शोध आलेख : दृश्य कला का समकालीन परिदृश्य एवं प्रयोगवादी प्रवृतियाँ / चानण मल एवं लोकेश जैन

दृश्य कला का समकालीन परिदृश्य एवं प्रयोगवादी प्रवृतियाँ

चानण मल एवं लोकेश जैन

शोध सार : प्राचीनकाल से दृश्यकला संप्रेषण का माध्यम रही है। आधुनिक काल में विभिन्न कला-वादों, शैलियों एवं विचारधाराओं का जन्म हुआ। कला-सृजन एवं प्रदर्शन की नवीन सोच ने कलाकारों को परंपरागत बंधनों से मुक्त होकर नवीन सृजन हेतु प्रेरित किया। उन्होंने अभिव्यक्ति हेतु माध्यमों और सृजनात्मक तकनीकों में अनेक प्रयोग किए जिसके फलस्वरूप नये आयामों एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों जैसे इंस्टॉलेशन, कांसेप्चुअल आर्ट, परफॉर्मिंग आर्ट, हैपनिंग आर्ट, डिजिटल आर्ट, मिक्स मीडिया, वीडियो आर्ट, ऑडियो आर्ट आदि का उद्भव हुआ। कलाकार उपयोगी-अनुपयोगी वस्तुओं को अपनी रचनात्मक कल्पनाशीलता द्वारा सार्वजनिक एवं प्रदर्शनी स्थलों पर कलात्मक ढंग से प्रदर्शित करता है जिसे इंस्टॉलेशन कहते है।‌ आजकल सृजन हेतु कम्प्यूटर के प्रयोग से न्यू मीडिया जैसे आयाम स्थापित हो गए हैं। इसमें ऑडियो, वीडियो, डिजिटल मीडिया एवं तकनीकी उपकरणों का भी प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इनवायरमेंट आर्ट, अर्थ आर्ट जैसे कई नवीन माध्यमों की भी स्थापना हो गई है जिसमें प्राकृतिक दृश्यात्मक सामग्रियों के सहारे मौलिक रचनाएं की जाती है।

बीज शब्द : दृश्यकला, इंस्टॉलेशन, हैपनिंग, डिजिटल, वीडियो, ऑडियो, अर्थ, बिनाले, मूत्रपोट, कम्प्यूटर, कैनवास‍‍‌‍।

मूल आलेख : समकालीन कला का अर्थ तात्कालिक समय में प्रचलित कला से है, जिसमें अप्रचलित कला शैलियों व प्रवृत्तियों का विकास हुआ है, जिसका उद्देश्य सौंदर्य के साथ-साथ व्यक्तिगत विचारों और सामाजिक संदेशों को अभिव्यक्त करना है। समकालीन कला का मुख्य गुण प्रयोगवाद है। प्रयोगवाद वह रचनात्मक दृष्टिकोण है जिसमें परंपरागत कला तकनीकों, माध्यमों और शैलियों का त्याग करते हुए नवीन रूपों, विचारों और सृजनात्मक माध्यमों की खोज की जाती है। समकालीन दृश्यकला में इस प्रकार के प्रयोग निरंतर होते आए हैं। दृश्यकला अतीतकाल से ही धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। शैल-चित्रों के रूप में विकसित होकर धार्मिक अभिव्यक्ति तथा राज्याश्रयों के वैभव को प्रकट करने में इसका महत्वपूर्ण स्थान रहा। “सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक परिवर्तन से प्रभावित वैचारिकता कला में अन्तर्निहित मूल्यों को जहाँ प्रभावित करती रही है, वहीं भौतिकता के विकास एवं यान्त्रिकता की गति के प्रभाव से इसके बाहय रूप भी परिवर्तित होते रहे हैं, दरअसल कला के सृजन की आन्तरिक गत्यात्मकता कभी ठहरी नहीं है।”(1) आज भी यह तत्कालीन परिस्थितियों तथा व्यक्तिगत भावनाओं के संप्रेषण का प्रमुख माध्यम है।

आधुनिक चित्रकला प्रभाववादी, घनवादी, अभिव्यंजनावादी, अमूर्त अभिव्यंजनावादी आदि प्रवृतियों का सहारा लेकर आगे बढ़ती रही। वैचारिक व तकनीकी उन्नति ने कलाकारों को अनगिनत अवसर प्रदान किए। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशक के बाद यूरोपीय कला परिदृश्य में रचनावाद, भविष्यवाद, सूक्ष्मवाद, संरचनावाद जैसी अल्पकालिक कला प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ, जिन्होनें तीव्र गति से कलात्मक विचारों को परिवर्तित किया तथा नवीन प्रकार के सौंदर्यशास्त्रीय व दार्शनिक विचारों का प्रादुर्भाव हुआ है। उक्त कला शैलियों व माध्यमों में विभिन्न प्रयोग हुए जिसके फलस्वरुप प्रयोगवादी युग का आरंभ हुआ तथा समकालीन कला परिदृश्य में रचनात्मक परिवर्तन होने लगे। धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय कला समुदायों वं संगठनों में आपसी सम्वाद और सहकारिता का वातावरण विकसित होने लगा। “ऐसे सहकारी और साझा सम्पर्कों से सृजनात्मक आदान-प्रदान के द्वारा विश्व स्तर पर कला-प्रोन्नति के अवसर बढ़े।”(2) जिसने कलाकारों को नवीन सृजन हेतु प्रेरित किया। समकालीन कलाकारों ने अभिव्यक्ति हेतु दृश्यकला के रचनात्मक माध्यमों व प्रवृत्तियों की खोज द्वारा नये आयाम स्थापित किए, जो एक कलाकार को समाज में अपने विचारों को सृजनात्मक ढंग से प्रस्तुत करने हेतु पहले की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं।

इंटरनेट व सोशल मीडिया के आगमन के साथ ही कला की पहचान पूर्णत: परिवर्तित हो गई है। उत्तर-आधुनिक काल में कलाकृतियों के विभिन्न माध्यमों के बीच का भेद समाप्त होता जा रहा है। आज चित्रकला, मूर्तिकला, ग्राफिक कला अलग-अलग ना होकर एक की कलाकृति का अंग बनते जा रहे हैं, इन तीनों के कलात्मक तत्वों का समिश्रण हो गया है जिसे वर्गीकृत करना मुश्किल है कि ये चित्र, मूर्ति, संगीत में से किस वर्ग में आती है। दृश्यकला में इस प्रकार के विचारों का उद्भव सर्वप्रथम पश्चिमी देशों में हुआ।

भारतीय दृश्यकला में इस तरह के प्रयोगों की व्यापक स्तर पर शुरुआत 90 के दशक में हुई। इस समय वैश्वीकरण तथा अंतरराष्ट्रीय क्रियाकलापों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण का दौर आया जिससे भारत में बाजारीकरण व पूंजीवादी विचारों का प्रादुर्भाव हुआ। उससे प्रभावित होकर भारतीय कलाकार बाजारोन्मुख होने लगा तथा वैश्विक कला से प्रेरणा ग्रहण करना प्रारंभ किया। इस समय विश्व कला पर अमेरिकन आधुनिक कला का प्रभुत्व था, जहां संस्थापन कला का विशेष महत्व था। इससे प्रभावित कुछ भारतीय कलाकारों ने इस दिशा में प्रयोग किये। इस समय बदलती परिस्थितियों, नये संग्रहालयों, क्यूरेटरों, आर्ट गैलरीज तथा खोज(दिल्ली1997), ओपन सर्कल(मुम्बई1998) जैसी नवीन संस्थाओं व ऑक्शन हाउसेज आदि ने इन्हें अत्यधिक प्रोत्साहित किया। विश्व स्तर पर होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन, प्रदर्शनीयों तथा बिनाले जैसे पेरिस बिनाले, टोकियो बिनाले, वेनिस बिनाले, त्रैवार्षिक-भारत आदि ने भारतीय कलाकारों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की कलात्मक समझ पैदा की।

‍भारत में यह उत्तर-आधुनिकता की शुरुआत थी। कलाकार समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों, विकृतियों तथा कुरीतियों को इन प्रयोगों के माध्यम से कलात्मक ढंग से प्रदर्शित करने का प्रयत्न कर रहा है, जिसका उदाहरण नई दिल्ली में विनीत कुमार द्वारा सृजित ‘ए पिक्चर फ्रेम्ड’ है जिसमें दिल्ली की लाजपत नगर स्थित रिंग रोड पर फैले कूड़े-कचरे के चारों ओर गेंदे व गुलदौरी के फूलों का फ्रेम बनाकर कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जिससे बदबूदार कूड़े से भरा क्षेत्र भी सजीव हो उठा। उन्होंने फैले इस कचरे के साथ-साथ अंतराल का प्रत्यक्षीकरण कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, फलस्वरुप नगर निगम का ध्यान तो इधर केंद्रित हुआ ही साथ ही इस तरह के नए कलात्मक प्रयोगों को भी मान्यता प्राप्त हुई। इस प्रकार उन्होंने कला व समाज के अंतर्संबंधों को नए अर्थ में प्रस्तुत किया। यह एक नवीन प्रकार का सौंदर्यात्मक बोध था, जिसे पर्यावरण कला के अंतर्गत सम्मिलित किया जा सकता है, जो भारतीय उतर आधुनिक कला को परिभाषित करने में सक्षम है।

 आज भारतीय समकालीन कला कांसेप्चुअल आर्ट, इंस्टॉलेशन, परफॉर्मिंग आर्ट, हैपनिंग आर्ट, कंस्ट्रक्शन आर्ट, ग्राफिक आर्ट, डिजिटल आर्ट, मिक्स मीडिया, वीडियो आर्ट, ऑडियो आर्ट, अर्थ आर्ट, पर्यावरणीय कला, स्ट्रीट आर्ट, इंटरएक्टिव आर्ट जैसे विभिन्न कला प्रवृत्तियों के रूप में विकसित हो रही है, जिससे भारतीय समकालीन दृश्यकला का परिदृश्य बदल गया हैं। “कला के इस स्वरूप ने पारंपरिक रूप से मुक्ति पा ली है।”(3) यह प्रवृतियां सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय और व्यक्तिगत विषयों पर अपनी बात कहने के लिए विविध रंग-रूपों, और विचित्र संरचनाओं का प्रयोग करती है। इन प्रयोगवादी शैलियों में संचार की भावना, संघर्ष, समाधान और अस्तित्व के विचार व्यक्त किए जाते हैं। वर्तमान में भारतीय कला में प्रचलित प्रमुख कला प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।

संस्थापन कला -

‍संस्थापन चित्र, मूर्ति, स्थापत्य, फोटोग्राफी, प्रिंटमेकिंग, ध्वनि, संगीत आदि का सम्मिश्रण है। “कलाकार किसी जगह विशेष में कला का एक माहौल पैदा करता है। इस माहौल में उसकी खुद की हिस्सेदारी भी हो सकती है, वह पहले से मौजूद सामग्री का भी नए ढंग से इस्तेमाल कर सकता है, और उसमें वह जोड़ या घटा भी सकता है।”(4) आसपास का परिवेश इसका अभिन्न अंग होता है। संस्थापन में कला-अंतराल के परंपरागत सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए वर्चुअल स्पेस की बजाय एक्चुअल स्पेस को ही अंतराल के तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। कलाकार किसी स्थान पर उपयोगी व अनुपयोगी सामग्री, बेकार पड़े कूड़े-कबाड के संकलन से अपनी कल्पनाशीलता द्वारा रचनात्मक संयोजन करते हुए अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है, जिसका एक विशिष्ट अर्थ प्रकट होता है। इसमें वातावरण व कलाकार के साथ-साथ दर्शकों की भी अहम भूमिका होती है। कभी-कभी तो वह संस्थापन का अभिन्न अंग होता है। इंस्टॉलेशन दर्शन और विज्ञान का मिश्रण है, भारत में मेले, पर्व, अनुष्ठान, दुर्गा विसर्जन आदि संस्थापन के ही उदाहरण हैं।

‍संस्थापन द्वारा दृश्यात्मक अनुभव के साथ-साथ श्रव्य, स्पर्श, गंध आदि का ऐन्द्रिक अनुभव भी किया जा सकता है। मूर्तिशिल्प से इसका निकटतम सम्बन्ध होता है। यह एक वैचारिक कला है जिसमें भौतिक सौंदर्य की अपेक्षा आंतरिक विचारों तथा दृश्य के संपूर्ण प्रभाव के साथ-साथ संप्रेषण को अधिक महत्व दिया जाता है। कलाकार प्रचलित मान्यताओं व धारणाओं का त्याग कर आंतरिक संरचना व वैचारिक सौंदर्य को संस्थापन कला के माध्यम से प्रदर्शित करता है। यह अस्थाई तथा अल्पकालिक कला है, इसके मूल स्थान से हटाने पर इसका भौतिक रूप नष्ट हो जाता है परंतु फोटोग्राफी, वीडियो आदि के माध्यम से इसकी वैचारिक अभिव्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है। आजकल संस्थापन में ऑडियो, वीडियो, कम्प्यूटर, इंटरनेट, हैप्पनिंग आर्ट, परफॉर्मिंग आर्ट, बॉडीआर्ट, आदि नवीन माध्यमों का भी प्रयोग होने लगा है।

संस्थापन कला के प्रारंभिक चिन्ह विश्वयुद्ध के बाद उपजी दादावादी कला-प्रवृत्ति के कलाकार मार्शल दुशां द्वारा फव्वारा शीर्षक से प्रदर्शित मूत्रपोट में दृष्टिगोचर होते हैं। उक्त प्रयोगों के फलस्वरुप संस्थापन कला का स्वतंत्र अस्तित्व विकसित हुआ। इसके विकास में क्यूरेटेड प्रदर्शनीयों तथा आधुनिक कला-बाजार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। “भारत में प्रमुख संस्थापन कला के प्रवर्तक पहले से ही प्रसिद्ध कलाकार थे जैसे विवान सुंदरम, नवजोत, अल्ताफ, नलिनी मालिनी, रमन्ना हुसैन आदि। जो साठ-सत्तर-अस्सी के दशक से ही सक्रिय थे।”(5) 1963 में के.एच.आरा ने खाली बोर्ड पर छेद कर उसके नीचे मिर्जा गालिब का शेर लिखकर उसे अपनी एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया। 1990 में एम.एफ. हुसैन ने श्रीधरणी आर्ट गैलरी में ‘थिएटर ऑफ दी एब्सर्ड’ का प्रदर्शन किया, 1991 में जहांगीर आर्ट गैलरी में अखबार की रद्दी बिखेर कर खाली सफेद कपड़े को ‘श्वेतांबरी’ शीर्षक से प्रदर्शित किया। जिसने दिल्ली व मुंबई के कलात्मक परिदृश्य में हलचल पैदा की। 1992 में उनके चित्र सरस्वती में अश्लीलता तथा धार्मिक भावनाओं को भड़काने के आरोपों से आहत होकर कैनवस को पोतकर कर उन्हें विरोध स्वरूप ‘विसर्जन’ नाम से प्रदर्शित किया। इन सभी विचित्र प्रयोगों में संस्थापन कला के प्रारंभिक लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं। 1992 में विवान सुंदरम ने किरण नादर संग्रहालय में ‘रिवरस्कैप: ए रिवर कैरिज इट्स पास्ट’ शीर्षक से एक संस्थापन का निर्माण किया तथा चित्र व मूर्ति के भेद को समाप्त कर एक नवीन मीडिया की स्थापना की। 1993 में उन्होंने ‘अयोध्या कांड’ से प्रेरित होकर आईफेक्स, दिल्ली में ‘मेमोरियल’ शीर्षक से इंस्टॉलेशन का निर्माण कर संप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाई। “2000 तक आते-आते कुछ मीडिया अभ्यासकारों द्वारा ही संस्थापन किए गये। उसमें ‘रक्स मीडिया कलेक्टिव प्रमुख है।”(6) 

विवान सुंदरम, रिवरस्कैप: ए रिवर कैरिज इट्स पास्ट,1992


 वर्तमान भारतीय कला-परिदृश्य में संस्थापन का चलन बढ़ता जा रहा है। देश में आयोजित होने वाली राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कला-प्रदर्शनियों, इंडिया आर्ट-फेयर जैसे आयोजनों में संस्थापन कला की संख्या सर्वाधिक रहती है। इन्हें चित्र-मूर्ति से अधिक महत्व दिया जाता है। ऐसे आयोजनों में दर्शकों व निर्णायकों का ध्यान संस्थापन कला की तरफ अधिक केंद्रित रहता है। संस्थापन कला के निर्माण व प्रदर्शन की समस्याओं तथा कला-बाजार में अनेक जोखिमों के बाद भी युवा कलाकार इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं। आज कलाकारों के लिए “सृजन की प्रक्रिया ही कृति का केंद्रीय विषय हो चुकी है।”(7) दैनिक जीवन में प्रयुक्त की जाने वाली सामान्य वस्तुओं को भी कलाकार कला-सामग्री के रूप में प्रयोग करने लगे हैं। 

‍संस्थापन कला से प्रेरित कलाकारों ने हैप्पनिंग्स आर्ट, पर्यावरणीय आर्ट, वीडियो आर्ट, असेंबलेज आर्ट, ग्रुप मेटेरियल आर्ट, पब्लिक आर्ट, साईट-स्पेसिफिक आर्ट आदि नवीन माध्यमों की खोज कर ली है तथा इनका एक दूसरे के साथ समन्वय कर नवीन कला सृजन कर रहे हैं। “इन प्रयोगों का एक अच्छा पक्ष यह उजागर हुआ कि दर्शकों और कला-समीक्षकों की ‘टाईप्ड’ हो रही रुचि को कुछ नया देखने का अभ्यस्त तरीका रास आने लगा जो आगे चलकर ‘सार्थक’ रंग और आकार में नित नवीन होता जा रहा है।”(8) आज कैनवास चित्रण तथा मूर्तिशिल्प भी परंपरागतता की श्रेणी में आ गए हैं। नए कलाकार इन्हें भूलने का प्रयास कर रहे हैं।  

भारतीय संस्थापन कलाकारों में विवान सुंदरम, नलिनी मालिनी, वेद नायर, मदनलाल, गोगी सरोजपाल, सुबोध गुप्ता, सुधीर परवर्धन, अर्पिता सिंह, अतुल डोडिया, अनीश कपूर, नलिनी शेख, भारती खेर, देवीदास खत्री, विद्यासागर उपाध्याय, नवनीत कुमार मिश्र आदि का नाम उल्लेखनीय है जो वर्तमान में विभिन्न माध्यमों तथा प्रवृत्तियों में आधुनिक विचारों का नए-नए प्रकार से संयोजन कर रहे हैं।

न्यू मीडिया आर्ट -

‍कला क्षेत्र में कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर एवं इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग ने समकालीन कला के विकास हेतु न्यू मीडिया आर्ट जैसे अनेक विकल्प प्रदान किए हैं, वर्तमान शताब्दी में सूचना प्रौद्योगिकी के रूप में एक नवीन कलात्मक तत्व की खोज हुई, जिसके फलस्वरुप कला में एनिमेशन, कार्टून, वीएफएक्स, डिजिटल आर्ट जैसे कई नवीन माध्यमों का विकास हो रहा है। आज युवा कलाकार चित्र-मूर्ति के अतिरिक्त उपर्युक्त माध्यमों द्वारा भी अपनी भावनाओं की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति करने में सक्षम होता जा रहा है। वह विभिन्न काल्पनिक रूपों के सर्जन, उनमें संशोधन तथा संपादन आदि के लिए कंप्यूटर उपकरण तथा इंटरनेट का प्रयोग करने लगा है। “कंप्यूटर रंगों के इस्तेमाल से बनाए गए चित्रों ने कला जगत के लिए नई संभावनाएं पैदा की है।”(9)

‍ 21 वीं शताब्दी में नए माध्यमों की खोज की और अग्रसर कलाकारों ने इंटरनेट तथा कंप्यूटर की चाक्षुष संभावनाओं को देखते हुए इसका प्रयोग अपने कला सृजन में विकल्प के तौर पर करना शुरू किया। इसकी रचना में फिल्म, सॉफ्टवेयर, एप्लीकेशन, वेब ब्राउजर, ऑपरेटिंग सिस्टम आदि तकनीकों का भी इस्तेमाल होता है। “फोटोग्राफी, कंप्यूटर, लैपटॉप, चिप, मेमोरी-कार्ड, मदरबोर्ड, कार्ड रीडर आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने कला की सीमाओं को असीम में बदल दिया है।”(10) न्यू मीडिया आर्ट में वर्चुअल आर्ट, डिजिटल आर्ट, कंप्यूटर आर्ट, इंटरनेट आर्ट, ऑडियो आर्ट आदि मिश्रित माध्यमों का भी प्रयोग किया जाने लगा है।

‍वीडियो आर्ट में श्रव्य व दृश्य छवियों का संकलन कर उन्हें वीडियो रिकॉर्डिंग तथा टीवी आदि के माध्यम से चलचित्रों के रूप में कलात्मक तरीके से प्रदर्शित किया जाता है। इसे वीडियो इंस्टॉलेशन भी कहा जाता है। इन्हें सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं किया जाता। कोरियाई वीडियो कलाकार जून पाईक का कथन है कि– “जिस तरह से कोलाज तकनीक ने तेलरंग की जगह ले ली है उसी तरह से कैथोड रे ट्यूब ने कैनवास की जगह ले लेगी।”(11) भारत में वीडियो आर्ट की उचित संभावनाओं को देखते हुए तथा उसके सरंक्षण हेतु दिल्ली के एपीजी टेक्नो पार्क में 25 फरवरी 2001 को एपीजी मीडिया गैलरी की स्थापना की गई।

‍वीडियो आर्ट की तरह ही इंटरनेट या नेट आर्ट होती है, जिसमें इंटरनेट की मदद से कलात्मक प्रस्तुति दी जाती है। इसका प्रदर्शन वेबसाइट के माध्यम से होता है। इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न चित्रित या चलचित्रित सामग्रियों का संकलन कर उन्हें संकलन, पुनःसंकलन, अद्यतन, संपादन तथा कांट-छांट भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त VFX, विभिन्न सॉफ्टवेयर, एप्लीकेशन आदि की मदद से विभिन्न प्रभाव पैदा कर सकते हैं। इसका प्रदर्शन विस्तृत क्षेत्र में किया जा सकता है जिसमें सोशल मीडिया नेटवर्क की अहम भूमिका होती है। 

‍डिजिटल मीडिया और उपकरणों के माध्यम से भी कला सृजन किया जाता है जिसे डिजिटल आर्ट कहते है। इसमें डिजिटल टूल्स और सॉफ्टवेयर की मदद से ड्राइंग, पेंटिंग, ग्राफिक डिजाइन, इलेस्ट्रेशन, विज्ञापन, फोटोग्राफ, मुद्रण, कार्टून मेकिंग, एनिमेशन तथा अन्य कलात्मक रूपों का सृजन किया जाता है, यह डिजिटल कॉम्प्यूटिंग तकनीकों का उपयोग करके सृजनात्मकता को व्यक्त करने का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है व कलाकारों को अपनी स्केचेस, पेंटिंग्स, या ड्राइंग्स को डिजिटल मीडिया में निर्मित करने तथा उन्हें प्रदर्शित करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, यह विभिन्न टूल्स और फ़िल्टर्स का उपयोग कर अपनी रचनाओं को संपादित करने, आर्टिस्टिक एफ़ेक्ट्स जोड़ने जैसी कई सुविधाएं भी प्रदान करता है। कलाकार डिजिटल सृजन करने के लिए विभिन्न उपकरणों और सॉफ़्टवेयर का उपयोग करता है, जैसे कि ग्राफिक्स टैबलेट, डिजिटल स्केचिंग पैड, डिजिटल पेंसिल और डिजिटल पेंटिंग सॉफ़्टवेयर- Adobe Photoshop, Corel Painter, Procreate आदि। 3D मॉडलिंग सॉफ़्टवेयर का उपयोग करके त्रिआयामी कलासृजन भी कर सकता है। डिजिटल आर्ट का उपयोग वीडियो गेम डिज़ाइन में भी होता है, जहाँ आर्टिस्ट्स वीडियो गेम्स के करैक्टर्स, वातावरण, और ग्राफ़िक्स को डिजिटल रूप से डिज़ाइन करते हैं। इसे ऑनलाइन, ऑफलाइन या आउटपुट के द्वारा प्रदर्शित कर सकते हैं। डिजिटल आर्ट की सहायता से डिजिटल इंस्टॉलेशन का निर्माण भी किया जा सकता है। भारत में इस विद्या में काम करने वाले कलाकारों में सुबोध गुप्ता, विवान सुंदरम, शीला गुप्ता, शकुंतला कुलकर्णी, सुब्बा घोष, नटराज शर्मा, सोनिया खुराना आदि है।

लैंड आर्ट -

कलाकार प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहता है। उन्हें प्रकृति के विभिन्न रूपों में सौन्दर्यात्मक अनुभव होता है। सूर्योदय, सूर्यास्त या हवाओ के आभास को एक कलाकार अधिक अच्छे प्रकार से महसूस करता है तथा उसकी सौन्दर्यात्मक ढंग से व्याख्या कर सकता है। बहुत से कलाकार प्राकृतिक तत्वों, रूपों, स्थलों आदि से प्रेरणा ग्रहण कर रचनात्मक कार्य करते हैं। पर्यावरण के प्रति कलाकार की अभिरुचि हमें दृश्य-चित्रण के रूप में प्रारंभ से ही दिखाई देती है। प्राचीन काल से ही कलाकार प्रकृति या पर्यावरण का चित्रण अपने भावों तथा विषय की आवश्यकता के अनुरूप करता आया है। आधुनिक समय में नवीन विचारधारा ने इसमें अनेक प्रयोग करने के लिए कलाकारों को प्रोत्साहित किया तथा कलाकार भू-दृश्य चित्रण से आगे निकलकर अनेक रचनात्मक रूपों का सृजन करने लगा है जैसे एनवायरमेंट आर्ट, पब्लिक आर्ट, लैंड आर्ट आदि।

‍कभी-कभी कलाकार प्राकृतिक दृश्यों व सामग्रियों जैसे बर्फ, पानी, पत्थर, चट्टाने, पेड़-पौधे, प्रकाश-किरणों, धूप-छाया, अंधकार आदि के सहारे रचनात्मक तरीके से विशाल सृजन करता है जो लैंड आर्ट की श्रेणी में आता है। ऐसे प्रदर्शनों का आयोजन प्राकृतिक विस्तृत स्थलों जैसे जंगल, रेगिस्तान, समुद्र-किनारे, नदी-किनारे, मैदानों-पहाड़ों आदि में किया जाता है। ऐसी कलाकृतियां थोड़े समय तक ही उपलब्ध रहती है। कुछ लैंड आर्ट लंबे समय तक स्थाई रहते हैं तथा पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित होते हैं। चंडीगढ़ में नेकचंद द्वारा निर्मित रॉक-गार्डन इसका प्रसिद्ध उदाहरण है। आजकल भारत में इस प्रकार के मॉन्यूमेंटल लैंडस्केप पर विभिन्न प्रयोग किए जा रहे हैं। विशाल भवनों, कार्यालयों, मॉल, सिनेमा-हॉल आदि को भी एक विशेष डिजाइन से तैयार किए जाते हैं जो लैंड आर्ट का नया रूप है, जिसमें अपनी व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दर्शकों व ग्राहकों को अपनी और आकर्षित करने की क्षमता होती है। इन विशाल बिल्डिंग्स के द्वारा भी कलाकार अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करने लगा है। जयपुर में स्थित WTP मॉल इसका प्रमुख उदाहरण है। लैंड आर्ट में चित्रकला, मूर्तिकला व स्थापत्यकला माध्यमों का एक साथ समन्वय देखने को मिलता है। भारत में लैंड आर्ट का इतिहास काफी प्राचीन है, अजंता, एलोरा, एलिफेंटा जैसे विशाल एकाश्म मंदिरों को भी लैण्ड आर्ट की श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है, परंतु आधुनिक लैण्ड आर्ट समकालीन विचारधारा तथा कंसेप्चुअल आर्ट, मिनिमल आर्ट, मॉन्यूमेंट आर्ट, संस्थापन कला आदि से प्रभावित होता है। इनका आकार क्यूबिस्टिक या अमूर्त प्रकार का हो सकता है। लैंड आर्ट, पब्लिक आर्ट तथा इन्वायरमेंटल आर्ट में साम्यता प्रदर्शित होती है।

हैप्पनिंग आर्ट -

हैप्पनिंग्स आर्ट एक तरह की परफॉर्मेंस होती है, जो किसी भी सार्वजनिक स्थानों जैसे होटलो, पार्कों, रास्तों, आदि पर प्रदर्शित की जा सकती है। जिसमें दर्शकों की भागीदारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। कलाकार अपने विचारों को योजनाबद्ध व अनुशासनात्मक ढंग से विभिन्न क्रियाकलापों के द्वारा अभिव्यक्ति करता है, इसके अन्तर्गत कलाकार के सामान्य क्रियाकलापों का भी कलात्मक प्रयोग कर लिया जाता है। “हैपनिंग इस तथ्य के साथ परिभाषित होती है कि यह मौलिक है, एक विशेष समय में लिया गया अनुभव है, जो दर्शकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है। उसे न तो खरीदा जा सकता है, न घर लाया जा सकता है, जिससे प्रत्येक हैपनिंग कलाकार को एक निजत्व का अनुभव होता है।”(12) इसमें किसी कथा या कहानी का नहीं, अपितु कलाकार के विचारों तथा संवेदनाओं का रचनात्मक ढंग से प्रदर्शन होता है, जिसमें कलाकार दर्शकों को स्वयं से जोड़ने की कोशिश करता है। हैप्पनिंग आर्ट का मुख्य उद्देश्य कला को जीवंत बनाना तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में जागरूकता पैदा करना है।

एनवायरमेंट आर्ट -

‍एनवायरनमेंट आर्ट में सृजन, जीवन तथा प्रकृति से जुड़ा रहता है। कला-क्षेत्र व जीवन-क्षेत्र एक हो जाते हैं। इसमें अंतराल को क्रियाशील तथा संगठित कर उसका प्रत्यक्षीकरण किया जाता है। इस विद्या द्वारा कलाकार नीरस व निर्जीव पड़े अंतराल को अपने कलात्मक कौशल द्वारा सक्रिय कर देता है जिससे दर्शकों को आनंदित होता है। इन्वायरनमेंट में दर्शक, दृश्यमान वस्तुओं को दूर से नहीं देखता बल्कि उनके अंदर प्रवेश करने का प्रयास करता है जिससे उन्हें एक अलग प्रकार की अनुभूति होती है। पर्यावरण कला का मुख्य उद्देश्य परिवेश को ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए समाज में चेतना का विकास करना है। इसी प्रकार के एनवायरनमेंट आर्ट वर्क का ताजा उदाहरण विनीत कुमार द्वारा रचित ‘ए पिक्चर फ्रेंम्ड’ है।

‍सभी कलाएं एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई है। परफॉर्मेंस आर्ट, हैप्पनींग्स आर्ट तथा इसी तरह लैंड आर्ट, एनवायरनमेंट आर्ट तथा पब्लिक आर्ट के बीच के भेद को आम दर्शक समझ नहीं पाता है, कभी-कभी वह हैप्पनिंग्स आर्ट को परफॉर्मेंस आर्ट या लैंड आर्ट को इन्वायरमेंट आर्ट समझने लगता है। इसके बीच की सीमा रेखा कभी-कभी अति सूक्ष्मरूप से उभर पाती है। “निश्चय ही आज के यह प्रयोग हमारे परिचित कलात्मक गतिविधियों से भिन्न हैं और इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि दृश्य भाषा में यह एक नई यात्रा है।”(13)

‍आज कला एवं शिल्प का महत्व घटता जा रहा है तथा विचार अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, जिसमें रचनात्मकता तथा चित्रात्मक कौशल की बजाय तकनीकी कौशल को अधिक महत्व दिया जाता है। सम्प्रेषण सीमित हो गया है। “कला की सृजनक्रिया और तकनीक में साम्य नहीं है। तकनीक अन्तर्मन अनुभवों और संवेदनशीलता को उजागर करने का साधन तो हो सकती है परंतु कला का साध्य नहीं।”(14) न्यू मीडिया के आगमन से वर्तमान भारतीय दृश्यकला में निरर्थक प्रयोगों की संख्या अधिक होने लगी है तथा कुछ कलाकार अपने निरर्थक प्रयोगों को ही इंस्टॉलेशन, लैंड आर्ट अधिक नाम देकर कलाकृति के तौर पर प्रदर्शित कर रहे हैं, जिन्हें आर्ट क्यूरेटर, कला दीर्घाएं आदि अर्थवान साबित कर महत्वपूर्ण कला के रूप में स्थापित कर रही है। इनकी यह चमक-दमक युवा कलाकारों को भ्रमित करती है, आज भारतीय कला-जगत, देश के महानगरीय बाजारों तक सीमित होने लगा है। आज के इन नये-नये माध्यमों में सर्जनशील कलाकार ‘कला के अंत’ का दावा करने लगे हैं, उनका विचार है कि परंपरागत कैनवास पेंटिंग तथा मूर्तिकला की अपेक्षा इंस्टॉलेशन आर्ट, न्यू मीडिया आर्ट आदि नवीन माध्यमों द्वारा भावों का संप्रेषण अधिक बेहतर तरीके से किया जा सकता है। भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में इस प्रकार का कला विरोधी माहौल बनता जा रहा है, इसी का परिणाम है कि डक्ट-टेप से दीवार पर चिपके केले की कीमत करोड़ों, अरबों में पहुंच जाती है जिसमें कलात्मक कौशल का पूर्णतः अभाव है। वह मूल्यवान है क्योंकि सौभाग्यवश वह किसी महान दीर्घा में चिपका है, जिसकी व्याख्या प्रसिद्ध समीक्षकों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर की गई थी।

“आज के भौतिक युग में भावनाओं का महत्व बहुत कम रह गया है तथापि कला हमारी भावनाओं से जुड़ी हुई वस्तु है, अतः भावनाओं को नहीं छोड़ सकते। कला आदमी के दैनंदिन जीवन में एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करती है। इसे यदि फैशन से जुड़ने दिया गया तो इसकी मौलिकता और सृजनात्मकता दोनों को ही क्षति होगी।”(15)

निष्कर्ष : आधुनिक कला परिदृश्य में हो रहे नवीन प्रयोगों ने एक ओर जहां कलाकारों को अपने विचारों की अभिव्यक्ति हेतु अधिक स्वतंत्रता प्रदान की है, तथा नवीन कला सिद्धांतों की स्थापना के लिए नये अवसर प्रदान किये है वहीं इसके कुछ नकारात्मक पक्ष भी है। आज कलाकार अभिव्यक्ति के लिए इतना स्वतंत्र हो गया है कि वह कलाकृति के तौर पर कुछ भी प्रस्तुत करने लगा है। आर्ट-गैलरी या कला बाजार इन्हें प्रश्रय देकर महान कलाकृति साबित कर देते हैं। भविष्य की कला शायद इसी दिशा में अपना मार्ग ढूंढ रही है। परंतु इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि आम दर्शक तक कलाकार अपने भावों के संप्रेषण में असफल रहता है, नव प्रयोगों द्वारा कला का अर्थ इतना क्लिष्ट और अस्पष्ट हो गया है कि कला-विद्वान या विशेषज्ञ ही इसे समझ सकता है तथा इसका रसास्वादन कर सकता है। आज कलाकार प्राचीन सिद्धांतों को छोड़कर तो आगे निकल गया है परंतु नवीन सिद्धांतों की स्थापना नहीं कर पा रहा है। आम प्रेक्षक के मस्तिष्क में हमेशा यही प्रश्न रहता है कि इसका तात्पर्य क्या है? क्या बनाया है? इसे वही समझ सकता है जो इस समुदाय का हिस्सा हो या जिसे कलात्मकता का पूर्व ज्ञान हो, सामान्य दर्शक इसे समझने में स्वयं को असहाय समझकर इसके प्रति अरुचि व्यक्त करने लगा है। अपने प्रश्न का यह उत्तर देकर कि “इसे एक कलाकार ही समझ सकता है” स्वयं को संतुष्ट कर लेता है। आम दर्शक के मन में धारणा बन गई है कि जो उटपटांग हो या जो किसी के समझ में ना आए वही आधुनिक कला है।

सन्दर्भ :

1-अवधेश अमन : ‘समकालीनता के नए अर्थ’, समकालीन कला (अंक-17), मई, 1996, ललित कला अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-15
2-सुधाकर शर्मा : ‘संपादकिय’, समकालीन कला (अंक-28), ललित कला अकादमी, दिल्ली, नवम्बर, 2005-फरवरी, 2006, पृष्ठ संख्या-04
3-प्राणनाथ मागो : भारत की समकालीन कला–एक परिप्रेक्ष्य (अंग्रेजी से अनुवाद : सौमित्र मोहन), नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, तृतीय संस्करण, 2012, पृष्ठ संख्या-127 
4-विनोद भारद्वाज : ‘समकालीन भारतीय कला के नए आयाम’, बृहद आधुनिक कला-कोश (विनोद भारद्वाज), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ संख्या-238 
5-कृष्णा महावर : भारतीय संस्थापन कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2020, पृष्ठ संख्या-73,74 
6-कृष्णा महावर : भारतीय संस्थापन कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2020, पृष्ठ संख्या-73,74 
7- प्राणनाथ मागो : भारत की समकालीन कला–एक परिप्रेक्ष्य (अंग्रेजी से अनुवाद : सौमित्र मोहन), नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, तृतीय संस्करण, 2012, पृष्ठ संख्या-127 
8-उदय प्रकाश : ‘10वीं त्रिवार्षिक भारत अतीत से विचलन और अलगाव की चेष्टाएं’, समकालीन कला (अंक-20), अक्टूबर, 2001, ललित कला अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-43
9-कुमार अनुपम : ‘संस्थापन कला का संभावना परिदृश्य’, समकालीन कला (अंक-49), 2016 ललित कला अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-76
10- सूर्यनाथ सिंह : ‘10वीं त्रैवार्षिक भारत : एक उपलब्धि’, समकालीन कला (अंक-20), अक्टूबर, 2001, ललित कला अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-47
11-सुकदेव श्रोत्रीय : ‘कला के जीवित रहने की चुनौती’, समकालीन कला (अंक-46,47), ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ संख्या-58,59
12-विनोद भारद्वाज : ‘पुस्तक चर्चा (वीडियो  आर्ट)’, समकालीन कला (अंक-26), ललित कला अकादमी, दिल्ली, मार्च-जून, 2005, पृष्ठ संख्या-34
13-कृष्णा महावर : न्यू आर्ट ट्रेंड्स, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 2015, पृष्ठ संख्या-34
14-आनंद दासगुप्ता : ‘कला क्षेत्र में प्रयोग एवं चुनौतियां’, समकालीन कला (अंक-21), ललित कला अकादमी दिल्ली, फरवरी,मई, 2002, पृष्ठ संख्या-42
15-राजेश कुमार व्यास : भारतीय कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, द्वितीय संस्करण, 2020, पृष्ठ संख्या-260 
16-प्रेमचन्द्र गोस्वामी : ‘समसामयिक कला की संभावनाएं’, समसामयिक भारतीय कला की संभावनाएं(आर. बी. गौतम), ललित कला अकादमी, जयपुर, 1991, पृष्ठ संख्या-26

दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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