सौन्दर्यशास्त्रीय परम्परा में आधुनिक कलागत विचार
- अचल अरविन्द
शोध सार : दृश्य कला में कलाकारों ने अपने विचारों और स्वरूपों के प्रचार तथा शृंगार हेतु सदैव कलाओं का आश्रय लिया है। कला में सौन्दर्य हेतु भारतीय परम्परा में रस-शास्त्र तथा यूरोप में सौन्दर्यशास्त्र शब्द का विकास हुआ है। सौन्दर्यशास्त्र का वर्तमान स्वरूप भारत में यूरोप के अनुकरण पर विकसित हुआ है। सौन्दर्यशास्त्र में एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में सौन्दर्यानुभूति, कलाकृति, रचना-प्रक्रिया, कलानुभूति आदि का अध्ययन किया जाता है। यहाँ सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्ध मुख्यतः कला-सृष्टि के सौन्दर्य से है और इसी के संदर्भ में इस शास्त्र में दृश्यकला का सौन्दर्य तथा मानवीय विचारों का समावेश है। अतः दृश्यकला में भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही कलाओं में सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा एवं कलाकारों के आधुनिक विचारों ने दृश्यकला के क्षेत्र में अविश्वसनीय कार्य किया, तथा समाज के परिप्रेक्ष्य में कला की समझ के लिए कला की अनुभूति का गुण आवश्यक पहलू है। अतः सौन्दर्यशास्त्रीय परम्पराओं में कला के आधुनिक विचारों को आत्मसात करना कलाकारों के लिए अद्भुत कौशल है।
बीज शब्द : उद्रेक, उदात्त, एस्थेटिक, अंगांगों, अनुचिन्तना, अशरीरी, परब्रह्म, विनिमय, सम्मत, अन्तर्ज्ञान।
मूल आलेख : कला की धाराणाओं तथा सौन्दर्य सम्बन्धी मान्यताओं का विवेचन सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। सौन्दर्य के सम्बन्ध का एक पक्ष यह है कि इस सृष्टि में जिस प्रकार अन्य विशेषताएँ है उसी प्रकार सौन्दर्य की भी एक सार्वभौमिक विशेषता है। सौन्दर्य हमारे चारों ओर बिखरा हुआ है, केवल उसे देखने की दृष्टि चाहिये, क्योंकि सत्य ही सौन्दर्य है। संसार में सौन्दर्य को देखने की तथा प्रस्तुत करने की अलग-अलग विधियाँ हैं। कलाकार सौन्दर्य रूपी कलाओं की सुन्दरतम झाँकी प्रस्तुत करता है। कलाकार का कार्य लोगों को आनन्दित करना है। भारतीय परम्परा में सौन्दर्य से उत्पन्न आनन्द को रस कहा गया है। सौन्दर्य की भावना मन में कोमलता, माधुर्य और रस का उद्रेक करती है। कलाकार अपने चारों ओर सौन्दर्य देखता है, उससे प्रेरित होकर वह जिस कलाकृति की रचना करता है उसमें विशिष्ट सौन्दर्य होता है।1 इस प्रकार सौन्दर्य कलाओं का आदर्श है। दृश्य कलाओं में तीन पक्षों का प्रयोग होता है- भाव सौन्दर्य, रूप सौन्दर्य, तथा अलंकार सौन्दर्य, इनके उचित और आनुपातिक प्रयोग से ही कलाकृति की श्रेष्ठता का निर्धारण किया जाता है। दृश्य कला में कलाकारों ने अपने विचारों और स्वरूपों के प्रचार तथा शृंगार हेतु सदैव कलाओं का आश्रय लिया है। जब कोई वस्तु अथवा आकृति, अनुभव, कल्पना, स्मृति, भावना-प्रवृत्ति को जन्म न देकर अपने विशेष गुणों से केवल भोग और रस का उद्रेक करती है, तो हमारे जगत की ये साधारण वस्तुएँ अद्भुत आनन्द के मूल स्रोत सी प्रतीत होने लगती है, उस समय हम उनको सुन्दर कहते हैं। सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत हम सौन्दर्य के अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं, इसके अन्तर्गत ‘आनन्द’ का विस्तृत विवेचन किया जाता है। ‘आनन्द’ का व्यक्ति के जीवन से किस प्रकार सम्बन्ध है, किस प्रकार वस्तु या प्राणी के ज्ञान से उत्पन्न ‘आनन्द’ कैसे रसानुभूति उत्पन्न करता है, ईश्वर की सृष्टि के अतिरिक्त मनुष्य ने भी कला के रूप में काव्य, चित्र, मूर्ति, आदि की अनेक सृष्टियाँ की है, जिनका विवेचन सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में सौन्दर्यशास्त्र का जन्म 1750 ई. में प्रसिद्ध विद्वान बाउमगार्टन के द्वारा हुआ, सौन्दर्यशास्त्र मूलतः सौन्दर्य का अध्ययन करता है। ‘‘जार्ज संतायना ने अपनी पुस्तक ‘दि सैंस ऑफ ब्यूटी’ में यह स्पष्ट लिखा है कि ‘एस्थेटिक’ का विषय अपने व्यापक अर्थ में सौन्दर्य चिन्तन है, जिसमें कला सौन्दर्य के सभी पक्षों पर विचार किया जाता है।’’ सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की एक दृष्टि केवल कलाओं के अध्ययन को ही सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत मानती है अर्थात कलाशास्त्र को ही सौन्दर्यशास्त्र मान लिया है। सही अर्थों में सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्घ ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य से ही है, अन्य किसी भी माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य से नहीं है। कला की अनेक दृष्टियाँ हैं और सौन्दर्य शास्त्रीय दृष्टि उनमें से एक है। सौन्दर्यशास्त्र का अध्ययन कला से अधिक व्यापक है। सौन्दर्य शास्त्र का विषय कलाकार, दार्शनिक और तार्किक के विचार का विनिमय है। सभी अपने दृष्टिकोण के इस विषय पर विचार करते हैं। कलाकार अभिव्यक्ति को अधिक महत्व देता है सिद्धान्तों को नहीं। “कान्ट के विचारों में सुन्दरता एक गुण है जो अधिकतर आनन्द के समरूप है इसमें आनन्द सत्य और अच्छाई समान रूप से प्राप्त होते हैं।” प्रायः सभी कलाएँ समान होने पर भी अपना अलग अस्तित्व रखती हैं। पाश्चात्य देशों में सौंन्दर्य तत्व पर अधिक विवेचन हुआ वहाँ सौन्दर्य की अभिव्यक्ति कला द्वारा हुई है। “हीगेल के मतानुसार कला दर्शन तक पहुँचने का एक सोपान है।” तथा रस्किन ने कला के नैतिक व्यवहार पर बल दिया है। जो लोग कला में सुन्दरता के मूल्य को कम करके चारित्रिक गुण अथवा आदर्श पर अधिक बल देते हैं वे सुन्दरता के अनुभव की अवहेलना करते हैं। यूनानी कल्पना ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को सौन्दर्य और शक्ति से मण्डित किया है। मनोहारी और स्वस्थ शारीरिक सौष्ठव यूनानी मूर्ति सौन्दर्य का आदर्श है। यूनानी जीवन में शरीर के अंग-प्रत्यंग के स्वस्थ विकास का महत्व नैतिक मूल्यों के विकास के समान ही है। भारतीय चिन्तन का अध्यात्म उन्हें ज्ञात नहीं था। भारतीय शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सौन्दर्य तत्वों का विवेचन यहाँ अधिकता से हुआ है।2 प्रकृति के विभिन्न पक्षों के साथ मनुष्य भी सौन्दर्य के दृष्टिकोण से समाहित है, सौन्दर्यशास्त्र इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान से भी एक सीमा तक प्रभावित है। इसमें कलाओं का वर्गीकरण, कलाओं का अन्तः सम्बन्ध, रूप और शैली, कला इतिहास के विकास के प्रमुख सिद्धांत तथा सांस्कृतिक प्रभाव, मानव व्यवहार और अनुभूति का कलाओं से सम्बन्ध, कलाओं के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष तथा मूल्यों से सम्बन्धित आयामों का अध्ययन है। इस प्रकार सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है, सौन्दर्य प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त है और कलाओं में भी सौन्दर्य की ही सृष्टि की जाती है। किन्तु सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्ध मुख्यतः कलासृष्टि के सौन्दर्य से है और इसी के संदर्भ में इस शास्त्र में दृश्य सौन्दर्य तथा मानवीय विचारों का स्मरण किया गया है।3
दृश्यकला में सौन्दर्यशास्त्र इन्द्रिय-बोध और सौन्दर्यनुभूति का विश्लेषण करता है। सौन्दर्यशास्त्र इन्द्रियबोध का मूल्यात्मक निर्णय है जो सामान्य इन्द्रिय-बोध से सौन्दर्यात्मक बोध में अन्तर स्पष्ट करता है। सौन्दर्यशास्त्र मानवीय चेतना के उस अंश का विधिवत अध्ययन करता है, उसके विश्लेषण, विकास, सृजन, आस्वादन सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करता है, जिस अंश को हम आनन्द की अनुभूति कहते है मनुष्य, पशु और स्थापत्य कला के सौन्दर्य में हमारा उद्देश्य छिपा रहता है। किन्तु ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में कोई यह नहीं जान सकता कि अमुक प्राणी या वस्तु को उसने किस उद्देश्य से निर्मित किया। मानव सौन्दर्य भी उसके नैतिक गुणों तथा आन्तरिक सौन्दर्य में है। यह आवश्यक नहीं कि भौतिक रूप से सुन्दर होने पर उसमें आन्तरिक सौन्दर्य भी होगा।
हीगेल के मतानुसार सुन्दर और सौन्दर्य ललित कला का दर्शन है। प्राकृतिक अथवा रचनात्मक सुन्दरता मस्तिष्क में उत्पन्न होती है।4
भारतीय विचारधारा के मतानुसार कला और साहित्य पर एक-दूसरे का प्रभाव पड़ता है। यूनानियों की अपेक्षा भारतीय विचारकों ने आन्तरिक सौन्दर्य को सर्वोत्तम स्वीकार किया है। कला मानव की स्वतः प्रेरित क्रिया की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है। दृश्य कला में चित्रकार द्वारा चित्रित आकृति मानस में बने चित्र की अनुकृति मात्र है। अतः कलाकार कृति की रचना से पूर्व समाधि अथवा ध्यान की स्थिति में होता है।
कलाकार ध्यान से अपने अन्तर की कल्पना को अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है जिसका माध्यम रेखा, धरातल और रंग होते हैं। इसी से वह किसी भी आकृति का रूपांकन करता है। किसी भी कलाकार में अन्तर्ज्ञान, प्रकाश ज्ञान, सामान्य ज्ञान और चित्र संयम की विशेषताओं का होना आवश्यक है।5
सौन्दर्य शास्त्रीय चिन्तन का सूत्र सर्वप्रथम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, से प्राप्त होता है इन्होंने ही ‘एस्थेटिक’ शब्द के लिए ‘सौन्दर्यशास्त्र’ का प्रयोग किया और हिन्दी में ‘सौन्दर्य शास्त्रीय’ चिन्तन की नींव डाली। हरद्वारी लाल शर्मा ने ‘सौन्दर्यशास्त्र’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने सौन्दर्य की शास्त्रीय विवेचना को सौन्दर्यशास्त्र की संज्ञा दी। ‘सौन्दर्यशास्त्र’ को हम आनन्द (रस) की अनुभूति कहते हैं और हमारी यह अनुभूति किसी वस्तु की अनुभूति से उत्पन्न आनन्द का नाम है। अपनी अनुभूति प्रत्यक्ष, स्मृति, कल्पना आदि द्वारा आनन्द को उत्पन्न करने वाले वस्तु के गुण को सौन्दर्य और वस्तु को सुन्दर कहते है सौन्दर्य के वस्तुनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ रूप को पार्थिव और आध्यात्मिक में देखा जा सकता है। सौन्दर्यानुभूति में पार्थिव रूप और आध्यात्म रूप का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि यदि एक चेतन आत्मा है तो दूसरा उसका रूपवान शरीर, एक स्रोत है तो दूसरा उसका वेग है। अतः सौन्दर्य वस्तु का ही गुण नहीं है किन्तु रसिक का आत्मा में जागृत आस्वादन क्रिया का नाम है।6
ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम ग्रंथ है इस प्राचीनतम ग्रंथ में भी सौन्दर्य विषयक शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे श्री, श्रिय; चारू, शुभ, प्रिय आदि शब्दों को लिया जा सकता है। दृश्य कला में छवि का सौन्दर्य वस्तु के स्फुट अवयवों का नहीं, समग्रता की झांकी का सौन्दर्य है। अंगांगों के सौष्ठव और सर्वव्यापी शोभा की व्यंजना ही सुषमा है। लावण्य अन्तः सौन्दर्य का निरूपक है, जो रूपगत तरल आभा द्वारा दर्शक में स्पर्श की चाह उत्पन्न करता है।
सौन्दर्य शब्द सुन्दर की भाववाची संज्ञा है, सुन्दर शब्द की सम्पूर्ण विशेषताओं की अभिव्यक्ति इसी शब्द से की जाती है। इस प्रकार सौन्दर्य शब्द रूप शब्द के प्रर्याप्त निकट आ जाता है।
पाश्चात्य सौन्दर्य शास्त्रियों ने भी रूप सौन्दर्यगत गुणों के लिए सापेक्षता, समता, संगति तथा संतुलन को अनिवार्य माना है। सापेक्षता का अर्थ प्रत्येक अंग का एक-दूसरे अंग से सम्बद्ध और सापेक्ष होना है एक अवयव का दूसरे अवयव का प्रतिरूप प्रतीत होना ही समता है। वास्तव में संगति ही रूप का प्राण है। रूपाकार को स्पष्ट करने के लिए संतुलन का भी महत्व है। भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में कहा है की “अनेकत्व की एकता ही रूप की अभिव्यक्ति है” कुछ विचारको ने इसे ही सौन्दर्य का रहस्य कहा है।
“अरस्तू का कहना है कि विन्यास और समता ही सौन्दर्य का प्राण है। उपर्युक्त सौन्दर्य सम्बन्धी विवेचन के पश्चास हम यह कह सकते हैं कि रूप और सौन्दर्य की विशेषताएँ अपने कुछ उभयनिष्ठ तथ्यों के कारण पर्याप्त समानता रखती है। रंगों तथा आकृतियों के रूपात्मक सौन्दर्य से वास्तविक आनन्द उत्पन्न होता है, और यही रूपात्मक सौन्दर्य का अर्थ है।”7
प्लेटो का सौन्दर्य-सिद्धान्त एक दार्शनिक का सौन्दर्य सिद्धान्त है। यह प्रज्ञात्मक ज्ञान पर आधारित है। प्लेटो सौन्दर्य तथा नैतिकता का भी घनिष्ठ सम्बन्ध मानते हैं। उनके विचार में कलाएँ जीवन में शिक्षा देती हैं तथा मनुष्य में सद्गुणों के विकास में सहायक बनती हैं। सौन्दर्य-बोध का माध्यम केवल आँख और कान हैं। बुद्धि से उत्पन्न विज्ञान तथा नैतिकता से प्रेरित आचरण दोनों ही सुन्दर हैं। कलाकार कलाओं की रचना अपनी सृजन-शक्ति के माध्यम से करती है क्योंकि प्रकृति केवल सृजनकारी शक्ति ही नहीं है, बल्कि बुद्धि तत्व भी है, जिसमें प्रजननकारी बुद्धि भी सम्मिलित है। यहाँ बुद्धि का तार्किक प्रयोग वस्तुओं को ग्रहण करने के रूप में होता है। सौन्दर्य तत्व में चरम रूप का दर्शन सहसा नहीं हो सकता।8
कलात्मक सौन्दर्य के प्रति “प्लॉटिनस का विचार है कि कलाकार अनुकृति न करके सृजन करता है। इस रचना को वह त्रुटि-रहित बनाने के लिए कुछ न कुछ परिवर्तन करता है जिसका आदर्श स्वयं उसका अन्तर्मन होता है” सौन्दर्य अशरीरी, इन्द्रिया-निरपेक्ष तथा अलौकिक की अनुचिन्तना में ही प्राप्त होता है। अतः सौन्दर्य भौतिक पदार्थ में न होकर रूपक की अवधारणा में रहता है क्योंकि प्रज्ञा और सौन्दर्य में भेद नहीं है। सौन्दर्य का लक्षण जीवन है, जो केवल सामंजस्य अथवा अनुपात आदि से प्राप्त नहीं किया जा सकता। दृश्य कला में चित्र के सौन्दर्य की अनुभूति प्रथम स्तर पर उसके संतुलित रूप में होती है फिर पृष्ठभूमि की रचना से वन, झरना, समुद्र आदि पदार्थ जो चित्र में नहीं भी हैं उसे रेखाओं के संकेत से व कल्पना से उसकी सृष्टि कर ली जाती है। सुन्दर चित्र में आकर्षण इतना अधिक होता है कि वे वस्तु, वृक्ष, नदी आदि की भाँति सजीव प्रतीत होने लगते हैं। उनमें प्राणों का संचार हो जाता है तथा उसमें हर्ष, विषाद, प्रेम, वियोग आदि भावों का अनुभव भी होता है। इस प्रकार चित्रगत सौन्दर्य में रसानुभूति पाँच स्तरों पर होती है। चित्र में जितना अधिक सौन्दर्य होगा उतनी ही अधिक रसानुभूति होगी। चित्रकार में चित्र की रचना से पूर्व ध्यान अथवा साधना से व्यक्तिगत बन्धनों से परे एक अपूर्व सौन्दर्य का उदय होता है। भारतीय कला दर्शन में भी रूप का सौन्दर्य चित्रकार के अन्तःमन में साधना से आध्यात्मिक अनुभूतियों द्वारा होता है। वह स्वयं को भूलकर एक वेदना को अनुभव करता है और उस सुन्दर रूप के दर्शन की प्रतीक्षा करता है। कलाकार के हृदय में उत्पन्न सूक्ष्माभिव्यक्ति का अंकुर भौतिक जगत की वस्तुओं के सौन्दर्य के आकर्षण से संयुक्त होकर एक सुन्दर रूप ग्रहण करता है।9 कला व्यक्ति के जीवन में समायी निस्वार्थ आस्था है जिसे प्रकट करके उसे एक तृप्ति का अनुभव होता है। कला जीवन के विगत पहलुओं, क्षणिक, आभासित, कल्पनाओं, स्मृतियों का अपने कोमल स्पर्श से जीवन प्रदान करती है। सम्भवतः कला हमारे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर मन में उभरते प्रश्नों के उत्तर देने कि समता रखती है। कला मानव को वह सब कुछ प्रदान करती है जो उसे प्राप्त नहीं जिसका उसने उपयोग नहीं किया अर्थात कला का सौन्दर्य पक्ष मानव के सुख का कारण है वह उसे सौन्दर्य प्रदान करती है, और कलाकार की सौन्दर्यात्मक अनुभूति को विकसित करती है यह केवल उपदेशात्मक या केवल सज्जा की वस्तु नहीं है, यह तो जीवन के प्रत्येक पक्ष का सच्चा चित्रण करती है तथा सार्वभौमिक प्रेम का संदेश देती है अर्थात् जीवन की पूर्णता को कला ही स्थापित करती है। कला के संसर्ग में मानव अपने दुखों से मुक्ति प्राप्त करके आनन्द की प्राप्ति करता है, तो उस कलाकार के आनन्द की क्या सीमा होगी जो अपनी अछूती कल्पना से कला का सृजन करता है और अपनी आत्मा को उस रचना में उतार देता है। कलाकार की यही सृजनशीलता और जिज्ञासा समाज को अद्भुत निधि प्रदान करती है जिससे उसे ज्ञान, सौन्दर्य, आदर्श आदि की प्राप्ति होती है, सौन्दर्य को विद्वान आन्तरिक चेतना मानते हैं। सौन्दर्य वस्तु में नहीं होता बल्कि दर्शक के मन में होता है। हम यह नहीं कह सकते कि बिना मस्तिष्क के कोई वस्तु सुन्दर हो सकती है, दृश्यकला के विद्यार्थी का पहला काम प्रकृति निरीक्षण है, चित्र बनाने से पहले उसे प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं को देखना व सीखना पड़ता है। हर समय चलते, उठते, बैठते, उसे अपने चारों ओर की वस्तुओं को रुचिपूर्वक देखना पड़ता है, प्रकृति की सुन्दरता का यह अध्ययन उसे जीवनपर्यन्त करना पड़ता है। प्रकृति अनन्त है, उसकी सुन्दरता अनन्त है। इस अनन्त सुन्दरता का जो रसपान नहीं कर सकता वह चित्रकार अभागा है। एक बार प्रकृति की सुन्दरता का रसपान कर लेने पर उसके सामने सौन्दर्य का एक कोष खुल जाता है। किन्तु मानवीय आकांक्षाओं का अन्तर्भाव होते हुए भी इस सत्य का स्वरूप निरपेक्ष ही रहता है।10
“निर्मला जैन ने सौन्दर्य के अतिवादी दृष्टिकोण से मुक्त रहते हुए लिखा है कि न तो रस उतना सूक्ष्म है, जितना समझा जाता है और न ब्यूटी उतनी स्थूल जितनी कही जाती है” शिवबालक राय ने अपनी पुस्तक ‘काव्य सौन्दर्य और उदात्त तत्व’ में सौन्दर्यशास्त्र और सौन्दर्य तत्व की विवेचना की है। उनके शब्दों में- सौन्दर्य वह गुण है जो वस्तु और व्यक्ति के बाह्य और अन्तर के सामंजस्य से उत्पन्न होता है। “कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने पुस्तक एस्थेटिक में स्वतंत्र कलाओं का विवेचन करते हुए लिखा है कि स्वतन्त्र कलाएँ वे हैं जिनकी कृतियां परब्रह्म को इन्द्रिय ग्राह्य रूप में इस प्रकार से उपस्थित करती हैं कि वे आवश्यक मानसिक दशाओं से युक्त सहृदय कला रसिकों के लिए ब्रह्मानन्द प्राप्ति का समुचित साधन बन जाती है।” श्री अरविन्द का सौन्दर्यशास्त्रीय चिन्तन उनकी पुस्तक ‘दि फ्यूचर पोयट्री’ में दिया है कि अधिमन सौन्दर्य का आलिंगन करता है और उसे उदात्त बनाता है अधिमन का अपना मौलिक रसबोध है जो नियमों और सिद्धान्तों में सीमित नहीं है। यह तो सार्वभौमिक और शाश्वत सौन्दर्य को देखता है। रसानुभूति का मुख्य सम्बन्ध सौन्दर्य से है अर्थात श्री अरविन्द के विचार से “सौन्दर्य वह है जो हममें संतोषजनक सुख और पूर्ण स्वस्थता की भावना भर दे।” श्री अरविन्द ने सौन्दर्य और आनन्द के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जिस दिन हम आनन्द और सौन्दर्य की पुरानी आराधना पर वापस पहुँचेगें, वह हमारे मोक्ष का दिवस होगा। अर्थात तर्क संगत और विस्तृत चिन्तन की आवश्कता होगी, जो भविष्य में एक सौन्दर्यशास्त्र के सुदृढ़ भवन का निर्माण करेगा।
निष्कर्ष : परम्परागत दृष्टि से कला का सौन्दर्य अभिव्यक्ति की पूर्णता में है। जो बुद्धि ग्राह्य और तर्क सम्मत है, वही कला कल्याणकारी है और कला का सौन्दर्य भी इसी में है। सौन्दर्य का सम्बन्ध हमारी ज्ञानात्मक सत्ता से भी है। ज्ञान समाहार-मूलक होता है, ज्ञान के द्वारा ही रूप में सादृश्य उत्पन्न होता है। अर्थात हम कला की दृष्टि से यह कह सकते हैं कि ऊपर वर्णित कला सौन्दर्य शास्त्र का अनुभव विचारात्मक बिम्बों और कलाकृति के भौतिक माध्यम के सामंजस्यपूर्ण निर्वहन में निहित है। कला कर्म में आवर्तनकारी प्रयासों के बाजारीकरण से यहाँ एक विराग भी है। दर्शक अपने विवेक के साथ कला सौन्दर्य को समझें, व सौन्दर्य को कला के उदात्त भाव से जानना चाहिए। हर कला का रहस्यलोक होता है, उसे जाननें का प्रयत्न करना चाहिए। “इस प्रकार सौन्दर्यशास्त्र की परिधि में सौन्दर्य व कला, कला का विवेचन, सौन्दर्य की अनुभूति, आस्वाद प्रक्रिया व उसका स्वरूप, कलाकृति का वस्तुरूप, सौन्दर्य के उपादान, सौन्दर्य सृजन, प्रेरणा, प्रतिभा, सृजन प्रक्रिया व प्रकृति विधान की विवेचना व विश्लेषण कर सकते हैं।
- गिर्राज किशोर अग्रवाल, कला सौन्दर्य और समीक्षाशास्त्र, संजय पब्लिकेशन्स, 1999, पृ.सं. 211, 212, 217
- डॉ. हरद्वारी लाल शर्मा, सौन्दर्य-शस्त्र, साहित्य भवन, इलाहबाद, 1953, पृ.सं. 120, 122, 134,
- नीलिमा गुप्ता, कला एंव सौन्दर्य शास्त्र, सिद्धान्त एवं परम्परा, प्रगती प्रकशन, मेरठ 2020 पृ.सं. 22
- वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृथ्वी प्रकाशन वाराणसी, 2004, पृ.सं. 53, 72
- आर.डी. लाटा, दृश्यकला, अनन्त पब्लिकेशन, जयपुर, 2023, पृ.सं. 56
- निर्मला जैन, रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999, पृ.सं. 76, 89
- डॉ. प्रेमलता गाँधी, कला शिक्षा, राजलक्ष्मी पब्लिकेशन, जयपुर, 2012, पृ.सं. 14, 19, 22
- प्रो. रामचन्द्र शुक्ल, आधुनिक चित्रकला, अनुभव पब्लिशिंग हाउस, इलाहबाद, 2013, पृ.सं. 24, 36, 89
- श्रुति खन्ना कक्कड़, भारतीय सौन्दर्य शास्त्र तथा कलाएँ लिटरेरी सर्कल, जयपुर, 2024, पृ.सं. 61, 67
- डॉ. गुलशन ग्रोवर, शिक्षा में कला एवं सौन्दर्यशास्त्र, राखी प्रकाशन, आगरा, 2016, पृ.सं. 16, 17, 18
- डॉ. ममता चतुर्वेदी, सौन्दर्यशास्त्र, रा.हि.ग्र.अकादमी, जयपुर, 2021, पृ.सं. 9
- किरण प्रदीप, भारतीय आधुनिक कला, कृष्णा प्रकाशन मिडिया, मेरठ 2009, पृ.सं. 177, 179
- अशोक मिश्र, भारतीय चित्रकला, बंगाल पब्लिशर्स, कलकत्ता, 1958, पृ.सं. 21, 24
- डॉ. जगदीश गुप्त, भारतीय कला के पदचिन्ह, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1961, पृ.सं. 42
- अशोक, कला निबंध, संजय पब्लिकेशन्स, आगरा, 2012, पृ.सं. 189, 191
अचल अरविंद
सहायक आचार्य, चित्रकला, माँ भारती पी.जी. कॉलेज रंगबाड़ी रोड़, महावीर नगर तृतीय, कोटा,राजस्थान
achal.arvind@gmail.com 9928262464
एक टिप्पणी भेजें