शोध सार : जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक मानव है और ये जीवित रहने की बुनियादी शर्तों में से हमेशा एक साधन के रूप में रहा है बीच में आपसी समझ के लिए अभिव्यक्ति की एक प्रथम श्रेणी आदिवासी या सामाजिक समूहता, जिसने की अपने संचार और अपने निरंतर सुधार और विकास को एक प्रमुख कारक के रूप में देखा और मानव सभ्यता का विकास किया। मानसिक विकास के दौरान व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूह के बीच समझ तेजी से मौखिक संचार पर केन्द्रित हो गयी थी और इसी दौरान सहस्त्रावधि के ऐतिहासिक समय में, मौखिक संदेश लिपियों के माध्यम से भी स्पष्ट रूप से उत्पन्न हुई; जिससे रोमन वर्णमाला का विकास हो सका तथा अमूर्त तर्क संगत के लिए उच्च बिन्दु के रूप में प्रतीकों व प्रतिरूपों का मूल्यांकन किया गया। हालांकि इन्ही विकासशील स्थितियों में संकेतों के बीच संबंध, पिक्टोग्राफ से आईडियोग्राफ तक, विकसित हुआ और वह धीरे-धीरे सम्प्रेषण के बदलते स्वरूप में संबंध स्थापित कर, उन्ही प्रतीक रूपों या चिन्हों को सरल कर चित्रलिपि से वर्णमाला में परवर्तित कर संकेतों को लिपि का रूप दिया। जिसे हम मिश्र की लिपि, क्रेटना स्क्रिप्ट, सीरिया से हेथिटिक चित्रात्मक लिपि, सिंधुघाटी लिपि, चीनी लिपि, माया सभ्यता की चित्रात्मक लिपि और फिर इन लिपियों को धीरे-धीरे आवश्यकतानुसार विस्तार होता चला गया। ये सभी लिपियां या प्रतीक चिन्ह विश्व के अपने अलग-अलग स्थानों में फली फूली व विकसित हुई और समकालीन स्तर पर इनका प्रयोग अनेक स्तर पर हमारे दैनिक जीवन में हुआ। जिनमें कि हम संख्यात्मक, वर्डस्पेस, उद्योग के लिए चित्र, दिशा सूचक, यातायात संकेत, मिलट्रेडमार्क या प्रतिरूपात्मक धार्मिक समुदायिक संकेत जो वर्तमान में प्रयोग किया जा रहे हैं देख सकते हैं।
बीज शब्द : वर्णमाला, लिपि, संकेत, प्रतीक चिन्ह, प्रतिरूप,आदिम कला, संख्या, प्रतिरूप, सभ्यता, समकालीन।
मूल आलेख : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हम समकालीन भारतीय कला के नये आयामों को पहचान सकते हैं। नई सहस्त्राब्दी के प्रयोगधर्मी कला वातावरण में हम देख रहे हैं कि युवा कलाकार कला बाजार को भी ध्यान में रखकर कार्य कर सृजनात्मक प्रतिभा की मूल्यवान बहुरंगी अभिव्यक्ति कर रहे हैं। ये कलायें हमारी संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र की तरह हैं जिनमें आदिम प्रतीकों ने अपना विपुल योगदान समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रदर्शित किया है, इस इतिहास को खोजने का प्रयास किया गया है; जिसके फलस्वरूप हमारे देश की कला में समसामयिकता अथवा आधुनिकता की चेतना फलीभूत हुई। कला के क्षेत्र में कलाकार समकालीन कला के आसपास की स्थिति के रूप में देखता है। संकेत या प्रतीक मनुष्य द्वारा अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त अभिव्यक्ति का रूप है, यह प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। “गुटेनबर्ग के आविष्कार से ठीक पहले तक या अधिक सटीक होने के लिए ग्रन्थों के बड़े पैमाने पर उत्पादन किये गये व छपाई से पहले के दिनो में निरक्षर आबादी के पास न केवल महत्वपूर्ण मौखिक परम्परा थी बल्कि इसे ठीक करने के अन्य तरीके थे; जो सोचा या बोला गया था चित्रों, प्रतीकों, संकेतों व आदिवासी हस्त लेखों के साथ।“(1) वर्तमान में यही हमारे अभिव्यक्ति की विधि का जिसे कि हम गैर-वर्णात्मक संकेत कह सकते हैं। विश्व प्रतीक, यहाँ प्रतीक का अर्थ है एक चिन्ह और प्रतीक वस्तुओं की प्रकृति के भीतर निहित वास्तविकता जो मनुष्य ने एक आत्मजागरुक व्यक्ति के रूप में हमेशा अपने पहचान व्यक्त करने के लिए प्रतीकों को एक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया। अपने आंतरिक आवश्यकता के अनुसरण में उसे न केवल ईश्वर जैसे वैचारिक प्रतीकों का आविष्कार करना पड़ा, बल्कि अन्य प्रतीकों की एक शानदार श्रंखला, अस्थायी और यहाँ तक कि व्यक्तिगत रूप से भी बना दी गई। यह पहली दो प्रक्रियाओं सौन्दर्य ओर अनुभूति से संबन्धित है “जिसमें केवल कला के इतिहास से संबन्धित विचार सौंदर्य की अवधारणा की चर्चाओं में पेश किये जाते हैं, जिनमें कला का उद्देश्य, जो भावना का संचार है, सौंदर्य की गुणवक्ता के साथ अटूट रूप से भ्रमित है, विशेष रूपों द्वारा सम्प्रेषण की भावना है।“(2) जिसे मनुष्य द्वारा स्वयं को अभिव्यक्त करने का पहला प्रयास प्रतीकात्मक रूप से चित्रात्मक था, चित्र चट्टान की सतह पर थे, गुफाओं की दीवारों और छत पर खरोंचे या चित्रित किए गये थे; यह आदिमकला की शुरुआत थी जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, कला के संचरण धीरे-धीरे संशोधित होते चले गये और उस समय मनुष्य विभिन्न समस्याओं जैसे भोजन, आवास, जलवायु परिवर्तन से हताहत था और भी कई प्रभावशाली घटनाओं आदि का सामना कर रहा था। इस समय तक भाषा का आविष्कार नहीं हुआ था इसलिए संचार सबसे बड़ी समस्याओं में से एक था इसलिए प्रागैतिहासिक कला वैद्य आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया के रूप में समझी जा सकती है, आर्थिक या उपयोगितावादी उद्देश्य के लिए विकसित किए गये प्रतीकों को उनके विकास की प्रक्रिया में हासिल किया जाना चाहिए। भारतीय पारंपरिक कला की संरचना धर्म, मिथकों, कर्मकांडों, प्रतीक, अंधविश्वास में बुनी गई थी।
“ठीक उपर्युक्त विचारों के आधार पर समकालीन कलाकारों द्वारा पेश की जाने वाली प्रक्रियाओं, प्रथाओं, संकेतों द्वारा ऐसा लगता है; कि कला दृश्य वास्तव में अपनी स्थिति के बारे में सवालों और अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है और तब समकालीन कला एक सीमा पर होती है, जो एक बार में ही इसकी परिणति को आगे बढ़ाती है और एक अगोचर केन्द्रों के चारों और दिये गये प्रत्येक घटक को मथती है, साथ ही साथ इसके अनिश्चित अर्थों और महत्वों को भंवर में खींचती है। समकालीन कला तब एक चक्र पर होती है जब वृहद स्तर पर यह माना जाए कि वैश्वीकरण की ताकतों ने सीमाओं को अधिक पारगम्य बना दिया है, जिससे कि सूक्ष्म जगत के स्तर पर कला की दुनिया भी सरंध्रता को क्रॉस-सांस्कृतिक आदान प्रदान के रूप में समायोजित करती प्रतीत होती है। इस तरह कि संस्कृति एक थाली से निकली गई अभिव्यक्तियों के कई रूपों को समकालीन के साथ-साथ करने और निर्धारित करने के साथ-साथ कम करने के लिए देखा जा सकता है।“(3)
चित्रकला की जितनी पद्धतियाँ आज विश्व में प्रचलित हैं वह गुफाओं में निवास करने वाले आदिमानव का आविष्कारक है, आदिम कालीन कला का आरम्भ भित्ति चित्रण से ही माना जाता है। अतः कलात्मक प्रवृत्ति के उद्भव एवं विकास का क्रम भी इसी चित्रात्मक पद्धति से संबन्धित है। प्राचीन गुफाओं और चट्टानों पर आज भी हमें इस पद्धति के अनमोल नमूने देखने को मिलते है। भारत की कैमूर पहाड़ियों में मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) और सिंहनपुर (रामगढ़) आदि स्थानों के भित्ति-चित्र आज भी इन प्रतीक प्रतिरूपों की उत्कर्ष यात्रा के साक्षी बने हुए हैं। भित्ति चित्रण पद्धति की विकास यात्रा में भारत की अपनी विशिष्ट भूमिका है। यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध भित्ति चित्रों की सरसता और सरलता को देखकर वैभव का सहज ही आभास हो जाता है। यहाँ की समृद्ध संस्कृति और विविध प्रतीकों को कला रूपों में व्यक्त किया है, प्रागैतिहासिक काल की अनेक गुफाओं में इस प्रकार के प्रतीकात्मक चिन्ह रूपी भित्ति चित्र की समृद्धि का अनुमान किया जा सकता है। 15वीं शती के सांस्कृतिक पुनुरुत्थान काल में कला ने भी विकास पाया, ये प्रतीक चित्र कई प्रकार की शैलियों में समय के साथ बदलते स्वरूप और महत्व में फलीफूली हैं। “वर्तमान समय में भारत में रेखीय चित्रों में वृत्त, कोंण, वर्ग, आयात, षटकोण, त्रिशूल आदि रूपाकार प्राप्त हुए हैं; जो भारत में गुहा चित्रों से लिये गये है, वह उस युग में प्रचलित प्रतीकों का बोध कराते है। कला में प्रतीकों कि परम्परा आदिम काल से चली आ रही है किन्तु देशकाल व परिस्थितियों मे इसका रूप परिवर्तित होता गया है। किसी व्यक्ति, वस्तु या कल्पना के समानार्थी रूप में पहचानी जाने वाली आकृति जो उस वस्तु या व्यक्ति की विशेषता पर आधारित हो और जो लोगों के मन में बैठ गयी हो ‘प्रतीक’ के नाम से जानी जाती है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं – यथा चित्रलिपि, आधार, हस्ताक्षर, चिन्ह आदि कुछ प्रतीक आसानी से समझे जा सकते हैं, तो कुछ को समझने के लिये परिचयात्मक जानकारी की आवश्यकता पड़ती है।“(4)
“जिनमें की चित्रों, मूर्तियों, वास्तुकला और सभी प्रकार के अलंकरणों को देखने में जिसमें दैनिक प्रयोग की वस्तुओं पर आभूषण शामिल है; चाहे वह किसी भी अवधि से हो यहाँ अक्सर एक बयान देने के लिये एक प्रतिनिधित्व की अपरिभाषित क्षमता को “प्रतिकात्मक सामग्री” शब्द से दर्शाया जाता है। चित्रों में यह प्रतीकात्मक तत्त्व निहित हैं जिसके मूल्य पहचान ने योग्य वास्तविकता और बीच के मध्यस्थ रहस्यमय, धर्म का अदृश्य क्षेत्र, दर्शन एक पवित्र प्रतीक बन जाता है। एक नीरस गणितीय चिन्ह बनाने के लिये संशोधित किया गया है और वही यह हैरल्डिक आँकड़े और हस्ताक्षर में भी तब्दील हो जाते हैं। ट्रेडमार्क और लोगोटाइप और एक संकेत बनाने के लिये ड्राइंग को सरल बनाया जाता है। आज आरेखों, चिन्हों और संकेतों के बिना अभिविन्यास और संचार असंभव होगा जिसमें कि चित्रात्मक संचार मौखिक भाषाओं के अक्षरों के रूप में विकसित व समाहित होकर भविष्य की ओर इशारा कर रही है और अतीत की कुछ चीजों का संरक्षण भी कर रही है।“(5)
यह न केवल कला क्षेत्र में उत्पादन की विशालता मात्र है, बल्कि वैश्विक स्तर पर समकालीन एशियाई कला की बढ़ती मिसाल भी है। यह बदलती वैश्विक प्रमुखता और कला उत्पादन के बीच घनिष्ठ संबंध की ओर इशारा करती है व कल्पित सांठगांठ को आत्मविश्वास से तथा किसी तरह संक्षिप्त रूप से पुष्टि करने के लिये प्रेरित करती है तथा 21वीं सदी की शुरुआत में भारतीय कला के लिये अच्छी रही है। प्राकृतिक और गुणवक्ता पर किसी भी दुर्बल करने वाली ओपन एंडेड बहस और आलोचनात्मक प्रोग्राम्स को जोड़ देना यहाँ इसका अर्थ दृश्यता और एक नयी व्यवस्था जो विश्व में भारतीय कला का प्रभुत्व है। आज भारतीय कला वैश्विक में प्रवेश कर चुकी है; बल्कि भारतीय कला अब वैश्विक कला जगत की ताकतों के लिये भारत के खुलेपन के साथ समकालीन है, इस तरह से कि कुछ भारतीय कलाकार सफल अंतर्राष्ट्रीय कलाकार बन गये हैं, जो बड़ी रकम के लिये चित्र बेचते हैं या वे जिनकी कलाकृतियाँ प्रभावशाली कला संग्रालयों और संग्राहकों द्वारा संग्रहित की जाती है। यह कहा जा सकता है कि भारतीय समकालीन कला उन बड़ी प्रक्रियाओं का हिस्सा बन गयी है; जो कला में समकालीन क्षण के रूप में पहचाने जाने वाली व्यापक समग्रता की संरचना करती है। भारतीय समकालीन कला की अब तक दुनिया भर में विभिन्न द्विवार्षिक, त्रिवार्षिक और कला उत्सवों में प्रतिनिधित्व के साथ संघर्ष करना पड़ा है। समकालीन कला कि श्रेणी कोई नया कार्य नहीं है, जो नया है वह यह है कि, यह अब विषमता और आलोचनात्मक निर्णय से यह मुक्त प्रतीत होती है।
लगभग बीस साल पहले प्रज्वलित उग्र झगड़ा जिसे हम विलक्षण तरीके से, समकालीन कला कहते है, इस अभिव्यक्ति का सबसे स्पष्ट अर्थ ‘समकालीन कला’ एक कला को लगातार इसके अनुरूप बनाना है, जो स्वयं की बहस, अपनी स्वयं की पूछताछ या अपने स्वयं के निलंबन के साथ समकालीन संक्षेप में अपने आप से इस दूरी के साथ समकालीन इस अतरंग पृथक्करण के साथ जो किसी भी क्षेत्र में, किसी भी चीज या किसी भी समकालीन के रूप में स्वयं को अनुभव करने के लिये होनी चाहिए। कला में शब्द या भाषण लिखे या बोले गये हैं यह कोई भूमिका नहीं निभाते दिखायी देते मेरे विचारों की प्रतिक्रियाओं में बुनियादी तौर पर दर्शक के मन में विचार होता है कि यह चित्र क्यों बनाया गया या क्या बनाया है? उन दर्शकों के समझाने के लिये ये शिर्फ बुनियादी मानसिक तौर पर कुछ विचारों के तत्त्व रूपी संकेत या प्रतिरूप मात्र हैं, जो कमोवेश स्पष्ट होते है जिन्हे चित्रों के माध्यम से जोड़ा गया है।
समकालीन कला में चिन्हों या प्रतीकों में शून्य या बिन्दु का महत्व -
20वीं शदी के मनुष्य के लिये शून्यता की कल्पना करना कठिन है, क्योंकि उन्होंने जान लिया है कि यह एक प्रकार का क्रम प्रकट करता है, असीम रूप से छोटे और असीम रूप से बड़े। यह समझना कि यह कोई तत्त्व नहीं है हमारे आसपास, लेकिन यह सभी विचारों को, मन और मामला दोनों को एक क्रमबद्ध पैटर्न के रूप में पालन करते है। तर्क का समर्थन करते है; कि सबसे सरल व शुद्ध संयोग के बिना महत्व का कोई अस्तित्व नहीं है बल्कि यह दर्शक को स्पष्ट रूप से इस तरह मजबूर करता है कि इसकी उत्पत्ति का स्वर क्या है? ड्राइंग की या सिंबल की उत्पत्ति क्या है? “इन आदिम लोगों के पास मौलिक अंकगणित क्षमता थी जिसे अगर व्यवस्थित तरीके से लागू किया जाता तो वे चार से कहीं ज्यादा संख्याओं में हेरफेर कर सकते थे। यह वही नियम है जिसे हम आधार 2 का सिद्धांत (या बाइनेरी सिद्धांत) कहते हैं। लेकिन आदिम समाजों ने बाइनरी नंबरिंग विकसित नहीं की उनके पास केवल संख्यात्मकता की सबसे बुनियादी डिग्री थी।“(6) इस अवसर के माध्यम से बुनियादी विचार मूल को पहचानने और उसका न्याय करने में आसानी होती है उस दौरान दिये संकेतों का अर्थ और कथन से पढ़ाई वर्तमान में आधार लिये हुए है वास्तव में आज कई सारे डिजिटल यंत्रों का उपयोग मात्र शून्य जिसे डेसीमल कम्प्यूटर की भाषा में कहा जाता है जिसका उपयोग चरम पर है। अब यदि एक कागज की सफ़ेद सतह को ही ले लिया जाए तो कागज एक खाली निष्क्रिय सतह है, जो दृश्यमान होने के बाबजूद संरचनाओं के लिये मौजूद है। एक बिन्दु एक रेखा के पहले प्रकट होने के साथ खाली सतह पर सक्रिय हो जाता है इस प्रक्रिया के साथ खालीपन सफ़ेद या हल्का हो जाता है; इसके विपरीत कागज जो पहले खाली था वो अब भर जाता है। संकेत के तत्त्व में डॉट य पॉइंट वैज्ञानिक रूप से है; यह एक अमूर्त अवधारणा जो इंगित करती है सटीकता। हम क्रॉसिंग पॉइन्टस के बारे में बात करते हैं रस्तों के मिलने के बिन्दु और गली के बिन्दु और इसी तरह एक बिन्दु शायद ही कभी एक व्यक्तिगत तत्त्व में प्रकट होता है लेकिन आमतौर पर यह सिर्फ अभिव्यक्ति का प्रतीक जिसे रोड लाइट के माध्यम से ही जाना जाता है।
समकालीन कलाकारों का संकेत व प्रतिरूपों द्वारा चित्राभिव्यक्ति -
प्राचीन भारत में भौतिक, धार्मिक छवि, जिसे वैदिक काल से आध्यात्मिक प्रथाओं में छवि या कला के सौन्दर्य के साथ अमूर्त रूप चित्रित किये जाते हैं, जो कि बाद में धीरे-धीरे सर्वव्यापी घटना बन गई। उदाहरण के लिये वल्लभ, शैव, वैष्णव संप्रदायों में इनके अनुयायी माथे पर तिलक छाप मात्र से ही उनके सम्प्रदाय का पता लगाना या फिर कहें कि एक भगवान, धार्मिक नेता या राजनैतिक नेता अपने चुनाव चिन्ह की तरह अपनी पूर्ण आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है। शब्द लिंगा शैववाद कि विशेषता है; मूर्ति (अभिव्यक्ति), स्वरूप (स्वयं), रूप (आकार, प्रकार), देव (भगवान, देवता) और कभी-कभी भौतिक छवियों को नामित करते हैं, कोई आकृति (दिव्य छवि) पहले हमें साहित्य में दिखाई देने लगती है। समझने के लिये हमें अतीत के ऋषियों द्वारा हमारे लिये विकसित विचार कि प्रवृत्ति का पता लगाना चाहिए और पूर्व-कल्पित हठधर्मिता या बौद्धिक पूर्वाग्रह के बिना इसे समझने की कोशिश करनी चाहिए।
“भारती खेर, एक कलाकार है जो अपने कला के माध्यम से सांस्कृतिक गलत व्याख्याओं और सामाजिक खोज के लिये प्रतिबद्ध है; वह परम्परा और आधुनिकता, पूर्व और पश्चिम को जोड़ने के लिये अपने काम में बिंदी को एक केंद्रीय रूप में उपयोग करती हैं। बिंदी, भारतीय महिलाओं द्वारा उनके माथे पर पहना जाने वाला श्रंगार, पारंपरिक रूप से एक विवाहित महिला की निशानी के रूप में देखा जाता है, और तीसरी आँख जो आध्यात्मिक और भौतिक दुनिया को जोड़ती है। बिना शीर्षक वाली पेंटिंग श्रंखला बहुस्तरीय और बहुरंगी वृत्ताकार बिंदियों से बनी है, जो भारत में महिलाओं की बदलती भूमिकाओं का उल्लेख करती है, क्योंकि बिंदी ने अपना पारंपरिक अर्थ खो दिया और एक फैशन एक्सेसरी बन गई जो विभिन्न रंगों और आकृतियों में उपलब्ध है। इस काम के साथ कलाकार सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता का संकेत दे रहा है और परम्परा में बंधी महिलाओं की भूमिका को चुनौती दे रहा है, साथ ही एक फैशन एक्सेसरी के रूप में बिंदी के कमोडिटिकरण पर भी टिप्पणी कर रहा है। बिंदी का उपयोग तीसरी आँख का एक रहस्य प्रतीक और आपके कुछ अन्य टुकड़ों का आध्यात्मिक अर्थ प्रतीत करते है। यदि कोई ईश्वर है तो वह कला है अधिकांश कलाकारों की तरह भारती खेर जी आध्यात्मिक नहीं हैं वो मानव की शक्ति में विश्वास करती हैं, जो बहुत शक्तिशाली है। उनमें से तो अपने स्वयं के मन की शक्ति को नहीं जानते हैं कि यह क्या प्राप्त कर सकते हैं मन कि शक्ति के द्वारा।“(7)
“दर्शक एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक एक काल्पनिक रेखा खींचता है। प्राचीन समय में, मनुष्य आकाश को देखते हुए तारों के बीच काल्पनिक रेखाओं खींचते थे और इस प्रकार नक्षत्रों से बनी तस्वीरों से राशि चक्र के चिन्ह भी बनाते थे।“(8) ठीक ऐसे ही बिन्दु का नाम आते ही सर्वप्रथम रजा का नाम आता है रजा ने अपनी कला के प्रारम्भिक बिन्दु में सूक्ष्म ब्रह्मांड और वृहद ब्रह्मांड के मोहक संबंधों का प्रयोग किया है और इन दोनों का चित्रांकन ज्यामितिक पैटर्न में नपे-तुले ढंग से तथा अलंकृत रूप में किया है; चित्रों में ज्यामितिक दुनिया के गोले, शंकु और बेलनाकार को रुपक में बदलते देखा जा सकता है। इस ज्यामितीय कि वजह से उन्हें समतलों तथा दीप्त रंगो को प्रयुक्त करने का अक्सर मिला। उनकी ‘मण्डल’ जैसी पेटिंग्स में बिन्दु शक्ति कि पूरकता के रूप में उभरा, जो ऊर्जा को पैदा करता है। पाँच मूलभूत रंगों में की गई उनकी पेटिंग्स शून्य को लेकर उनकी खोज का प्रतिनिधित्व करती है; बहुत ही अर्थवान रेखाओं तथा रूपकारों के रूप में गठित उनके प्रदीप्त रंगों के चित्र दर्शक को ‘चाक्षुक वृंद’ का आनन्द देते है, ये असीमित रूपकार वाली कृतियां हैं; हालांकि वे अर्थबहुल हैं तथा अनुभूति एवं कल्पनात्मकता से खोजी गई हैं। “विद्यासागर उपाध्याय केवल काले रंग की ही विपुल संभावनाओं को विशाल रूप में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास करते है। कई बार रंगों का भी प्रयोग प्रतीकात्मक रूप में करते हैं, पर वह अपनी मूलता को नहीं छोड़ते हैं ठीक उसी प्रकार एस0 एच0 काजी को खूबसूरती से रंगीन और समानुपातिक स्थानों का डिजाइनर माना जा सकता है। नीले, काले और लाल रंग के विस्तार के खिलाफ ज्यामितीय रूपों की उनकी रचनाएँ चित्रों की भावनात्मक सामग्री पर ज़ोर देने का एक शानदार तरीका हैं, जिसे ‘रहस्यवादी’ कहा जा सकता है। उन्होंने अपनी अधिकांश अमूर्त रचनाओं में गतिशील समरूपता का प्रयोग किया है, यदि उनको चित्रों में व्यक्तिगत तत्त्व को समाप्त कर दिया जाये, तो जो अवशेष है वह नियोजन ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। पारंपरिक पुरातन तथा लोक कला शैलियों को आधार बनाकर चित्रकर्म में लगे समसामयिक परंपरावादी कला कर्मियों ने कला शैलियों को ज्यों का त्यों आधुनिक संयोजन और प्रयोगों के साथ अपनाया है। लोक कला चेतना ने अपनी रचनाकृतियों के द्वारा त्रिआयामी प्रभाव के साथ निर्मित की गई, लोककला प्रतीकों एवं अलंकरण का सहयोग प्राप्त कर अपनी कृतियों का निर्माण किया। ज्यामितीय आकार सरल तो होते ही हैं साथ में जो प्रतिमान व सौन्दर्य की वस्तुओं जैसे वृत्त, दीर्घवृत्त, वर्ग आदि के रूप में उनकी सराहना के लिए न्यूनतम कलात्मक शिक्षा की माँग करते हैं, कई चित्र विशेषरूप से ज्यामितीय आधारित निर्मित होते हैं। रंग, आकार और रेखाओं को इस तरह से व्यवस्थित करना जो उद्देश्य के लिए सबसे उपयुक्त हो चित्रों में रचना का सार है और निश्चित रूप से यह दिलचस्प होना चाहिए व गणित, विज्ञान ने कला के रचनात्मक सिद्धांतों में एक बड़ा योगदान दिया है। ज्यामितीय आकारों ने पेंटिंग और ड्राइंग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जब हम इन आकारों के अनुसार कलात्मक रूप से संतोषजनक कला का विश्लेषण करते हैं; जो गतिशील समरूपता पर आधारित होती है। वह एक रेखा खींचकर जगह तय करते हैं एक आयताकार कैनवास पर और दूसरे कोने से एक रेखा जो इस विकर्ण को समकोण पर काटती है, चौराहे का यह बिन्दु उनके लिए शुरुआती बिन्दु है और जहाँ मुख्य रुचि निहित है फिर भी वह इसके चारों ओर एक ऐसी रचना बनाते हैं जो सुंदर है और अपने आप में आंदोलनों का सुझाव देती है।“(9)
“के0 सी0 एस0 पणिकर को भारत के दक्षिणी भाग में समकालीन कला आंदोलन के विकास में सबसे प्रभावशाली और अग्रणी के रूप में कहा जा सकता है। इससे पहले उन्हें टेलीग्राफ ऑपरेटर और बीमा ऐजेंट के रूप में कई छोटे-मोटे काम करने पड़े एक कलाकार के रूप में खुद को स्थापित भी किया। उनकी शैली यथार्थवादी से ज्यामितीय तक कई चरणों से गुजरी वह एक महान शिक्षक भी थे; जिन्होने कई चित्रकारों को प्रेरित किया दक्षिण में और चेन्नई के नाम पर भारत के पहले कलाकार गाँव की स्थापना की जिसका नाम ‘चोलमंडलं’। सूचीबद्ध पेंटिंग आपकी चित्र श्रंखला “वर्डस और सिंबल्स” से बहुत प्रसिद्ध है, यह एक अलग प्रकार का प्रयोगिक कार्य है जिसमें सुलेख के साथ अन्तरिक्ष को शामिल किया गया है, पणिकर ने गणितीय प्रतीकों, अरबी,अंकों, रोमन लिपियों का प्रयोग किया और मलयालम लिपियों को एक डिजाइन बनाने के लिए जो एक कुंडली की तरह दिखती है। तांत्रिक प्रतिकात्मक रेखाचित्रों का भी प्रयोग किया गया है, इस पेंटिग में रंग नाममात्र की भूमिका निभाते हैं।“(10)
संकेतिकता पर आधारित धार्मिक प्रतिरूप -
“कुछ प्रतीकों की व्याख्या करने से पहले हमें देखना होगा कि हमारे भविष्यवक्ताओं ने रूप (उद्देश्य घटना) और भाव (भावनात्मक अवधारणा और बौद्धिक व्याख्या) दोनों में इंद्रियों और रहस्यों को कैसे संतुलित किया। भारत में वैदिक भजन हमारे भौतिक अस्तित्व के आश्चर्य और विस्मय के प्रति अपरिष्कृत मन कि प्रारम्भिक प्रतिक्रिया का प्रतीक मात्र हैं। वे ब्रह्मांड के परस्पर विरोधी चरणों कि विविधता और एकता के बौद्धिक संश्लेषण से पैदा हुए थे, ये भजन किसी विशेष समुदाय के लिए किसी विशेष पैगंबर या पुजारी द्वारा प्रचलित आज्ञा नहीं है वे अपनी भावनात्मकता अपील में कोई कठोर अनुशासन नहीं रखते है ये वह है जो शांत ध्यान और बोध कि गहराई से उभरा है, उन सूक्तों के रचियता यह समझ गये कि सत्य एक है यद्यपि विद्वान लोग उसे अनेक नाम व प्रतीकों व प्रतिरूपों में देखने लगे।“(11)
“ भारतीय पौराणिक कला विभिन्न प्रतीकात्मक शब्दावली की एक विशुद्ध प्रस्तुति है और हड़प्पा संस्कृति के समय से ही प्रमुख स्थान रखती है। ये प्रतीक प्रमुख शास्त्रों कि जानकारी से प्रेरित होकर पौराणिक प्राणियों कि सबसे उपयुक्त प्रस्तुति दिखाने में सहायक होते हैं। इन शुभ प्रतिकों को अनुष्ठानिक प्रतीक, प्रतीकात्मक प्रतीक श्रेणियों के रूप में जाना जाता है। इन प्रतीकों के समूह को उजागर करते हुए सबसे परिचित प्रतीक ‘स्वास्तिक’ है। यह प्रतीक खुशी, सुरक्षा, उर्वरता और समृद्धि का संकेत है।“(12) “सिंधु घाटी प्रागैतिहासिक काल की पुरातात्विक खोज में सिंधु घाटी में काफी मात्र में खुदाई की गई आइकनोग्राफिक सामग्री जैसे कि मुहर। जिनमें कि पशुपतिनाथ, मोटी महिलाओं कि मिट्टी की आकृतियाँ, देवी माँ प्राप्त हुई, सिंधु लिपि को भी अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, प्राप्त हुई मुहरों में दैवीय और मानव क्या है? दोनों के बीच में कोई अंतर यह बस एक प्रश्न मात्र है। आइकोनोग्राफी परम्पराऐ जो सामान्य युग कि शुरुआती शताब्दियों में स्थापित की गई थी हिन्दू देवताओं के प्रतिनिधित्व के लिए इसमें लचीला और सुसंगति दोनों ही देखी गयी है।“(13)
“मुस्लिम प्रार्थना-माला अल्लाह के 99 गुण को पढ़ने के अतिरिक्त प्रशंसा के लिए उपयोग की जाती है। तीर्थ यात्रियों और दरवेशों के लिए यह अपरिहार्य उपकरण लकड़ी, मोती या हाथी दांत के मोतियों से बना होता है जिसे उगलियों के बीच से निकाला जा सकता है। यह अक्सर मोतियों के तीन समूहों से बना होता है, जिन्हे दो बड़े मोतियों से अलग किया जाता है, जिसमें एक और भी बड़ा मोती शुरुआत को दर्शाया है। बौद्धों ने भी बहुत समय से प्रार्थना की माला का उपयोग किया है, जैसा कि कैथोलिकों ने किया है।“(14) कुछ ऐसा ही भारतीय सनातन परंपरा में भी किया जाता है जिसमें 108 मोतियों से भगवान को प्रतीकात्मक रूप से ध्यान करते हैं।
निष्कर्ष : वस्तु को किसी प्रकार की समानता के आधार पर अवधारणा का प्रतिनिधित्व करने के लिए इन प्रतीकों का प्रयोग किया जाता रहा है। हालाँकि समानता सचित्र नहीं है यह बस एक ‘प्रतीक’ है यह रूपक या सदृश्य है, इस प्रकार सभी वस्तुओं के साथ-साथ पूरी दुनिया प्रतीकात्मक रूप में चेतना की एकता है। ‘प्रतीक या प्रतिरूप’ उन दो तरीकों में से एक है जिसमें मानवता कार्य करती है, दूसरा दृश्य दुनिया का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। जैसा कि वर्तमान में चिन्हों, प्रतिमानों का प्रयोग नवीन ढंग से किया जा रहा है, कलाओं व लोक व जनजातीय कलाओं में भले ही इसका स्त्रोत रहा हो परन्तु वास्तव में यह आज भी प्रयोग में है, निरंतर बदलते हुए प्रयोगिक रूप में पहले प्रतीक दीवारों पर बनते थे और अब यह शरीर पर भी बनते हैं वरन गोदना व व्रेल लिपि भी इन्हीं सब का हिस्सा ही है, रंगों का भी प्रयोग प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के तत्त्वों को कई आधुनिक कलाकारों ने अपनी शैली बनाकर कलागत आयाम देकर ख्याति प्राप्त की है जो कि समसामयिक कला के मुख्य विषय में अनुकरणीय है। कोई भी संकेत विशेष रूप से किसी एक चीज का प्रतीक नहीं है, बल्कि एक सुझाव है इसके बिना मनुष्य का जीवन गुफा में कैद, कैदी की तरह है, एक कोरे या श्वेत कागज के समान। प्रत्यक्ष में शैली या वाद कोई भी ज्यामितीय आकारों का प्रयोग सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं में आवश्यक प्रेरक का कार्य कर रही हैं और ये मानवीय व सामाजिक अनुभवों के चित्रण के लिए भी एक चुनौती है। जिसमें कि कलाकार अपने लोगों से परिवेशवश प्रतीकों से जुडने का प्रयास करते हुए अपनी सौन्दर्य-भावना को प्रतीकात्मक व रहस्यवादी तरीके से अभिव्यक्त कर रहे है। वर्तमान में बहुआयामी तथा अन्तरदृष्टि से सम्पन्न कलाकार प्रायः लोक कलाओं से प्रेरित हैं और इनका प्रयोग निरंतर जारी कलाकृतियों के बहुआयामी रूप में हम इसे अपने दैनिक वातावरण में देख व प्रयोग कर रहे हैं।
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निधि शर्मा
शोधार्थी, चित्रकला विभाग, ललित काला संकाय, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर
sharmanidhi0592@gmail.com 8909962628
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