटि के। जीवन-व्यवहार, विचार-भाव के आदान-प्रदान मध्यम श्रेणी के। जीवन के उद्देश्य, महँ-मूल्य, उदात्तता और दार्शनिक चिंतन उच्च कोटि के शब्द हैं। इन तीन स्तरों के पीछे भी तीन कारण हैं- निम्न कोटि में मानसिक, मध्यम श्रेणी में व्यक्ति और समाज का अस्तित्व और आदर्श तथा उच्च कोटि में निस्स्वार्थ तत्त्व-जिज्ञासा और रहस्यानुसंधान।
शब्द मनुष्य की सर्वोच्च सत्ता नहीं है। शब्द से बड़ी, ज़्यादा सशक्त और विश्वसनीय सत्ता है- अनुभूति(Feeling power)। शब्द और अनुभूति से बढ़कर अंतिम और परमसत्ता है- हमारा विवेक।
इस तरह शब्द- अनुभूति और विवेक तीनों के अद्भुत मिश्रण में छिपी है- व्यक्ति और जीवन की महानता। लेकिन शब्द में एक विशिष्ट शक्ति और है। वह ऐसे इशारे और संकेत भी करता है जो हमें शब्दातीत लोक में ले जाते हैं। जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, वह शब्द-जन्य इशारों में वहाँ ले जाता है, जहाँ शब्दों से परे की दुनिया है; जैसे - नारायणीय उपनिषद् से तीन लघु वाक्य-
तदपश्यत् (तत् + अपश्यत्)
तदभवत् (तत् + अभवत्)
तदासीत् (तत् + आसीत्)
कथन इनसे ज़्यादा संक्षिप्त नहीं हो सकते पर इनमें अर्थ बहुत गंभीर भरा है, जिसका खुलासा इस प्रकार है- ‘तत्’ परमसत्ता के लिए आया है। अपश्यत् क्रियापद है। किसने देखा? जीवसत्ता ने परमसत्ता को देखा। जीवसत्ता यहाँ साइलेंट है। पर है। दूसरे शब्दों में जीव ने ब्रह्म को देखा। अगला वाक्य है- तदभवत्। (वह जीव) वही हो गया। यानी जीव ब्रह्म हो गया। अंतिम वाक्य है- तदासीत्। (वह जीव) तो वही था। यानी जीव तो ब्रह्म ही था। क्या नई बात हो गई? तीसरे वाक्य से पूर्व के दोनों वाक्य खारिज़ हो गए। इसे ‘प्राप्तस्य प्राप्ति’ भी कहते हैं। जो पहले से पाया हुआ (विद्यमान) था, उसे पा गए। पाया हुआ था, पर पता नहीं था। पाए हुए से अनजान थे। यह शब्द-योजना से उत्पन्न, वह अर्थ है जो शब्द से परे है। जहाँ शब्द और भाषा जवाब दे जाते हैं, वहाँ उनकी अक्षमता संकेतरूपी राकेट भेजती है और हम शब्दोत्तर भावलोक में जा पहुँचते हैं। यह पहुँचना अनुभूति से भिन्न प्रकृत्ति का होता है।
सत्यनारायण व्यास
(राजस्थान के वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि)
नीलकंठ, छतरी वाली खान के पास, सेंथी (चित्तौड़गढ़) 312001
9461392200
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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