शोध सार : कला, मानवीय अन्तर्मन की अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम है। मानवीय अभिव्यक्ति की यह परम्परा आदि काल से अपना अद्वितीय स्थान निर्मित कर सभ्यता के विकास के साथ विकसित एवं परिवर्तित होती रही है। मनुष्य ने अपनी अभिव्यक्ति को प्रत्येक युगातीत से आधुनिक युग तक विभिन्न माध्यमों के द्वारा आध्यात्मिक, कलात्मक एवं सौन्दर्यात्मक स्वरूपों में अभिव्यक्त किया है।
भित्ति चित्रण परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। प्रारम्भ में मानव के पास जब कोई साधन नहीं था, तो सर्वप्रथम उसने भित्ति को ही अपने भाव व्यक्त करने का आधार बनाया। जिसके उदाहरण प्रागैतिहासिक कला से प्रारंभ होकर लोक एवं आदिम कला से पल्लवित होते हुए, अजंता की गुफाओं में दिखाई देते हैं। भित्ति चित्रों के प्रमुख विषय सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आदि रहे हैं। अभिव्यक्ति का सबसे सरल व पुराना माध्यम भित्ति चित्र रहें हैं। यहां फेस्को ब्यूनो, फेस्को सेको, टेम्परा पद्धति से भित्ति चित्र बनाये गये। यहां के चित्रों की मुख्य विशेषता चटकीले रंग, प्रवाह युक्त रेखांकन, भावकृति आदि हैं। आराइशी की चित्रण विधि की निर्माण, सामग्री, प्रविधि, प्रमुख रंग, भित्ति आराइश की अलग-अलग अवस्थाएं, मिश्रण अनुपात, अस्तरों, अंतिम लेप्य प्रक्रिया, चित्रण प्रक्रिया, संरक्षण, बचाव व टीकाऊपन के बारे में जानकारी इस शोध आलेख में साझा की है। वर्तमान समय में आराइश चित्रण का कार्य विभिन्न स्थानों पर हो रहा है। समकालीन कला परिदृश्य में आराइश पद्धति बहु-प्रचलित चित्रण विधि बन गई हैं।
बीज शब्द : संस्कृति, इंद्रधनुषी, दृश्यांकन, भूमिबंधन, एन्कास्टिक, नितांत, सुसज्जित, अभिव्यंजन, आध्यात्मिक, नैसर्गिक।
मूल आलेख :
भित्ति चित्रण परंपरा आदिकाल से ही चली आ रही है। आदिमानव ने अपने गुहा निवास की भित्तियों तथा शिलाश्रयों पर चित्रों को अंकित किया, इन चित्रों में आदिमानव की अभिव्यक्ति के सहित उदाहरण प्रकट होते हैं। गुहावासी मानव ने अमूर्त भावना को मूर्त रूप प्रदान करने की वृत्ति जिसमें जादू टोने आदि आ जाते हैं, के कारण भी चित्र बनाए हैंI ये ही मनोवृति या समूची मानव उन्नति की प्रेरक हैं इन चित्रों में आदिमानव का जीवन परिलक्षित होता है। अविकसित कला बोध एवं विधि-विधान के बाद भी उन चित्रों में अनोखा लय है।
इनकी आड़ी-तिरछी रेखाओं में एक अतुल सौंदर्य छिपा हुआ है। इन गुहावासियों ने चित्रण के लिए गुफा की दीवारों को ही चुना? इन चित्रों के पीछे क्या प्रेरणा रही होगी। इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान नहीं है, किंतु विश्व के अनेक स्थानों से उपलब्ध गुफा चित्रों का पाया जाना आश्चर्य का विषय है, ऐसा लगता है कि मानव अपने-अपने परिवेश में भिन्न होते हुए भी अनेक स्थानों पर समान रहा है। समान अवस्थाओं में मानवीय प्रेरणा एवं गतिविधियां एक सी रही है। इसलिए रूप एवं विधि की दृष्टि से अल्तामिरा एवं सिंघनपुर के चित्र मिलते-जुलते हैं। सभ्यता के विकास के साथ चित्रण विधि में भी परिपक्वता आती गई। आराइश पद्धति की तकनीकी भी प्रगति करती गई। भित्ति चित्रों को लेकर अनेक संरचना संबंधी प्रश्न उठते हैं। चितेरों को भवनों की बनावट के अनुसार चित्रों का अंकन करना पड़ता है। जैसे कि खिड़कियां, छतों एवं महरावों को भिन्न इसलिए आराइश पद्धति के चित्रण में चित्रकार को अनेक रचनात्मक एवं तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
अन्य फलकों की अपेक्षा मिट्टी पर किए गए चित्रण में संप्रेषणीयता अधिक सशक्त एवं प्रभावोत्पादक होती है। भित्ति चित्रण संपूर्ण परिवेश को प्रभावित करता हैं, दीवार सदैव सम्मुख रहती है। इसलिए इसका आकर्षण सदा सुलभ रहता है। भित्ति चित्र अन्य सभी विधियों से अधिक टिकाऊ और स्थाई है। पर्यावरण के कुप्रभाव को भित्ति चित्रण अधिक स्थायीत्व के साथ स
भित्ति चित्रण विधि की विभिन्न पद्धतियों में प्रयोग करने व शैलेंद्र नाथ डे एवं बिनोद बिहारी मुखर्जी के मार्गदर्शन से जन साधारण से लुप्त होती आराइश तकनीक को पुनः स्थापित करने हेतु वनस्थली विद्यापीठ में प्रोफेसर देवकीनंदन शर्मा ने 1953 में विधिवत भित्ति चित्रण प्रशिक्षण एवं चित्रकला प्रशिक्षण शिविर आरंभ किया जो आज भी अविरल चल रहा है। प्रोफेसर देवकीनंदन शर्मा के देहावसान के बाद प्रोफ़ेसर भवानी शंकर शर्मा ने 2007 तक यह कार्य देखा। अब वे स्वतंत्र रूप से विभिन्न संस्थाओ में इस तकनीक के प्रसार हेतु कार्यशालाएं आयोजित करते हैl इस शिक्षण शिविर से भारतीय विद्यार्थियों ने ही नहीं वरन सिलोन, जापान व कनाडा से आए विद्यार्थियों ने भी लाभ उठाया। यह दो माह का ग्रीष्म कालीन शिविर कला गुरु प्रोफेसर देवकीनंदन शर्मा के अथक प्रयास, कठिन परिश्रम व कला के प्रति समर्पण भाव का द्योतक है। यहां जयपुर व इटेलियन फ्रेस्को व टेम्परा माध्यम से शिक्षण की व्यवस्था है। कुछ वर्षों से यहां फ्रेस्को में एक वर्षीय पोस्ट एम.ए. डिप्लोमा तथा एम.ए. में एक विषय में एक विषय के रूप में अध्ययन की व्यवस्था है। काफी छात्र व छात्राएं नियमित रूप से भित्ति चित्रण के प्रशिक्षण का लाभ ले रहे हैं।
भित्ति चित्रण विधि की परिभाषा एवं विभिन्न श्रेणियां:-
"भित्ति चित्रण में भित्ति को प्रमुख अंग माना जाता है। साधारण शब्दों में भित्ति पर सौंदर्य एवं सृजन की दृष्टि से किया हुआ अलंकरण भित्ति चित्रण कहलाता है। भित्ति चित्रों को विभिन्न तकनीकी दृष्टि से अलग-अलग नामों से संबोधित किया गया है। भारतीय वांग्मय में साहित्यों के आधार पर भित्ति चित्रों को "कूड़य" चित्रों की संज्ञा दी है।
राजस्थानी फ्रेस्को (आराइश) चित्रों का स्थानीय नाम "आलागिला", आराइशी तथा मोराकशी के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है ताजी प्लास्तर की हुई भित्ति पर चित्रण कार्य। इस विधि में विशेष पद्धति से भित्ति तैयार करके नम प्लास्तर पर मिट्टी एवं खनिज रंगों को इस प्रकार एकाकार किया जाता हैं कि रंग की अलग परत नहीं रहती। भित्ति चित्रण की विभिन्न विधियों में सबसे अधिक आयु आलागिला या आराइशी चित्रों की मानी जाती है।
अत्याधुनिक युग में भित्ति चित्रण को "म्यूरल पेंटिंग" कहकर संबोधित किया जाता है। किंतु शुद्ध फ्रेस्को सिर्फ फ्रेस्को ब्यूनो पेंटिंग को ही कहा जाता है जिसका तात्पर्य भी उपरोक्त विधि से है।" (1) जबकि म्यूरल आर्ट में विशेष प्रकार की भित्ति तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती है, म्यूरल आर्ट को सीधे ही भित्ती या दीवार पर बनाया जा जाता है।
भूमिबंधन विधान:-
"अजंता भित्ति चित्रों की तकनीकी के संबंध में रायकृष्णदास का कथन है कि दीवार अथवा पाटन में जहां चित्रण करना होता था वहाँ भी भूमि खुरदरी बना दी जाती थी। तत्पश्चात उस पर मिट्टी, गोबर, पत्थर के चूर्ण और कभी-कभी धान की भूसी मिले गारे (पर्त) का लेवा चढ़ाया जाता था। यह लेवा (पर्त) चूने के पतले तह से ढ़का जाता था। और इस पर लाल रंग (गेरू) से रेखांकन करके, जल रंग में गोंद मिला कर चित्र बनाए जाते थे।" (2) अगर हम अजंता भित्ति चित्रों की तकनीकी और आज के भित्ति चित्रण तकनीकी की बात करें तो दिन-रात का अंतर देखा जा सकता है। क्योंकि समय के बदलाव के साथ-साथ तकनीकी में भी बदलाव देखने को मिला है।
"डॉ. मोती चंद्र ने "टेक्निक ऑफ मुगल पेंटिंग" में तथा पर्सी ब्राउन ने "इंडियन पेंटिंग" में भी भित्ति चित्रों की भूमि तैयार करने की यह विधि बताई है। किंतु मोतीचंद्र जी ने अजंता भित्ति चित्रों को "फ्रेस्को" कहा है, जो उचित नहीं है, क्योंकि फ्रेस्को को चूने के गीले प्लास्तर पर किया जाता है, जबकि अजंता में चूने के प्लास्तर का प्रयोग नहीं है, इसमें रंगों की परत स्पष्ट दिखाई देती है।"(3)
फ्रेस्को चित्रण विधि के प्रकार:-
(अ) फ्रेस्को बूनो शुद्ध भित्ति चित्र (fresco buono painting):-
"आराइशी चित्रण फ्रेस्को शब्द लेटिन भाषा के "फ्रेश" शब्द से बना जिसका अर्थ ताजा प्लास्तर था। फ्रेस्को (बहुवचन फ्रेस्को या फ्रेस्को) भित्ति चित्र बनाने की एक तकनीकी है जिसे ताजा बिछाए गए ("गीले") चूने के प्लास्टर पर बनाया जाता है जिसे फ्रेस्को बुनो कहा जाता है।"(4) यह नामकरण 14 वीं शताब्दी के पूर्वाध्द 1390 ई. में पीसा स्थित कैम्पों व आरविदो के भित्ति चित्रों के निर्माण से हुआ। इटली में इससे पूर्व फ्रेस्को सेको का प्रचलन था। राजस्थान में इसी प्रणाली को आराइशी चित्रों के नाम से संबोधित किया जाने लगा। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्रों में आराइश को "पणा" शब्द से संबोधित किया गया है|
(ब) फ्रेस्को सेको (fresco Secco Painting):-
"इस विधि में भित्ति को उपरोक्त विधि से ही तैयार करके उसके पूर्ण रूप से सूखने के बाद चित्रण किया हुआ कार्य फ्रेस्को सैकों की श्रेणी में आता है इनके रंगों में माध्यम हेतु गोंद, सरेस, अंडे की जर्दी को प्रयोग में लिया जाता है। यह फ्रेस्को बुनो से कम स्थाई होता है।"(5) किंतु वर्तमान समय में म्यूरल कला के धरातल को लेकर कलाकार द्वारा नये-नये प्रयोग किया जा रहे हैं जैसे-टाइल्स, टेराकोटा, सीमेंट, कंक्रीट, पत्थर, पेपरमेशी, बालू, लोहा, प्लास्टिक, एल्युमिनियम, स्टील, फाइबर, ग्लास, मोजैक, लकड़ी, कांच आदि माध्यमों से म्यूरल बनाए जाते हैं।
राजस्थानी आराइश और इटालियन फ्रेस्को बूनो पद्धति:-
फ्रेस्को पेंटिंग अथवा भित्ति चित्र दीवार पर सीधी की गई चित्रकारी को कहते हैं। इस गीली भित्ति चित्रण की दो पद्धतियाँ प्रचलित है। "पहली भारतीय तथा दूसरी इतालवी हैं। इतालवी यूरोप पद्धति में भित्ति चित्रण हेतु किसी भित्ति पर धरातल निर्माण की प्रक्रिया जिसमें एक भाग गीले में दो भाग साफ बालू मिलाकर दीवार पर प्लास्तर चढ़ाते हैं। इस प्लास्तर पर जो की नम अथवा गीला होता है। उस पर रेखांकन करके रंग भर दिए जाते हैं। इसमें विशेष कर जल टेंपरा रंगों का प्रयोग किया जाता हैं। इस विधि में प्लास्तर अथवा धरातल नम होने के कारण रंग प्लास्तर में समा जाते हैं और स्थाई रूप से पक्के हो जाते हैं। इस विधि में प्लास्तर को हटाए बिना चित्र को नहीं मिटाया जा सकता हैं। इस विधि का प्रयोग इटली यूरोप में 15वीं- 16वीं शताब्दी तक विशेष प्रकार का अरिच्चीयों प्लास्टर चढ़ाया जाता हैं। इस प्लास्तर पर चित्र का रेखांकन किया जाता है। अब इसके ऊपर उतने ही हिस्से में पुन: प्लास्तर चढ़ाया जाता है जितना की एक दिन में चित्रण हो सके। इसे इन्तोनाको कहते हैं। इस पद्धति में चित्र का निर्माण एक साथ न होकर के इसे विभिन्न भागों में विभाजित करके किया जाता है। रासायनिक धातु अथवा खनिज रंगों के अतिरिक्त अन्य रंगों का प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि धरातल अन्य माध्यमों को पूर्णतया समाहित नहीं कर पता हैं।"(6)
भारतीय पद्धति का सर्वाधिक प्रचलन जयपुर (राजस्थान) में किया जाता है। इस पद्धति में चुने को शोधित करने की विधि में दही, छाछ तथा गुड़ आदि का प्रयोग किया जाता है। इटली की विधि में इस प्रकार का शोधन कार्य नहीं होता हैं। "इटली के चित्रकारों द्वारा रंगों की परत बहुत पतली लगाई जाती है तथा चूने को सफेद रंग की भांति प्रयुक्त करने के कारण सूखने पर रंगों में हल्कापन आ जाता है। राजस्थानी भित्ति चित्रों में रंग मोटे व अपारदर्शक होते हैं। चित्रों में रंगों की परत की ठुकाई व घिसाई होने के कारण उसमें अत्यधिक ओप (चमक) आ जाती है। इटली के चित्र राजस्थानी चित्र की तुलना में इतने चमकदार नहीं होते हैं।"(7)
राजस्थानी आराइश (आलागीला) की चित्रण विधि:-
राजस्थानी आराइश पद्धति के चित्र निर्माण की सर्वप्रमुख विशेषता उसके चित्र सतह को सफलतापूर्वक तैयार करने में निहित है, जिसे तैयार करने के लिए अनेक आवश्यक व आधारभूत नियमों का ज्ञान और अभ्यास नितांत आवश्यक है, यथा:-
दीवार की उपयुक्तता और टिकाऊपन की पहचान प्लास्तर के मसालों का उपयुक्त प्रयोग एवं आनुपातिक ज्ञान। कार्य करने का उपाय अर्थात दीवार को कितना भिगोना, मसालों की कोटिंग लगाना और कितने अंतर बाद उचित रंगों का चयन और उन्हें तैयार करने की विधि का ज्ञान।
आराइश पद्धति का चित्र धरातल (जमीन) तैयार करना:-
जिस दीवार पर चित्र बनाना हो उसकी उचित जांच करने के उपरांत सर्वप्रथम दीवार की टंचाई की जाती है, इस क्रिया से दीवार समतल हो जाती है तथा कुछ खुरदरी भी जिस के बाद में लगाये जाने वाला प्लास्तर दीवार में अच्छी तरह से चिपक जाता है। "टंचाई के बाद दीवार को भली-भाँति साफ किया जाता है और तराई भी। अच्छी तराई के कारण दीवार में मसाले के प्लास्तर को सोकने व चिपकाने की शक्ति आ जाती है। प्रथम चरण में चूने तथा बजरी के एक व तीन के अनुपात के मसाले को दीवार पर लगाया जाता है, इसे राजस्थानी में सरेसी करना कहते हैं।"(8) "पहली वाली परत पर प्लास्तर की एक और पतली परत लगाई जाती थी और पहले की तरह कुटाई जारी रहती थी। प्लास्तर सामान्यता एक या चौथाई इंच तक मोटा होता था। समतल करने के बाद दीवार को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता था।"(9)
जिससे दीवार पर समान मोटाई का प्लास्तर हो जाए तथा ठोस भी, दीवार पर सरेसी के उपरांत द्वितीय चरण में, कली तथा संगमरमर के चूर्ण (झीकी) के मिश्रण का एक व तीन का अनुपात होता है, से की जाती है, इसे पानी के छींटे देकर लकड़ी के बटकड़े से रगड़ा जाता है, जिससे मसाले दीवार पर समान रूप से फैल जाये। इसे धीरे-धीरे लकड़ी की थापी द्वारा ठोका जाता है, जिससे प्लास्तर ठोस व वायुरोधक बन जाता है। अब दीवार सूखने के लिए कुछ दिन छोड़ दिया जाता है। कुछ दिन सूखने के उपरांत दीवार पर कड़ा किया जाता है। "कड़ा करने से पूर्व दीवार की भली-भाँति तराई कर लेनी चाहिए। उपरोक्त विधि से तैयार किए गए पेस्ट तथा झीकी को एक व तीन के अनुपात में मिलाकर जमीन (दीवार की सतह जिस पर चित्र बनाना है) पर लगाये तथा उसे पत्थर के झावे से (एक प्रकार का पत्थर का घिसा हुआ टुकड़ा जो लकड़ी के बटकडे के समान होता है) रगड़ते हैं। फलस्वरूप जमीन पहले से अधिक मजबूत, समतल और चिकनी हो जाती है।"(10) तीसरे तथा अंतिम चरण में शुद्ध लेप किया जाता है इसके अंतर्गत अब केवल विशेष प्रकार के शोधित चूने के घोल या पेस्ट (उपरोक्त वर्णित विधि के द्वारा तैयार करके) को जमीन पर तीन या चार बार लगाया जाता है तथा अकीक पत्थर की बूटी से घोटते जाते हैं। इस प्रकार जमीन दर्पण के समान चिकनी और चमकदार हो जाती है। चित्र आरंभ करने से पूर्व रेखाचित्र के उतने हिस्से को जितने को एक बैठक में पूरा कर सकें, दीवार पर उतार ले, इसके लिए चित्र को सुई की सहायता से छेद लेते हैं और उसे दीवार पर फैलाकर हिरमिच या कोयले का पाउडर को कपड़े की पोटली बनाकर उस पर झाड़ देते हैं। इसमें छिद्रों में से छनकर हिरमिच या कोयले के पाउडर जमीन पर आ जायेगा और इस प्रकार चित्र की ट्रेसिंग हो जाती है। इसको किसी रंग के द्वारा रेखांकन करने के उपरांत अपेक्षित रंग चित्र में भरते हैं। इन रंगों में शुद्ध लेप (लेप विशेष विधि से तैयार किया गया घोल) को अल्प मात्रा में सभी रंगों में मिला लेना चाहिये, चूँकि यह रासायनिक प्रक्रिया के आधार पर चिपकाने वाले माध्यम का कार्य करता है। रंगों को उचित समय पर नैले की सहायता से धीरे-धीरे ठोकना चाहिये, जिससे रंग प्लास्तर के अंदर प्रवेश कर जाये और सतह समान और चमकीली हो जाये। ऐसा न हो कि जल्दी में चित्र का कोई हिस्सा बिना ठुका रह जाये अन्यथा उस स्थान का रंग ऊभरा हुआ और अस्थाई रहेगा और न ही उस स्थान पर चमक आ पायेगी।
"रंगो को समान रुप से बैठाने के उपरांत आवश्यक त्रुटिरहित व रेखांकन किया जाता है (रेखाओं को भी नैले की सहायता से ठोकते हैं अब चित्र पर एक मुलायम कपड़े से जिस पर कोई रंग लगा नहीं हो, यदि लगा है तो उस रंग अथवा रेखा को पुनः ठोड़ते हैं। इससे चित्र की पूर्ण परीक्षा व त्रुटिपूर्ति हो जाती है।) इसके उपरांत गोले के सफ़ेद हिस्से को पानी में घिसकर हाथों से मसल लेते हैं और हल्के से हाथों को चित्र पर फेरते हैं इससे गोले की चिकनाई चित्र सतह पर लग जाती है। इसके उपरांत अकीक पत्थर से चित्र को धीरे-धीरे घोटते हैं। इससे चित्र में मोती के समान चमक आ जाती है। चित्र पूरा करने के बाद छूटी हुई शेष जमीन की चमक को खुरचकर छोड़ देते हैं, जिससे चित्र के दूसरे हिस्से को पूरा करते समय जमीन तैयार करने में कठिनाई न आये अन्यथा सूखने के बाद यह जमीन तैयार करने में बाधक होगी।
दूसरे दिन कार्य करते समय मसाला कड़ा व शुद्ध लेप इस प्रकाश लगाये कि जोड़ डाटे दिखाई न दे और फिर उपरोक्त विधि के अनुसार चित्र के हिस्से को पूरा करते हैं। चित्र मे क्रमबद्धता, रंगों का सामंजस्य व रेखाओं का प्रवाह व क्रम न टूटे और न ही जोड़ का आभास हो, यह चित्रकार की अपनी योग्यता व दक्षता का परिचायक है।"(11)
आराइश पद्धति के चित्रों में प्रथम श्रेणी के रंगों में मिट्टी व पत्थर के रंगों, धातु के शोधित रंगों का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा रंग चूने के साथ रासायनिक क्रिया के प्रभाव से उड़ जायेगा, उपयुक्त रंगों में रामरज (यलो ओकर), हिरमिच व गेरू (रेड ओकर), हरा भाटा (टेटावर्ट), नील (इंडिगो), तिल्ली का तेल, काजल अथवा कोयले का बारीक पाउडर तथा कली आदि ऐसे रंग है, जो चूने के साथ रासायनिक क्रिया के उपरांत भी अपनी आभा व रंग को नही खो पाते। दूसरी श्रेणी के रंगों में पेवड़ी, हिंगुल, सिंदूर, लाजवर्द व सुनहरी रंग भी प्रयोग में लाए जाते हैं किंतु इनका परिणाम इतना स्थाई सुखद व संतोषप्रद नहीं होता जितना कि उपरोक्त प्रथम श्रेणी के रंगों का होता है। ये रंग वास्तव में टेंपरा पद्धति के लिए ही उपयुक्त है।
"आराइश पद्धति में प्रयोग किए जाने वाले रंगों को तैयार करना भी काफी श्रमसाध्य है। रंग पदार्थ को आवश्यकतानुसार कूटा, पीसा व घिसा जाता है तथा पानी में घोल दिया जाता है, कई बार छानने, निथारने के बाद शुद्ध रंगो के घोल से अघुलनशील तत्व गंदगी को अलग कर एक बड़े बर्तन में रखकर काफी दिन तक सुखाया जाता है। इससे रंग के घोल का पानी सूख जाता है और बर्तन की तली में शुद्ध रंग के गाढे पदार्थ को टिकिया के रूप में अथवा गीली अवस्था में सुरक्षित रखा जाता है। इस प्रकार इन रंगों को आराइश पद्धति के चित्रांकन में प्रयुक्त किया जाता है, किंतु टेंपरा पद्धति के चित्रों में इन रंगों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के रासायनिक व सिंथेटिक रंगों का भी भरपूर प्रयोग संभव है।"(12)
आराइश चित्रों की प्रयोजन एवं परंपरा:-
मनुष्य स्वभावत: "अपने भावों को दूसरों के समक्ष अभिव्यक्त करना चाहता है तथा अभिव्यक्ति के लिए माध्यम ढूंढता है। चित्रों के माध्यम द्वारा वह अपने भावों को सुगमता से व्यक्त कर सकता है। प्राचीन काल में धार्मिक भावों को व्यक्त करने में इसका उपयोग किया जाता था।"(13) किन्तु अब मनुष्य अपने भाव को चित्र के अलावा भी मूर्ति, म्यूरल, संगीत, संस्थापन, काव्य तथा डिजिटल कला द्वारा अपने भावों को व्यक्त कर सकता है।
आराइश चित्रण विधि (फ्रेस्को विधि) की परंपरा:-
"भारतीय भित्ति चित्रण परंपरा आदि काल से चली आ रही है। लेकिन इस चित्रण परंपरा का पूर्ण विकसित रूप दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से दृष्टिगोचर होता है। भारत में बौद्ध कला की महान विरासत भित्ति चित्रों के रूप में सुरक्षित है। भारतीय भित्ति चित्रों की अपनी एक अलग परंपरा है। भारतीय चित्रकला के उज्ज्वल इतिहास की शुरुआत भित्ति चित्रों से ही होती है। विश्व में ये चित्र सर्वोच्च हैं। मध्ययुगीन भारत में जितना भी कला निर्माण हुआ, उनमें भी इतनी सर्वागीणता एवं इतना स्वाभाविक अभिव्यंजन न आ सका। चित्रों के निर्माण क्षेत्र में नि:संदेह ही मुगलों मे अनूठी निपुणता थी। किंतु भारतीय भित्ति-चित्रों की तुलना में भी वे न्यून थे। बौद्ध कालीन महान थाती के समृद्ध कला केंद्र अजंता, बाघ, बादामी, सितनवासल एवं सिगिरिया की गुफाओं की भित्ति चित्र हैं।"(14)
विकास:-
"भारतीय चित्रकला में भित्ति चित्रों का विकास पूर्ण रूप से अजंता के भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है। दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा अजंता के भित्ति चित्रों में बौद्ध कला पूर्ण रूप से विकसित हुई अजंता के भित्ति चित्रों में बौद्ध धर्म के जीवन पर आधारित जातक कथाओं को बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नारी के प्रति सहानुभूति और श्रद्धा अजंता से बढ़कर कहीं और भी समर्पित हो गई है कहा नहीं जा सकता। वास्तविकता की परिधि के भीतर भी हम यहां नारी का दर्शन एक व्यापक आदर्श के रूप में करते हैं।"(15)
यह आज के मानव विशेषत: कलाकारों के लिए गर्व की बात है कि उस समय ही मानव ने रंगों को लगाने की दृढ़ तकनीक खोज निकाली थी, जो आज हजारों साल तक जीवित रह सके। जिस प्रकार आदिमानव सीधे चट्टानों पर चित्रण कार्य करता था उसी प्रकार आज भी कलाकार जब मकान तैयार हो जाता है तो उसकी दीवार पर सीधे चित्रण कार्य करता है। यद्यपि इस हेतु वह आदिमानव की तरह रंगों को पशु चर्बी में मिलाकर या सिर्फ प्राकृतिक रंगों का प्रयोग नहीं करते वह आज के आधुनिक रंगों का प्रयोग करते हैं।
आराइश चित्रण विधि के नष्ट होने के कारण:-
"वर्तमान समय में आराइश पद्धति के चित्रों का अस्तित्व खतरे में हैं इनकी समय-समय पर सफाई नही होती है। धूल, मिट्टी आदि इन पर चिपकी रहती है। बरसात का पानी, स्थापत्य पर सीलन आदि के कारण से भित्ति चित्र खराब हो रहें हैं छोटे बच्चे इन्हें नादानी से नष्ट कर रहे हैं। स्थापत्य में बिजली इत्यादि की फिटिंग करने आए व्यक्तियों की असावधानी के कारण ये नष्ट हो रहे हैं। समाज की भित्ति चित्रों के रख-रखाव में रूचि कम होती जा रही है। इनके संरक्षण तथा रख-रखाव पर होने वाला अधिक व्यय भी इन भित्ति चित्रों के नष्ट होने का एक प्रमुख कारण है अतः आज इन भित्ति चित्रों के संरक्षण तथा रख-रखाव हेतु उपाय करने की अत्यन्त आवश्यकता है।"(16)
आराइश चित्रण विधि का संरक्षण व बचाव के उपाय:-
स्थापत्य पर बने आराइश पद्धति के चित्रों को नष्ट होने से बचाने तथा उनकी सजीवता बनाए रखने के लिए उनके संरक्षण, जनता को उनकी उपयोगिता समझाने तथा समय-समय पर उनकी क्षतिपूर्ति एवं रख-रखाव की आवश्यकता है-
"हवेली मालिकों को अपनी हवेलियाँ बेचने से बचना चाहिए। यदि किसी कारण से बेचने की आवश्यकता पडती है तो विक्रय पत्र में यह शर्त अवश्य रखवाए कि क्रेता हवेली में बने आराइश चित्रों का रख-रखाव करेगा। स्थापत्य पर बने आराइश चित्रों को समय-समय पर कपड़े या बप से साफ करते रहना चाहिए ताकि मिट्टी एवं धूल के कण हट जायें दीवारों से मकड़ी के जालों को हटाना चाहिए। स्थापत्य के भवनों में यह ध्यान रखना चाहिए कि पक्षी अपना घौंसलें इनमें न बनाये स्थापत्य की मरम्मत के समय यदि कोई छींटा भित्ति चित्र पर गिरे तो उसे भित्ति चित्रों पर से तुरंत सावधानीपूर्वक साफ कर देना चाहिए। भित्ति चित्रों को वर्षा के पानी से तथा स्थापत्य को सीम से बचाना चाहिए। स्थापत्य पर बिजली फिटिंग तथा अन्य किसी भी प्रकार की फिटिंग करते समय ध्यान रखना चाहिए कि भित्ति चित्र नष्ट या खराब न हो। स्थापत्य के भित्ति चित्रों को छोटे बच्चों से बचाना चाहिए ताकि वे नादानी में इन भित्ति चित्रों को क्षति नहीं पंहुचाए। समय-समय पर कुशल कारीगरों से इन भित्ति चित्रों की क्षतिपूर्ति करवाते रहना चाहिए।"(17)
महत्व:-
कला, मानवमात्र की रचनात्मक शक्ति के सौंदर्य की सत्य में अभिव्यक्ति है। मानव की किसी रचनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति मानव मात्र के लिए आकर्षण रहती है। मानव की रचनात्मक शक्ति अपने और प्रकृति के बीच हुई या अपने स्वजातीय के प्रति उत्पन्न भावना के अनुभवों से उसके सम्मुख आती है। साथ में यही कला सभी संकुचित क्षेत्रों में संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव मात्र के बीच आत्मीयता का विकास करती हैं। कला मानव की उन भावनाओं के स्रोतों से उत्पन्न होती हैं। जहां किसी प्रकार की मलिनता नहीं होती।
कला के इतिहास का व्यापक परिशीलन करने पर स्पष्ट होता हैं कि समाज में हुए वैचारिक परिवर्तनों का कला के स्वरूप पर भी परोक्ष या अपरोक्ष प्रभाव पड़ा है। इसके साथ ही यह भी दिखाई देता हैं कि मानव के सामाजिक व सांस्कृतिक विकास में कला की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कला के बिना मानव जाति के सर्वांगीण विकास की कल्पना संभव नहीं है। अतः कला व समाज के पारंपरिक संबंधों की कल्पना नहीं की जा सकती है, कला में नैसर्गिक शक्ति रही है, जो आधुनिक युग में बिगड़ते हुए समाज को सुधार सकती है, क्योंकि कला एवं साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। इस तरह हम देख सकते हैं कि सामाजिक विकास में समकालीन कलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
निष्कर्ष : समस्त आराइश चित्रों की विषयवस्तु सामग्री, रंग-व्यवस्था, भित्ति चित्रण तकनीक आदि को जानने के बाद यह लगता है कि भारत में मुख्यतः भित्ति चित्रण की दो तकनीक प्रचलित रही है। पहली टेम्परा या फ्रेस्को सेको तथा दूसरी फ्रेस्को बूनो, जो विशेषतः राजस्थानी, जयपुर फ्रेस्को तकनीक ही रही हैं। टेम्परा में यद्यपि सामग्रियों के विविध प्रयोगों तथा तकनीकों की विविधता के दर्शन होते हैं तथापि वे सब टेम्परा तकनीक के अन्तर्गत ही रखी जा सकती हैं। फ्रेस्को बूनो में भी यही बात जानने को मिलती है। फ्रेस्को बूनो में जयपुर विधि तथा उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों का प्रयोग तो होता ही था, सम्भवतः इटालियन तकनीक के प्रभाव के कारण यहाँ इटालियन तकनीक में प्रयुक्त होने वाली सामग्री को भी देखा जा सकता है। किंतु बाघ गुफा में बालू, चूने का प्रयोग होने के कारण हम इसे इटालियन तकनीक का प्रभाव नहीं मान सकते, क्योंकि यह इटालियन प्रभाव के भारत में आने से काफी पहले की निर्मित गुफा है। प्रागैतिहासिक कालीन गुफा चित्रों के जीवित उदाहरणों को आज देखने से यह पता चलता है कि इतने हजार वर्ष बीत जाने के बाद ये चित्र आज भी अपने अस्तित्व को समेटे अपने काल की परम्परा संस्कृति तथा उस समय की मानव सभ्यता, उनके रहन-सहन, उनके क्रिया-कलापों आदि का विवरण प्रस्तुत करती हैं। जिनकी जानकारी हमें उस समय के विविध चित्रित विषयों को देखने से प्राप्त होती है।
यद्यपि उस समय के चित्र आज के चित्रों की तरह चटख रंगों, विविध विषयों तथा तकनीकों से बने नहीं होते, तथापि उस समय उपलब्ध सामग्रियों द्वारा बने ये चित्र तत्कालीन मानव सभ्यता का पूर्णतया बखान करते हैं। हालांकि उस समय तो मानव को भाषा का ज्ञान भी नहीं था, तब यह कला उनकी अभिव्यक्ति का एक साधन थी। उस समय मानव ने विषयों के रूप में आखेट, अपने दैनिक क्रियाकलापों, पूजा-पाठ, मनोरंजन आदि को चित्रित किया।
जिसमें वह प्रकृति से डर कर भी कई प्रतीकात्मक रूपों में प्रकृति को चित्रित कर पूजा करता था। जैसे- सूरज, चाँद आदि। उस समय की उसकी चित्रण तकनीक में वह हाथ की ऊँगलियों द्वारा, घास की तूलिका द्वारा रंग को फूंककर लगाकर चित्रण कार्य करता था। वह सीधे ही चट्टान पर बिना किसी प्लास्तर के प्रयोग के प्राकृतिक रंगों को पशु चर्बी से घोलकर लगाता था। उस समय मानव भाषा का ज्ञान भी नहीं कर पाया था, तो ऐसे समय में कला के सीमित साधनों द्वारा ऐसा चित्रण करना, जो आज हजारों साल बाद भी अपना स्थान बनाये हुये है। यह आज के मानव विशेषतः कलाकारों के लिए बहुत गर्व की बात है कि उस समय ही मानव ने रंगों को लगाने की एक दृढ़ तकनीक खोज निकाली थी, जो हजारों साल तक जीवित रह सके।
जिस प्रकार आदि मानव सीधे चट्टान पर चित्रण कार्य करता था। उसी प्रकार आज भी कलाकार जब मकान तैयार करता हैं तो उसकी दीवार पर ही सीधे चित्रण कार्य करता है। यद्यपि इस हेतु वह आदि मानव की तरह रंगों को पशु चर्बी में मिलाकर या सिर्फ प्राकृतिक रंगों को प्रयोग नहीं करते वह आज के आधुनिक रंगों का भी प्रयोग करते हैं।
1. वर्मा, डॉ. नाथूलाल: राजस्थानी चित्र शैली की विभिन्न चित्रण विधियां, प्रथम संस्करण, प्रकाशक राज पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, 2009, पृ. 63-64
एक टिप्पणी भेजें