शोध सार : उत्तर प्रदेश के कला क्षेत्र में क्षेत्रीय कला केंद्र, लखनऊ का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध है। यह केंद्र राज्य की पारंपरिक और समकालीन कलाओं को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए कार्य करता है। इसके माध्यम से विभिन्न कला रूपों जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, सेरामिक और साहित्य कला को बढ़ावा मिलता है। कला शिविर, प्रदर्शनी, और कार्यशालाओं के आयोजन से कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने और विकसित करने का अवसर मिलता है। केंद्र ने स्थानीय कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाने में भी अहम भूमिका निभाई है। यह पारंपरिक और आधुनिक कला के बीच संतुलन बनाए रखते हुए नई पीढ़ी के कलाकारों को प्रोत्साहित करता है।
बीज शब्द : कला, संस्कृति, उत्तर प्रदेश, चित्रकला, पारंपरिक कला, आधुनिक कला, विविधता
मूल आलेख : कला जीवन का अनुकरण मात्र ही नहीं बल्कि मौलिक सृजन, पूर्व निर्माण तथा सृष्टि का अभिन्न अंग है। प्रश्न उठता है कि कला विद्यार्थी ऐतिहासिक, सामाजिक, कलात्मक या दार्शनिक इत्यादि किसी भी पक्ष का अध्ययन करने के इच्छुक हैं तो वस्तुतः उन्हें समग्र रूप से समस्त पक्षों का अध्ययन कला इतिहास के विकास को जानने के लिए आवश्यक है। कला समाज का दर्पण है जिसमें कि सामाजिक गतिविधियों का प्रभाव स्वतः ही कला के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करता है।
रविन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार - मनुष्य कला के माध्यम से अपने आतंरिक अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करता है।
शास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि कला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ।
“यथा कला यथा सफ मध् शृण स नियमति”
कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में किया है।
“न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला”
अर्थात ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प तथा विद्या नहीं जो कला न हो। भरतमुनि ज्ञान, शिल्प और विद्या से अलग कला का क्या अभिप्राय ग्रहण करते हैं यह कहना कठिन है। अनुमान यही लगाया जा सकता है कि जो भरत के द्वारा प्रयुक्त कला शब्द है यह ललित कला के निकटतम है जो कि शिल्प शब्द शायद उपयोगी कला के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। हमारे यहाँ कला उन समस्त बाहुल्य क्रियाओं को कहा गया है जिसमें कलात्मक सौन्दर्यता व आकर्षण का भाव स्वतः ही परिलक्षित होता है।(1)
उत्तर प्रदेश में कला का आरंभ सही मायने में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात प्रारंभ हुआ। कला संस्थानों की स्थापना से लेकर व्यक्तिगत स्टूडियो तक खोले गये। हालाँकि इन कलात्मक क्षेत्रो॔ में उत्तर प्रदेश बहुत आगे रहा है। प्रारंभ से ही उत्तर प्रदेश समतल भूमि तथा बहुल जनसंख्या का क्षेत्र होने के कारण से, यहाँ कि भूमि पर अंग्रेजों ने विकास पर अत्यधिक बल दिया। प्रत्येक क्षेत्र पर जब संसाधन बढ़ रहे थे तो कला को भी बढ़ावा दिया गया। लखनऊ में स्थापित शिल्प कला महाविद्यालय यहाँ का अति प्राचीन कला संस्थान है, जहाँ पर अंग्रेजी पद्धति के अनुसार शिक्षा दी जाती थी। शोध से पता चला है कि चित्रकला के क्षेत्र में जितना यहाँ विकास हुआ है लगभग उतना ही कला के हर क्षेत्र में भी हुआ। हालाँकि यह प्रदेश भी इन माध्यमों को विकसित करने में कम नहीं रहा।(2) हमारे देश में तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन का उद्देश्य व्यवसाय करना ही था, इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सारी गतिविधियां संचालित की जाती थी जिसका गहरा प्रभाव हमारी कला और संस्कृति पर भी पड़ा। कला का व्यवसायीकरण करने के लिए अंग्रेजों ने भरसक प्रयास किये और कला संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों को इन्होने अपने संरक्षण में लेते हुए इस विधा को कला के रूप में भी विकसित करने की योजना बनाई।(3) उत्तर प्रदेश के कला संस्थानों ने भी अपनी महंती जिम्मेदारी निभाते हुए अनेकों कलाकारों के माध्यम से इस कला को पोषित किया। उत्तर प्रदेश के लखनऊ क्षेत्र में कुछ अंग्रेजी कलाकारों के द्वारा तैयार किये गये मूल चित्रों की कृतियों को लिथोग्राफ में परिवर्तित करके “सीज ऑफ लखनऊ” नामक एल्बम बना कर प्रकाशित किया, और इन कलाकृतियों को देश के संपूर्ण कलाकारों द्वारा सराहा गया, इस प्रकार कला की विधाओं में नए-नए शीर्षक व आयाम जुड़ते गये।(4)
इस प्रकार हमारी कला का निरंतर विस्तार होता रहा स्वतंत्रता के दौरान कलाकार, लेखक, कवि, पत्रकार तथा राजनेता को अपने-अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिये वृहद स्तर पर प्रिंटमीडिया का आश्रय लेना पड़ा। इसी भाँति कला खूब फली-फूली व छापाचित्र कला सम्बन्धी नवीन प्रयोग भी इसी अवधि में किये गये। इस माध्यम का स्वरूप हमें तत्कालीन छपी पत्र-पत्रिकाओं, संदेशों, पोस्टर, लेखन, पत्रों, समाचार पत्र इत्यादि में व्यापक रूप से दिखाई पड़ता है।(5) स्वतंत्रता पश्चात यह कला बड़ी तीव्रता से गतिशील व विकसित हुई। इसी समयावधि में असंख्य संस्थान जैसे ललित कला अकादमी इत्यादि संस्थाओं के रूप में देश के विभिन्न राज्यों के अंतर्गत उपशाखायें स्थापित की गई, जिनका उत्तरदायित्व तथा उद्देश्य हमारे समाज में कला को वर्तमान में भी प्रोत्साहित व जीवित रखना था। लेकिन इसके पूर्व बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के चित्रकार भी इस विधा में नयें प्रयोग कर रहे थे, जिसका लाभ देश के समस्त कलाकारों को हुआ, इसी तारतम्य में अनेकों कला समूहों की भी स्थापना की गई। आजादी के तुरंत बाद कलाकारों, कला चिंतकों तथा कला समीक्षकों द्वारा कला को सीमांकित करने के लिए एक बड़े संस्थान की आवश्यकता अनुभूत हुई। जिसके तत्वाधान में सरकार के सहयोग से ललित कला अकादमी की स्थापना की गई, जो संपूर्ण देश की कला विरासत को आगे बढ़ाने के कार्य में अहम भूमिका निभाने लगी।(6) इसी की उपशाखायें देश के विभिन्न प्रदेशों में खोली गई जिसमें क्षेत्रीय ललित कला अकादमी लखनऊ तथा क्षेत्रीय ललित कला अकादमी भुवनेश्वर इत्यादि को मिलाकर भारत में कुल 7 संस्थान खोले गये। इन संस्थानों का उद्देश्य ललित कला के राज्य स्तर पर हो रही समस्त गतिविधियों को शामिल करके कलाकारों को बढ़िया और कलात्मक वातावरण उपलब्ध कराना था, जिससे सभी कलाकार एक ऐसे संस्थान से जुड़कर रह सकें, जहाँ पर वे विषयक सम्बंधित सभी चित्रों का विश्लेषण तथा अध्ययन सुचारू रूप से कर सकें। इसके अतिरिक्त एक साथ बैठकर कला पर चर्चा एवं परिचर्चा, संगोष्ठी, कार्यशाला और अध्ययन गोष्ठी आदि बड़े कार्यों व समूह-गत प्रदर्शनियों का आयोजन भी सरलता से किया जाये। इसके अलावा इनके कुछ और भी उद्देश्य होते हैं, जिसमें समय-समय पर मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, कैटलॉग का प्रिंट एवं प्रसिद्ध कलाकारों के कुछ कार्यों का संग्रह भी शामिल होता है।(7) दरअसल हमारे क्षेत्रीय संस्थानों में शामिल उत्तर प्रदेश का लखनऊ क्षेत्र प्रदेश के विरासत के रूप में जाना जाता है। इसकी स्थापना के पश्चात क्षेत्रीय कलाकारों को इस संस्थान का बहुत बड़ा लाभ मिल रहा है, यह कलाकार यहाँ रहकर तथा अपने स्टूडियो में कला अभ्यास करते रहते हैं। इस संस्थान में अलग-अलग विभाग का निर्माण हुआ जो कि कलाकारों को सुविधायें प्रदान करने का कार्य करता है। इस संस्थान में कलाकार चित्रकला के अतिरिक्त कला की अन्य विधाओं जैसे छापाकला, सेरामिक्स एवं मूर्तिकला इत्यादि सम्मिलित हैं। यहाँ का छापाकला विभाग अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए कलाकारों की कृतियों को अम्लांकन, लिथोग्राफी तथा सैरीग्राफी के द्वारा प्रिंट निकालने की सुविधाएं प्रदान करता है। कुछ वरिष्ठ कला मर्मज्ञों में जय कृष्ण अग्रवाल, मनोहर लाल भुंगरा, गोपाल दत्त शर्मा, आर. के. सरोज कुमार सिंह, इत्यादि तथा युवा कलाकारों में प्रमोद बरुआ, सोनल वासनी, संजीव किशोर गौतम, राजेंद्र श्रीपद फुलारी इत्यादि कलाकार इस विधा को आगे बढ़ाने के साथ-साथ अपनी पहचान बनाने के भी अकांक्षी हैं। इसी तरह प्रदेश में स्थापित अन्य कला संस्थायें एवं विश्वविद्यालय भी समय-समय पर कलाकारों को अवसर प्रदान करने के साथ-साथ अध्ययनरत छात्र -छात्राओं को कला की बारीकियों से भी अवगत कराते रहते हैं।
किसी भी सभ्य समाज की जड़ें उसकी सृजनकर्ता में निहित होती है। ललित कला उस समाज की सृजनात्मक अभिव्यक्ति, उसकी सामाजिक आवश्यकताओं तथा मानवीय आकांक्षाओं का व्यक्त स्वरूप होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में गौरवशाली परंपराओं के परीक्षण के लिये ललित कला अकादमी की नींव पड़ी।(8) राष्ट्रीय ललित कला अकादमी का मुख्य केंद्र नई दिल्ली में है, यह केंद्र कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिये एक मजबूत आधार रहा है। ललित कला अकादमी का मुख्य उद्देश्य कलाकारों को एक मंच प्रदान करने के साथ-साथ उच्च स्तर के कलाकारों का मार्गदर्शन करने का था, परंतु सिर्फ ललित कला अकादमी के द्वारा यह कार्य संभव नहीं था। अतः इस संस्था के कार्य का विकेंद्रीकरण करने के लिये क्षेत्रीय ललित कला केंद्रों की स्थापना पर विचार किया गया। एक सर्वेक्षण के बाद भारत के कुछ चयनित स्थानों पर क्षेत्रीय केंद्रों की स्थापना की गई, उनमें चेन्नई, लखनऊ, कोलकाता, भुवनेश्वर, दिल्ली इत्यादि प्रमुख हैं। भारतीय समकालीन कला में उत्तर प्रदेश की भूमिका सदैव सराहनीय रही है। 20वीं सदी के आरंभ में जब हमारे देश में एक विशेष कला वातावरण का सृजन हो रहा था, तब तक उत्तर प्रदेश में लखनऊ देश के प्रमुख कला केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था।
1962 ई. में राज्य ललित कला अकादमी उत्तर प्रदेश की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिससे इस दौर में कला के क्षेत्र में अन्य प्रेरणादायक गतिविधियाँ भी शुरू होने लगी थी। राज्य ललित कला अकादमी और उत्तर प्रदेश शासन के सहयोग से केंद्रीय अकादमी ने लखनऊ में क्षेत्रीय कला केंद्र खोलने का निर्णय लिया। 11 फरवरी 1980 ई. में क्षेत्रीय ललित कला अकादमी लखनऊ केंद्र के भवन का शिलान्यास किया गया था।(9) जिसका शुभारम्भ श्री राम निवास मिर्धा के द्वारा हुआ था, जो कि उस समय के राज्यसभा उपाध्यक्ष एवं ललित कला अकादमी नई दिल्ली के अध्यक्ष भी थे। लखनऊ क्षेत्रीय केंद्र का शिलान्यास वहाँ के क्षेत्रीय कलाकारों के प्रयास द्वारा संभव हुआ, जिनमें मुख्य रूप से जय कृष्ण अग्रवाल, श्याम शर्मा, मनोहर लाल, कुसुम दास थी। लखनऊ का राष्ट्रीय कला केंद्र अलीगंज इलाके में स्थित है, इसके भवन के लिये आवंटित 25000 वर्ग फुट भूमि थी, जिसे बाद में बढ़ाकर 39507 वर्ग फुट किया गया था। इस केंद्र के निर्माण के पहले चरण का काम लगभग 1983 ई. की शुरुआत में ही पूरा हो गया था। पहले चरण में भवन के तल स्थल के हिस्से में छापाकला, मूर्तिकला और सेरामिक कार्यशाला के साथ एक कक्ष बनाया गया(10), जो कि एक बहुउद्देशीय विशाल कक्ष के रूप में निर्मित था, इसमें कार्यालय उपयोग के लिये दो-दो कमरें बनाये गये तथा जरूरत पड़ने पर इन कमरों का प्रयोग प्रदर्शनी के इस्तेमाल हेतु रखा गया। शुरुआत में तो यह प्रमुख केंद्र नई दिल्ली के अधीन था, परंतु बाद में क्षेत्रीय कला केंद्र के रूप में स्थापित हुआ। उत्तर प्रदेश के अलावा इस केंद्र की परिधि में आने वाले राज्यों में राजस्थान और गुजरात को भी शामिल किया गया ताकि यहाँ के कलाकार और कला प्रेमी भी विशेष रूप से इस केंद्र की योजनाओं से लाभान्वित हो सकें। आरम्भ में बिहार क्षेत्र को भी इसी केंद्र के अंतर्गत जोड़ा गया था, परंतु बाद में बिहार राज्य को इस केंद्र से हटाकर उड़ीसा केंद्र के अंतर्गत शामिल कर दिया गया। यह कला केंद्र वर्त्तमान में प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रहा है जैसे- पेंटिंग, सेरेमिक, मूर्तिकला, ग्राफिक इत्यादि क्षेत्रों में इसका अपना एक विशेष महत्व है। इस भवन के अंतर्गत ग्राफिक स्टूडियो का शुभारम्भ भी इस केंद्र की स्थापना दौरान ही हो गया था। इस केंद्र में ग्राफिक की शुरुआत में मुख्य योगदान अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त प्रिंट मेकर श्री जय कृष्णा अग्रवाल जी का है, साथ ही साथ समय- समय पर अनेकों ख्याति प्राप्त कलाकारों ने इस क्षेत्र में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1983 ई. में लखनऊ क्षेत्रीय कला केंद्र के प्रथम सचिव श्री सी. एल चुंग थे, जो कि दिल्ली के सांस्कृतिक सचिव अधिकारी थे जहाँ प्रथम एचिंग प्रेस दिल्ली से मंगवाई गई थी। इस केंद्र के प्रथम अधिवेशन में उपस्थित कलाकारों में श्री जय कृष्ण अग्रवाल, मनोहर लाल, गोपाल दत्त, आर. के सरोज कुमार सिंह थे। इस संस्था में कार्य करने वाले आरंभिक कलाकारों में श्रीमती किरण राठौड़ जो कि वर्तमान समय में केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका के पद पर सुशोभित कर रही हैं। श्री संदीप भाटिया, सावित्री पाल, गीता दास, इंदु रस्तोगी, श्रीमती सावित्री पाल ने भी इंडियन ट्रेडिशनल ह्यूमन टीचर का विशेष कार्य किया है। पारंपरिक चित्रों के दौरे के बाद जब कला की औपचारिक शिक्षा देश में प्रदान की जाने लगी तभी लाहौर, शांतिनिकेतन, मद्रास, दिल्ली और मुंबई की तरह ही लखनऊ को भी महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में पहचाना जाने लगा। 1911 ई. में गोमती तट पर स्थित कला एवं शिल्प महाविद्यालय की स्थापना हुई थी।
असित कुमार हालदार के 1925 ई. में कला एवं शिल्प महाविद्यालय लखनऊ के प्राचार्य के पद पर ग्रहण करने के उपरांत लखनऊ में एक नया कला वातावरण बनने लगा। इन्होंने वाश चित्रण पद्धति पर अधिक ध्यान दिया तथा सदैव यह चाहा कि लखनऊ की कला अपनी एक अलग पहचान बना सके। इन्ही कारणों से वर्तमान में लखनऊ का चित्रण बंगाल के चित्रण शैली से भिन्न देखा जा सकता है इसीलिए लखनऊ के चित्रण में रंगों की समृद्धि, शुद्धता एवं पारदर्शी रंगों के सुखद वातावरण में एक अलग आकर्षण दिखता है।(11) लखनऊ नगर निगम द्वारा आर्ट गैलरी का निर्माण भी एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। जिसे वहाँ के प्रतिष्ठित कलाकार प्रशांत सर और डी.डी. सरवाल ने एक प्रदर्शनी का आयोजन किया, जिसके लिये यह शर्त रखी गई कि खरीदी गई कलाकृति के साथ एक कृति भेंट करनी होगी और इस प्रकार कुल 92 कृतियाँ प्राप्त हुई। उस समय रितिका गैलरी के संग्रहाध्यक्ष के रूप में मदन लाल नागर को नियुक्त किया गया था। प्रशासनिक हेर-फेर के बाद उपयुक्त तथा अनुकूल वातावरण न पाकर मदन लाल नागर वहाँ से त्यागपत्र देकर कुछ समय पश्चात् ही कला एवं शिल्प महाविद्यालय में नियुक्त हुए। जब मदन लाल नागर नगर महापालिका की गैलरी से जुड़े थे तो उस समय और उसके पश्चात भी इस गैलरी एवं लखनऊ की कला व विकास के लिये उल्लेखनीय भूमिका निभाते रहे। इस महापालिका गैलरी के सन्दर्भ में एक दशक पहले का केवल एक और स्रोत भी मिलता है, जिससे कि हम लखनऊ के वरिष्ठ कलाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं का अनुमान लगा सकते हैं, जो कि टैगोर लाइब्रेरी इसी बड़े आंदोलन का हिस्सा है, जब कला-प्रेमियों की अपनी समृद्ध कला परंपरा को संजोने की एक ललक थी। 1940 ई. में डॉ. राधा कमल मुखर्जी ने कलाकृतियों का एक बहुत बड़ा संग्रह बनाया, इसे 19 से 21 दिसंबर 1975 ई. तक टैगोर लाइब्रेरी में प्रदर्शित किया गया। यह स्थानीय स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर का समृद्ध संग्रह है, जिसमें नंदलाल बोस, असित कुमार हालदार, अब्दुल रहमान चुगताई, ललित मोहन सेन, सुधीर रंजन खस्तगीर, रणवीर सिंह बिष्ट, अवतार सिंह पवार, डी. पी. धूलिया इत्यादि कलाकारों की अमूल्य कृतियाँ हमारे संस्कृति धरोहर के रूप में संग्रहित हैं। अब रविंद्रालय पर बने “म्यूरल किंग ऑफ द डार्क चेंबर” ग्लेज टेराकोटा 1963 ई. का ही जिक्र करें, तो यह विशेष बात है कि के. जी सुब्रमण्यम ने लखनऊ आकर म्यूरल बनाये। इतना ही नहीं वह जितना समय यहाँ व्यतीत किये उनका कलाकारों से विचार विनिमय हुआ और बड़ौदा, बंगाल तथा लखनऊ की कला की दृश्य भाषा तकनीक के माध्यम से सौंदर्यबोध आदि का समस्त विनिमय हुआ। राष्ट्रीय समकालीन कला के पक्ष में उत्तर प्रदेश की सशक्त तस्वीर उभरती है, जिसको नजरंदाज करने पर राष्ट्रीय समकालीन कला की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि इस प्रदेश ने 20वीं सदी से वर्तमान 21वीं सदी तक समय-समय पर ऐसे ऊर्जावान कलाकार देकर चित्रकला, मूर्तिकला, ग्राफिक, पॉटरी, सेरामिक, इंस्टॉलेशन आदि क्षेत्र का बेहतर ढंग से प्रतिनिधित्व किया है।
निष्कर्ष : उत्तर प्रदेश के कला जगत में क्षेत्रीय कला केंद्र, लखनऊ का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। यह केंद्र राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और कलात्मक परंपराओं को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कार्यरत है। केंद्र ने विभिन्न कला रूपों जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, सेरामिक और साहित्य कला को मंच प्रदान किया है। इसके द्वारा आयोजित कला शिविर, प्रदर्शनी और कार्यशालाएँ न केवल कलाकारों को अपने हुनर को निखारने का अवसर प्रदान करती हैं, बल्कि दर्शकों को भी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता से रूबरू करवाती हैं।
केंद्र ने स्थानीय कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। साथ ही, यह केंद्र पारंपरिक और आधुनिक कलाओं के बीच सेतु का कार्य भी करता है, जिससे दोनों का संतुलन बना रहता है। निष्कर्षतः, क्षेत्रीय कला केंद्र लखनऊ उत्तर प्रदेश की कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के साथ-साथ नई पीढ़ी के कलाकारों को प्रोत्साहित करने और राज्य की सांस्कृतिक विरासत को संजोने में अद्वितीय योगदान दे रहा है।
- कुमार, सुनील. भारतीय छापाचित्र कला आदि से आधुनिक तक, संस्करण 2000, भारतीय कला प्रकाशन दिल्ली, आई एस बी एन 81.86050.36.1, पृष्ठ संख्या- 34-50
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- कुमार, सुनील. भारतीय छापाचित्र कला आदि से आधुनिक तक, संस्करण 2000 भारतीय कला प्रकाशन दिल्ली, आई एस बी एन 81.86050.36.1, पृष्ठ संख्या- 34.50
- गैरोला, वचस्पति. भारतीय चित्रकला, प्रथम संस्करण, मिश्र प्रकाशन प्रा. लि. इलाहबाद, पृष्ठ संख्या- 69
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- गैरोला, वचस्पति. भारतीय चित्रकला, प्रथम संस्करण,मिश्र प्रकाशन प्रा. लि. इलाहबाद, पृष्ठ संख्या- 73
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